Mar 25, 2011

दिल में अमेरिका-व्यंग्य चिंत्तन (america in heart-hindi satire thought)

विश्व का तीसरे नंबर का अमीर और अमेरिका का नागरिक अगर भारत में आकर यहां के धनपतियों को दानवीर होने का संदेश देता है तो यह बात भारत के अध्यात्मिक दर्शन का जिसके पास थोड़ा बहुत भी ज्ञान है उसके लिये मायने अधिक नहीं रखती मगर जिनके जीवन का आधार ही केवल अंग्रेजी भाषा, संस्कृति और विचार हैं और जो मानते हैं कि भारत विदेशियों के आने से पहले असभ्य नागरिकों का निवास था। इतना ही नहीं ऐसे लोग तो अपने पूर्वजों की आलोचना करने से नहीं झिझकते बल्कि अवसर मिले तो अपने जीते जागते बुजुर्गों को भी पुराने फैशन का मानने लगते हैं। उनके हृदय का स्वामी अमेरिका है तो दिमाग में वहां के नागरिकों की छवि विश्व के सबसे सभ्य लोगों की है। अमेरिकी विश्वसनीय, सभ्य और साथ निभाने वाले हैं। भारत में जिसके पास अमेरिका से कोई उपाधि नहीं है और न ही अंग्रेजी आती है वह अप्रतिभाशाली है। मूल बात यह है कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने देश के लोगों की बुद्धि हर ली है तो डालर, पौंड और मुद्रा पाने के मोह ने इतना डरपोक बना दिया है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को शिक्षा पद्धति में शामिल करना ही उनको सांप्रदायिकता की संगत करना लगता है। समाज, प्रचार, शिक्षा, पत्रकारिता, फिल्म और साहित्य के शिखरों पर स्थापित प्रतिष्ठित लोग अज्ञान के अंधेरे में इस कदर गुम हैं कि एक अमीर अमेरिकी नागरिक उनको जब दानवीर होने का उपदेश देता है तो उसकी प्रचार माध्यमों में ऐसे चर्चा होती है जैसे कोई नवीनतम विचार सामने आया हो।
कभी कभी भारत में कुछ लोग कहते हैं कि ‘अंग्रेज चले गये पर औलाद छोड़ गये।’ सच बात तो यह है कि यह उन अंग्रेजों के लिये नहीं कही जाती जो अपने शासकों के जाने के बाद भी यहां से नहीं गये। वह यहीं भारत में रह गये और अब उनके बच्चे यहीं के बाशिंदे हैं। यह वाक्य केवल उन लोगों के लिये कहा जाता है जो अंग्रेजी भाषा और संस्कृति और सभ्यता में रचबसकर यहीं रहते हुए अंग्रेजों की तरह सभ्य दिखना चाहते हैं। खाते हिन्दी का और बजाते अंग्रेजी का हैं। आजादी के शुरुआती दौर में शायद ही किसी ने इस बात की कल्पना की होगी कि किस तरह अंग्रेेजी भाषा और संस्कृति कैसे देश के समाज को खत्म कर रही है पर यह सामने आने लगा है। अब तो ऐसा लगता है कि शुद्ध हिन्दी बोली बोलने या लिखने वालों की संख्या भी बहुत कम रह गयी है। अखबार और पत्रिकओं में देवनागरी भाषा में अंग्रेजी शब्द लिखे मिलते हैं तो ऐसे लोग भी है जो कहते हैं कि रोमनलिपि में हिंदी को लिखा जाना चाहिए।
अमेरिकी अमीर का भारतीय अमीरों को दानवीर होने का संदेश देना इस बात का प्रमाण है कि उसे भारतीय अमीरों के स्वार्थी होने का आभास है। वह मानता है कि यहां के अमीर केवल जनता का शोषण करना ही व्यापार समझते हैं। दरअसल हमारे अध्यात्मिक दर्शन में धनियों को समाज का जिम्मा लेने के लिये कहा जाता है। उनको गरीबों पर दया तथा जरूरतमंदों पर दान करने के लिये कहा जाता है। श्रीमद्भागवत गीता में निष्प्रयोजन दया करने की बात कही है। अन्य धर्मग्रंथों में यह यह दान भी सुपात्र को देने के लिये कहा गया है। अगर हम देखें तो हमारे यहां दान पुण्य के कार्यक्रंम भी बहुत होते हैं। इसके बावजूद देश की गरीबी मिटती नहीं, शोषण है कि बढ़ता ही जा रहा है और टूट रही सामाजिक व्यवस्था विकास के छद्म चेहरे लगाकर सुंदर दिखने की कोशिश कर रही है।
भारत से बाहर भी अनेक संत लोग धर्म प्रचार के लिये जाते हैं कई लोगों ने तो अपने आश्रम भी अमेरिका और ब्रिटेन में बना लिये ताकि देश के लोग उनके विदेशी प्रभाव के कारण सम्मािनत करते रहे पर लगता नहीं कि वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का परचम अमेरिका में फहरा पाये। अगर ऐसा करते तो एक अमेरिकन आकर ऐसी बात नहीं कहता। भारत में राष्ट्रीय स्तर के अमीरों की स्थिति यह है कि वह फिल्म, क्रिकेट और धर्म प्रचार के प्रसंगों में समाज सेवा के लिये रूप में अपना छवि बनाने के लिये टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा दिखाते रहते हैं। उनको समाचार पत्रों में अपने प्रभाव की चर्चा बहुत अच्छी लगती है। प्रादेशिक और स्थानीय स्तर के अमीर कुछ स्वास्थ्य शिविर तथा तो कुछ भगवतकथा कराकर अपनी छवि लगाते हैं। वह स्वयं खर्च करते हैं कि चंदे की जुगाड़ करते हैं यह पता नहीं पर इतना तय है कि उनके प्रयोजन निरुद्देश्य नहीं होते। मतलब धर्म का काम होता है वह भी दिखाने के लिये।
समाज की स्थिति यह है कि यहां भगवान श्रीराम और कृष्ण को मानने वाले बहुत हैं पर उनके ज्ञान की समझ कितनों में है यह अलग से विचार का विषय है। इतना तय है कि अगर किसी भक्त की तपस्या से प्रभावित होकर भगवान राम या श्रीकृष्ण यहां साक्षात प्रकट भी हों तो वह उनसे कहेगा कि ‘भगवान, यहां तपस्या जरूर कर रहा हूं पर मेरा दिल अमेरिका में बसता है। अगर आप सच्चे हैं तो मुझे पहले अमेरिका पठाईये फिर आकर वहां दर्शन दीजिये तब तो आपका मानूंगा।’
कभी कभी तो लगता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अगर अमेरिका में लीला की होती तो शायद उनको मानने वाले भारत में ज्यादा ही होते। कम से कम ऐसा न होता तो महाभारत का युद्ध ही अमेरिका में हुआ होता तो श्रीमद्भागवत गीता का तत्व ज्ञान वहीं प्रस्तुत किया जाता। यकीन मानिए तब उसकी चर्चा भारत में घर घर में होती। यह मजाक की बातें हैं पर सच यही है कि भारतीय समाज श्रीमद्भागवत् गीता से भागता है और इस पर उसे शर्मं भी नहीं आती। कम से कम धनपतियों में तो आत्म सम्मान जैसी कोई चीज नहीं है। उनमें यह भाव संभव नहीं है आत्मविश्वास केवल अपना दायित्व निर्वाह करने वालों में ही आता है और भारतीय धनपतियों ने समाज के प्रति अपने दायित्व से मुंह मोड़ लिया है और यही वजह है कि एक अमेरिकन अमीर उनको दानवीर होने का उपदेश दे रहा है। हमें उस अमेरिकन अमीर की सद्भावना देखकर प्रसन्नता होती है पर शर्म नहीं आती क्योकि हम अमीर नहीं है और जो यहां अमीर है उनके दिल में तो अमेरिका बसता है। संभव उस अमेरिका देवता का संदेश यहां के अमीर सुन लें और दया और दान का मार्ग चुने। हालांकि यह दूर की कौड़ी वाली बात लगती है।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Mar 18, 2011

विश्वास की सलाह-हिन्दी शायरी (vishvas ki salah-hindi shayari or poem)

रोज खाते हैं धोखा
फिर भी विश्वास किये जाते हैं,
क्या करें
चारों तरफ घिरे हैं ऐसे इंसानी जिस्मों से
कागज के दाम लेकर
पत्थर के बुत की तरह चलते हैं
इसलिये किराये पर लिये जाते हैं।
बिना विश्वास के इंसान नहीं रह सकता जिंदा
यह इबारत लिखी है सामने
इसी सलाह पर हम भी जिये जाते हैं।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Mar 3, 2011

शिक्षा के नाम पर दैहिक शोषण रोकना आवश्यक-हिन्दी लेख (sex scandal in medical college and indian woman-hindi lekh)

जबलपुर के मेडिकल कॉलिज में छात्राओं के  देह शोषण का प्रकरण सामने आना मध्यप्रदेश ही वरन् पूरे भारत देश के लिये शर्म की बात है। अगर हम समाचारों का अब तक का प्रवाह देखें तो लगता है कि ऐसा प्रकरण बहुत समय से चल रहा था। यह तो गनीमत है कि एक छात्रा ने अपनी वरिष्ठ छात्रा की पास होने के लिये अपनी देह कामपिपासुओं के आगे समर्पण करने की सलाह को अनदेखा कर सभी के सामने मामला उजागर कर दिया। इसका मतलब यह है कि ऐसी कई लाचार छात्रायें शायद समझौते के दौर से गुजर चुकी हैं। समाचारों की विवेचना करें तो ऐसी लड़कियों को ही इसका शिकार बनाया जाता था जिनके बारे में यह माना जाता था कि वह दृढ़ता नहीं दिखा पायेंगी या शक्तिशाली परिवार की रहती होंगी।
देश के नारीवादियों का यह रोना रहता है कि देश की महिलायें अपने ऊपर होने वाले घरेलू अत्याचारों से लड़ने के लिये आगे नहीं आती। वह पुरुष का अत्याचार धर्म, जाति और सामाजिक संस्कारों के नाम पर झेलती हैं। वह यह भी कहते हैं कि अपनी आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा के लिये देश की नारियां व्यर्थ ही अपने घर के पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। हम इस प्रकारण में देखें तो पायेंगे कि बाहर भी ऐसे भेड़िये कम नहंी हैं जो लड़कियों को आकर्षक भविष्य बनाने का आश्वासन देकर उनका दैहिक शोषण करना चाहते हैं। अधिकतर नारीवादी विचारक प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े हैं। उनको भारतीय समाज के पारिवारिक तथा सामाजिक संस्कारों से आपत्ति हैं। दोनों का सारा जोर इस बात पर रहता है कि नारी के लिये सारे काम राज्य करे और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था किसी तरह ध्वस्त हो। जब कहीं कथित धार्मिक संस्थानों में सैक्स स्कैंडल या देह शोषण की बात आती है तो यही विचारक भारतीय समाज व्यवस्था के दोषों का बखान करते नहीं चूकते। जब शैक्षणिक, व्यापारिक, साहित्यक, कला तथा कथित समाज सेवी संस्थाओं में ऐसे प्रकरण उठते हैं तो उनकी जुबान तालू से चिपक जाती है। उनसे यह कहते नहीं बनता कि पश्चिमी विचाराधाराओं से ओतप्रोत लोग भी नारी की देह का शोषण करने से बाज नहंी आते।
इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश में स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी। कहने को भले ही कुछ लोग कहते हैं कि आज़ादी के बाद देश में स्थिति अच्छी हुई है पर ऐसा लगता नहीं है। उल्टे पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करते हुए जो नारियां आगे हो गयी हैं उनका घर के बाहर अधिक शोषण हो रहा है। कभी कभी तो लगता है कि पश्चिम आधारित व्यवस्था के समर्थक चाहते रहे हैं कि उनके शैक्षणिक, साहित्य, कला, तथा समाज सेवा के संस्थानों का आकर्षण बना रहे जिससे घर के बाहर आने वाली युवा नारियों का शोषण वह स्वयं या उनके शिष्य कर सकें। कम से कम इससे नारियों के घरेलू शोषण के आरोप से तो समाज मुक्त हो जायेगा और पश्चिम जैसा शोषण होने पर कोई विदेशी आपत्ति भी नहीं करेगा। भारत में विज्ञान के विकास की बात बहुत की जाती है पर उसका दुष्परिणाम लिंग परीक्षण के बाद कन्या भ्रुण हत्या के रूप में सामने आ रहा है मतलब हमारा विकास भी नारियों के लिये अकल्याणकारी प्रवृतियां समाज में लाया है।
जहां तक नारियों के शोषण की बात है तो कोई देश इससे मुक्त नहीं है। सदियों से यह चल रहा है। भारत के संदर्भ में प्रचार अधिक किया जाता है पर समस्या के मूल तत्व कोई नहीं देखता। मुख्य बात यह है कि यहां अनेक लोगों को विशिष्ट अधिकार दिये गये हैं। परीक्षा पास करना एक ऐसी शर्त है जिसमें परीक्षक भगवान बन जाता है। कहीं नौकरी देने वाला प्रबंधक महान बन जाता है। कहीं प्रोफेसर साहित्य सेवा के नाम पर छात्राओं को बरगलाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि स्त्री के दैहिक शोषण के स्वरूप का विस्तार हुआ है, कम नहीं हुई। इसका कारण यह है कि मनुष्य की सोच समय के साथ नहीं बदली पाश्चात्य सभ्यता और विचार तो वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, लालच और अहंकार को बढ़ाती है, कम कदापि नहीं करती। उल्टे कभी कभी तो लगता है कि विवाहेत्तर संबंध और विवाह पूर्व संबंधों को सहज मान लेने का संदेश भी उनमें शामिल है। मनुष्य के अंदर काम का विकार तो वैसे ही अधिक रहता है और खुलेपन और विकास की बात करते हुए वह अधिक बढ़ जाता है क्योंकि पश्चिमी व्यवस्था ऐसे अवसर अधिक प्रदान करती है। मनुष्य मन के अंदर काम के विकार का इलाज देशी व्यवस्था और दर्शन नहीं कर सका जिसके पास नियंत्रण की बहुत बड़ी शक्ति है तो पश्चिमी व्यवस्था और दर्शन से आशा कैसे की जाये-खासतौर से तब जब भारतीय अध्यात्मिक शक्ति को एकदम भुला दिया गया है। यह अलग बात है कि इसी भारतीय अध्यात्मिक शक्ति की वजह से ही कुछ नारियां हैं जो खुलेआम मोर्चा खोल देती हैं जैसे कि जबलपुर की उस छात्रा ने प्रकरण को उजागर करके किया। उसकी प्रशंसा की जानी चाहिये।
आखिरी बात यह है कि देश की शिक्षा व्यवस्था को परीक्षाओं से अलग व्यवहारिक अनुभव से जोड़ा जाना चाहिए। कक्षाओं को शिक्षा नहीं प्रशिक्षण के लिये चलायें। प्रमाणपत्रों देने की बजाय अनुभव को आधार बनाकर उनको नौकरी दी जानी चाहिए। सही काम न करने पर बाहर का रास्ता दिखायें। आखिर कोई इंजीनियरिंग, विज्ञान या अन्य तकनीकी किताबें पढ़ रहा है तो उसकी परीक्षा की क्या जरूरत? खुले में अनुभव की जांच करके छात्र को आगे जाने का अवसर दिया जा सकता है। नौकरी के लिये भी विभिन्न विभागों में पाठ्यक्रम के अनुसार ही नियुक्तियां होना चाहिए। यह क्या कि विज्ञान के छात्र से लेखा का काम ले रहे हैं। हां, परीक्षा को लेकर गुरु द्रोणाचार्य ने जो कौरवों और पांडवों की परीक्षा ली थी उसका हवाला न ही दें तो अच्छा! वह खुले में ली गयी थी न कि उसकी कापियां किसी परीक्षक के पास भेजी गयी थी। अगर छात्रों के लिये यह व्यवस्था लागू न करें तो कम से कम छात्राओं के लिये इस व्यवस्था को अपनायें।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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