Nov 29, 2009

आम इंसान की गलती-व्यंग कविता (mistake of comman man-hindi satire poem)

मु्फ्त की हवाओं से
जिंदगी की सांस चलती,
पानी से बुझती प्यास की आग
जब गले में जलती।
सूरज की धूप अपने स्पर्श से
देह को मलती।
कुदरत से जिंदगी के साथ मिले मुफ्त
तोहफों की इंसान कहां करता कदर,
ख्वाब करते हैं उसे दर-ब-दर,
रेत में ढूंढता है पत्थर की कोड़ियां,
भरता है उससे अपनी बोरियां,
आंखों से देखने को आतुर है सोना
नींद बेचकर खरीदता है बिछौना,
कागज के नोटों का बना लिया ढेर,
मन को समझाता है
पूजकर पत्थर के शेर,
लाचार क्या कर सकता है
इसके अलावा,
आजाद अक्ल मिली है
पर साथ मिला जरूरतों की
गुलामी का छलावा,
अपना सोचने में लगती है देर,
अक्लमंद भी सजाते हैं सामने
सपनों का अंधेर
भला कहां है आम इंसान की गलती।।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Nov 16, 2009

कायरता और बहादुरी-हिंदी कविता (kayrata aur bahaduri-hindi kavita)

सच कहते हैं
जिंदगी के फैसले
कभी जंग से नहीं होते।
पर्दे के पीछे
तय हो जाते फैसले ले देकर
कटवाते है वही सिर अपना
जो इससे बेखबर होते।
कहीं गद्दारी तो
कही वफदारी बिक जाती है
दौलत और शौहरत वह शय है
जो ईमान भी खरीद लाती है
खून खराबे के आदी होते कायर
बहादुर तो जमाने के साथ
बांटकर खाने वाले होते।
जिंदगी की जंग जीतते हैं वही लोग
जो जमाने का दिल जीत चुके होते।

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Nov 12, 2009

इज्जतदार लोग-व्यंग्य कविता (ijjatdar log-vyangya kavita)

इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Nov 4, 2009

गलतफहमी-हास्य व्यंग्य (galatfahmi-hasya vyangya)

दीपक बापू तेजी से अपनी राह चले जा रहे थे कि पान की एक दुकान के पास खड़े आलोचक महाराज ने उनको आवाज देकर पुकारा-‘अरे, ओए फ्लाप कवि कहां जा रहे हो, कहीं सम्मान वम्मान का जुगाड़ करना है क्या?’
दीपक बापू चैंक गये। दायें मुड़कर देखा तो साक्षात आलोचक महाराज खड़े थे। दीपक बापू उनको देखकर उतावली के साथ बोले-‘आलोचक महाराज, आप अपनी घर से इतनी दूर यहां कैसे पधारे? हमारे लिये तो यही सम्मान है कि आपने हमें पुकारा। धन्य भाग हमारे जो इस इलाके की सीमा तक ही आपका पदार्पण तो हुआ। वरना आप जैसा साहित्यक महर्षि कहां इतनी दूर से यहां आयेगा? चलिये हुजूर हमारे घर को भी पवित्र कर दीजिये जो यहां से केवल तीन किलोमीटर दूर है।’
आलोचक महाराज ने पास ही नाली में पहले थूका फिर बोले-‘जब भी करना, घटिया बात ही करना! ऐसे भी साहित्यक महर्षि नहीं है कि तुम्हारे घर तक तीन किलोमीटर पैदल चलें। वैसे हमारी कार देखो उधर खड़ी है, पर अगर तुम्हें अपने घर लेकर चलना हो तो कोई अलग से इंतजाम करो।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज क्या करें, अपनी साइकिल तो घर पर ही छोड़े आये इसलिये यह संभव नहीं है कि कोई दूसरा इंतजार करें। हां, यह बताईये कि आप इधर कैसे आये, कोई सेवा हमारे लायक हो तो जरूर बतायें।’
आलोचक ने फिर दूसरी बार जाकर नाली में थूक और बोले-‘हमेशा लीचड़ बात ही करना! हम कार में बैठने वाले तुम्हारी साइकिल पर बैठकर क्या अपनी भद्द पिटवायेंगे। गनीमत समझो तुमसे बार कर रहे हैं। बहरहाल यह लो पर्चा! एक साहित्य पुस्तक केंद्र का उद्घाटन हैं। वहां जरूर आना। हमने तुम्हारी दो कवितायें एक गांव के अखबार में छपवा दी थी जिसमें अपनी समालोचना भी लिखी थी। लोगों ने हमारी समालोचना की प्रशंसा की। यह कार्यक्रम नये कवियों का परिचय कराने के लिये भी हो रहा है। तुम तो पुराने हो सोचा क्यों न उद्घाटन पर बुलाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करें ताकि वह तुमसे कुछ सीखें।’

दीपक बापू शर्माते हुए बोले-‘क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं आप? हमारे अंदर ऐसी क्या येाग्यता है जो हम उस केंद्र का उद्घाटन करें? हम तो ठहरे एक अदना कवि! केवल कवितायें ही लिख पाते हैं। आप जैसे आलोचकों के सामने हमारी क्या बिसात? भले ही आप कहानी या कविता न लिखते हों पर साहित्य महर्षि का खिताब आपको ऐसे ही न मिला होगा। यह सम्मान कोई छोटी बात नहीं है।

अबकी बार आलोचक महाराज थूके बिना ही उनकी तरफ मुखातिब हुए और घूर घूर कर देखने लगे। अपना मुंह उनके मुंह के पास ले गये। फिर अपना हाथ उनके मस्तक पर रखा। दीपक बापू सिहर कर बोले-‘यह क्या आलोचक महाराज?’
आलोचक महाराज बोले-‘हम सोच रहे हैं कि कहीं तुम बुखार में तो घर से बाहर भाग कर नहीं आ गये। आजकल मौसम खराब है न! यह कैसी गलतफहमी पाल ली कि हम तुम्हारे इन नाकाम हाथों से किसी पुस्तक केंद्र का उद्घाटन करायेंगे। हमने तुम्हें उद्घाटन करने वाले मुख्य अतिथि के ंरूप में नहीं बल्कि वहां आकर कुछ किताबें खरीदो जिनको पढ़कर तुम्हें लिखने के लिये ढंगा आईडिया मिले, इसलिये बुलाया है। नये कवियों को तुम्हारा यह थोबड़ा दिखाकर बतायेंगे कि देखो इनको, ताउम्र कवितायें लिखने का प्रयास किया पर लिख नहीं सके। कभी कभी कामयाब आदमी की कामयाबी के साथ ही नाकाम आदमी की नाकामी से भी नये लोगों को सिखाने का एक अच्छा प्रयास होता है।’

दीपक बापू का चेहरा उतर गया वह बोले-‘ठीक है आलोचक महाराज, हमने कविता लिखने का प्रयास किया पर न लिख सके यह अलग बात है? मगर आपने तो कभी लिखी ही नहीं। बल्कि दूसरे लोगों की कविताओं का आलोचना करते हुए उनके कुछ हिस्सों को अपनी कविता बना डाला। हमारी कवितायें कहीं नहीं छपवायीं बल्कि हर बार टरका दिया। खैर, हमें बुरा नहीं लगा। अब चलता हूं।

आलोचक महाराज ने कहा-’नहीं! अभी रुको! मैंने अपना वक्त तुम्हें रोककर खराब नहीं किया। सुनो, यह कूपन लेकर उस दुकान पर आना। इसके लिये पांच सौ रुपया हमें दे दो। वहां इसके बदले तुम छह सौ रुपये की किताब खरीद सकते हो। वैसे मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारी कवितायें अब शहर के अखबारों में भी छपवा दूं। तुमसे बहुत तपस्या करवा ली। लाओ, निकालो पांच सौ रुपये। वहां आकर साढ़ छह सौ रुपये किताबें खरीदना। तुम्हारे लिये पचास रुपये का फायदा करवा देंगें।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, किताबों का तो मेरे घर पर ढेर लगा हुआ है। एक नयी अलमारी बनवा लूं तभी अब किताबें खरीद पाऊंगा। वैसे भी हम आपके पास अपनी एक किताब छपवाने के लिये पांडुलिपि लाये थे तब आपने इतनी अधिक सामग्री देखकर उसे पढ़ने से मना करते हुए कहा था कि ‘किताबों से पढ़ने योग्य पढ़ा जाये उससे अच्छा है कि उनमें लिखने योग्य कार्य किया जाये।’ आपकी बात चुभ गयी तभी से किताबें खरीदना बंद कर दिया। अब जब उनमें लिखने योग्य कर लेंगे तभी सोचेंगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-’ठीक है! अब भूल जाना कि मैं तुम्हारी कविताओं पर आलोचना लिखकर उनको प्रकाशित करवाऊंगा।’
दीपक बापू वहां से जल्दी खिसक लिये यह सोचकर कि कहीं उनको पांच सौ रुपये की चपत न लग जाये। साथ ही उनको अपनी गलतफहमी पर भी हैरानी हो रही थी।
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