Dec 27, 2013

आम आदमी और जाम आदमी-हिन्दी हास्य व्यंग्य(aam admi aur jaam aadmi-hindi hasya vyangya-hindi hasya vyangya or hindi satire on comman man)



            हमारे देश में आम आदमी होना कभी गौरव की बात समझी नहीं जाती। कोई कितना भी अच्छा  लेखक, कवि, या चित्रकार हो अगर उसके नाम के समक्ष कोई पद, पदवी या प्रकाशन नहीं है तो उसे समाज में आम आदमी ही माना जाता है। अगर वह कहीं अपने रचनाकर्म की बात करे तो उससे  सवाल यही किया जाता है कितुम उसके अलावा क्या करते हो?’
            हमारे समाज की यह वास्तविकता है कि वह राजकीय छवि की ही प्रशंसा करता है।  भगवान श्रीराम राजपद पर बैठे थे उनका राज्य काल इतना प्रशंसनीय रहा कि लोग आज भी उसे याद करते हैं पर जिन बाल्मीकी महर्षि ने उन पर बृहइ  ग्रंथ की रचना के माध्यम से उनको  भगवान के रूप में समाज के सामने प्रतिष्ठत किया उन्हें  कभीं भगवान का दर्जा नहीं मिला।  जिन महर्षि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण को भगवत् पर पद प्रतिष्ठत करने के साथ ही श्रीगीता के संदेशों का इस तरह स्थापित किया कि पूरा विश्व उनको मानता है मगर व्यासजी समाज  पूज्यनीय तो बने पर प्रेरक नहीं। कोई व्यक्ति बाल्मीक या वेदव्यास जैसी रचना करने की  दूर यह बात सोच भी नहीं सकता।  जो आम जीवन जी रहा है वह खास बनने के लिये हमेशा बेताब रहता है।
            आम आदमी का भला करना हैका नारा लगाते हुए अनेक लोग खास बन गये। इतने खास कि उन्हें अब आम आदमी की कतार होने का भय लगता है।  उस दिन एक प्रदेश के राज्यमंत्री का समाचार देखा। वह अब चाय बेचता है।  अपना दर्द बयान कर रहा था।  आम से खास बने लोगों के लिये उसके समाचार  डरावना हो सकते हैं। 
            खास आदमी अपना स्तर बनाये रखने के लिये भारी जद्दोजेहद करता है। इसमें उसे आम से खास बनने से अधिक मेहनत करना होती है। 
            बहरहाल अपने दीपक बापू आजकल भारी परेशानी में है।  स्वयं को आम आदमी कहकर अभी तक अपने फ्लाप होने के आरोप से छिपते फिर रहे थे। अब यह मुश्किल हो गया है।
            उस दिन वह एक किराने की दुकान पर गये। वहां से सौ ग्राम शक्कर खरीदी और अपने घर चल दिये। हालांकि उन्होंने शक्कर खरीदने के लिये  अपने घर से पांच किलोमीटर दूर की दुकान चुनी थी ताकि कोई जान पहचान वाला न देख ले। अभी तक समाज में उनकी  छवि मध्य वर्गीय मानी जाती थी,  पर महंगाई ने उनको निम्न वर्ग में पहुंचा दिया था। यह सच्चाई कोई जान न ले इस कारण दीपक बापू किराने का सामान दूर से ही खरीदते हैं।  मगर उनका दुर्भाग्य भी पीछा नहंीं छोड़ता। वह शक्कर खरीद कर पलटे नहीं कि एक कार उनके पास आकर रुकी। आलोचक महाराज उसमें से निकले। बोले-‘‘कार खाली जा रही है। चलो घर तक छोड़ देता हूं। तुम मुझे पांच रुपये दे देना।
            कंगाली में आटा  गीला। चार रुपये की शक्कर खरीदी थी और पांच रुपये का किराया देना पड़े यह दीपक बापू को मंजूर नहीं था। बहरहाल हास्य कवि-भले ही फ्लाप हो-यह सहन नहीं कर सकता कि कोई उसे इस तरह जलील करे। बोले-‘‘नहीं, मै तो पैदल घर से निकला हूं। मुझें अपनी सेहत बनाये रखनी है।
            आलोचक महाराज हंसे-‘‘तुम्हारी सेहत में ऐसा क्या है जिसे बनाये रखना है।  एकदम दुबले पतले कीकट रखे हो। हमें देखो कितने मोटे ताजे हैं।  तुम्हारे पास अभी पांच रुपये नहीं हों तो बाद में दे देना। इतना उधार तो तुम पर रख ही सकता हूं।
            दीपक बापू बोले-नहीं आप जाईये। मेरे पास पांच रुपये का छुट्टा नहीं है।’’
            आलोचक महाराज बोले-‘‘छुट्टा नहीं है, या हैं ही नहीं! जहां तक मेरा अनुमान है कि तुम्हारी जेब में दस दस रुपये के चार, नहीं हो सकता है कि तीन, नहीं नही मुझे लगता है कि  एक दस के नोट से अधिक नहीं हो सकता।  इधर तुम्हारी हास्य कवितायें छोटी पत्रिकाओं में छपती हैं वहां से पैसा मिलता ही नही है।  इधर उधर टाईप कर कमाने का तुम्हारा धंधा भी अब कंप्यूटर की वजह से कम हो गया है।
            दीपक बापू हंसे-‘‘बोले आप हंस लीजिये।  आप को तो बड़े बड़े लोगों का संरक्षण मिला हुआ है। हम तो आम आदमी हैं, ऐसे ही फटेहाल ही ठीक हैं।’’
            इसी बीच दुकानदार को किसी दूसरे ग्राहक को देने के लिये खुले पैसे चाहिये थे। वह दीपक बापू के पास आया और बोला-साहब आपके पास दस रुपये के खुले होंगे। आपने अभी सौ ग्राम शक्कर खरीदी थी। मैंने सोचा आपके पास जरूर खुले पैसे होंगे। मुझे दूसरे ग्राहक को देने हैं।’’
            दीपक बापू चिढ़कर बोले-‘‘नहीं है! जाओ यहां से!
             उसके दूर होते ही आलोचक महाराज कृत्रिम आश्चर्य से बोले-‘‘आम आदमी! तब तो तुमसे डरना पड़ेगा। अरे, तुम्हें मालुम नहीं है आजकल आम आदमी के नाम से बड़ों बड़ों को पसीना आता है।  आम आदमी नाम का एक संगठन जलवे दिखा रहा है। तुम अगर आम आदमी होते तो यहां सौ ग्राम शक्कर खरीदने पांच किलोमीटर चलकर नहीं आते। यह दुकानदार खुद ही सौ ग्राम की बजाय एक किलो शक्कर देने घर आता।’’
            दीपक बोले-एक तो आप हमारी कवितायें छपने के लिये किसी बड़े पत्र या पत्रिका के संपादक से सिफारिश नहीं करते। अब हमारे आम आदमी होने का उपहास तो न उड़ायें जिस पर हम अपनी हास्य कवितायें लिखते हैं।
            आलोचक महाराज बोले-‘‘तुम अब स्वयं को आम आदमी नहीं जाम आदमी कहा करो। तुमने सुना है कि यह बात आम जाम है।  आम आदमी शब्द तो आम की तरह मीठा हो गया है। अपने को आप आदमी कहने से पहले  दमखम रखना वरना.......कहीं तुमने आम आदमी होने का दावा किया और प्रमाणित नहीं कर सके तो कोई मार मारकर जाम आदमी बना देगा।’’
            दीपक बापू बोले-‘‘महाराज, यही तो हमारे पास एक पदवी थी इसे भी अगर आप खास लोग छीन लेंगे तो बचा ही क्या?’’
            आलोचक महाराज बोले-‘‘भईये देख लो! हम तो तुम्हें आम आदमी नहीं जाम आदमी ही कहेंगे। आम आदमी तो विकास पथर पर चलता है, तुम जाम आदमी की तरह खड़े हो। दूसरी बात अपनी हास्य कविताओं में अब आम आदमी के दर्द पर रोना नहीं क्योंकि अब वह योद्धाओं की पहचान बन गया है।’’
            दीपक बापू   सोचने की मुद्रा में बोले-मगर जाम आदमी शब्द भी नहीं चल पायेगा।  ऐसा करते हैं सामान्य आदमी शब्द चल जायेगा।
            आलोचक महाराज ने पहले आकाश में देखते हुए बोले-देखो भई, आम इंसान शब्द थोड़ा ठंडा है। हास्य कविताओं में नहीं चल पायेगा। जाम आदमी जमेगा।’’
            दीपक बापू बोले-‘‘महाराज आप छोड़ें। आम आदमी शब्द आपको ले जाना है तो ले जायें रहा हमारी हास्य कविताओं के प्रभाव का सवाल! आप परेशान न हों! हमारी हास्य कवितायें आपकी सिफारिश चाहे न पायें पर उनका प्रभाव शब्दों की वजह से हमेशा रहेगा।  हम आम इंसान से ही काम चला लेंगे।
            आलोचक महाराज गुस्से में कार के अंदर चले गये। दीपक बापू परेशान हाल घर की तरफ चल पड़े। सौ ग्राम शक्कर खरीदने की पोल से अधिक उनको इस बात की चिंता थी कि आम आदमी शब्द उनकी लेखनी से दूर जा रहा था।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Dec 12, 2013

लोकतंत्र के गीत-हिन्दी व्यंग्य कविता(loktantra ke geet-hindi vyangya kavita or satire poem)

लोकतंत्र में ईमानदार होने से ज्यादा
दिखना जरूरी है,
वादे करते जाओ,
दावे जताते जाओ,
भले ही यकीन से उनकी दूरी हो।
कहें दीपक बापू
सत्ता का रास्ता चुनाव से जाता है,
लोगों को शब्दों के जाल में फंसना  भाता है,
चल रहा है देश भगवान भरोसे,
इंसानों को कोई क्यों कोसे,
दिल में भले ही कुर्सी के मचलता हो,
दिमाग में अपना घर भरने का विचार पलता हो,
सादगी दिखाओ ऐसी
जिसमें चालाकी भरी पूरी हो।
गरीब का भला न कर पाओ,
पर नित उसके गीत गाओ,
चाहे जुबान की जो मजबूरी हो।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Dec 1, 2013

अंतर्जालीय जनसंपर्क(सोशल मीडिया) के अधिक प्रभावी होने का भ्रम न पालें-हिन्दी संपादकीय (social media in not powerful in hindi language than TV and news paper in india-hindi editorial)



            अंतर्जाल पर सामाजिक संपर्क जिसे हम सोशल मीडिया कह रहे हैं उसके प्रभावों पर इस समय देश में बहस चल रही है।  कुछ लोग यह मानते हैं कि देश की सामाजिक, राजनीतिक तथा वैचारिक स्थिति पर इसका अधिक प्रभाव है तो कुछ इसे नहीं मान रहे।  हमारा मानना है कि यह कथित सोशल मीडिया वास्तव में एक ऐसी आभासी दुनियां है जिसके बारे में अनुमान ही किया जा सकता है।  एक तथ्यात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत करना कठिन काम है। 
            यह लेखक पिछले आठ वर्ष से लिख रहा है पर सच्चाई यह है कि इसका नाम अपने मोहल्ले के बाहर भी एक ब्लॉग लेखक के रूप में कोई नहीं जानता। पहचानना तो दूर की बात है किसी एक व्यक्ति से इसके माध्यम से भौतिक संपर्क तक नहीं हो पाया। कथित रूप से अनेक मित्र बने पर जैसे जैसे खुलासे हो रहे हैं उससे साफ साफ लगता है कि अंतर्जाल कंपनियों ने अपनी अपनी माया जिस तरह रची है उससे ख्वामख्वाह में अपने प्रसिद्ध होने का भ्रम पाल लिया था।  यह भ्रम भी उन मित्रों की ही देन थी जो अत्यंत भावपूर्ण रूप से टिप्पणियां देते थे।  हमारा मानना है कि कोई आठ ऐसे लोग रहे होंगे (जिनके नाम हमारे एक स्थानीय अखबार में छपे थे जो हमें अब याद नहीं हैं) जो हिन्दी भाषा के विशारद थे और वह पेशेवराना अंदाज में संगठित बाज़ार को भविष्य के लिये जमीन प्रदान कर रहे थे।  उनकी प्रतिभा यकीनन असंदिग्ध रही है। इनमें भी कम से कम एक आदमी ऐसा है जो हमें हार्दिक भाव से चाहता रहा होगा। वह कई नाम से आता होगा और यकीनन अपनी टिप्पणी में अपना वास्तविक नाम नहीं लिखता होगा। वह महिला भी हो सकती है, क्योंकि आभासी दुनियां में कुछ भी कहना कठिन है।
            हमने अंतर्जाल पर केवल अपनी रचनात्मकता स्वयं को दिखाने का लक्ष्य रखकर प्रारंभ किया पर कथित मित्र अच्छे अदाकर भी थे इसलिये उन्होंने हमारे सामने अनेक उत्सुकतायें पैदा कीं। अगर हम पत्रकार नहीं रहे होते तो जल्दी उन पर यकीन कर लेते। हमें  यह जल्द समझ में आ भी गया कि इस तरह की आत्मीयता के पीछे कुछ राज है। इशारों में हमने अपनी बात कह भी डाली और उसके बाद हमारी यह आभासी दुनियां एकदम समाप्त हो गयी।  इससे हमें राहत मिली कि हमें कोई पढ़ता नहीं है क्योंकि ऐसे में विवादों में पड़ने का भय नहीं रहता।   अंतर्जाल पर प्रकाशित पाठों से पता चलता है कि देश के कुछ अखबारों में प्रकाशित अनेक लेखों में प्रतिष्ठत हिन्दी ब्लॉगरों के नाम  होते हैं पर हमारा नाम नहीं मिलता।   सीधी बात कहें तो हम आज भी वहीं है जहां आठ वर्ष पहले थे।  कथित मित्रों के पाठ अब भी देखते हैं उसमें अपना नाम तक नहीं होता।  लोग यह न सोचें कि हम इससे निराश हैं क्योंकि हमें पता था कि हमें कुछ पेशेवर लोग केवल हिन्दी में अंतर्जाल पर अधिक से अधिक हिन्दी लिखने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये हमसे मित्रता का स्वांग कर रहे हैं।  हम स्थानीय अखबार में छपे नामों को इसलिये भी याद नहीं रख पाये क्योंकि उनमें से कोई भी अपनी वास्तविक छवि के साथ नहीं था।  वह आठ लोग पता नहीं कितने नामों से पाठ और टिप्पणियां लिखते रहे थे। उस समय ऐसा लगता है कि सैंकड़ों ब्लॉगर होंगे पर ऐसा था नहीं। वह न केवल अच्छे लेखक थे पर अच्छे अदाकार भी थे। उनके अनेक पाठ ऐसे थे जो उनकी प्रतिभा का प्रमाण थे।  वह बेहतर ढंग एक ही समय में मित्र और विरोधी की भूमिका निभा लेते थे।  कोई कह नहीं सकता कि एक समय में एक व्यक्ति इस तरह दोहरी भूमिका निभा सकता है। बहरहाल उन्होंने हमसे पीछा छुड़ाया तो हमें भी तसल्ली हुई। एक बात तय रही कि इन आठों में कोई भी ऐसा नहीं था जो हम जैसा स्वतंत्र चिंत्तन रखता हो।  यह सभी कहीं न कहीं देश में प्रचलित राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, तथा कला क्षेत्रों में बंटे समाज में अपने समूहों के प्रतिनिधि थे।  हम विशुद्ध रूप से भारतीय अध्यात्मिक विचाराधारा की तरफ उस समय तक मुड़ चुके थे। सच्ची बात यह कि हमने अंतर्जाल पर लिखते हुए अपने अंदर एक दृढ़ वैचारिक ढांचे का निर्माण किया।  इस उपलब्धि ने हमें इतना मजबूत बनाया कि हमें साफ लगने लगा कि जिस राह पर हम हैं वह किसी हमराही के मिलने की संभावना नगण्य रहेगी। सत्य स्वीकार करने के साथ ही मनुष्य में दृढ़ता का भाव आता है यह हमारी इस यात्रा से निकाला गया निष्कर्ष है।
            इस अनुभव के कारण हमने यह भी निष्कर्ष निकाला कि अगर आठ वर्ष से लिखते हुए जो अंतर्जाल हमें एक अंतरंग मित्र या स्थाई पाठक न दिला सका तो वह किसी के लिये फलीभूत नहीं हो सकता। अलबत्ता यहां काम करने पेशेवर लोग किसी के सामने किसी भी तरह की आभासी दुनियां खड़ी कर सकते हैं।  यह अलग बात है कि उनकी आभासी दुनियां के साथ कुछ सत्य जुड़ जाता है पर उसका प्रतिशत कितना होगा इसका विश्लेषण करना बाकी है।  इस समय चुनावों पर सोशल मीडिया के जिस प्रभाव का उल्लेख किया जा रहा है उसका अधिक आंकलन हमें सशंकित करता है। यह पेशेवर लोग हिन्दी भाषी क्षेत्रों में किसी के लिये प्रचार कर सकते हैं पर उन्हीं व्यक्तित्वों का जो परंपरागत प्रचार माध्यमों में-टीवी और समाचार पत्र-पहले से ही स्थापित हैं। इनमें यह शक्ति नहीं है कि अंतर्जाल पर सक्रिय व्यक्ति को इन माध्यमों में स्थापित कर सकें। यह संगठित बाज़ार और प्रचार समूहों के पिछलग्गू हो सकते हैं पर कोई स्वतंत्र मार्ग निर्मित नहीं कर सकते। आठ वर्ष लिखते रहने के बाद हमारा कोई नाम नहीं लेता इससे अफसोस नहीं होता क्योंकि हमें पता है कि हिन्दी भाषा के स्थापित समूहों ने ही यहां कब्जा किया है और जो हमें कभी पहचानने का प्रयास नहीं करेंगे।  वह परंपरागत समूहों और व्यक्तियों के अनुयायी होकर यहां आये हैं कि किसी स्वतंत्र हिन्दी लेखन समाज का निर्माण करना उनका लक्ष्य है। एक पेशेवर को जिस तरह के तौर तरीके आजमाने चाहिये वही वह कर रहे हैं।  वह धन कमायें हमें बुरा नहीं लगता पर अगर वह समाज में कोई नवीन परिवर्तन का स्वप्न दिखायें तो उनको चुनौती देने का मन हमारा भी करता है।  हमने पहले भी लिखा कि जिस तरह स्थापित हिन्दी भाषी प्रकाशनों का रवैया रहा है कि वह किसी लेखक को उभारते नहीं वरन् उभरे हुए किसी हिन्दी क्षेत्र के अंग्रेंजी लेखक को हिन्दी में अनुवाद कर प्रकाशित कर अपनी कमाई  का लक्ष्य पूरा करना बेहतर समझते  हैं उसी तरह  अंतर्जाल पर भी रहने वाला है। एक सामान्य शुद्ध हिन्दी लेखक के लिये जिस तरह प्रबंध कौशल के अभाव में कहीं नाम और नामा कमाना कठिन है वैसा ही यहां भी है।  अलबत्ता हम जैसे स्वांत सुखाय लेखकों के लिये यह मजेदार है।  कहीं कुछ देखकर अपनी भड़ास यहां निकालना अपने आप में एक मनोरंजक काम लगता है।
            अपनी बात करते हुए हम इस बात को भूल ही गये कि समाज पर इस अंतर्जाल के प्रभाव की बात करना है। एक बात हम यहां यह भी बता दें कि देश के व्यवसायिक टीवी चैनल इससे बहुत डरे हुए होंगे।  वजह यह कि टीवी चैनल से ऊबे लोगों के लिये अंतर्जाल एक नये टॉनिक का काम करता है।  यहीं कारण है कि सभी टीवी चैनल इस तरह की सामग्री देते हैं है जिससे नयी पीढ़ी के लोग उसके साथ बने रहें। यही कारण है कि अनेक समाचार वह फिल्म की तरह पेश करते हैं।  एक ही समाचार पर सात दिन तक बहसें होती हैं। खासतौर से प्रतिष्ठित लोगों का कभी खराब समय आता है तो वह इन चैनलों के लिये कमाई का अवसर बन जाता है।  जिस दिन यह टीवी चैनल फार्म में होते हैं उस दिन हमारे ब्लॉग पिटते हैं और जिस दिन अपने ब्लॉग हिट देखते हैं तो पता लगता है कि टीवी चैनल कमजोर हैं।  सीधी बात कहें तो अभी भी टीवी चैनल और समाचार पत्र ताकतवर बने हुए हैं।  उन्होंने अपने प्रयासों से अंतर्जाल के प्रयोक्ता अपनी तरफ खींच लिये हैं।  दूसरी बात यह भी है कि अंतर्जाल हिन्दी भाषा से नये लेखक देने में नाकाम रहा है जिससे उसका मकड़जाल भी कमजोर रहा है।  अंतर्जाल पर पेशेवर लोग इस बात को समझ लें कि उनके पास एक भी ऐसा नाम नहीं है कि वह दावा कर सकें कि उन्होंने यहां किसी हिन्दी भाषी लेखक को उभारा। यह बात अंतर्जाल के प्रयोक्ताओं को निराश करने वाली है।  सबसे बड़ी बात यह कि हम उनके हिन्दी भाषी क्षेत्रों में उस तरह की पहुंच को मानते ही नहीं जैसा कि वह दावा करते है। कुछ विवाद सोशल मीडिया को लेकर खड़े हुए है पर हमारा मानना है कि यह केवल इस प्रचार के लिये हैं कि अंतर्जाल के प्रयोक्ता बने रहें। जिस तरह फेसबुक (facebook), ट्विटर(twitter) तथा ब्लॉग (blogger and wordpress blog) से मोहभंग होते लोगों को हम देख रहे हैं उससे तो यह लगता है कि यह आम उपयोग से बाहर होने वाला ही है। इसलिये किसी को भी सोशल मीडिया के अधिक शक्तिशाली होने का भ्रम नहीं पालना चाहिये। शेष अगले भाग में।


 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Nov 5, 2013

मंगल मिशन के लिये शुभकामनायें-हिन्दी संपादकीय(good wish for mangal mission-hindi editorial)



                        
        भारतीय वैज्ञानिक आज मंगल पर खोज के लिये एक अंतरिक्ष यान प्रेषित कर देश के लोगों का आत्मविश्वास बढ़ाया है| इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारतीय वैज्ञानिकों की प्रतिभा का सारा विश्व लोहा मानता है यह अलग बात है कि यहां पूरी सुविधायें न होने से अनेक लोग पलायन कर दूसरे देशों की सेवा करते हैं।  इतना ही नहीं भारतीय प्रचार माध्यम भी विदेशों में काम कर रहे  भारतीय मूल के वैज्ञानिकों का चमत्कृत करने वाला प्रचार करते है।  इससे भारतीय जनमानस के एक बहुत बड़े वर्ग में यह भाव होता है कि हमारे यहां तो विदेशों जैसा विकास हो ही नहीं सकता।  इतना ही नहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो किसी वैज्ञानिक उपलब्धि पर यह कहकर फब्ती कसता है कि ऐसे काम की बजाय देश के गरीबों पर पैसा खर्च किया जाता। यह संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण है कि अपने देश के वैज्ञानिकों का मनोबल बढ़ाने की बजाय घटाने का प्रयास किया जाये। जिस तरह देश में निराशा का  वातावरण है  उसमें भारतीय वैज्ञानिकेां ने मंगल पर जाने योग्य अंतरिक्ष यान का निर्माण कर लिया इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं।
                        जहां तक देश में व्याप्त समस्याओं की बात है तो वह कभी खत्म नहीं होंगी अलबत्ता उन्हें नियंत्रित करने के सरकारी प्रयास होते रहे हैं यही बात महत्वपूर्ण है।  अगर कुछ जनहितैषी विद्वान ऐसी उपलब्धियों की देश में व्याप्त समस्याओं की आड़ में खिल्ली उड़ाते हैं तो उन पर दया ही आती है। वह देश या राष्ट्र के बने रहने के सिद्धांतों को नहीं समझते।  अगर उनकी बात मान ली जाये तो राज्य केवल राजस्व वसूली करे और प्रजा में रोटियां बांटता फिरे।  न सेना की जरूरत न पुलिस की जरूरत, बस सभी तरह रोटियां बांटने वाले दफ्तर खुले होने चाहिये।  ऐसे लोगों के बयान हास्यास्पद होते है।
                        एक राष्ट्र के नियंत्रक को प्रजा का आत्मविश्वास तथा अन्य राष्ट्रों की प्रजा में अपनी छवि बनाये रखने का समान प्रयास करना चाहिये।  जहां तक वैज्ञानिक प्रतिभाओं की बात है तो भारत की छवि उज्जवल है। दूसरी बात यह कि भारत में गरीब अधिक संख्या में है पर यह गरीब देश नहीं कहा जा सकता। देश में कृषि, खनिज तथा वन संपदा का अकूत भंडार है।  समस्या आर्थिक असमान वितरण की है न कि पैसे की कमी की। ऐसा कौनसा देश हैं जहां सारे अमीर है। ढूंढने निकलें तो अमेरिका तक में गरीबी मिल जाती है।  गरीब के हित का ख्याल होना चाहिये पर इसका यह आशय कतई नहीं है कि उच्च तथा मध्यम वर्ग के लोगों के  आत्मविश्वास बढ़ाने पर पर ध्यान नहीं दें। इस तरह की उपलब्धियां उन लोगों को आत्मविश्वास बढ़ाती हैं, जो राष्ट्र निर्माण के साथ ही उसकी रक्षा के कार्य में तत्पर होते हैं। यह आत्मविश्वास राष्ट्र के लिये अप्रत्यक्ष रूप से फलदायी होता है।  अपने आत्मविश्वास से युवा वर्ग राष्ट्र को स्थिरता और विकास के मार्ग पर ले जाता है। यह ठीक है इससे उनको व्यक्तिगत लाभ होता है और राज्य का भी यही लक्ष्य होता है कि लोग आत्मनिर्भर बने।  प्रजा का निजी लाभ ही राज्य का लाभ होता है। जब हम राष्ट्र की बात करते हैं तो उच्च, मध्यम और गरीब तीनों वर्ग के लोग उसमें शमिल रहते हैं और राज्य का यह काम है कि वह सबका ध्यान रखे।  मंगल मिशन से देश का आत्मविश्वास बढ़ेगा उसके लाभों का रुपयों में आंकलन नहीं किया जा सकता।
                        बहरहाल यह मंगल मिशन कामयाब हो इससे हमें बहुत प्रसन्नता होगी।  देश के आर्थिक तथा वैज्ञानिक रणनीतिकारों ने इस प्रयास में  रुचि लेते हुए  इसमें सहमति दी इसके लिये वह भी बधाई के पात्र हैं।  इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे वैज्ञानिकों ने कुछ सोच समझकर ही यह मिशन तैयार किया होगा। इसके लिये वह बधाई के पात्र हैं। हमारी कामना है कि वह सफल हों।                   


 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Oct 21, 2013

ज्ञान से कीमती बड़ा खजाना कहां मिलेगा-हिन्दी व्यंग्य लेख(gyan se kimti bada khazana kahan milega-hindi vyangya lekh)



                        एक संत ने एक सपना देखा कि एक पुराने महल में पंद्रह फुट नीचे  एक हजार टन सोना-जो एक एक स्वर्गीय राजा का है जिसे अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था-दबा हुआ है।  उसने अपनी बात जैसे तैसे भारतीय पुरातत्व विभाग तक पहुंचायी।  पुरातत्व विभाग ने अपनी सांस्कृतिक खोज के तहत एक अभियान प्रारंभ किया।  पुरातत्वविद् मानते हैं कि उन्हें सोना नहीं मिलेगा। मिलेगा तो इतने बड़े पैमाने पर नहीं होगा।  अलबत्ता कोई प्राचीन खोज करने का लक्ष्य पूरा हो सकता है, यही सोचकर पुरातत्व विभाग का एक दल वहां खुदाई कर रहा है।
                        यही एक सामान्य कहानी अपने समझ में आयी पर सोना शब्द ही ऐसा है कि अच्छे खासे आदमी को बावला कर दे। सोने का खजाना ढूंढा जा रहा है, इस खबर ने प्रचार माध्यमों को अपने विज्ञापन प्रसारण के बीच सनसनीखेज सामग्री प्रसारण का वह  अवसर प्रदान किया है जिसकी तलाश उनको रहती है।  भारत में लोगों वेसे काम अधिक होने का बहाना करते हैं पर ऐसा कोई आदमी नहीं है जो टीवी पर खबरें देखने में वक्त खराब करते हुए  इस खबर में दिलचस्पी न ले रहा हो। व्यवसायिक निजी चैनलों ने भारतीय जनमानस में इस कदर अपनी पैठ बना ली है कि इसके माध्यम से कोई भी विषय सहजता से भारत के आम आदमी के लिये ज्ञेय बनाया जा सकता है।  इस पर खजाना वह भी सोने का, अनेक लोगों ने दांतों तले उंगली दबा रखी है। टीवी चैनलों ने लंबी चौड़ी बहसें चला रखी हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि संत ने सपना देखा है तो तय बात है कि बात धर्म से जुड़नी है और कुछ लोगों की आस्थायें इससे विचलित भी होनी है।  सोना निकला तो संत की वाह वाह नहीं हुई तो, यह बात अनेक धर्मभीरुओं को डरा रही है कि इससे धर्म बदनाम होगा।
                        कहा जाता है कि संत त्यागी हैं। यकीनन होंगे। मुश्किल यह है कि वह स्वयं कोई वार्तालाप नहीं करते और उनका शिष्य ही सभी के सामने दावे प्रस्तुत करने के साथ ही विरोध का प्रतिकार भी कर रहा है। इस पर एक टीवी पर चल रही बहस में एक अध्यात्मिक रुचि वाली संतवेशधारी महिला अत्यंत चिंतित दिखाई दीं। उन्हें लग रहा था कि यह एक अध्यात्मिक विषय नहीं है और इससे देश के भक्तों पर धर्म को लेकर ढेर सारा भ्रम पैदा होगा।
                        एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में कम से कम हमें तो इससे कोई खतरा नहीं लगता।  सच बात तो यह है कि अगर आप किसी को निष्काम कर्म का उपदेश दें तो वह नहीं समझेगा पर आप अगर किसी को बिना या कम परिश्रम से अधिक धन पाने का मार्ग बताओ तो वह गौर से सुनेगा।  हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं जिनके मन में यह विचार बचपन में पैदा होता है कि धर्म के सहारे समाज में सम्मान पाया जाये।  वह कुछ समय तक भारतीय ज्ञान ग्रंथों का पठन पाठन कर अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। थोड़े समय में उनको पता लग जाता है कि इससे बात बनेगी नहीं तब वह सांसरिक विषयों में भक्तों का मार्ग दर्शन करने लगते है। कुछ चमत्कार वगैरह कर शिष्यों को संग्रह करना शुरु करते हैं तो फिर उनका यह क्रम थमता नहीं।  अध्यात्मिक ज्ञान तो उनके लिये भूली भटकी बात हो जाती है।  लोग भी उसी संत के गुण गाते हैं जो सांसरिक विषयों में संकट पर उनकी सहायता करते हैं।  यहां हम एक अध्यात्मिक चिंतक के रूप में बता दें कि ऐसे संतों के प्रति हमारे मन में कोई दुर्भाव नहीं है। आखिर इस विश्व में आर्त और अर्थाथी भाव के भक्तों को संभालने वाला भी तो कोई चाहिये न! जिज्ञासुओं को कोई एक गुरु समझा नहीं सकता और ज्ञानियों के लिये श्रीमद्भागवत गीता से बड़ा कोई गुरु होता नहीं। आर्ती और अर्थार्थी भक्तों की संख्या इस संसार में सर्वाधिक होती है। केवल भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में धर्म के ठेकेदारों का यही लक्ष्य होते है। केवल भारतीय धर्म हीं नहीं बल्कि विदेशों में पनपे धर्म भी इन ठेकेदारों के चमत्कारों से समर्थन पाते हैं। जब अंधविश्वास की बात करें तो भारत ही नहीं पूरे विश्व में ऐसी स्थिति है।  जिन्हें यकीन न हो वह हॉलीवुड की फिल्में देख लें। जिन्होंने भूतों और अंतरिक्ष प्राणियों पर ढेर सारी फिल्में बनायी हैं। दुनियां के बर्बाद होने के अनेक संकट उसमें दिखाये जाते हैं जिनसे नायक बचा लेता है। ऐसे संकट कभी प्रत्यक्ष में कभी आते दिखते नहीं।
                        हम संतों पर कोई आक्षेप नहीं करते पर सच बात यह है कि जब वह सांसरिक विषय में लिप्त होते हैं तो उनका कुछ पाने का स्वार्थ न भी हो पर मुफ्त के प्रचार का शिकार होने का आरोप तो उन पर लगता ही है। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान साधक स्पष्टतः उनकी छवि को संदेह की नजरों से देखने लगते है।  विदेशी लोग भारत के बारे में कह करते थे  कि यहां हर डाल पर सोने की चिड़िया रहती है।  जब हम मार्ग में गेेंहूं के खेत लहलहाते देखते हैं तो लगता है कि यहां खड़ी फसलें देखकर ही उन्होंने ऐसा कहा होगा।  हो सकता है यह हमारा पूर्वाग्रह हो क्योंकि हमें गेंहूं की रोटी ही ज्यादा पसंद है।  उससे भूख शांत होती है। दूसरी बात यह भी है कि सेोने से कोई अधिक लगाव नहीं रहा।  गेंहूं की रोटी लंबे समय तक पेट में रहती है और दिल में संतोष होता है। संतोषी आदमी को सोना नहीं सुहाता।  मुश्किल यह है कि सोना प्रत्यक्ष पेट नहीं भर पाता।
                        कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने। भारत में सोने की कोई खदान हो इसकी जानकारी हमें नहीं है।  सोना दक्षिण अफ्रीका में पैदा होता है।  तय बात है कि सदियों से यह विदेश से आयातित होता रहा है।  सोना यहां से दूर रहा है इसलिये भारत के लोग उसके दीवाने रहे हैं।  जिस गेंहूं से पेट भरता है वह उनके लिये तुच्छ है।  एक हजार टन सोना कभी किसी राजा के पास रहा हो इस पर यकीन करना भी कठिन है। हीरे जवाहरात की बात समझ में आती है क्योंकि उनके उद्गम स्थल भारत में हैं।  अनेक प्राचीन ग्रंथों में स्वर्णमय हीरे जवाहरात जड़े मुकुटों तथा सिंहासन  की बात आती है पर उनके सोने की परत चढ़ी रही होती होगी या रंग ऐसा रहा होगा कि सोना लगे।  असली सोना यहां कभी इतना किसी व्यक्ति विशेष के पास रहा होगा यह यकीन करना कठिन है।
                        भारत में लोगों के अंदर संग्रह की प्रवृत्ति जबरदस्त है।  कुछ समझदार लोग कहते हैं कि अगर सोने का आभूषण तीन बार बनवाने के लिये किसी एक आदमी के पास ले जायें तो समझ लो पूरा सोना ही उसका हो गयां।  इसके बावजूद लोग हैं कि मानते नहीं। अनेक ढोंगी तांत्रिक तो केवल गढ़ा खजाना बताने के नाम पर धंधा कर रहे हैं। इतना ही नहीं अनेक ठग भी सोना दुगंना करने के नाम पर पूरे गहने ही महिलाओं के हाथ से छुड़ा लेते है।  बहरहाल खुदाई पूरी होने पर सोना मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य ही बतायेगा पर टीवी चैनलों में विज्ञापन का समय समाचार तथा बहस के बीच खूब पास हो रहा है।
                        आखिर में हमारा हलकट सवाल-अरे, कोई हमें बतायेगा कि श्रीमद्भागवत गीता के बहुमूल्य ज्ञान के खजाने से अधिक बड़ा खजाना कहां मिलेगा।


 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Oct 13, 2013

बदहवास होकर भक्ति भाव न दिखायें-हिन्दी लेख(badhawas hokar bhakti bhaav n dikhayen-hindi article or lekh and editorial)




                        रामनवमी के अवसर पर  दतिया के निकट रतनगढ़ माता के मंदिर में भगदड़ में मच जाने से से सौ लोगों के मरने की खबर है। यह संख्या बढ़ने का अनुमान भी है।  प्रशासन के अनुसार कुछ लोगों ने एक पक्के पुल के गिरने की अफवाह फैलाकर मंदिर में स्थित श्रद्धालुओं की भीड़  को उत्तेजित कर दिया। लोग मंदिर से भागकर जल्दी से जल्दी पुल करना चाहते थे पर वह इतना चौड़ा नहीं था कि इतनी भीड़ उसमें समा सके।  ऐसे में यह हादसा हो गया।  सबसे ज्यादा हैरानी की बात है कि लोग भगवान के दर्शन करने तो जाते हैं पर उस पर यकीन कितना करते हैं, ऐसे हादसे देखकर यह प्रश्न मन में उठता है। इस हादसे के बाद भी मंदिर में भक्त दर्शन कर रहे थे तो दूसरी तरफ उससे डेढ़ किलोमीटर दूर पुल पर कोहराम मचा हुआ था। इससे एक बात तो साफ होती है कि वहां उस समय मौजूद लोगों में अफवाह के बाद  घर वापसी की आशंका पैदा हुई होगी या फिर दर्शन कर लौट रहे लोग जल्दी में होंगे इसलिये भागे। यह भी बताया जा रहा है कि मंदिर में दर्शन करने के लिये उतावले युवकों ने ही यह अफवाह फैलायी।  कितनी आश्चर्यजनक बात है कि भगवान के दर्शन करने के लिये कुछ लोग झूठ बोलने की हद तक चले जाते हैं।
                        भक्तों में भी कई प्रकार के भक्त होते हैं।  हमने एक ऐसे भक्त को देखा है कि वह प्रतिदिन नियमपूर्वक एक मंदिर में प्रातः आठ बजे जाते हैं पर विशेष अवसरों पर  वह वहां प्रातः प्रांच बजे होकर ही आ जाते हैं या फिर रात्रि को जाते है जब वहंा भीड़ कम हो।  एक बार हमारी उनसे सामान्य दिनों में ही  हमारी उनसे मुलाकात हुई तो उन्होंने पूछा-‘‘आप यहां प्रतिदिन आते होंगे।’’
                        हमने कहा्र-‘‘नही, जब मन कहता है चले आते हैं।’’
                        वह बोले-‘‘आप यहां आकर ध्यान लगाते हैं, यह देखकर अच्छा लगता है।
                        हमने हंसकर पूछा‘‘आप यहां रोज आते होंगे?’’
                        वह बोले-‘‘हां, पर जिस दिन किसी खास अवसर पर भीड़ अधिक हो तो दूसरे मंदिर चला जाता हूं।’’
                        हमने पूछा-‘‘ऐसा क्यों?’’
                        वह बोले-‘‘अरे, जिस भगवान के हमें प्रतिदिन सहजता से दर्शन होते हैं उनके लिये धक्के खाने की आवश्यकता महसूस नहीं करता। आम मजेदार बात सुनिये। हमारे परिवार के लोग खास अवसर पर यहां लाने का आग्रह करते हैं तो मैं मना कर देता हूं, तब वह ताने देते हुए यहां आकर दर्शन करते हैं।  अनेक बार उनके दबाव में आना पड़ता है तो मैं बाहर ही खड़ा हो जाता हूं।’’
                        खास अवसर पर मंदिरों में लगने वाले मेलों के दौरान कुछ लोग खास दिन के  उत्साह में शामिल होते हैं तो अनेक बार कुछ लोगों को पारिवारिक बाध्यता के कारण वहां जाना पड़ता है।  खासतौर से पहाड़ी अथवा एकांत में जलस्तोत्रों के निकट बने मंदिरों को सिद्ध बताकर उनका प्रचार इस तरह किया जाता है कि लोग पर्यटन के मोह में भी वहां आयें।  हमने तो यह भी देखा है कि देश के कुछ मंदिर तो फिल्मों की वजह से लोकप्रियता पाकर भक्तों को धन्य कर रहे हैं।  यह मंदिर भी ऐसे हैं जिनका भारतीय धार्मिक पंरपरा के अनुसार कोई इतिहास नहीं है।  यह मंदिर ही क्या जहां यह स्थित है उस क्षेत्र का भी कोई विशेष महत्व धार्मिक दृष्टि से नहीं रहा।  बहरहाल प्रचार और बाज़ार समूहों ने उनको लोकप्रिय बना दिया है। होता यह है कि कुछ धर्मभीरु इन गैरपरंपरागत स्थानों में जाना नहीं चाहते पर उनके परिवार के सदस्य उन पर दबाव डालते हैं कि वहां चलो क्योंकि भीड़ वहां जाती है।
                        मूलतः धर्म एक हृदय में धारण किया जाने वाला विषय है और वह स्वयं कहीं नहीं चलता बल्कि साधक उसके अनुसार जीवन की राह पर चलकर प्रमाण देता है कि वह धर्मभीरु है। हमारे देश में एक वर्ग रहा है जो धर्म को सक्रिय विषय केवल इसलिये  रखना चाहता है कि उसे लाभ होता रहे।  उसके लाभ के नये क्षेत्र बने इसी कारण अनेक नये भगवान बाज़ार के सौदागरों ने प्रचार प्रबंधकों की मदद से खड़े किये हैं।  आदमी का मन खाली दीवार में नहीं लगता वहीं अगर कोई तस्वीर लगा दी जाये तो वह उसकी तरफ आकर्षित होता है।  हमारे बाज़ार के सौदागर और प्रबंधक संयुक्त प्रयासों से ऐसी तस्वीरें बनाते रहते हैं कि आदमी को धर्म के नाम भटकाया जा सके।  खासतौर से चमत्कारों के प्रति लोग बहुत जल्दी आकर्षित होते हैं इसलिये कथित सिद्ध स्थानों पर जाने पर जीवन में  चमत्कारी परिवर्तन आने के दावे किये जाते हैं।
            वर्तमान समय में जब भौतिकतावाद ने सभी के मन और बुद्धि पर नियंत्रण कर लिया है तब लोगों में मानसिक तनाव होना स्वाभाविक है। इसमें फिलहाल कमी आती नहीं दिखती।  जिस उपचार से जीवन सुखमय हो सकता है वह ज्ञान अब कम ही लोगों में है। जिनमें है भी तो वह बघारते हैं उस राह पर चलकर नहीं दिखाते।  ऐसे में वह समाज के प्रेरक नहीं बनते इसी कारण वह भटकाव के दौर में है।  यही कारण कि लोग घर से बदहवास होकर बाहर आते हैं और जहां  भी जाते हैं वहां उनकी मानसिक स्थिति पीछा नहीं छोड़ती। यही कारण है कि अनेक अवसरों पर मेलों में भारी भीड़ होने पर ऐसे हादसे पेश आते हैं। इस दुर्घटना में मृत लोगों का हमें बहुत दुःख है और घायलों से भी सहानुभूति है। भगवान दुर्घटना में मृत लोगों के परिवार के सदस्यों को यह हादसा झेलने की शक्ति प्रदान करे तथा घायल जल्दी स्वास्थ लाभ करनें ऐसी कामना है।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Oct 4, 2013

द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ-हिन्दी चिंत्तन लेख(dravyamay se gyanmay yagya shreshth)



                        भक्ति भाव  के चार प्रकार हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासा और ज्ञान। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान भक्ति को सर्वोत्तम माना गया है-इसका यह आशय कतई नहीं है कि बाकी तीन प्रकार की भक्ति को प्रतिबंधित किया गया है। इतना तय है कि कर्म के सिद्धांतों के अनुसार उसके परिणाम भी होते हैं। हम अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली हों तो सांसरिक विषयों पर अपने अनुरूप नियंत्रण कर सकते हैं।
                        हमारे देश में श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन सामान्य लोग कम ही करते हैं और इसी कारण कथित संत ही उनके मार्गदर्शक होते हैं। यह संत  पेशेवर होते हैं और उनका लक्ष्य भक्तों के मन में स्थित आर्त और अर्थ भाव को लक्ष्य करना होता है ताकि वह शिष्य संग्रह कर सकें।  जब आदमी परेशान होता  है तब वह भगवान की तरफ देखता है। तब अनेक कथित विद्वान उसे कर्मकांडों के नाम पर व्यय करने के लिये प्रेरित करते हैं।  तय बात है कि जब हताशा, तनाव और निराशा से आदमी भर जाता है तब वह उससे बचने के लिये यह आत्मसंतोष तो करना चाहता ही है कि वह भगवान की भी आराधना कर रहा है और जिनको वह धर्म का ज्ञाता समझता है उनकी बात मानने लगता है। तब कोई विद्वान अपनी तरफ से किसी कर्मकांड का सुझाव देता है तब आदमी उनसे कहता है किहम दूसरी जगह कहां जायें, आप ही करवा दें  उसके बाद उसकी आर्त भाव की भक्ति का दोहन प्रारंभ हो जाता है।  उसी तरह कुछ लोग जीवन में धन, संपत्ति और अन्य उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करना चाहते हैं। उनको भी भगवान से मदद की चाहत होती है और वह इन कर्मकांडी विद्वानों की तरफ बढ़ जाता है।  वह उसे कर्मकांड करने पर अधिक लाभ दिलाने का वादा करते हैं। यह अर्थार्थी भाव की भक्ति है और इसका दोहन सहजता से किया जाता है।
                        हमारे देश में धर्म प्राचीन काल से ही एक तरह  का पेशा बन गया है। जिज्ञासु व्यक्ति भी भक्ति करता है पर हमारे देश के पेशेवर ज्ञानियों का इतना ज्ञानाभ्यास नहीं होता कि वह उसे संतुष्ट कर सकें इसलिये उसे वह आर्त या अर्थार्थी भाव से भक्ति करने के लिये प्रेरित करते है। जहां तक सच्चे ज्ञानी का प्रश्न है उसे यह पेशेवर कभी नहीं सुहाते।  यह अलग बात है कि इन पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने समाज को इस तरह जकड़ रखा है कि लोग कर्मकांड न करने वाले ज्ञानी को ही नास्तिक मानते हैं।  अगर ज्ञानी कुछ लचीला हुआ तो वह दिखावे के लिये इन कर्मकांडों में शािमल हो जाता है और सख्त हुआ तो समाज उसे एक तरह से असामाजिक तत्व मानने लगता है।
                        संत कबीरदास जी ने कहा है कि दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करे न काये, जो सुख में ही सुमिरन करे तो दुःख काहे होय  यह भक्ति के ज्ञान रूप की सर्वोत्तम स्थिति है।  आज जब विश्व की आर्थिक दशा बदली है तो सामाजिक समभाव भी अत्यंत कमजोर हुआ है। लोग टूटे मन लिये फिर रहे हैं। रिश्ते नातों में अर्थ की प्रधानता हो गयी है।  वैसे ही हमारे यहां धर्म के नाम पर इतने पाखंड है कि उनमें पैसे के साथ ही समय भी खर्च होता है।  कुछ लोगों के लिये ऐसे कर्मकांड करना दुष्कर हो गया है पर सामाजिक दबाव के चलते  करते भी हैं।  हैरानी की बात यह है कि कोई भी संत उन्हें इन कर्मकांडों से मुक्त होकर स्वच्छंद जीवन विचरने का सुझाव नहीं देता।  कथित रूप से श्रीगीता का ज्ञान रखने का दावा करने वाले लो भी यह नहीं कहते कि द्रव्यमय इन कर्मकांडों से कोई लाभ नहीं है। विवाह, मृत्यु तथा श्राद्ध जैसे अवसरों पर पैसा खर्च करते हैं। जो लोग  श्राद्ध जैसे  कर्मकांडों को संपन्न कराते हैं उनके पास पितृपक्ष  के समय इतना भोजन आता है कि वह क्या उनके परिवार के लोग भी नहीं खा पाते।  इनका खाया किस तरह पितरों को पहुचंता है यह कोई नहीं बता सकता। इस देश के किसी भी पेशेवर संत में इतनी  हिम्मत नहीं है कि वह इन कर्मकांडों से दूर रहकर लोगों को ज्ञानमय यज्ञ में संलग्न रहने के लिये प्रेरित करे।
                        हिन्दू धर्म के नाम पर एकता दिखाने के लिये यह संत एक हो जाते हैं पर जो कर्मकंाड समाज को खोखला कर चुके हैं उन पर इनका ध्यान नहीं जाता या वह देना नहीं चाहते। एक बात बता दें कि ज्ञान यज्ञ भी एकांत में होता है।  हमने देखा है कि अनेक लोग सामूहिक रूप से ज्ञान यज्ञ आयोजित करते हैं जो कि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार कतई नहीं कहा जा सकता। शुद्ध तथा समतल स्थान पर आसन बिछाकर प्राणायाम, ओम का जाप तथा  गायत्री मंत्र का जाप करने के बाद ध्यान लगाना ज्ञान यज्ञ का ऐसा प्रकार है जिसे करने पर मन और विचार में शुद्धि होती है। आदमी ज्ञान की बात सुनकर अपने अंदर उसे धारण करते हुए उसे जीवन में उतारता है। जिन लोगों को परिश्रम करने का अवसर कम मिलता है वह चालीस मिनट तक आसन या  प्रातः चालीस मिनट तक ही  घूमने के बाद इस यज्ञ को  कर सकते हैं।  मुख्य बात यह है कि पूर्ण स्वस्थ रहकर ही धर्म का निर्वाह हो सकता है। क्लेश, तनाव या निराशा से मुक्ति पाने के लिये द्रव्य यज्ञ करने से कोई लाभ नहीं होता वरन् तनाव बढ़ता है। सांसरिक विषय समय अनुसार स्वतः संचालित हैं उन्हें इंसान नियंत्रित करते दिखता है पर यह एक भ्रम हैं।  यह ज्ञान तभी हो सकता है जब हम ज्ञानमय यज्ञ करेंगे।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Sep 24, 2013

नैरोबी के मॉल पर हमलाःफिल्म और धारावाहिकों के लिये सामग्री बन ही गयी-हिन्दी लेख(ataick on nerobi in mol:Narobi ke mol par hamla:film aur tv episond ke liye samagri ban he gayee-hindi lekh or article)



                        कीनिया के नैरोबी में मॉल पर आतंकवाद हमले के जो समाचार प्रचार माध्यमों में देखने, सुनने और पढ़ने को मिले उससे तो यही लगता है कि आने वाले दिनों में इस पर अनेक फिल्में बन जायेंगी और जमकर व्यवसाय करेंगी।  इसका मुख्य कारण उसकी खलपात्र एक खूबसूरत महिला के होने का जमकर प्रचार होना  है जो ब्रिटेन की गौरवर्ण वर्ग से संबंध रखती थी।  विश्व में आतंकवाद एक पेशा बन गया है।  हम जैसे लोगों का इस बात पर यकीन करना अत्यंत कठिन काम है कि बिना लोभ और लालच के कोई इसमें शामिल हो सकता है। अगर धर्म के लिये युद्ध करते हुए मर जाने पर स्वर्ग मिलने की चाहत है तो वह भी एक भ्रम है पर अंततः वह एक लालच ही है। बहरहाल हम इस मसले पर सामान्य से कुछ हटकर सोच रहे हैं। हमारी सोच का आधार ऐसे मसलों पर होने वाली बहसें तथा अन्य ऐसे समाचार हैं जो कुछ अलग सोचने को विवश करते हैं।
                        पहली बात तो यह है कि कीनिया के इस मॉल पर हमला होते ही इजरायल के कमांडो वहां कार्यवाही के लिये पहुंच गये। उन्होंने बाकी बंधकों को हानि पहुंचे बिना उनको मुक्त करवाने के साथ ही  अंदर मौजूद आतंकवादियों को परास्त किया।  अभी तक ऐसी घटनाओं में कभी इजरायल के ऐसे मामलों में शामिल होने की बात सामने नहीं आयी थी।  मुंबई पर हमले के समय इजरायल से अपने कमांडो भेजने का प्रस्ताव भारत को दिया था पर उसे नहीं माना गया।  उस प्रसंग में यहूदियों को भी लक्ष्य किया गया था और इजरायल अपने धर्म का दुनियां भर में खैरख्वाह होने का दंभ भरता है इसलिये उसने ऐसा प्रस्ताव दिया होगा।  अब इजरायल ने अपनी भड़ास निकाली।  क्या इजरायल किसी ऐसे अवसर के इंतजार में था या फिर उसकी खुफिया एजेंसियों ने कहीं न कहीं अपने सूत्रों से इस तरह की संभावित घटना का अनुमान कर लिया था पर बताया नहीं क्योंकि वह चाहते थे कि उनके देश को अपना पराक्रम दिखाने का अवसर मिले।  वैसे अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि विश्व भर में फैले आतंकवादियों को कहीं न कहीं खुफिया एजेंसियों का संरक्षण मिलता हैै। अफगानिस्तान में अमेरिका की खुफिया एजेंसी ने तो बकायदा रूस के खिलाफ ऐसे ही आतंकवाद की मुहिम चलायी थी।  इजरायल की खुफिया एजेंसी का नाम कम आता है  पर कहीं न कहीं वह भी अमेरिका के साथ तालमेल करती रही है।
                        एक तरह से एक धर्म विशेष के आतंकवादी दावा तो यह करते हैं कि वह अमेरिका तथा इजरायल के विरुद्ध हैं पर हम देखते हैं कि उनकी वारदातों के बाद इन दोनों देशों को अपना पराक्रम दिखाने का अवसर मिल ही जाता है। ऐसे में अनेक प्रकार के संदेह तो होते ही हैं खासतौर से तब जब  इतिहास इन्हीं आतंकवादियों के साथ उनके रिश्ते होने की बात को प्रमाणित करता है।  इन दोनों देशों के पास नित नये प्रकार के हथियार बनते हैं जिनकी प्रयोगशाला ऐसी ही आतंकवादी घटनायें साबित होती हैं। संभव है इस प्रकार के आतंकवादियों में कुछ  इनकी खुफिया एजेंसियों से जुड़े हों जो समय आने पर इस तरह के छोटे छोटे युद्धों की पटकथा लिखते हों।  दूसरी बात यह है कि पूरे विश्व में काले और सफेद धंधे वालों का समन्वय बन गया है।  सफेद धंधे वाले भी अपनी अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये काले धंधे वालों से संबंध बना ही लेते हैं।  फिल्म बनाने का धंधा आजकल चोखा है।  फिल्म न बने तो धारावाहिक भी बन ही जाते हैं। ऐसे में एक खूबसूरत सफेद विधवा के आतंकवादी बनने पर ढेर सारी कहानियां बन सकती है। यह अलग बात है कि अब उसे प्रमाणित करना कठिन काम है। यह अलग बात है कि फिल्म और टीवी धारावाहिकों के लिये एक कीमती मसाला तो मिल ही गया है जिसका लाभ अंततः इन धनपतियों को ही होगा।
            जिस महिला का जिक्र हो रहा है वह ब्रिटेन की है।  उसका पति किसी आतंकवादी घटना को अंजाम देते ही मारा गया था।  उसे दो बच्चे भी हैं।  पति के मरने पर वह स्वतः भी आतंकवादी बनी बल्कि वह चाहती थी कि उसके बच्चे भी आतंकवादी बने।  उसकी सामग्री इंटरनेट पर है जो उसे आतंकवादी प्रमाणित करनी पड़ती है।  कहा गया कि इस हमले का संचालन वही महिला कर रही थी।  अब वह मारी गयी हैं।  मॉल के हमले के बाद उसमें मरे लोगों पर चर्चा कम उस सफेद विधवा की चर्चा अधिक हो रही थी।  एक अलग से कहानी चल रही थी।  प्रश्न यह है कि उस महिला को किसने देखा? क्या वही थी या किसी अन्य महिला के वहां होने पर ऐसा प्रचार किया गया? क्या इंटरनेट पर उसकी सामग्री को प्रमाणिम मान लिया जाये या फिर माना जाये कि उसे भविष्य की खलपात्रा के रूप में स्थापित करने के लिये सृजित किया गया? नैरोबी के मॉल में जब लोग मर रहे थे तब क्या मीडिया में बैठे कुछ बुद्धिमान लोग हॉलीवुड की फिल्म के लिये कोई सामग्री जुटा रहे थे? इस तरह संभावनायें इसलिये लगती हैं क्योंकि हॉलीवुड सत्य घटनाओं पर फिल्म बनाकर जमकर पैसा कमाता है।  वैसे भी पूरे विश्व में अमेरिका की पहचान  आधुनिक हथियारों और फिल्म के निर्माण के कारण ही है। दूसरे यह भी कि काले और सफेद धंधे वालों को कहीं न कहीं से पैसा चाहिये।  विश्व में आतंकवाद बढ़ा है तो हथियारों की बिक्री तथा उस पर बनी फिल्मों के व्यवसाय में वृद्धि हुई है। हम अपने देश में देख लें। मान लीजिये यहां बिल्कुल आतंकवाद न होता तो या कोई ऐसी फिल्में बनाता।  बनाता तो सामान्य एक्शन फिल्म होकर रह जाती।
                        शक का दूसरा कारण यह भी है कि प्रचार माध्यम इन खूंखार  आतंकवादियों को आकर्षण खलपात्र के रूप में प्रचारित करते हैं।  ऐसे प्रचारित करते हैं जैसे कि वह कोई आसमान से उतरे जीव हों।  हम जिस महिला का जिक्र कर रहे हैं वह मारी गयी। तय बात है उस पर अब कोई मुकदमा तो चलेगा नहंी कि यह साबित किया जा सके कि वही थी। प्रचार माध्यम जो कह रहे हैं उस पर इसलिये कोई प्रश्न उठाना संभव नहीं है क्योंकि उसकी प्रमाणिकता के लिये कोई सूत्र उपलब्ध नहीं है। मॉल का प्रसंग तीन दिन चला और उस पर कोई तीन घंटे की रोमांचक फिल्म बनाना कोई बड़ी बात नहीं है।
                        अगर हम देखें तो इस घटना में जो आतंकवादी मरे वह भी कोई संपन्न नहीं थे और जिन निर्दोष लोगों को मारा भी कोई बड़े लोग नहीं थे।  अगर होते तो क्या वह इस मॉल में खरीददारी करने जाते, घर पर ही सामान नहीं मंगवा लेते। इस तरह आम आदमी का आम आदमी के विरुद्ध  यह ऐसा युद्ध था जो अंततः धनपतियों को लाभ देगा।  इस घटना के कारण सुरक्षा के वह उपकरण अवश्य दूसरे देश खरीदेंगे जो इजरायल या अमेरिका बनाते हैं।  हम अपने ही देश में देखेंगे अनेक जगह मॉल, मंदिर और पुरात्तव स्थानों पर पहले अंदर जाने के लिये मेटल डिक्टेटर   लगे फिर जब आतंकवाद के साथ अन्य अपराध बढ़े तो  सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर  सीसीटीवी कैमरे लग गये हैं।  अगर आतंकवाद न आता तो क्या सब बिकते। भारत बड़ा देश है और यह किसी एक वस्तु का जब प्रचलन बढ़ता है तो वह खरबों रुपये का व्यवसाय करती है। यह कारण है कि कुछ बुद्धिमान लोग आतंकवादियों को मिलने वाले धन का पता लगाने की मांग करते हैं।  इस तरह के संदेहों को जन्म अमेरिका, ब्रिटेन और इजरायल के साथ ही उन देशों ने भी दिया है जो आतंकवादियों को अपने यहां पनाह देते हैं या फिर मानवाधिकारेां के नाम उनको संरक्षण प्रदान करते हैं।  अगर आतंकवाद पनपने के बाद हथियारों की बिक्री और उन पर बनी फिल्में खरबों रुपये का व्यापार नहीं करती तो यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण लग सकता था पर कछ बुद्धिमान लोग इसे सत्य वचन कहकर प्रचारित करते हैं।   बहरहाल यह हमारे अनुमान ही है सच क्या है कोई नहीं जानता?  जो जानते हैं वह बतायेंगे नहीं और जो जानते नहीं वह ऐसे अनुमान करते रहेंगे। यह सिलसिला चलता रहेगा।


 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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