Oct 31, 2008

तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा-व्यंग्य कविता

कहीं प्रेम का दरिया बहेगा
कहीं भड़केंगे नफरत के शोले
कहीं बेकसूरों का खून बहेगा
कहीं कसूरवारों के सिर पर मुकुट सजेगा

जब न हो अपने पास फैसले की ताकत
तब भला क्या करिएगा
लोग भागते हो जब अपने जिम्मे से
तब कौन शेर बनेगा
जिंदगी की अपनी धारा
फूल चुनो या कांटे
दृश्य देखने के लिए दो ही हैं
कही केवल होता है मौत का सौदा
कहीं दरियादिल बांटते हैं दया
इंसानियत के दुश्मनों से लड़ते हैं बनकर योद्धा
जो अच्छा लगे उसे ही देखों
खतरनाक दृश्य भला क्या देखना
नहीं है जिंदगी के सौदागरों का भरोसा
कहीं उडाया बम कहीं इनाम परोसा
नज़रों के दरवाजे से दिल पर
कब्जे की जंग चलती दिख रही है सभी जगह
हो न हो बना लेते हैं कोई न कोई वजह
नफरत की नहीं
बाजार में अब प्रेम की जंग बिकती हैं
हर कहानी पैसे की दम पर लिखी दिखती है
छोड़ दो ऐसी जंगो पर सोचना
एक इंसान के रूप तभी तुम्हारा चेहरा बचेगा
वरना प्रेम का दरिया तो बहता रहेगा
नफरत के शोले भी जलते रहेंगे
तुम देखते और पढ़ते रहे दूसरों की कहानी
तो तुम्हारा दिल अपने हाल कब पढेगा

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