May 28, 2019

मत का अधिकार था भगवान हुए मतदाता-दीपकबापूवाणी (Matadata ka Adhikar thaa Bhagwan hue Matdata-DeepakBapuwani)

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ज़माने पर सवाल पर सवालसभी उठाते, अपने बारे में कोई पूछे झूठे जवाब जुटाते।
‘दीपकबापू’ झांक रहे सभी दूसरे के घरों में, गैर के दर्द पर अपनी खुशी लुटाते।।
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मत का अधिकार था भगवान हुए मतदाता, एक बार बटन दबाया बंद हो गया खाता।
‘दीपकबापू’ पांच बरस तक सोये लोकतंत्र, वातानुकूलित कक्ष से फिर नंहीं बाहर आता।।
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अपने मुंह से सौ बार एक झूठ कह देते, भले लोग भी सच मानकर सह लेते।
‘दीपकबापू’ चेतना रख दी लालच में गिरवी, रुपये लेकर मजबूर जैसे रह लेते।।
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जीने के तरीके बदले मगर दिल पुराना चाहें, दिमाग बेकाबू कांप रहीं बेकाम बाहें।
‘दीपकबापू’ बेकार ढूंढते हमदर्द ज़माने में, मिले हमराही वही भटके अपनी जो राहें।।
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इधर उधर की बात पर होते झगड़े, सहने की शक्ति नहीं वाक्प्रहार करते तगड़े।
‘दीपकबापू’ भलाई के लिये निकले वह, जिन्होंने अपने पांव तले कई बेबस रगड़े।।
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जिंदगी में जीत हार के हिसाब लगाते, रुपये के आंकड़े से अपना दिमाग जगाते।
‘दीपकबापू’ हर पल खोये रहते सपनों में, झूठी चिंतओं से स्वयं को सदा ठगाते।।
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गरीब हो या अमीर दिल में अभाव हैं पाले, सब है पर किसी कमी का ताव हैं डाले।
‘दीपकबापू’ घर में कबाड़ भरा छत तक, तब भी नयी चीज खोजने का दाव हैं डाले।।
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कच्चे धागे जैसी जिंदगी पक्के मकान में रखी, सदा धन कमाते रहते रोती सांस सखी।
भटकता मन ढूंढे हर जगह अपने लिये मस्ती, ‘दीपकबापू’ कभी सुख की बूंद न चखी।।
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पद चलें तो छोटे उड़े जो वह लोग बड़े हैं, भगवान के दर लेकर मन के रोग खड़े हैं।
‘दीपकबापू’ भीड़ में तन्हाई से ऊबे सभी, चले जाते वहां जहां भरी पंगत में भोग पड़े हैं।।
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अपने भय से छिपते जमाने को छलिया बतायें, कमजोर छवि अपनी गैरों का दोष बतायें।
‘दीपकबापू’ तकनीकी युग ने बदला चलन, पुरानी चाल से हारें मशीने पर गुस्सा जतायें।।
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Mar 28, 2019

राजकाज की समझ नहीं फिर भी सम्मान चाहें-दीपकबापूवाणी (Rajkar ki Samajh nahin Fir bhee samman chahen)-DeepakBapuWani

मन की बात सभी कर लेते, किसी के कहे पर अपने कान हमेशा फेर लेते।
‘दीपकबापू’ रोना हंसना बेचने में बहुत माहिर, जज़्बात का बाज़ार घेर लेते।।
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विज्ञापन के बीच बहस में चीख मची है, शोर से दिमाग लूटो यही सीख बची है।
पेशेवर लेते भलाई का ठेका, ‘दीपकबापू’ भक्तों को राम नाम भीख ही पची है।।
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राजकाज की समझ नहीं फिर भी सम्मान चाहें, अपनी नाक दिखाते कांपती बाहें।
‘दीपकबापू’ सिंहासनों पर बैठे बरसों बेकार, मन नहीं भरा ढूंढे कुर्सी की नई राहे।।
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बांचा ज्ञान बेचकर भी धंधा होय, वक्ता हुए साहुकार श्रोता भी अश्रोता होय।
‘दीपकबापू’ रोतन की भीड़ लगी सब जगह, एकांत आनंद से हंसे ज्ञानी सोय।।
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अपना काम अपने मुख से सुनाये, किताबी ज्ञान बाज़ार में सुनाकर नाम भुनायें।
‘दीपकबापू’ रातभर जागें सुबह नींद करते, भीड़ में स्वास्थ्य के नुस्खे गुनगुनायें।।

दुधिया रौशनी में पत्थर चमकते लगें, सूरज के उगते अपने सत्य के साथ जगें।
‘दीपकबापू’ दिल बहलाने के लिये भागे फिरें, लौटें घर लोग फिर ऊबें तब भगें।।