Dec 28, 2008

जिंदगी क्या जंग से कम है-लघुकथा

उसकी मां आई.सी.यू में भर्ती थी। वह और उसका चाचा बाहर टहल रहे थे। उसने चाचा से पूछा-‘चाचाजी, आपको क्या लगता है कि पाकिस्तान से भारत की जंग होगी।’
चाचा ने कहा-‘पता नहीं! अभी तो हम दोनों यह जंग लड़ ही रहे हैं।
इतने में नर्स बाहर आयी और बोली-‘तीन नंबर के मरीज को देखने वाले आप ही लोग हैं न! जाकर यह दवायें ले आईये।’
युवक ने पूछा-‘‘आप ने अंदर कोई दवाई दी है क्या?’
नर्स ने कहा-‘ नहीं! अभी तो चेकअप कर रहे हैं। उनके कुछ और चेकअप होने हैं जो आप जाकर बाहर करायें। हमारी मशीनें खराब पड़ीं हैं। अभी यह दवायें आप ले आयें।

लड़का दवा लेने चला गया। रास्ते में एक फलों का ठेला देखा और अपनी मां के लिये पपीता खरीदने के लिये वहां रुक गया। उसी समय दो लड़के वहां आये और उसके सेव उठाकर चलते बने।
ठेले वाला चिल्लाया-‘अरे, पैसे तो देते जाओ।’
उन लड़कों में एक लड़के ने कहा-‘अबे ओए, तू हमें जानता नहीं। अभी हाल जाकर ढेर सारे दोस्त ले आयेंगे तो पूरा ठेला लूट लेंगे।’
ठेले वाले ने कहा-‘ढंग से बात करो। मैं भी पढ़ा लिखा हूं। इधर आकर पैसे दो।’
उनमें एक लड़का आया और उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया। वह ठेले वाला सकते में आया और लड़के वहां से चलते बने।’
ठेले वाला गालियां देता रहा। फिर पपीता तौलकर उस युवक से बोला-‘साहब, क्या लड़ेगा यह देश किसी से। आंतक की बात करते हैं तो पर यह घर का आतंक कौन खत्म करेगा? आदमी का इज्जत से जीना मुश्किल हो गया है और बात करते हैं कि बाहर से आतंक आ रहा है।

वह दवायें लेकर वापस लौटा। उसने अपनी दवायें नर्स को दी। वह अंदर चली गयी तो उसने अपने चाचा को बताया कि एक हजार की दवायें आयीं हैं। उसने चाचा से कहा-‘चाचाजी, यहां आते आते पंद्रह सौ रुपये खर्च हो गये हैं। अगर कुछ पैसे जरूरत पड़ी तो आप दे देंगे न! बाद में मैं आपको दे दूंगा।’
चाचा ने हंसकर कहा-‘अगर मुझे मूंह फेरना होता तो यहां खड़ा ही क्यों रहत? तुुम चाहो तेा अभी पैसे ले लो। बाद में देना। तुम्हारी मां ने मुझे देवर नहीं बेटे की तरह पाला है। उसकी मेरे ऊपर भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी तुम्हारी।’
इतने में वही नर्स वहां आयी और एक पर्चा उसके हाथ में थमाते हुए बोली-‘डाक्टर साहब बोल रहे हैं यह इंजेक्शन जल्दी ले आओ।’
युवक वह इंजेक्शन ले आया और फिर चाचा से बोला-‘मेडीकल वाला बताया कि यह इंजेक्शन तो अक्सर मरीजों को लगता है। वह यह भी बता रहा था कि इन अस्पताल वालों को ऐसे इंजेक्शन मिलते हैं पर यह कभी मरीज को नहीं लगाते बल्कि बाजार में बेचकर पैसा बचाते हैं।
चाचा ने कहा-‘हां, यह तो आम बात है। सार्वजनिक अस्पताल तो अब नाम को रह गये हैं। वह दवाईयां क्या डाक्टर ही देखने वाला मिल जाये वही बहुत है।’
वह कम से कम तीना बार दवाईयां ले आया। धीरे धीरे उसकी मां ठीक होती गयी। एक दिन उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। बाद में वह युवक बाजार में अपने सड़क पर सामान बेचने के ठिकाने पर पहुंचा। उसने अभी अपना सामान लगाया ही था कि हफ्ता लेने वाला आ गया। युवक ने उससे कहा-‘यार, मां की तबियत खराब थी। कल ही उनको आई.सी.यू. से वापस ले आया। तुम कल आकर अपना पैसा ले जाना।’
हफ्ता वसूलने कहा-‘ओए, हमारा तेरी समस्या से कोई मतलब नहीं है। हम कोई उधार नहीं वसूल नहीं कर रहे। हमारी वजह से तो तू यहां यह अपनी गुमटी लगा पाता है।’
युवक ने हंसकर कहा-‘भाई, जमीन तो सरकारी है।’
हफ््ता वसूलने वाले ने कहा-‘फिर दिखाऊं कि कैसे यह जमीन सरकारी है।’
युवक ने कहा-‘अच्छा बाद में ले जाना। कम से कम इतना तो लिहाज करो कि मैंने अपनी मां की सेवा की और इस कारण यहां मेरी कमाई चली गयी।’
हफ्ता वसूली करने वाले ने कहा-‘इससे हमें क्या? हमें तो बस अपने पैसे से काम है? ठीक है मैं कल आऊंगा।’

वह हफ्तावसूली वाला मुड़ा तो उसी समय एक जूलूस आ रहा था। जुलूस में लोग देश भक्ति जाग्रत करने के लिये आतंक विरोधी तख्तियां लिये हुए थे। उसमें उसे वह दो लड़के भी दिखाई दिये जिन्होंने फल वाले के सेव लूटकर उसको थप्पड़ भी मारी थी। उन्होंने हफ्तावसूल करने वाले को देखा तो बाहर निकल आये और उससे हाथ मिलाया।’
उसके निकलने पर युवक के पास गुमटी लगाने वाले दूसरे युवक ने कहा-‘यार, तेरे को क्या लगता है जंग होगी?’

पहले युवक ने आसमान की तरफ देखा और कहा-‘अभी हम लोगों के लिये यह जिंदगी क्या जंग से कम है?’
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Dec 22, 2008

यह रिश्ता मंजूर है-हास्य व्यंग्य

संभावित दूल्हे के माता पिता के साथ लड़की के माता पिता वार्तालाप कर रहे थे। वहां मध्यस्थ भी मौजूद था और उसने लड़की के पिता से कहा
‘आपने घर और वर देख लिया। आपकी लड़की भी इनको पसंद है पर आज यह बताईये दहेज में कुल कितना देंगे?’
लड़की के पिता ने कहा-‘पांच लाख।’
मध्यस्थ ने लड़के के पिता की तरफ देखा। उसने ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘छह लाख।‘
लड़के पिता ने फिर ना में सिर हिलाया।
लड़की के पिता ने कहा-‘सात लाख’
वैसा ही जवाब आया। बात दस लाख तक पहुंच गयी पर मामला नहीं सुलझा। अचानक मध्यस्थ को कुछ सूझा उसने लड़की के पिता को बाहर बुलाया।
अकेले में उसने कहा-‘क्या बात है? आपने लड़के के पिता से अकेले में बात नहीं की थी। मैंने आपको बताया था कि नौ लाख तक मामला निपट जायेगा। एक लाख अलग से लड़के के पिता को देने की बात कहना।’
लड़की के पिता ने कहा-‘यह भला कोई बात हुई। लड़के के पिता से अलग क्या बात करना?’
मध्यस्थ ने कहा-‘आदत! लड़के के पिता ने कई जगह नौकरी की है। सभी जगह से उसे अपनी इसी आदत के कारण हटना पड़ा। अरे, वह किसी भी काम के अलग से पैसे लेने का आदी है। जहां उसका काम चुपचाप चलता है कुछ नहीं होता। जब कहीं पकड़ा जाता है तो निकाल दिया जाता है। उस्ताद आदमी है। एक जगह से छोड़ता है दूसरी जगह उससे भी बड़ी नौकरी पा जाता है।’

लड़की के बाप ने कहा-‘ठीक है। उसे बाहर बुला लो।’

मध्यस्थ ने उसे बाहर बुलाया और उससे कहा-‘आप चिंता क्यों करते हैं? आपको यह अलग से एक लाख दे देंगे और किसी को बतायेंगे भी नहीं।’

लड़के के पिता ने कहा-‘हां, यह बात हुई न! मैंने तो पहले ही नौ लाख की मांग की थी। अगर यह पहले से ही तय हो जाता तो फिर इनको एक लाख की चपत नहीं लगती!
लड़की के बाप ने आश्चर्य से पूछा-‘कैसे?’
लड़के के पिता ने कहा-‘अरे, भई आपने मेरी पत्नी के सामने दस लाख दहेज की बात कर ली तो वह कम पर थोड़े ही मानेगी। अगर आप पहले ही अलग से मामला तय कर लेते तो मैं नौ लाख पर अपनी मोहर लगा देता। मैंने आज तक अपने काम में कभी बेईमानी नहीं की। जिससे पैसा लिया है उसका काम किया है।’
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लड़का घोड़े से उतर नहीं रहा था। घोड़ी से उतरने के लिये उसे पंद्रह सौ रुपये देने की बत कही गयी। उसने ना कहा। उससे सोलह सौ रुपये फिर सत्रह सो रुपये। तीन हजार तक प्रस्ताव नहीं दिया गया पर बात नहीं बनी।

आखिर दूल्हे का दोस्त दुल्हन के पिता को अलग ले गया और बोला-‘आप भी कमाल करते हो। आपको मालुम नहीं कि लड़का ऊपरी कमाई का आदी है। आप जो घोड़ी से उतरने के पैसे देंगे वह तो अपनी मां को देगा। आप सौ पचास चाय पानी का पहले उसके जेब में डाल दीजिये। मैं उसको बता दूंगा तो वह उतर आयेगा।

दुल्हन के पिता ने पूछा-‘यह भी भला कोई बात हुई?’

दूल्हे के दोस्त ने कहा-‘आप भी कमाल करते हो। जब रिश्ता तय हो रहा था तो आपने पूछा था कि नहीं कि लड़के को उपरी कमाई है कि नहीं। कहीं हमारी लड़की की जिंदगी तन्ख्वाह में तो नहीं बंधी रह जायेगी।’

दुल्हन के पिता को बात समझ में आ गयी। उन्होंने सौ रुपये दूल्हे की जेब में डाल दिये और जब उसके दोस्त ने बताया तो वह नीचे उतर आया।
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संभावित दूल्हा दुल्हन के परिवार वालों के बीच मध्यस्थ की उपस्थिति में बातचीत चल रही थी। दूल्हे की मां ने बताया कि ‘लड़का एक कंपनी में बड़े पद पर है उसका वेतन तीस हजार रुपये मासिक है। आगे वेतन और बढ़ने की संभावना है।’
लड़की की मां ने कहा-‘तीस हजार से आजकल भला कहां परिवार चलता है? हमने अपनी लड़की को बहुत नाजों से पाला है। नहीं! हमें यह रिश्ता मंजूर नहीं है।’
लड़के के माता पिता का चेहरा फक हो गया। मध्यस्थ लड़के के माता पिता को बाहर ले गया और बोला-आपने अपने लड़के की पूरी तन्ख्वाह क्यों बतायी।’
लड़के के पिता ने कहा-‘ भई, पूरी तन्ख्वाह सही बतायी है। चाहें तो पता कर लें।
मध्यस्थ ने कहा-‘‘मेरा यह मतलब नहीं है। आपको कहना चाहिये कि पंद्रह हजार तनख्वाह है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है।’

लड़के की मां कहा-‘पर हम तो सच बता रहे हैं। उसकी तन्ख्वाह तीस हजार ही है।’
मध्यस्थ ने कहा-‘आप समझी नहीं। ईमानदारी की तन्ख्वाह आदमी सोच समझकर कर धर चलाता है जबकि ऊपरी कमाई से दिल खोलकर खर्च करता है। आपने अपने लड़के की पूरी आय तन्ख्वाह के रूप में बतायी तो लड़की वाले सोच रहे हैं कि ऊपर की कमाई नहीं है तो हमारी लड़की को क्या ऐश करायेगा? केवन तन्ख्वाह वाला लड़का है तो वह सोच समझकर कंजूसी से खर्चा करेगा न!’

लड़के के माता पिता अंदर आये। सोफे पर बैठते हुए लड़के की मां ने कहा-‘बहिन जी माफ करना। मैंने अपने लड़के की तन्ख्वाह अधिक बताई थी। दरअसल उसकी तन्ख्वाह तो प्रद्रह हजार है और बाकी पंद्रह हजार ऊपर से कमा लेता है। मैंने सोचा जब आप रिश्ता नहीं मान रहे तो सच बताती चलूं।’

लड़की की मां एकदम उठकर खड़ी हो गयी-‘नहीं बहिन जी! आप कैसी बात करती है? आपने ऊपरी कमाई की बात पहले बतायी होती तो भला हम कैसे इस रिश्ते के लिये मना कर देते? आप बैठिये यह रिश्ता हमें मंजूर है।’
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Dec 11, 2008

किसी के दिल से मत खेलना-हिन्दी शायरी

दूसरों पर फब्तियां कसना
कितना आसान लगता है
पर दर्द उठता है तब
जब हमारे सच का बयाँ
कोई सामने करता है

ओ लफ्जों के खिलाड़ियों
अपनी जुबाँ से बोलकर
हाथ से लिखकर
आँखों से इशारे कर
चलाते रहना अपनी दुनियाँ
पर किसी के दिल से मत खेलना
टूटे बिखरे लोगों पर हंसना
अपने लिए भी महंगा पड़ता है
जब उनकी बददुआओं से
तुम्हारे अरमानों का शिकार
वैसा ही हादसा करता है

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Dec 10, 2008

‘अपने हों या किराये के पंख’ इस पर नहीं सोचते-व्यंग्य कविता

जो है गिद्ध वही कहलाने लगे सिद्ध
नजरें ही जिनकी काली हैं
हीरे और पत्थर की नहीं पहचान
पर पारखी के नाम से प्रसिद्ध
लाज लुटने की फिक्र किसे है
यहां तो अपनी आबरु बेचने पर
आमादा है जमाना
नैतिकता बस एक नारा है
लगाने में अच्छा लगता है
पर जो चलता है वह बिचारा है
यह तो इंसान बस चाहता है बनना
पैसा और पद
जिससे हो जाये प्रसिद्ध
............................

ईमान की बात क्या
आदमी खुद ही बिकने को है तैयार
नहीं मिलते अब आजादी के साथ
जिंदगी गुजारने की चाहत रखने वाले
गुलाम बनने के लिये सब हैं तैयार
इसी चाहते में बनते ं होशियार
कतारें लगी हैं लंबी उनकी
आदमी हो या औरत
इस पर बहस करना है बेकार
ऊंचा उड़ने की ख्वाहिश में
बंधी हैं जंजीरें उनके पांवों में
अपने हों या किराये के पांख
इस पर सोचने में नहीं करते
वह कोई विचार

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Oct 31, 2008

तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा-व्यंग्य कविता

कहीं प्रेम का दरिया बहेगा
कहीं भड़केंगे नफरत के शोले
कहीं बेकसूरों का खून बहेगा
कहीं कसूरवारों के सिर पर मुकुट सजेगा

जब न हो अपने पास फैसले की ताकत
तब भला क्या करिएगा
लोग भागते हो जब अपने जिम्मे से
तब कौन शेर बनेगा
जिंदगी की अपनी धारा
फूल चुनो या कांटे
दृश्य देखने के लिए दो ही हैं
कही केवल होता है मौत का सौदा
कहीं दरियादिल बांटते हैं दया
इंसानियत के दुश्मनों से लड़ते हैं बनकर योद्धा
जो अच्छा लगे उसे ही देखों
खतरनाक दृश्य भला क्या देखना
नहीं है जिंदगी के सौदागरों का भरोसा
कहीं उडाया बम कहीं इनाम परोसा
नज़रों के दरवाजे से दिल पर
कब्जे की जंग चलती दिख रही है सभी जगह
हो न हो बना लेते हैं कोई न कोई वजह
नफरत की नहीं
बाजार में अब प्रेम की जंग बिकती हैं
हर कहानी पैसे की दम पर लिखी दिखती है
छोड़ दो ऐसी जंगो पर सोचना
एक इंसान के रूप तभी तुम्हारा चेहरा बचेगा
वरना प्रेम का दरिया तो बहता रहेगा
नफरत के शोले भी जलते रहेंगे
तुम देखते और पढ़ते रहे दूसरों की कहानी
तो तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा

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Oct 27, 2008

सास बहू की दीपावली और मिठाई -हास्य कविता


सास ने बहू से कहा
‘शादी के बाद यह तेरी पहली दीपावली है
तेरे मायके से मिठाई आयेगी
बोल देना बाप से असली घी की
मिठाई भेजे वरना
नहीं मिलेंगे जलाने को पटाखे
मेरे तानों में तुम्हें बम जैसी आवाज पायेगी

बहू ने कहा
‘आप इंतजार मत करो
ताने देने का पहले ही अभ्यास कर लो
मिठाई तो आयेगी
पर असली की कि होगी नकली की
इसकी गारंटी कहां मिल सकती है
घी असली हुआ तो खोआ नकली हो सकता है
दोनों ही असली हुए तो भी
आपको उनकी कीमत कम नजर आयेगी
वह ठीक लगी तो रंग में कमी नजर आयेगी
सब ठीक हुआ तो भी
आप सास हैं इस मिलावटी युग में
एक क्या ढेर सारी कमी नजर आयेगी

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Oct 19, 2008

कागज़ की हांडी में अनेक बार दाल पकाई जाती है-व्यंग्य कविता

काठ की हांडी में दाल
एक ही बार पकाई जाती है
इसलिए अब कोई नहीं चढाता
क्योंकि कागज़ की हांडी
बिना सिगडी पर चढाये
एक नहीं अनेकों बार दाल पकाई जाती है

कागज़ के टुकड़े पर लिख कर दे दो
ढेर सारे वादे और आश्वासन
फ़िर कही जमा लो अपने प्रभाव का आसन
दाल न कही रखनी हैं
भला किसे कभी चखनी है
ना हांडी कहीं दिखनी है
पर पकती रहने की अनभूति दिलायेगी
लोगों में बस उम्मीद जगायेगी
कागज़ की हांडी में दाल
बस ऐसे ही पकाई जाती है

फ़िर अवसर आते ही
दूसरे कागज़ की एक दूसरी हांडी बना लो
तारीखे और मज़मून बदल दो
कौन देखता है पिछला इतिहास
लोगों की याददाश्त कमजोर पाई जाती है
न सिगडी पर रखने का झंझट
अपने घर में रहे तो नहीं लग सकता कट
फाईलों में रखे रहो तो नहीं रही फट
इसलिए ही कागज़ की हांडी में
अनेक बार दाल पकाई जाती है

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Oct 5, 2008

महामशीन, महादानव और छठा तत्त्व-व्यंग्य चिंत्तन

महामशीन का महाप्रयोग हो गया। कुछ समय तक उसे महादानव कहकर भी प्रचारित कर प्रचार माध्यमों ने आम लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। संभवतः लोगों का ध्यान नहीं जा रहा था इसलिये उसका नकारात्मक प्रचार कर पश्चिम के वैज्ञानिकों ने उस महामशीन का नाम प्रतिष्ठित किया। आजकल यह भी एक तरीका हो गया है कि नाम करने के लिये बदनाम होने को भी कुछ लोग तैयार हो जाते हैं। कहते हैं कि ‘बदनाम हुए तो क्या नाम तो है‘। शायद इसी तर्ज पर तमाम तरह की बातें की गयीं।

भारतीय संचार माध्यमों को भी अपने लिये चार दिन तक खूब सक्रियता दिखाकर अपने ग्राहकों को संतुष्ट करने का सुंदर अवसर मिला। विज्ञान की फतह-हां, यही शब्द प्रयोग किया है प्रचार माध्यमों ने उस सफल प्रयोग के लिये। पहले महादानव अब महादूत बन गया लगता है। आजकल यह भी एक तरीका हो गया है कि पहले किसी को दानव बनाओ फिर देवदूत। इससे किसी विषय को लंबा खींचने का अवसर तो मिलता ही है उससे वह व्यक्ति भी संतुष्ट हो जाता है जिससे बदनाम किया गया पर ऐक बेजान मशीन को जिस तरह प्रचारित किया गया उसे प्रचार के बाजार में सक्रिय लोगों की तारीफ करने का मन करता है।

अब बात करें उस महादानव या महामशीन की जिसे आधुनिक विज्ञान की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी गयी है। वह ब्रह्माण्ड की उत्पति के रहस्य को जानना चाहते हैं। आश्चर्य है कि जो विषय विज्ञान की परिधि से कोसों दूर है वह उस पर काम कर रहे हैं। दुनियां की कोई शय उस रहस्य को नहीं देख सकती। जीवन से पहले और मृत्यु के बाद के रहस्य विज्ञान की शक्ति से बाहर हैं। उन्हें वही ज्ञानी जान सकता है जिसने अपनी इस देह से तपस्या की हो। यह काम हमारे ऋषि और मुनि कर चुके हैं। उन्होंेने इस ब्रह्माण्ड की उत्पति का रहस्य पहले ही बता दिया है।

उसकी संक्षिप्त कहानी इस तरह है कि सत्य बरसों तक ऐसे ही पड़ा हुआ था। उसे इतना समय व्यतीत हो गया कि वह स्वयं को असत्य समझने लगा तब वह प्रयोग करने निकला। पांच तत्व (प्रथ्वी,आकाश.जल.आकाश.और वायु) कणों के रूप में-जिन्हें आधुनिक भाषा में अणु भी कह सकते हैं-उसके समक्ष पड़े हुए थे। वह उनमें दाखिल हो गया तो उस देखने, सुनने सूंघने, और स्पर्श करने का अवसर मिला। वह इन तत्वों से निकल आया पर उसके अंश इसमें छूट गये और वह पांचों तत्व बृहद रूप लेते गये। उनके आपसी संपर्क से ब्रहमाण्ड का सृजन हुआ। यह कथा व्यापक है और इस पर चर्चा आगे भी की जा सकती है।

हमारे देश के ज्ञानी महापुरुषों ने पहले ही इसे जान लिया है। अब विज्ञान की बात करे लें। विज्ञान केवल भौतिक पदार्थों तक ही कार्य कर सकता है। उन्होंने इस महाप्रयोग में जिन भी चीजों का उपयोग किया वह कहीं न कहीं इसी धरती पर मौजूद हैं। यानि पांच तत्वों में एक तत्व। फिर जल, वायु और अग्नि का भी उन्होंने उपयोग किया होगा। चलो यह भी मान लिया। उन्होंनें आकाशीय तत्व के रूप में गैसों का भी प्रयोग किया होगा। हां, इसके बिना सब संभव नहीं है। मगर वह सत्य का तत्व जो निर्गुण, निराकार, और अदृश्य है उसका उपयोग वह नहीं कर सकते थे। उसे कोई छू नहीं सकता, उसे कोई देख नहीं सकता और जिसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है उस सत्य तत्व का प्रयोग केवल कोई तपस्वी ही कर सकता है। उस सत्य तत्व की केवल अनुभूति की जा सकती है और उसके लिये ध्यान और योग की प्रक्रिया है। जो इन प्रक्रियाओं से गुजरते हैं वही उसकी अनुभूति कर पाते हैं।

भारतीय अध्यात्म का ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति इस सत्य का जानता है फिर यह कौनसे ब्रह्माण्ड का रहस्य जानने का प्रयास कर रहे है। यह अलग बात है कि अंग्रेजी की शिक्षा पद्धति ने लोगों को अपना अध्यात्मक भुला दिया है पर फिर भी कुछ लोग हैं जो इस सत्य का धारण किये रहते हैं। आधुनिक विज्ञान मंगल और बृहस्पति तक पहुंच गया है। हो सकता है वह सूर्य तक भी पहुंच जाये। वह ब्रह्माण्ड के अंतिम सिरे तक पहुंच जाये पर वह सत्य उसे नहीं दिखाई देगा। भारतीय अध्यात्म ज्ञान के साथ ही विज्ञान का भी पोषक है। श्रीमद्भागवत गीता में विज्ञान का महत्व प्रतिपादित किया गया है। क्योंकि धर्म की रक्षा के लिये अस्त्रों और शस्त्रों का प्रयोग अवश्यंभावी होता है इसलिये विज्ञान का विरोध करना तो मूर्खता है पर उसकी सीमाऐं हैं यह सत्य भी स्वीकार करना चाहिए।
हमारे देश ने एक समय योग साधना और ध्यान को नकार दिया था। पश्चिम से आयातित इलाज को ही प्राथमिकता दी जाने लगी। अब यह रहस्य तो सभी जगह उजागर है कि आधुनिक चिकित्सा के पास रोग को रोकने की क्षमता है पर मिटाने की नहीं। इसलिये अब डाक्टर ही अपने मरीजों को योगसाधना करने का मशविरा देते हैं। यानि भारतीय ज्ञान की अपनी महिमा है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। पश्चिम विज्ञान ने आत्मा का वजन 21 ग्राम बताया है जबकि उसका तो कोई वजन है ही नहीं। आदमी मर जाता है तो उसका इतना वजन इसलिये कम हो जाता है क्योंकि कुछ हवा पानी म्ृत्यु के समय निकल जाता है। भारतीय और पश्चिम के विज्ञान बारंबार कहते हैं कि उनको ं ब्रह्माण्ड का रहस्य जानना है मगर पांच तत्वों के मेल से बने इस ब्रह्माण्ड को जानने के लिये क्या वैज्ञानिकों से किसी छठे तत्व को भी अपने प्रयोग को शामिल किया था। अरे, भई वह छठा तत्व किसी की पकड़ में नहीं आ सकता।

दुनियां का सबसे बड़ा प्रयोग-यही नाम उसे दे रहे हैं। लगता है कि वैज्ञानिकों के पास कोई काम नहीं बचा है। हमारे हिसाब से वैज्ञानिकों के पास एक काम है जिस पर वह नाकाम हो रहे हैं। वह यह कि बिना तेल के कार,स्कूटर,वायुयान और घर की बिजली जल सके इस पर उनको काम करना चाहिये। परमाणु ऊर्जा के उपयोग से जो पर्यावरण प्रदूषण होता है उसकी तरफ अनेक वैज्ञानिक इशारा करते हैं। अगर वैज्ञानिको को करना ही है तो ऐसे यंत्र बनाये जो कि सूर्य से इस धरती पर आने वाली ऊर्जा का संयच तीव्र गति से कर सकें और बिना तेल और लकड़ी के लोगों का खाना बन सके। अभी तक तो धरती पर मौजूद तेल,गैस और अन्य रसायनों के भंडारों से ही सारा संसार चल रहा है। मतलब यह कि अभी धरती पर ही विजय नहीं पायी और आकाश में ब्रह्माण्ड का रहस्य जानने चले हैं। अनेक लोग बिचारे रोज अखबार और टीवी इसलिये ही खोलकर देखते हैं कि कहीं कोई ऐसी चीज बनी गयी क्या जिससे बिना तेल और बिजली के उनका काम चल सके। स्कूटर चलाने के लिये अभी भी पैट्रोल पंप पर जाना पड़ता है और गैस के लिये फोन करना पड़ता हैं। कंप्यूटर चलाने के लिये लाईट खोलना पड़ती है। यह सब सौर ऊर्जा से हो जाये तो फिर माने कि विश्व के वैज्ञानिकों ने तरक्की की है।

जहां तक इन पश्चिमी वैज्ञानिकों की बात है वह अनेक तरह के अविष्कारों से नये नये साधन बना चुके हैं पर ऊर्जा के मामले में फैल हैं। परमाणु ऊर्जा का नाम बहुत है पर उसे केवल बम की वजह से जाना जाता है जो अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासकी पर गिराये थे। अगर उससे कुछ बिजली बनी भी है तो वह कोई समस्या का हल नहीं हैं। बात तो तब मानी जाये जैसे स्कूटर हर कोई आदमी चला लेता है वैसे ही उसके पास ऐसे साधन भी हों कि वह घर बैठे ही सूर्या से ऊर्जा एकत्रित कर उसे चला सके। कहीं ऐसा तो नहीं पश्चिम के वैज्ञानिक केवल उसी स्तर तक काम करते हों जहां तक आम आदमी सुविधाओं का दास बने और स्वतंत्र रूप से विचरण न कर सकें। इस महाप्रयोग का प्रचार कितना भी हो पर वह छठा तत्व-जिसे वैज्ञानिक जानने का प्रयास ही नहीं कर रहे-विज्ञान के कार्य करने की परिधि से बाहर है, यह बात तय है।
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Oct 1, 2008

जिन हाथों में था जाम,अब उड़ाते हैं शब्द कबूतर की तरह हर शाम-व्यंग्य कविता

देखता था शराब की नदी में
डूबते-उतरते उस
कलम के सिपाही को
कई बार लड़खड़ाते हुए
उसकी निगाहों में थी
बाहर निकलने के मदद की चाहत
दिखता था किसी बात से आहत
लड़खड़ाती थी जुबां बोलते हुए

कई बार किनारे वह आया
मैने अपना हाथ बढ़ाया
पर लौट जाता था
तब मैं डर जाता था
उसकी सूनी आंखों को
पढ़ते हुए

समय निकलता गया
नदी का दृश्य बदलता गया
अब वह वहां नजर नहीं आता
उसकी यादों से मन भर आता
बढ़ने लगते हैं हाथ कलम की तरफ
पराजित योद्धा की याद कर
जम जाती है मन में बर्फ
मैं बार बार जाता हूं
शराब की नदी के किनारे
उसे देखने की चाहत लिये हुए
मगर बोतल कांच की है तो क्या
उसमें अपना अक्स कौन देख पाता
रात को खुले आसमान की
देखता हूं तो
उसका चेहरा ख्यालों में आता है
नहीं उससे कोई हमदर्दी मेरी
पर उसके शब्दों को उड़ते देखता हूं
जो होते पंख लगाये हुए
शराब की नदी भी
कहीं न कहीं बहती हुई दिखती है
पर वह उसका चेहरा नजर नहीं पाता
पर उसके जिन हाथों में होते ही शाम
होता था जाम
वह नजर आते हैं अब भी
शब्दों को कबूतर की तरह उड़ाते हुए
................................


यह हिंदी शायरी मूल रूप से इस ब्लाग‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर लिखी गयी है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं है।
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Sep 30, 2008

उसका संघर्ष-हिंदी कहानी

तेज बरसात के कारण मैं एक जगह मंदिर के नीचे साइकिल खड़ी कर रुक गया। एक घंटे की तेज बरसात के बाद जब हल्की बूंदाबूदी होने गयी तो मैं चल अपने घर के तरफ। थोड़ी दूर जाकर देखा तो सड़क नहर बन गयी थी और यातायात अवरुद्ध हो गया था। मैं पैदल साइकिल घसीटता हुआ चला जा रहा था तो एक जगह न केवल पानी बहुत ऊंचाई पर बह रहा था बल्कि वहां एक इंच भी जगह आगे बढ़ने को नहीं थी। तब मैं वहीं सड़के के किनारे एक बंद दुकान पर खाली चबूतरे पर बैठ गया और साइकिल वहीं टिका दी।

थोड़ी देर सांस ली और फिर उस दुकान को देखा तो मुझे कुछ याद आया। यहां मैं कुछ महीने पहले ही अपने मोबाइल की सिम रिचार्ज कराने और बेकरी का सामान खरीदने आया था। वहां की दुकान पर चाय पी रहा एक मित्र मुझे देखकर मेरे पीछे अंदर चला आया।

वह मेरे से आठ वर्ष बड़ा था और काम काज के सिलसिले में ही उससे मेरी मित्रता हुई थी। वहां खड़ा लड़का बिस्कुट का पैकेट लेने गया दुकान में ही अंदर गया। मेरे साथ खड़ा मित्र मेरे को कुहनी मारकर बोला-ऐ देख, यार क्या वह सुंदर औरत आ रही है।’

मैंने बिना देखे उसे फटकारा-‘यार, अब तो तुम ससुर बने गये हो। कुछ तो शर्म करो।’
वह बोला-‘अरे यार, मैं तो केवल देखने की बात कर रहा हूं। क्या देखने में बुराई है?’
इतने में सेल्समेन आ गया और मैंने अनुभव किया कि दुकान में कोई अन्य शख्सियत भी दाखिल हो रही है शायद वही जिसका जिक्र मेरा मित्र कर रहा था। मैनें दायें तरफ मुड़कर देखा। वह मुस्कराते हुए मेरी तरफ आ रही थी।
उसने नमस्कार किया और बोली-‘कैसे हैं आप? आपको बहुत समय बाद देख रही हूं। दीदी कैसी है?’
हल्के कलर की पीली साड़ी और उसी रंग की माथे पर लगी बिंदिया!वह वाकई बहुत सुंदर लग रही थी, पर मेरे लिये वह अजनबी नहीं थी जो मैं इस विषय पर अधिक सोचता।
मैने कहा-‘सब ठीक है। तुम यहां कैसे आयी।’
वह बोली-‘यहां से निकल रही थी। आपको यहां अंदर आते देखा तो कार वहां पार्क कर चली आयी। सोचा कम से कम बात तो कर लूं और फोन नंबर भी लूं। दीदी क्या सोचती होंगी कि कभी मैंने उनसे संपर्क नहीं रखा।’
फिर वह दुकानदार से बोली-‘दो कोला देना!
मैंने कहा-‘यह साथ मेरा दोस्त भी है। पर मैं कोला नहीं पीता। हां, तुम चाहो तो बिस्कुट खाने के लिये ले लो। मैंने अभी खरीदे हैं।
वह हंस पड़ी फिर अपना विजिटिंग कार्ड मुझे देते हुए बोली-‘आप या दीदी फोन करना। मैं यहां से थोड़ी दूर ही कालोनी में रहती हूं। वैसे आपको देखकर लग रहा है कि आपने पीना वगैरह छोड़ दी है। पहले तो बहुत पीते थे।’

थोड़ी बातचीत हुई और वह वहां से चली गयी। मेरा दोस्त मेरे साथ सामान खरीदकर बाहर आया और बोला-‘यार, वह तुम्हें जानती है। तुम बहुत भाग्यशाली हो। कौन थी वह?’
मैंने उससे कहा-‘कभी यह बहुत तकलीफ में थी। अब ठीक है यह देखकर मुझे खुशी हुई। मैं उससे फोन पर बात करूंगा।’
मुझे याद आया काम के सिलसिल में उसकी कंपनी में जाता था। वह वहां लिपिक और टंकक का काम करती थी। अक्सर उससे मेरी मुलाकात होती थी। जब उसे पता लगा कि मैं लेखक हूं तो उसका मेरे प्रति और सम्मान बढ़ गया। उम्र में वह मुझसे बहुत छोटी थी पर आत्मीयता का भाव बहुत होता जा रहा था। संयोग वश एक विवाह में उसके साथ मेरी पत्नी और उसकी मुलाकात हुई। उसने मेरी पत्नी को बड़ी बहिन कह दिया। यह बात उसने अपने सहकर्मियों को बताई तो वह उसे मेरी साली कहने लगे। उसको इस पर कोई आपत्ति नहीं थी।

उसने कई बार मेरी पत्नी से भी फोन पर बातचीत की। एक दिन मैं उसकी कंपनी में गया तो उसके पास एक लड़का बैठा हुआ था। वह उससे बातचीत करती रही। उसके सहकर्मियों ने मुझे उसके पास नहीं जाने दिया और कहा कि‘वह उसका ब्वाय फ्रैंड है। आज हम उसका काम कर देते हैं।’
मुझे आश्चर्य हुआ पर यकीन नहीं हुआ। जहां तक मेरा अनुमान था वह कोई ब्वाय फ्रैंड बनाने वाली लड़की नहीं थी। वह लड़कों से खुलकर बातचीत करती थी पर पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि वह कहीं ऐसे दिल लगाने वाली नहीं है।
उसने मुझे दूर से ही नमस्कार की। मैं भी प्रत्युत्तर में सिर हिलाने के साथ मुस्कराया।

ऐसा तीन दिन हुआ। चैथे दिन मैं वहां पहुंंचा तो वह खाली बैठी थी। इस बार उसके सहकर्मियों ने मुझे नहीं रोका। वह रजिस्टर अपने हाथ में लेकर बोली-‘ तीन दिन तक आपसे बात बात नहीं हुई तो उनको देखकर आप कोई गलतफहमी मत पालना। मेरे पापा ने उनसे बात करने को कहा है। रिश्ते की बातचीत चल रही है। वह दूसरी कंपनी में हैं और यहां कुछ वक्त बिताने केवल इसलिये आते थे कि हम दोनों एक दूसरे को समझ सकें।’
मैंने हंसकर कहा-‘तो क्या विचार है? क्या मैं उम्मीद करूं कि आपके पापा अपनी बेटी और जमाई (मैं और मेरी पत्नी) को कब मिठाई खिलाने के लिये आमंत्रित करेंगे? वैसे मुझे तो लड़का ठीक लगा। क्या इरादा है?’
उसने शर्माते हुए कहा-‘बहुत जल्दी।’
उसकी शादी में हम दोनों-पति पत्नी गये। उसके बाद उसने वह नौकरी छोड़ दी और पति की कंपनी में ही काम करने लगी। उसका और मेरा संपर्क टूट गया। हां, मेरी पत्नी यदाकदा उसके बारे में पूछती थी पर मेरे पास उससे संपर्क रखने का कोई अवसर नहीं आया।
उसके पापा से मुलाकात हुई। उनसे पता लगा कि उसके ससुराल में उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा है। वह अपने पति जितना कमाती है पर उसके ससुराल में उससे घर का काम करने की भी अधिक अपेक्षा की जाती थी।
उसके एक सहयोगी ने बताया कि वह अब पीली पड़ गयी है और बहुत परेशान है। वह फिर उसी कंपनी में लौट आयी। मैं उसके पास गया। एक सुंदर और सुशील लड़की की आंखों पर उदासी देखकर मेरा मन भर आया।
उसने बातचीत करते हुएकहा-‘कामकाजी लड़की के लिये सभी जगह मुश्किल है। वहां सास और ननदें दिन भर बैठकर योजनायें बनाती हैं कि बहू घर में आये तो उसे ताने में क्या कहना है या यह करना है और में थकीमांदी पहुंचती हूं तो वह हमला कर देती हैं। मैं क्या करूं? पापा के घर लौट आयी हूं।’

एक दिन उसका पति मिला। मेरे साथ एक बुजुर्ग सज्जन खड़े थे। वह मुझसे बातचीत में अपनी पत्नी की शिकायत करने लगा। उन बुजुर्ग सज्जन को भी उसके बारे में जानकारी थी। मैं उसकी बातों का जवाब देता उससे पहले ही वह बोले-‘वह बहुत बुरी लड़की है-मैं तुम्हारी बात मान लेता हूं, पर वह अब तुम्हारा जिम्मा है कि मां, बहिन और उसके बीच समायोजन करो।’
उसका पति बोला-‘नहीं हो सकता बाबूजी।’
बुजुर्ग सज्जन ने कहा-‘क्या तुम मर्द नहीं हो? क्या तुम समझते हो कि तुम्हारे बाप ने ऐसी हालतों का सामना नहीं किया। वह अब कितना अपनी बहिन और भाई को पूछता है कभी तुमने देखा है। मां-बाप के साथ तुम्हारे बाप का क्या व्यवहार रहा मैं उसक बारे में भी जानता हूं। बेटा! समय के साथ आदमी अपनी पत्नी के करीब होता जाता है। औरत के साथ निभाने में आदमी को अपनी समझदारी का परिचय देना होता है।’
मैंने भी उन बुजुर्ग सज्जन का समर्थन किया। उसका पति हार गया था। दो दिन बाद वह जब मुझसे मिली तो उसने बताया कि ‘पतिदेव अब अपने माता पिता से अलग मकान ले आये हैं और कल से हम वहीं शिफ्ट हो गये हैं। उस दिन आपने क्या झाड़फूंक की है। अरे, आपको डर नहीं लगा। उन्होंने मुझे सब बताया। कभी कभी लगता है कि बहुत भोले हैं शायद आपसे अधिक!’

मैं खुश था। वह अभी उसी कंपनी में काम कर रही थी पर मेरा वहां जाना कम होता जा रहा था। उस दिन एक महीने बाद मैं पहुंचा। वह अपनी जगह पर नहीं थी। सहकर्मियों ने बताया कि उसका पति एक दुर्धटना में नहीं रहा। मुझे इस खबर ने विचलित कर दिया। साथ ही पता लगा कि वह अब अपने पिता के घर में है। घर पर पत्नी को बताया तो वह उसके लिये चिंतित होते हुए बोली-‘पर हम उसके पास कहां जायें? ससुराल के घर का पता है पर उसके पापा का तो मुझे पता नहीं है। अगर हम उसकी शादी पर गये हैं, तो हमें इस अवसर पर भी जाना चाहिए।’

पंद्रह दिन बात वह मुझे मिली। मुझे देखते ही उसने कहा-‘आपने चाहा पर मेरे भाग्य में खुशी नहीं थी। दीदी से कहना चिंता न करे। मैं भूल नहीं सकती कि आपने उस दिन उनको कितना लताड़ा था। आप चाहते थे कि मेरा घर बस जाये पर भाग्य को यह मंजूर नहीं था।’

मैंने उससे कहा-‘कोई बात नहीं। कुछ समय बाद दुःख भूल जाये तो दूसरा विवाह कर लेना। यह जिंदगी है इसको जीते रहना पर ढोना नहीं।’
मैं वहां चार महीने नहीं गया। एक दिन उसके पापा घर आये और एक मंदिर में उसके विवाह पर आने का आमंत्रण दे गये। उन्होंने कहा कि‘केवल खास लोगों को बुलाया है। आप भी जरूर आना।
पता चला कि लड़का कोई व्यवसायी है जिसका यह दूसरा विवाह है। दोनों का विवाह हो गया। कुछ दिन तक वह काम करती रही पर फिर उसने छोड़ दिया और पति के साथ ही व्यवसाय में कार्य करने लगी।

उसका हम दोनों से संपर्क करीब करीब समाप्त ही हो गया। हां, इधर उधर से उसके खुश रहने की खबरें आती थीं

मैं रास्ता जाम होने के कारण उसी दुकान पर अभी बैठा था जहां उससे मेरी आखिरी मुलाकात हुई थी। गाडि़यों के हार्न से मेरी सोच के दरिया में बाधा आयी। पानी अभी भी भरा हुआ था। आवागमन का अंत नजर नहीं आ रहा था। अचानक मैंने देखा कि तिराहे से एक उसी रंग की कार मुड़ रही है जो मैंने उसकी देखी थी। वह उसी कार को चला रही थी। मुझे याद आया कि उसने बताया था कि वह कहीं आसपास ही रहती है। शायद अगले मोड़ पर जाने वाले रास्ते में उसकी कालोनी थी। मैंने अपने हाथ में पसीना पौंछने के लिये रुमाल ले रखा था और फिर कुछ सोचकर उसे अपने चेहरे पर ऐसा घुमाने लगा कि जैसे पसीना भी पौंछ होऊं ताकि वह मुझे पहचान न सके।
वह देखेगी तो रुकेगी और पिछली मुलाकात का जिक्र करते हुए फोन न करने की शिकायत करेगी। हमारे घर का फोन नंबर बदल गया था जो कि मैंने उसे अभी तक नहीं दिया था। वह कार से उतर कर मेरे पास जरूर आयेगी इस बात की परवाह किये बिना कि यहां पानी भरा हुआ है-ऐसा मेरा यकीन था। मैं नहीं चाहता था कि वह उस कीचड़ में उतर कर आये। मैंने देखा वह धीरे-धीरे आगे निकल गयी और मैं भी उसकी कार के जाने के बाद अपने घर चल पड़ा। एक तो उसके ताने से बच गया दूसरा उसको खुश देखते रहने का अपना इरादा भी पूरा कर लिया। उसके जीवन का संघर्ष भुलाये भी नहीं भूलता है।
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Sep 20, 2008

प्यार का सौदा करने के लिए बनाते नफरत का रास्ता-हिन्दी शायरी

क्यों गुमराह हुए जा रहे हो
अपनी खोपडी में भी देखो
कहीं अक्ल का डेरा है
मत जाओ उस बाज़ार में
जहां हर मर्ज़ के इलाज
करने वाले नीम हकीमों का घेरा है

अपनी पीर को परे नहीं कर पाए
वह क्या ज़माने को रोशनी दिखाएँगे
पूरे बाज़ार का सामन मुफ्त में समेट कर भी
बैचैन हैं जिनकी रूह
कुछ और पाने को
दिखावे के लिए हमदर्द बनते हैं
भला दूसरे के दर्द को दूर भगाएंगे
जुबान से सुना रहे सपनों का हाल
अपनों से बजवा रहे वाह-वाह की ताल
वह ख्वाब बेचते हैं
हकीकतों से नहीं उनका वास्ता
प्यार का सौदा करने के लिए
बनाते हैं नफरत का रास्ता
उम्मीद करोगे उनसे तो
जो हाथ में है वह भी निकल जायेगा माल
अपनी खुशियाँ अगर किसी की नहीं हुईं
तो गम कैसे दूसरे का हो जायेगा
इसलिए अपना ही समझ जो दर्द तेरा है

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Aug 31, 2008

छटांक भर का रोग बचाकर लाये-हास्य व्यंग्य

मेरे मित्र ने कहा-‘कल कोई एक निबंध लिख कर लाना। मेरे बेटी वाद विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाली है तो उसे याद कर बोलेगी।’
उसने विषय बता दिया। अगले दिन मैंने उसे एक कागज पकड़ाया तो उसने मुझसे कहा-‘ऐ भाई! मैंने तुम्हें निबंध लिखने के लिये कहा था। यह क्या छटांक भर लिख कर लाये हो। क्या ब्लाग पर छटांक भर लिखते हुए एक किलो का लिखना भूल गये।’

हमने कुछ सुना कुछ नहीं। बात उससे आगे बढ़ी ही नहीं। छटांक भर शब्द पर ही हम अटक गये। क्या जोरदार शब्द था ‘छटांक भर’। अब तो हमने तय किया कि जब भी लिखेंगे छटांक भर ही लिखेंगे। इस शब्द में इतना आकर्षण लगा कि जब भी कोई हमारे ब्लाग से अंतर्जाल पर टकरायेगा यह शब्द पढ़कर जरूर पढ़ने के लिये प्रेरित होगा। जब से अंतर्जाल पर ब्लाग लिखना शुरू किया है तब से इसी फिराक में रहते हैं कि कोई ऐसा शब्द या पंक्ति हाथ लग जाये जिससे हम हिट हो जायें।

बहरहाल मित्र को दोबारा लिखने का आश्वासन दिया। उसके बाद घर आकर एक पुराना लेख निकाला। वह उसी विषय संबंधित था और उसे सौंप दिया। उसने पूछा कि ‘इतनी जल्दी कैसे लिख लिया’।
‘छटांक भर का काम था, इसमें हमें देर क्या लगती है।’हमने कहा
वह बोला-‘अगर यह छटांक भर का काम है तो कल वाले की तौल क्या होगी? उसका तो बांट भी नहीं मिलेगा।’
मैंने कहा-‘मेरे लिये तो सब छंटाक भर है।’
बस तबसे हमारे दिमाग में छटांक भर शब्द को अपना हथियार बना लिया।
कल एक चाय की दुकान पर गये। वहां चाय वाले से कहा-‘देना भई, छटांक भर चाय पिला देना।’
चाय वाला हमें घूर कर देखने लगा और बोला-‘बाबूजी, यह छटांक भर चाय का क्या मतलब है?’
हमने कहा-‘तुम तो रोज पिलाते हो भूल गये क्या?’
वह बोला-‘बाबूजी, तो आप कट चाय बोलिये ना! छटांक भर से मैं कन्फ्यूज हो गया।’
वह चला गया तो हमने उसे यहां काम करने वाले आदमी से कहा-‘भाई, जरा छटांक भर पानी पिला देना।’
वह भी घूर घूर कर हमें देखने लगा। हमने कहा-‘सुना नहीं। छटांक भर पानी पिला देना।’
वह बोला-‘पर छटांक भर पानी तोल कर कैसे लाऊं। वह तो ग्लास मेंे ही आयेगा।’
हमने कहा-‘तुम्हारा ग्लास ही तो छटांक भर का है। ले आओ उसी में।’
उसी समय हमारा वह मित्र भी आ गया। उसने आते ही चाय वाले को दो कप चाय लाने का आदेश दिया और हमारे सामने बैठ गया।
चाय पीते हुए हमने उससे एक आदमी की चर्चा करते हुए कहा-‘उसका छटांक भर फोन नंबर तो देना।’
वह बोला-मेरे पास नहीं है।’
हमने कहा-‘छटांक भर पता ही दे दो।
वह बोला-‘यह छटांक भर का क्या मतलब। पूरा का पूरा ही ले लो एक किलो का। वैसे मैंने तो मजाक में ही कह दिया था छटांक भर तुम तो उसे पकड़ कर बैठ गये।’
मैंने कहा-‘मैंने तो तुमसे कुछ कहा ही नहीं। छटांक भर बहुत हिट शब्द लगा सो पकड़ लिया। अधिक परेशान न होना। अगर हमारे ब्लाग खोलोगे तो वहां अब यही शब्द नजर आयेंगे।’
मेरा मित्र बोला-‘अजीब आदमी हो। इस छटांक भर की बीमारी को वहां भी ले गये।’
हमने पूछा-‘अब यह बताओ कि यह छटांक भर बीमारी क्या होती है वैसे यह आयी तो वहीं से ही थी।’
वह बोला-‘इस बीमारी का नाम है छटांक भर, पर तुम्हारे लिये एक किलो साबित होने वाली हैं। वैसे सच बताना क्या यह मेरे कहने से यह छटांक भर की बीमारी वहां ले गये हो।’
हमने कहा-नहीं! बल्कि यह बीमारी तो आई वहीं से। तुमने तो केवल उसे बढ़ाने का काम किया है। वहां लोग बोलते हैं कि छटांक भर का पाठ लिखता है।’
चाय पीकर हम दोनो बाहर निकले। थोड़ी दूर चलकर हमने एक बाजार देखा और उससे कहा-‘धूप बहुत है। उस किताब की दुकान पर चलते है और वहां से दिमागी बीमारियों के घरेलू इलाज करने वाली किताब खरीदते है।’
वह बोला-‘हां! यह ठीक है। इससे तुम इस छटांक भर की बीमारी से मुक्ति पा लोगे।’
मैंने कहा-‘पगला गये हो। हम अपने इलाज के लिये ही थोड़े ही खरीद रहे हैं। वह तो हमें अपने ब्लाग पर लिखना है। लोग कह रहे हैं कि छटांक भर कविताओं और व्यंग्यों से क्या होता है। सोच रहे है कि वहां आधी रात के बैठकर एक धारावाहिक लिखेंगे‘डाक्टर कहते हैं’, हो सकता है इससे हिट हो जायें।’
वह बोला-‘तुम अपनी बीमारी का क्या करोगे?
हमने कहा-‘उसकी फिक्र तो तुम जैसे दोस्त करें जिनकी वजह से यह लगी है। बहुत किस्मत से बिना बुलाये बीमारी आयी है वरना लोग तो हमदर्दी पाने के लिये बीमारी का नाटक करते हैं। जहां चार लोग बैठते हैं तो मधुमेह,उच्चरक्तचाप,टीवी और तमाम बीमारियों अपने होने की सूचना देकर वहां एक दूसरे से हमदर्दी जुटाते हैं। कुछ होती है और कुछ बताते हुए अपने आप बढ़ जाती है। उस बीमारी से वह स्वयं ही परेशान होते हैं पर हमारी छटांक भर बीमारी तो दूसरों के लिये परेशानी का सबब बनेगी। हमें तो हिट मिलेंगे।’

मित्र ने कहा-‘तब तो अगर तुम्हें कोई इनाम वगैरह मिले तो मुझे उसका हिस्सा हमें देना। आखिर यह बीमारी हमने दी है।’
हमने कहा-‘यह तुम्हारा भ्रम हैं। जिस तरह बीमारियों की चर्चा से बढ़ती हैं उसी तरह यह भी तुम्हारी चर्चा से बढ़ी है।
उसने पूछा-‘तो किसी ने ब्लाग वाले ने लिखकर यह बीमारी तुम पर लादी है। उसका नाम मुझे बता दो तो उसको धन्यवाद दूंगा। अरे, उसे हमारे दोस्त को हिट होने का मार्ग बता दिया।’

हमने कहा-‘हम तो उसका नाम भूल ही गये। यह छटांक भर शब्द आकर ही ऐसा चिपका कि सब भूल गये। हम बस खुश हैं। आह...आह......वाह क्या आईडिया मिला। अब तो समझो कोई पुरस्कार मिलकर ही रहेगा।’
मित्र ने कहा-‘साफ कहो संभावित पुरस्कार की सारी राशि हड़पने का मन है। इस शब्द का अविष्कारकर्ता मुझे मानते नहीं और जिसने किया है उसका बताते नहीं। यह भारी चालाकी दोस्तों के साथ नहीं चल सकती।’
हमने कहा-‘भारी भरकम कहां यार! अब तो बस छटांक भर कहो। तुम क्या नहीं चाहते हम ब्लाग पर हिट पायें।’
मित्र ने कहा-‘महाराज, मगर कोई पुरस्कार आ जाये तो छटांक भर हमारे साथ भी बांट लेना। अरे और कुछ नहीं तो छटांक भर मिठाई ही खिला देना।’
हमने कहा-‘हां, अगर कोई पुरस्कार आ गया तो शेयर कर दूंगा ‘छटांक भर’
हमारा मित्र बोला-‘यार, मुझे याद रखना चाहिए कि तुम अब ब्लागर हो। इसलिये ऐसे शब्द नहीं बोलूंगा जिसे चुराकर तुम हिट लो। ऐसे शब्द तुमसे बोलने से क्या फायदा जो छटांक भर भी फायदा न हो।’
हमने कहा‘क्या बात करते हो यार, छटांक भर फायदा तो होगा ही छटांक भर मिठाई खाकर।’
उसने अपना सिर हिलाते हुए कहा-‘नहीं! बिल्कुल नहीं। तुम्हारी जो हालत दिख रही है तुम भारी भरकम फायदा तो करा दोगे पर छटांक भर नहीं।’
अब हम उसकी तरफ देख रहे थे और लग रहा था कि हमारी बीमारी उसके पास जा रही है। पूरी तरह हमारी बीमारी चली नहीं जाये यह डर हमें लगने लगा। हम अपनी बची बीमारी के साथ वहां से चल दिये ।
.........................................................
नोट-यह व्यंग्य पूरी तरह काल्पनिक है तथा किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है। अगर किसी की कारिस्तानी से मेल खा जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

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Aug 22, 2008

देखने वाले सच भूल जाते-हिंदी क्षणिका

टीवी धारावाहिकों के
पारिवारिक क्लेशों पर लोग बतियाते हैंें
असल जीवन में ऐसे खलपात्र नहीं मिलते
जिनको देखकर वह घबड़ाते
झूठी कल्पनाओं और कहानियों के
नायक नायिकाओं
खलनायक खलनायिकाओं
को असल समझ कर
अपना दिल बहलाते
झूठ के पांव नहीं होते
इसलिये जमीन पर नहीं चलता
पर इलैक्ट्रोनिक पंख उसे
रंग बिरंगे रूप में लोगों के आगे इस तरह बिछाते
देखने वाले सच भूल जाते

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Aug 21, 2008

गुलाम आजाद होकर भी मालिक के लिखे पर चलता है-हास्य व्यंग्य कविता

गुलाम और आजाद में
यही फर्क दिखा है
आजाद चलते हैं अपने ख्याल से
गुलाम आजाद होकर भी
चलता है उस रास्ते पर
जो उसके मालिक ने अपनी किताब में लिखा है
...................................
सर्वशक्तिमान ने
एक आजाद आदमी को
धरती पर भेजते हुए पूछा
‘तू वहां क्या करेगा
किसी की चाकरी या
मालिकी करेगा’
आजाद आदमी ने कहा
‘दोनों में ही गुलामी होगी
गुलामी तो है ही बुरी
मालिकी में भी अपनी संपत्ति की
देखभाल करना गुलामी से क्या कम है
इसलिये वहीं विचरण करूंगा
जहां मेरा मन कहेगा
सर्वशक्तिमान ने धरती पर जाते गुलाम से पूछा
‘क्या तू भी धरती पर
आजादी से विचरण करेगा’
गुलाम ने कहा
‘इस जन्म में आजादी बख्श दें
तो बहुत अच्छा है
पर मालिक का नाम पहले ही बता दें तो अच्छा
वहां जाकर ढूंढना नहीं पड़ेगा
.....................................


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Jul 16, 2008

भीड़ के चैन कहां मिलता है-हिंदी शायरी


शोर में शांति की तलाश
पराये झगड़े में मनोरंजन की आस
आदमी अपने लिये ढूंढता है चैन वहां
मिलती है बैचेनी जहा
....................
शांत करना पड़ता है दिल
तब ही मिलती है शांति
आंखों की दृष्टि हो साफ
तभी सुंदर लगती है कि
किसी सूरत की कांति
केवल तालियां बजाने से
कहीं भला चैन मिलता है
देखा गया दृश्य आंखों से
कानों से निकलकर सुर
तब ही पहुंच सकता है दिल तक
सत्य से परे होने की न हो भ्रांति
..................................................

उन्होंने पूछा एक पथिक से
‘क्या उस जगह का नाम
बता सकते हो जहां चैन मिलता हो
जहां मिले ऐसे लोगों की संगत
दिल का सुकून जिनसे मिलता हो’
पथिक ने कहा
‘जगह तो बहुत मिलेंगी
पर लोगों की संगत का पता नहीं
मिलते हैं चार जहां
जंग का आलम होता वहां
जहां हो वहीं ढूंढ लो अकेले में
भीड़ लोगों की हो या चीजों की
इनमें भल चैन कहां मिलता है
........................
दीपक भारतदीप

Jun 27, 2008

उनका ही सावन साथी होता-हिन्दी शायरी

आकाश में छाये काले बादल
तन को छूती हैं बरखा की बूंदें
मन को खुश करती बहती हुई शीतल हवा
ऐसे में आती हैं होंठो पर हंसी
कोई दिल में ख्याल नहीं होता
अक्सर यह सोचता हूं कि
समझ सकता खुशी क्या होती है
ऐसा कोई साथ होता
मुर्दा चीजों में मन लगाते हैं सब
जानते नहीं कि तसल्ली क्या होती
गर्मी में बंद वातानुकूलित कमरों में
अपनी जिंदगी का पल गुजारने वाले
क्या जाने सुख का मतलब
अवकाश के दिन पिकनिक
मनाने का इंतजार करते
जब लगती है धूप सताने
जिन्होने दी गर्मी में सूरज की जलती धूप को
अपने खून से पसीने की दी है आहूति
उनका ही सावन साथी होता
और वर्षा की हर बूंद उनके लिए अमृत होता
--------------------
दीपक भारतदीप

Jun 22, 2008

सापेक्ष मंत्र ही है जीवन का आधार-हिन्दी शायरी


जब दिल में हो अकेले होने को
होता है अहसास
तब बुरे ख्याल आ ही जाते हैं
जब भीड़ में
हो जाते अकेले ही अनायास
तब नापसंद लोग भी
सामने चले आते हैं
हम चाहकर भी सोच नहीं बदल पाते
न आंखे हटा पाते हैं
अपने मन में अंतद्र्वन्द्वों के
जाल में स्वयं ही फंसकर छटपटाते हैं

बुरे ख्याल छोड़ना हो
या नापसंद आदमी से मूंह फेरने की
कोशिश करने से से अच्छा है
किसी अच्छे ख्याल की तरफ चले जायें
किसी पसंद के शख्स को पास बुलायें
उपेक्षा कोई मंत्र नहीं है जो
उबार सके अंतद्र्वंद्वों से
सापेक्ष मंत्र ही है जीवन का आधार
मन जिनमें नही रमता
उनसे दूर हटकर भी कहां जीवन जमता
ऐसे में कोई नया कर दिखायें
बदल दें अपनी दिशायें
जिंदगी में अमन रखना है तो
किसी से दूर रहने के लिये
किसी के पास चले जाते हैं
हम तो इसी सापेक्ष मंत्र से
जीवन के दर्द का इलाज करते जाते हैं
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दीपक भारतदीप

Apr 17, 2008

तस्वीरों को दिखाकर मत बहलाओ-हिन्दी शायरी

तस्वीरों को दिखाकर मत बहलाओ
जो छिपा रहे हो
पहले वह सच बताओ
आहिस्ता-आहिस्ता अपने शब्दजाल में
लोगों को फंसाने की कोशिश करते हुए
दूसरों की सोच को न भूल जाओ
सामने से सभी तस्वीरें
दिल को छू जातीं है
पर अपने पीछे से
कभी किसी को सूंदर नहीं लगतीं
इसलिये सामने ही लगायी जातीं हैं
शब्दों के अर्थ भी कई होते हैं
तुम खुद हो एक भ्रम में
दूसरों को न उलझाओ

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ऊंची इमारतों, होटलों और पार्कों की तस्वीर
नहीं होती किसी शहर की तकदीर
भूख, गरीबी और बीमारी की
बस्तियां सभी जगह होती हैं
जिन पर टिकी है शहर की चमक
गरीब के अंधेरे भी वहीं होतें
लिखें किसी शहर की तारीफ में जो शब्द
उसमें क्यों नहीं आया किसी गरीब का दर्द
यह तुम्हारी चालाकी है या अनजानापन
तुम्हारी तस्वीर और शब्दों में
कभी पूरी हकीकत बयान नहीं होती है
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Apr 13, 2008

फिर गुरु की भूमिका में आते हैं-कविता

कई बस्तियां बसीं और उजड़ गईं
राजमहल खडे थे जहाँ
अब बकरियों के चरागाह हो गए

सर्वशक्तिमान अपनी कृपा के साथ
कहर का हथियार नहीं रखता अपने साथ
तो कौन मानता उसे
कई जगह उसका भी प्रवेश होता वर्जित
नाम लिया जाता
पर घुसने नहीं दिया जाता
नरक और स्वर्ग के दृश्य यहीं दिखते
फिर कौन ऊपर देख कर डरता
खडे रहते फ़रिश्ते नरक में
शैतानों के महल होते सब जगह
जो अब इतिहास के कूड़ेदान में शामिल हो गए
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चंद किताबों को पढ़कर
सबको वह सुनाते हैं
खुद चलते नहीं जिस रास्ते
वह दूसरे को बताते हैं
उपदेश देते हैं जो शांति और प्रेम का
पहले वह लोगों को लडाते हैं
फिर गुरु की भूमिका में आते हैं
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Mar 26, 2008

सोचता हूँ बेनाम हो जाऊं-हिन्दी शायरी

शिखर पर चमकते हुए बहुत देखे सितारों जैसे नाम
पर अपना नाम जमीन पर गिरा पाया
भीड़ से बचने की कोशिश की तो
अपने नाम को ही पाँव में कांटे की तरह चुभा पाया
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं

खुशी और दुख के पल तो आते रहेंगे
कभी गर्मी की तपिश में जलेगा बदन
तो कभी बसंत की शीतलता का वरण करेंगे
सुख में तो साथी तो सब होते हैं
दुख में हंसता है ज़माना हमारा नाम लेकर
दर्द बांटे तो किसके साथ
सभी के अपने बडे नाम के साथ बंधे हैं हाथ
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं


अपने दर्द पीना जब सीख लिया है
दुख को पीना सीख लिया है
फिर क्यों हंसने का अवसर दूं
क्यों न भीड़ में एक दृष्टा बनकर
दुनिया के नजारों का मजा लूं
किसी का हमदर्द होने के लिए
क्या नाम का होना जरूरी है
किसी का दुख बांटकर
क्या मशहूर होना जरूरी है
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं



Mar 17, 2008

खुद दिखने का अहसास-हिन्दी शायरी

जमाने के देखने के अहसास में संवरता जाता
जमाने में हर कोई खुशफहमी में चलता जाता
सब चल रहे हैं आँखें खोलकर, पर दिखता नहीं
खुद दिखने का अहसास, दूसरे को देख नहीं पाता
अपने आशियाने में हमेशा जुटाता तमाम सहूलियतें
समय के झोंके से पल भर में सब धूल हो जाता
पर जिन्होंने लिखी अपनी पसीने से इबारत
उनको समय चिरकाल तक मिटा नहीं पाता
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Mar 10, 2008

समन्दर गहरा कि मन-हिन्दी शायरी

समन्दर गहरा है कि मन
कोई नहीं जान पाया
जिसने जैसा समझा बताया
दोनों पर इंसान काबू नहीं कर सकता
पर फिर भी इसका उपाय बताया

समन्दर में मीठे पानी की तलाश में
आदमी का मन ललचाया
जहाँ मिलता है मीठा पानी
वहाँ से उसका मन कभी नहीं भर पाया

चारों तरफ रौशनी में बैठा शख्स
अंधेरों में रहने वालों का दर्द बयान कर
लूटता हैं वाह-वाही
पर गली में जाने से उसका मन डरता है
उसके बडे होने के अहसास में
कोई सच उनके सामने कह नहीं पाया
अनजाने खौफ में जीता आदमी का मन
समन्दर की लहरों की तरह उठा और गिरता है
हम उसे नहीं चलाते
हमारी जीवन की नैया का मांझी है मन
भला इस सच को कौन जान पाया

अँधेरे में जिनके घर डूबे हैं
वह फिर भी जिन्दगी से नहीं ऊबे हैं
क्योंकि उम्मीद हैं उनको किसी दिन
रौशनी उनके घर में आयेगी
पर जो पी रहे हैं धरती और आकाश की रौशनी
जीते हैं एक डर में
पता नहीं कब अँधेरा उनके निकट आ जाये
इसके लिए उन्होने षड्यंत्रों को
अपना कवच बनाया
जिन्होंने लांघी मजबूरी की हद
वही जीते हैं जिन्दगी को सहजता से
समन्दर गहरा कि मन
उन्होने ही जान पाया
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Feb 28, 2008

किसी को रात डराती है तो किसी को दिन-हिन्दी शायरी

हमने देखा था उगता सूरज
उन्होने देखा डूबता हुआ
वह कर रहे थे चंद्रमा की रौशनी में
जश्न मनाने की तैयारी
पर हमने देखा था पूरा दिन
हमारा मन भी था डूबा हुआ
वह आसमान में टिमटिमाते तारों की
बात करते हुए खुश हो रहे थे
जबकि हमारा बदन था
तब भी पसीने की बदबू लिया हुआ
सबकी जमीन और आसमान
अलग-अलग होते हैं
किसी को रात डराती है तो किसी को दिन
किसी को भूख नहीं लगती किसी को सताती है
इसलिए सब होते हैं अकेले
क्योंकि कोई किसी का नहीं हुआ
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Feb 1, 2008

क्या तुमने यह ख्वाब देखा है-कविता साहित्य

जाने-पहचाने सफर पर तो
रोज चलते हैं
पर कभी अनजाने सफर पर
चलकर भी देखा है
जान-पहचान के लोगों से
मिलकर तो रोज
कभी जानी हुई बात करते हैं
पर क्या कभी अनजान लोगों से
अपने को अनजानी बाते करते देखा

रोज वही चेहरे और वही स्वर
मन को नहीं लुभा सकते
चाहे कितने दिल और देह के करीब हों
कभी अपने मन को
अनजानों में एक अनजान की तरह
घूमने के लिए तरसते देखा है
जाने-पहचाने लोगों की महफ़िल में
भला कहाँ प्यार मिल पाता है
कभी अनजान चेहरों में
तुमने हमदर्दी का भाव देखा है

दुनिया उससे बहुत बड़ी है
जितनी तुम देखते हो
इस छोर से उस छोर तक
बहुत कुछ है देखने लायक
पर क्या तुमने उसको अपने से
दूर तक देखने का ख्वाब देखा है

Jan 24, 2008

अपने आसरे चलना सीख नहीं पाते-कविता साहित्य

कितनी बार टूटता भरोसा
फिर भी हम किये जाते
क्योंकि अपने लिए इसके
अलावा कोई रास्ते नहीं बन पाते
अपने नसीबों पर करते हैं
हमेशा भरोसे की बात
पर दिल से खौफ इंसानों का निकाले नहीं पाते

खडे होते एक जगह
पर भटकता मन कहीं दूर
कोई तो बन जाये हमारा हुजुर
अपने इरादों पर चलने से घबडाते
अपना भरोसा दिखाकर
कितने ढहाते सितम-दर-सितम
पर हम खामोशी से सह जाते
सिलसिला चलता है बरसों तक
फिर भी अपने आसरे चलना सीख नहीं पाते
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Jan 23, 2008

उदास हो जाना कभी अच्छा लगता है-कविता साहित्य

उदास हो जाना कभी अच्छा लगता है
ख़्वाबों को हमेशा टूटे देख
सपनों को बिखरते देख
कब तक और किससे लड़ें
खामोश हो जाना अच्छा लगता है

जमीन और आकाश के बीच
जिन्दगी जब थकती सी लगे
अपनों से दूरी बढ़ने लगे
कुछ पाकर भी दिल होता बेचैन
अपने दर्द से भीग जाएं अपने नैन
उदास हो जाना कभी अच्छा लगता है

कायदों के करें हमेशा अपनी बात
वही फायदे के लिए मारते लात
कभी गुस्सा तो कभी बेचैनी से
भर जाता है मन
बिना आग के ही जलता मन
तब खामोशी ओढ़ना लगता ठीक
उदास हो जाना कभी अच्छा लगता है

Jan 22, 2008

अनजाने लोगों के बीच ढूँढें सच्चा प्यार-कविता साहित्य

जब भी हम ढूढ़ते हैं अपने लिए प्यार
पर मिलती है सब जगह से दुत्कार
खुद करो चाहे किसी से भी तुम
मांगो न किसी से इसका उपहार
लोग नहीं निकल पाते अपने दिल से
खरीदा और बिकता पैसे से यहाँ प्यार
भाषा में बहुत होते हैं सुन्दर शब्द
पर बोलने में सब लोग हैं लाचार
अपनों में कितना भी तलाशो नहीं मिलता
गैरों भी नहीं मिल सकता जल्दी प्यार
शब्द में होती ढेर सारी शक्ति
पर पैसे से ही लोग देते-लेते प्यार
बेहतर है निकल पड़े अनजाने सफर पर
शायद कहीं मिल जाये प्यार
अपनों की भीड़ में रहकर ऊबने से अच्छा है
अनजाने लोगों के बीच ढूँढें सच्चा प्यार

Jan 21, 2008

चैन से जिन्दगी की जंग लड़ने भी नहीं देते- कविता साहित्य

हमारे लिए जिनके मन में दर्द है
उनका प्यार हमें डरा देता है
सोचते हैं कि हम ही झेलें अपनी पीडा
किसी दूसरे को क्यों सताएं
हमारे लिए कोई और तडपे
यह ख्याल ही दर्द बढा देता है

समय गुजरता जायेगा
अपने इरादों को हम पहुंचा देंगे
यही सबको बताते
पर लोग हैं कि यकीन नहीं करते
हमें पसीना बहते देख
अपनी आंखों में पानी लाते
अक्ल के अंधे
बेरहम जमाने से लड़ते देख
पल-पल घबडा जाते
हम सोचते हैं कि वह क्यों नहीं होते दूर
चैन से हमें अपने जिन्दगी की जंग
कभी लड़ने क्यों नहीं देते
अपनी जिन्दगी से
पर कह नहीं पाते
फिर ख्याल आता है
जिन्दगी की जंग की हार-जीत से
बहुत बड़ी है हमदर्दी और प्यार
जो हम अपने चाहने वालों से पाते हैं
यही ख्याल हमें अपने से दूर हटा देता है
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Jan 19, 2008

ऐसी कविता मत लिखो-कविता साहित्य

जो तुम्हारे मन की घुटन को
कभी दूर न कर श्के
जो तुम्हें दर्द देने वालों को
कदम पीछे हटने के लिए
मजबूर न कर सके
ऐसी कविता मत लिखो

शब्दों के दलालों की मंडी
सजी है सब जगह
कान और आँख खडे राशन में
एक लाइन की मजबूर की तरह
जो मिलेगा वही पढेंगे और सुनेंगे
भेद न सके गिरोह की चालों को
ऐसी कविता मत लिखो

तुम्हारे अन्दर की पीडा
बन जाये दूसरे के लिए अमृत तो ठीक
जहर बनकर किसी को डसे
तुम्हारे शब्द किसी को कर सकें
उसके मानसिक अंतर्द्वंद से मुक्त तो ठीक
पर वह भ्रम में जाकर फंसे
ऐसी कविता मत लिखो

तुम जिन हांड-मांस के पुतलों को
बोलते, देखते और सुनते देख रहे हो
अपने स्वार्थों की चाबी के भरे
रहने तक ही चलते हैं
खतरनाक चेहरे और आवाजों को
देखकर सहमते हैं
जो नहीं भर सकें उनमें
इंसानों जैसी संवेदनाएं
ऐसी कविता मत लिखो
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Jan 17, 2008

निकले थे दोस्त ढूँढने-कविता

निकले थे राहों पर दोस्त ढूँढने के लिए
हर कोई खडा था अपने हाथ में खंजर लिए
मन में आ गया खौफ पाँव चलते थे आगे
बार-बार आँखे चली जातीं पीछे देखने के लिए

पूरा सफर यूं ही कटा मिलीं न वफ़ा
लौटे अपने घर अपने दिल को खाली लिए
भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए
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Jan 16, 2008

इतिहास के खंभे खडे हैं उनके नाम-कविता

याचना करने से भीख मिलती हैं
वाचना करने से इनाम
जिन्दगी एक खेल है
चलती है अपनी राह अपनी अदा से
आदमी लिखना चाहता उस पर नाम

जहाँ खामोशी होना चाहिए
वहाँ जोर से चिल्लाता है
जहाँ करना चाहिए आवाज
वहाँ डर कर बंद कर लेता आँख
अनेक दुश्मन मान लेता अनाम
ख्वाहिशें पूरी होने के अनुमान से
चक्कर काटता है नकली मोहब्बत की गलियों में
सोचता है शायद कहीं हो जाये
उसके दिल के पूरे अरमान

रखा जिन्होंने अपने पर भरोसा
जिन्दगी में वही छोड़ते हैं
दूसरों को सीखने के लिए
अपने पैरों के निशान
याचना और वाचना करने वाले
अपने घर भर सकते हैं
दुनिया भर के साजो-सम्मान
जो वक्त के साथ उनके घर का
कबाड़ भी बन जाता है
सस्ते में खो देते हैं स्वाभिमान

जिन्होंने जिया अपनी जिन्दगी को
अपने तरीके से
अपना सम्मान सजाया है दिल में
ईमान के साथ सलीके से
नहीं जुटाया कोई अपने बैठने के लिए फर्नीचर
कई इतिहास के खंभे खडे हैं
लिखा है जिन पर उनका नाम

Jan 15, 2008

रिश्ते अब उदासी से हो गये-कविता

हमने तो चाही थी खुशी उनकी
पर वह हमें उदासी दे गए
कुछ नहीं माँगा था उनसे
सिवाय कुछ प्यार के पलों के
छोड़ दिया शहर प्रवासी हो गए

कितनी अजीब हैं दुनिया
अपनी बेबसी के साथ जीते लोग
दूसरे की लाचारी पर हँसते हैं
लड़ते हैं जमाने के लिए जो शूरवीर बनकर
जख्म उनके अकेले सहलाने के लिए बचते हैं
हमने उनके लिए बनाया रास्ता
ख़त्म कर दिया उन्होने हमसे वास्ता
हम तो लड़ते रहे हैं हारी हुई ऐसी लड़ाई
जिसमे जीत कभी हो नहीं सकती
शोर से दूर ही होती हमारी बस्ती
हारते जाते हैं
फिर भी लड़ते जाते हैं
रास्ते में कोई मिला
उसके साथ हो जाते हैं
शायद कोई दिल का हाल
सुनकर हमदर्द बन जाये
पर जो आयी उनकी मंजिल
हमें अकेला छोड़ जाते हैं
तन्हाई में बैठकर हँसते हैं
कभी अपने हाल पर रोते हैं
थकती लगती हैं जिन्दगी
रिश्ते अब उदासी से हो गए
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Jan 14, 2008

क्या लिखूं "ब्लोगश्री कि ब्लोगरश्री-हास्य-व्यंग्य

(२ जनवरी को वर्डप्रेस पर प्रकाशित व्यंग्य की पुन: प्रस्तुति)
दरवाजे पर दस्तक हुई तो ब्लोगर की पत्नी ने खोला सामने वह शख्स खडा था जिसके बारे में उसे शक था कि वह भी कोई ब्लोगर है-उस समय उसके गले में फूलों की माला शरीर पर शाल और हाथ में नारियल और कागज था। इससे पहले कुछ कहे वह बोल पडा-''नमस्ते भाभीजी!''आप कहीं ब्लोगर तो नहीं है? आप पहले भी कई बार आए हैं पर अपना परिचय नहीं दिया-'' उस भद्र महिला में कहा।
"कैसी बात करती हैं?मैं तो ब्लोगरश्री हूँ अभी तो यह सम्मान लेकर आया हूँ-''ऐसा कहकर वह सीधा उस कमरे में पहुंच गया जहाँ पहला ब्लोगर बैठा था।
उसे अन्दर आते देख वह बोला-"क्या बात है यह दूल्हा बनकर कहाँ से चले आये।
''दूसरे ब्लोगर ने कहाँ-''आपको बधाई हो। मेरा सम्मान हुआ है।
''पहले ब्लोगर ने कहा-''सम्मान तुम्हारा हुआ है, बधाई मुझे दे रहे हो?''दूसरा-''तुम तो मुझे दोगे नहीं क्योंकि मुझसे जलते हो.''
पहला ब्लोगर उससे कुछ कहता उसकी पत्नी बोल पडी-बधाई हो भाईसाहब, चलो आपका सम्मान तो हुआ। जरूर आप अच्छा लिखते होंगे। इनकी तरह फ्लॉप तो नहीं है।'
दूसरा ब्लोगर-''भाभीजी, आप खुश हैं तो आज चाय का एक कप पिला दीजिये।''
वह बोली-'आप आराम से बैठिये, मैं चाय के साथ बिस्कुट भी ले आती हूँ।''
पहला ब्लोगर बोला-"चाय तक तो ठीक है पर बिस्कुट बाद में ले आना पहले देख तो लूं इसे सम्मान कैसा मिला है?''
पत्नी ने कहा-'चाहे कैसा भी है मिला तो है। आपके नाम तो कुछ भी नहीं है वैसे भी घर मेहमान का सम्मान करना चाहिए ऐसा कहा जाता है।''
वह चली गयी तो दूसरा बोला-''यार, तुम में थोडा भी शिष्टाचार नहीं है, मुझे सम्मान मिला है तो तुम थोडी भी इज्जत भी नहीं कर सकते।
पहला-''यार, जितनी करना चाहिऐ उससे अधिक ही करता हूँ, पहले यह बताओं यह सम्मान का क्या चक्कर है? तुमने अभी तक लिखा क्या है?''
दूसरा-''जिन्होंने दिया है उनको क्या पता?मोहल्ले के लोगों में यह बात फ़ैल चुकी है कि मैं इंटरनेट पर लिखता हूँ। इस वर्ष से उन्होने अपने कार्यक्रम में किसी को सम्मानित करने का विचार बनाया था। मैंने कुछ लोगों को समझाया कि देखो अपने यहाँ भी कई प्रतिभाशाली लोग हैं उनको सम्मानित करना शुरू करो इससे हमारी इज्जत पूरे शहर में बढेगी और अखबारों में खबर पढ़कर अपने नाम भी लोगों की जुबान पर आ जायेंगे।''
पहला ब्लोगर-'यह माला, शाल और नारियल कहाँ से आये इसका खर्चा किसने दिया? और यह हाथ में कौनसा कागज पकड रखा है?''
दूसरा ब्लोगर-''हमारे पास एक मंदिर है उसके बाहर जो आदमी माला बेचता है उससे ऐसे ही ले आया। यह नारियल बहुत दिन से घर में उसी मंदिर में चढाने के लिए रखा था पर भूल गए थे। यह शाल सेल से मेरी पत्नी ले आयी थी पर पहन नहीं पायी, और यह कागज़ नहीं है, उपाधि है, इसे मैंने खुद अपने कंप्यूटर पर टाईप किया है अब इस पर भाभीजी के दस्तक कराने हैं। वहाँ मुझे इस लायक कोई नहीं लगा जिससे इस पर दस्तक कराये जाएं। ''
पहला ब्लोगर हैरानी से उसकी तरह देख रहा था। इतने में वह भद्र महिला उसके लिए बिस्कुट ले आयी तो वह बोला-''भाभीजी, आप मेरे इस सम्मान-पत्र पर दस्तक कर दें तो ऐसा लगेगा कि मैं वाकई सम्मानित हुआ। आपने इतनी बार मुझे चाय पिलाई है सोचा इस बहाने आपका कर्जा भी उतार दूं। ''
वह खुश हो गयी और बोली-''लाईये, मैं दस्तक कर देती हूँ, हाँ पर इनको पढ़वा दीजिये तब तक मैं चाय बनाकर लाती हूँ।''
वह दस्तक कर चली गयी तो पहला ब्लोगर कागज़ अपने हाथ में लेते हुए बोला-''मुझसे क्यों दस्तक नहीं कराये?'
दूसरा बोला-''क्या पगला गए हो? एक ब्लोगर से दस्तक करवाकर अपनी भद्द पिट्वानी है। आखिर ब्लोगरश्री सम्मान है?''
पहले ब्लोगर ने पढा और तत्काल दूसरे ब्लोगर के सामने रखी बिस्कुट के प्लेट हटाते हुए बोला-''रुको।
दूसरे ब्लोगर ने हैरान होते हुए पूछा-''क्या हुआ?''
पहले ब्लोगर ने कहा-''इसमें एक जगह लिखा है ब्लोगश्री और दूसरी जगह लिखा है ब्लोगरश्री। पहले जाकर तय कर आओ कि दोनों में कौनसा सही है? फिर यहाँ चाय पीने का सम्मान प्राप्त करो।'
दूसरा ब्लोगर बोला-''अरे यार, यह मैंने ही टाईप किया है। गलती हो गयी।''
पहला ब्लोगर--''जाओ पहले ठीक कर आओ। दूसरा कागज़ ले आओ।
दूसरा ब्लोगर-अरे क्या बात करते हो? ब्लोग पर तुम कितनी गलतिया करते हो कभी कहता हूँ।'
पहला-"तुम मेरा लिखा पढ़ते हो?''दूसरा-''नहीं पर देखता तो हूँ।'
पहले ब्लोगर की पत्नी चाय ले आयी और बोली-''हाँ, इनको पढ़वा लिया?'' दूसरा ब्लोगर-''हाँ भाभीजी इनको कैसे नहीं पढ़वाता। इनकी प्रेरणा से ही यह सम्मान मिला है।''
पहला ब्लोगर इससे पहले कुछ बोलता उसकी पत्नी ने पूछा-''आप लिखते क्या हैं?''
दूसरा ब्लोगर चाय का कप प्लेट हाथ में लेकर बोला--''बस यूं ही! कभी आप पढ़ लीजिये आपके पति भी तो ब्लोगर हैं।''
वह बोली-''पर आप तो ब्लोगरश्री हैं।''
पहला ब्लोगर बोला-''ब्लोगरश्री कि ब्लोगश्री।''
दूसरे ब्लोगर ने उसकी बात को सुनकर भी अनसुना किया और चाय जल्दी-जल्दी प्लेट में डालकर उदरस्थ कर उठ खडा हुआ और बोला-''बस अब मैं चलता हूँ। और हाँ इस ब्लोगर मीट पर रिपोर्ट जरूर लिखना।''
पहले ब्लोगर ने पूछा-''क्या लिखूं ब्लोगरश्री या ब्लोगश्री?''
दूसरा चला गया और पत्नी दरवाजा बंद कर आयी और बोली-''आप कुछ जरूर लिखना।''
पहले ब्लोगर ने पूछा-''तुमने दस्तक तो कर लिया अब यह भी बता तो क्या लिखूं..........अच्छा छोडो।
जब वह लिखने बैठा तो सोच रहा था कि मैंने तो उससे पूछा ही नहीं कि इस पर कविता लिखनी है या नहीं चलो इस बार भी हास्य आलेख लिख लेता हूँ
नोट- यह काल्पनिक हास्य-व्यंग्य रचना है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोइ संबंध नहीं है और किसी से मेल खा जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.

Jan 13, 2008

अपने-अपने होते हैं अंदाज

यूं तो सपनों में भी वही आते हैं
जिन्हें हम देख पाते है
पर जागते हुए हम
कितना जागरूक रह पाते हैं
आसमान से जमीन पर आती हवाएं
जब सूरज की किरणें
फ़ैल जातीं है चारों ओर
पर इंसान उनके दृश्यों को कितना
अपनी आंखों में समेट पाते हैं
फिर भी अपने शक्तिशाली
और संपन्न होने का भ्रम
कितने लोग छोड़ पाते हैं

हवा तो छूकर निकल जाती है
सूरज की किरणे
चिपकी रहतीं है साथ पर
उनके स्पर्श की आत्मिक अनुभूति
कहाँ कर पाते हैं
जीवन में पल-पल पाने का मोह
हमें दूर कर देता है सुखद
और एकाकी पलों को
जीते कहाँ है
हम तो जिन्दगी को ढोते जाते हैं.
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अपने-अपने होते हैं अंदाज
सबके होते हैं कुछ न कुछ राज
पूरी जिन्दगी गुजर जाते हैं
कुछ बताने और कुछ छिपाने में
जान नहीं पाते अपनी जिन्दगी के राज
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Jan 2, 2008

बिना दर्द के भी इंसान तडपता

कभी-कभी उदास होकर
चला जातो हूँ भीड़ में
सुकून ढूँढने अपने लिए
ढूँढता हूँ कोई हमदर्द
पर वहाँ तो खडा रहता है
हर शख्स अपना दर्द साथ लिए
सुनता हूँ जब सबका दर्द
अपना तो भूल जाता हूँ
लौटता हूँ अपने घर वापस
दूसरों का दर्द साथ लिए

कभी सोचता हूँ कि
अगर इस जहाँ में दर्द न होता
तो हर शख्स कितना बेदर्द होता
फिर क्यों कोई किसी का हमदर्द होता
कौन होता वक्ता कौन श्रोता होता
तब अकेला इंसान तडपता
किसी का दर्द पीने के लिए