Mar 28, 2009

विरह में हास्य कवितायेँ लिखता हूँ- (हास्य-व्यंग्य)

व्यंग्य कवि उस दिन एक पार्क में घूम रहा था तो उसकी पुरानी प्रेमिका सामने आकर खडी हो गयी। पहले तो वह उसे पहचाना ही नहीं क्योंकि वह अब खाते-पीते घर के लग रही थी और जब वह उसके साथ तथाकथित प्यार (जिसे अलग होते समय प्रेमिका ने दोस्ती कहा था) करता था तब वह दुबली पतली थी। ब्लोगर ने जब उसे पहचाना तो सोच में पड़ गया इससे पहले वह कुछ बोलता उसने कहा-''क्या बात पहचान नहीं रहे हो? किसी चिंता में पड़े हुए हो? क्या घर पर झगडा कर आये हो?"
''नहीं!कुछ लिखने की सोच रहा हूँ।''व्यंग्य कवि ने कहा।

''मुझे पता है कि तुम हमेशा कुछ न कुछ पर लिखते हो। मेरे प्यार ने तुमको कवि बना दिया था. एक उस दिन तुम्हारी पत्नी से भेंट एक महिला सम्मेलन में हुई थी तब उसने बताया था। मैंने उसे यह नहीं बताया कि हम दोनों एक दूसरे को जानते है।वह चहकते हुए बोली-''क्या लिखते हो? मेरी विरह में कवितायेँ न! यकीनन बहुत हिट होतीं होंगीं।'
व्यंग्य कवि ने सहमते हुए कहा-''नहीं हिट तो नहीं होतीं फ्लॉप हो जातीं हैं। वैसे अब मैं श्रृंगार रस में लिखने वाला कवि नहीं रहा बल्कि हास्य कवि बन गया हूँ और विरह में व्यंग्य और हास्य कवितायेँ लिखता हूँ. दूसरी बात यह है मैं तुम्हारी याद में नहीं बल्कि वह अपनी दूसरी प्रेमिका की याद में श्रंगार रस से लबालब कवितायेँ लिखता हूँ।''
''धोखेबाज! मेरे बाद दूसरी से भी प्यार किया था। अच्छा कौन थी वह? वह मुझसे अधिक सुन्दर थी।''उसने घूरकर पूछा।
''नहीं। वह तुमसे अधिक खूबसूरत थी, और इस समय अधिक भी ही होगी। वह अब मेरी पत्नी है। व्यंग्य कवि ने धीरे से उत्तर दिया।
प्रेमिका हंसी-''पर तुम्हारा तो उससे मिलन हो गया न! फिर उसकी विरह में क्यों लिखते हो?'
''पहले प्रेमिका थी, और अब पत्नी बन गयी पर उसके प्रेम में कभी कभी श्रृंगार रस से डूबी कवितायेँ लिखता हूँ,''व्यंग्य कवि ने कहा।
पुरानी प्रेमिका ने पूछा -''अच्छा! मेरे विरह में क्या लिखते हो?"
''हास्य कवितायेँ लिखता हूँ।" व्यंग्य कवि ने डरते हुए कहा।

''क्या"-वह गुस्से में बोली-''मुझ पर हास्य लिखते हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की। वरना तुम तो मेरे को बदनाम कर देते। आज तो मेरा मूड खराब हो गया। इतने सालों बाद तुमसे मिली तो खुशी हुई पर तुमने मुझ पर हास्य कवितायेँ लिखीं। ऐसा क्या है मुझमें जो तुम यह सब लिखते हो?'
व्यंग्य कवि सहमते हुए बोला-"मैंने देखा की एक दिन तुम्हारे पति का उस दिन कार के शोरूम पर झगडा हो रहा था जहाँ से उसने वह खरीदी थी। कार का दरवाजा टूटा हुआ था और तुम्हारा पति उससे झगडा कर रहा था। मालिक उसे कह रहा था कि''साहब। कार बेचते समय ही मैंने आपको बताया था कि दरवाजे की साईज क्या है और आपने इसमें इससे अधिक कमर वाले किसी हाथी रुपी इंसान को बिठाया है जिससे उसके निकलने पर यह टूट गया है और हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। तुम्हारा पति कह रहा था कि'उसमें तो केवल हम पति-पत्नी ने ही सवारी की है', तुम्हारे पति की कमर देखकर मैं समझ गया कि...............वहाँ मुझे हंसी आ गई और हास्य कविता निकल पडी। तब से लेकर अब जब तुम्हारी याद आती है तब......अब मैं और क्या कहूं?''
वह बिफर गयी और बोली-''तुमने मेरा मूड खराब किया। मेरा ब्लड प्रेशर वैसे ही बढा रहता है। डाक्टर ने सलाह दी कि तुम पार्क वगैरह में घूमा करो। अब तो मुझे यहाँ आना भी बंद करना पडेगा। अब मैं तो चली।"
व्यंग्य कवि पीछे से बोला-''तुम यहाँ आती रहना। मैं तो आज ही आया हूँ। मेरा घर दूर है रोज यहाँ नहीं आता। आज कोई व्यंग्य का आइडिया ढूंढ रहा था, और तुम्हारी यह खुराक साल भर के लिए काफी है। जब जरूरत होगी तब ही आऊँगा।''
वह उसे गुस्से में देखती चली गयी। व्यंग्य कवि सोचने लगा-''अच्छा ही हुआ कि मैंने इसे यह नहीं बताया कि इस पर मैं उसकी विरह में बड़े हास्य व्यंग्य भी लिखता हूँ। नहीं तो और ज्यादा गुस्सा करती।''
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Mar 16, 2009

जब शब्द हो जाता है शय-व्यंग्य कविता

दर्पण हो पूरे समाज का ऐसा साहित्य लिखता कौन है।
इनामों के ढेर बंटते हैं, ढेर की तरह खड़े शब्दों का अर्थ मौन है।।

कहानी, कविता, व्यंग्य और निबंध में छाये हैं वही चरित्र
बाजार में छाये हैं जिनके चेहरे, पर उनसे ऊबता कौन है।।

भड़के हुए लगते हैं शब्द, पर अर्थ है समझ से परे
बाजार में जो बिका वही हुआ प्रसिद्ध, घर में रहा वह मौन है।।

तौल तौल कर लिखना, बोल बोलकर का खुद ही बड़ा दिखना
बिकने के लिये लगी गुलामी की दौड़, आजादी चाहता कौन है।।

फिर भी यह सच है कि बाजार में बिका आखिर सड़ जाता है
जब शब्द हो जाता शय, उसका भाव हो जाता मौन है।।

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Mar 8, 2009

चमन में कांटो की भीड़ भी होती-व्यंग्य कविता

इश्क एक इबादत होता
गर उसमें खता और बेवफाई नहीं होती।
पर उनके बिना नीयत की
आजमायश भी कैसे होती।
जब इश्क जुनून बन जाता है
तब दुनियांदारी का इल्म नहीं होता
पर महबूब के कदम चलना तो
इस जमीन पर ही हैं
जहां फूलों से खिले
चमन में कांटों की भीड़ भी होती।
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औरत की आजादी का हक
मांगते हैं शादी की बेडि़यों में।
मांस को नौचने की बजाय
सहलाने की बात करते हैं भेडि़यों में।
रस्म रिवाज से दूर रहने का देते फतवा
नये जमाने को नारों से कर लिया अगवा
आदमी को शेर से बकरा बनाने का सपना
औरत का हथियार बनाकर
दुनियां में चला रहे सिक्का अपना
तरक्की पसंदों की बात कौन समझ पाया
पुरानी रस्में उन्हें कभी नहीं भाती
पर शादी की कसमें निभाने की याद आती
सोचते आगे और देखते हैं पीछे
आसमान से करते नफरत, ताकते हैं नीचे
दिमाग दौड़ाते आगे, ख्याल बांध कर बेडि़यों में।

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Mar 1, 2009

दवाईयों की सेल का पता नहीं बताया-हास्य व्यंग्य कविता

‘सेल में जाकर खरीदने का शौक
एक बहुत बड़ा मनोरोग है’
डाक्टर ने महिला को बताया
दवाईयों का पर्चा भी हाथ में थमाया

बिना दवा लिये महिला घर लौटी
पति के पूछने पर बताया
‘डाक्टर भी कैसा अनपढ़ और अनगढ़ था
भला एक दिन में भी कोई
बीमारी दूर होती है
मैंने रास्ते भर छान मारा
दवाईयों की दुकानें तो बहुत थीं
पर सेल का बोर्ड कहीं नजर नहीं आया
आप ही जाकर पता करना
सेल में दवायें कहां मिलती हैं
तो खुद ही ले आऊंगी
आप दुकान से ले आये या सेल से
यकीन नहीं कर पाऊंगी
उसके यहां भीड़ बहुत थी
पर सेल कहीं नहीं लिखा था
अधिक मरीजों को कारण
उसकी अस्पताल का माहौल वैसा ही दिखा था
बीमारी देखी और दवाई लिख दी
पर दवाईयों की सेल का पता नहीं बताया

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