Apr 26, 2011

विकिलीक्स वाले जूलियन असांजे , अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की तिकड़ी-व्यंग्य चिंतन (vikileaks wale julian asanje,anna hazare aur baba ramdev-hindi satire thought)

         विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे की भारत पर विशेष दृष्टि पड़ी है। शुरुआती दौर में अमेरिका, फ्रांस और ब्रिटेन पर अपने अभियान से सनसनी फैलाने वाले जूलियन असांजे को जेलयात्रा भी करनी पड़ी पर वह नहीं माने। उस समय ऐसा नहीं लगता था कि भारत पर उनकी कभी वक्र दृष्टि पड़ेगी पर अपने खुलासों से हिलते हुए इस देश में कोई तगड़ी प्रतिक्रिया न मिलने की वजह से उनका ध्यान गया।
ऐसा लगता है कि विकिलीक्स की पश्चिमी देशों में वैसी हलचल नहीं हुई जैसा असांजे चाहते थे पर भारत में फैली कंपकपी भरी प्रतिक्रिया पर उनकी नज़र गयी। यही कारण है कि उनके दो साक्षात्कार भारत के बारे में सुनने को मिले। पहली बार तो उन्होंने कहा कि ‘भारत में अन्ना हज़ारे का आंदोलन उनकी गतिविधियों के कारण ही हुआ।’’
          अब उनका कहना है कि स्विस बैंक तथा आईसलैंड सहित चार स्थानों पर काला धन रखने वाले खातेदारों के नाम उनके पास हैं। यह भी बताया कि स्विस बैंकों में सबसे अधिक खातेदार भारत के ही हैं। वह उनको उज़ागर करने वाले हैं। जूलियन असांजे के बारे में हमने केवल प्रचार माध्यमों से ही-टीवी चैनल और समाचार पत्र-जाना है। जूलियन असांजे इतना लोकप्रिय क्यों है? दरअसल इस संसार में आमतौर से ईमानदार और उत्साही लोग चालाक नहीं होते और जो चालाक होते हैं वह उत्साही और ईमानदार नहीं होते क्योंकि उनका लक्ष्य केवल अपना काम निकालना होता है। जब कोई ईमानदार और उत्साही व्यक्ति चालाक होता है तो वह ऐसे कारनामें करता है जिससे दुनियां हिलने लगती है। जूलियन असांजे इसी तरह का आदमी लगता है। आज टीवी चैनलों पर उसका आत्मविश्वास देखकर यही लगा।
        शुरुआती दौर में जूलियन असांजे की नज़र में पूरी दुनियां थी पर अब वह भारत की तरफ अपना लक्ष्य कर रहा है। उसने देख लिया है कि पाकिस्तान की आई.एस.आई के बारे में किये गये विकीलीक्स रहस्योद्घाटन केवल प्रचार माध्यमों के लिये रस्मी समाचार और बहस का विषय बनकर रह जाते हैं। उस पर कोई इससे अधिक प्रतिक्रिया नहीं होती। दूसरा शायद उसने यह भी मान और लिया लगता है कि अंततः भारत का ही धन कहीं न कहीं इसी आई.एस.आई के पास पहुंच जाता है। यकीनन यह धन काला ही होता है और शायद इसी कारण जूलियन असांजे काले धन के विषय पर स्पष्ट रूप से विचार व्यक्त कर रहा है। भारत के आर्थिक स्तोत्रों से दुनियां में क्रिकेट के खेल जैसी सफेदपोश गतिविधियां चल रही हैं तो उसके पीछे काला धन कहीं न कहीं अपना काला खेल भी कर रहा है।
            बहरहाल उसने कहा है कि वह सभी खातेदारों के नाम देने वाला है। उसने यह भी बताया कि स्विस बैंकों के डाटा वापस करने पर उसे चुराने वाले को छोड़ने की भी पेशकश की गयी थी। मतलब यह चुराने वाला ही उनके पास एक बंधक है जिसके दम पर उसे ब्लेकमेल करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि भारत विश्व में आर्थिक शक्ति बनकर उभर रहा है इसलिये उसका काला सच सार्वजनिक रूप से जाहिर कर यह साबित किया जा रहा है कि वह केवल काले धन की वजह से है। संभव है कि पश्चिमी देशों के कुछ विशेषज्ञों ने अपने देश की हलचल से बचने के लिये जूलियन असांजे को भारत की तरफ खिसका दिया है या फिर जूलियन असांजे स्वयं ही अन्ना हजारे के आंदोलन को अपनी गतिविधियों से उपजा मानते हुए और अधिक प्रतिक्रिया देखने के लिये यह सब कर रहा है। अगर वह ऐसा करने में सफल रहा तो बाकी दुनियां का पता नहीं मगर भारत में उसका नाम इतिहास में ऐसा दर्ज हो जायेगा कि सदियों तक बड़े बड़े लोग उस जैसा होने का सपना पालेंगे।
             इतना तय है कि अगर वाकई वह ऐसा कोई रहस्य जाहिर करता है तो यहां तूफान मच सकता है। अन्ना हजारे साहब का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन चूंकि किश्तों में चलना है इसलिये उसमें अनेक बार ठहराव तो आता रहेगा पर इधर बाबा रामदेव चार मई से सत्याग्रह का आयोजन कर रहे हैं। अन्ना साहिब की प्रारूपण समिति अपनी लोकप्रियता और विश्वसीनयता को लेकर लोगों की नजरों के प्रश्नवाचक चिन्ह स्थापित कर चुकी है। इसके अलावा अन्ना हज़ारे का आदोलन मोमबतियां जलाकर जश्न मनाने वालों के कारण थोड़ा ठंडा हो गया लगता है पर बाबा रामदेव का अभियान फिर रंग में आ सकता है। ऐसे में असांजे की विकीलीक्स का खोई भी खुलासा दोनों आंदोलन के लिये अतिरिक्त ऊर्जा का काम कर सकता है।
हम जैसे आम लेखक और लोग तो अब आंकड़ों के खेल से ही डरने लगे हैं। दो लाख करोड़, सत्तर हज़ार करोड़ और पच्चपन हजार करोड़ की संपति, कर चोरी या आय की बात सुनते हैं तो दिमाग काम करने लगता है। भारत के बारे में कहा जाता था कि यह डाल डाल पर सोन की चिड़िया बसती है। हर जगह दूध की नदियां बहती हैं। बाद में भारत को गरीब देश कहा जाने लगा। अब तो विकास हो गया है लगता है पर अब सोने की चिड़िया नहीं दिखती बल्कि जहां तहां खाते दिखते हैं जहां ढेर सारी राशि हजार करोड़ के आंकड़ों के रूप में बहती दिखती है। बहरहाल जूलियन असांजे, अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ऐसी त्रिमूर्ति दिखती है जो भारत में राम राज्य स्थापित करने का प्रयास करती दिखती है। सच क्या है भगवान ही जानता है। अपने यहां इधर यह भी होने लगा है कि खुलासे करने वाले के भी खुलासे हो जाते हैं और भ्रष्टाचार से लड़ने का दावा करने वाले योद्धाओं के भी भ्रष्टाचार के आरोप पीछा करते दिखते हैं। अगर हम कहें कि हम एक युद्ध चलता देख रहे हैं। वह छद्म है या सच इसका पता तो परिणाम आने पर ही पता लगेगा। अलबत्ता असांजे की विश्वसनीयता परखने का समय भी आ गया है क्योंकि अगर उसने अपने दावे के अनुरूप काम नहीं किया तो कुछ लोग उसे भी ब्लेकमेलर बता सकते हैं जो कि उसकी आजतक बनी छवि के प्रतिकूल होगा।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Apr 22, 2011

भ्रष्टाचार और इतिहास-हिन्दी व्यंग्य कविता (bhrashtachar aur itihas-hindi vyangya kavita)

भ्रष्टाचार शायद मिट जायेगा,देश में जंग जारी है,
कीचड़ का हथियार लिये खड़े योद्धा,जोश भारी है।
यकीन नहीं एक दूसरे पर, फिर भी साथ साथ हैं,
कर्मवीरों का जंग के नाम पर धोखा देना जारी है।
चारों तरफ फैलाये घृणा का भाव, वाणी वाचाल है
दौलत की कीचड़ में, सज्जनता की खोज जारी है।
भ्रष्टाचार मिटे या नहीं, कौन देखने आयेगा फिर
इतिहास में दर्ज कराने का उनको शौक भारी है।
दीपक बापू दिखायें आईना आंदोलनों के इतिहास का
लोग रहे हमेशा खाली, नायकों की प्रसिद्धि बहुत भारी है।
                   कवि, लेखक , संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
poet,editor,writer and auther-Deepak 'Bharatdeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Apr 14, 2011

दैहिक जल विसर्जन-हिन्दी व्यंग्य चिंतन (daihik jal visarjan-hindi vyangya chittan)

               गोलगप्पे वाले का स्टिंग आपरेशन कर उस छात्रा ने कमाल ही कर दिया। गोलगप्पे या पानी पुड़ी ठेले पर बेचने वाला वह शख्स अपना मुंह दिखाने लायक नहीं रहा होगा। हुआ यह कि वह लोगों की नज़रे बचाकर उस लोटे में पेशाब कर रहा था जिससे उसके ग्राहक पानी पीते है। दूरदृश्यों में उसका मूत्र विसर्जन का प्रसारण देखकर कोई भी शरमा जाये। अगर किसी भावुक चिंतक ने वह दृश्य देखा होगा तो यकीनन अब राह चलते हुए पेशाब करने के बारे में सोचेगा। उस ठेले वाले ने नीचे बैठकर लोटे में पेशाब किया और थोड़ा दूर चलकर उसे इस तरह फैंका जैसे अपने ठेले से अनुपयोगी जल फैंक रहा हो। कोई कह भी नहीं सकता। अगर वह उतनी दूर जाकर पेशाब करता तो संभव है कि कोई टोक देता। बहरहाल उसने वह लोटा जस का तस उठाकर ठेले पर बिना धोये रख दिया।
             छात्रा और उसके सहयोगियों ने वह दृश्य कैमरे में बंद किया और पहरेदारों को दिखाया। उसे पकड़ा गया और 12 सौ रुपये का जुर्माना देकर वह छूटा। किस्सा छोटा लगता है पर हमें ऐसा लगा कि जैसे उस पर तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है। पेशाब पर लिखना कोई अच्छा नहीं लगता मगर देह में उसका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
         स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि पेशाब कभी रोकना नहीं चाहिए। दूसरी तरफ राय देते हैं कि स्वस्थ रहने के लिए पानी अधिक पीना चाहिये, ऐसे में पेशाब भी तो अधिक आयेगा! न आये तो इसका कोई उपाय नहीं है। प्रकृति ने समस्त प्राणियों की देह इस तरह बनाई है कि उपभोग के द्वार से आगमित वस्तु अंततः निष्कासन द्वारा पर निर्गमन के लिये चली आती है। न आये तो विकट बीमारियां उत्पन्न होती है। वैसे तो इस घटना का प्रसारण देखकर बाज़ार में खाने पीने का सामान बेचने वालों के कामकाज पर ही टिप्पणियां की जा रही थीं पर हमें उस ठेले वाले पर गुस्से के साथ तरस भी आ रहा था। वह फंसा इसलिये कि वह अक्सर ऐसा करता रहा है। छात्रा ने कई दिन उसका कारनामा देखने के बाद ही उसे कैमरे कैद किया। एक बात तय रही कि वह ठेले वाला कोई अच्छी भावना वाला आदमी नहीं रहा होगा। सच बात तो यह है कि खाने का सामान बेचने वाले अनेक लोग ऐसे हैं जो साफ सफाई की बात सोचते तक नहीं है। यही कारण है कि गरीबी और भुखमरी के लिये बदनाम हमारे देश में आज भी भूख से कम गलत सलत खाकर मरने वालों की संख्या अधिक है। ग्राहक को भगवान माना जाता है पर उस ठेले यह साबित किया कि वह तो कमाई को सर्वोपरि मानता है।
          बहरहाल इस घटना से हमारा ध्यान पेशाबघरों की कम होती समस्या की तरफ जा रहा है। देश के शहरों में बढ़ती आबादी के चलते सड़कें सिकुड़ रही हैं। कई पेशाबघर लापता हो गये हैं। कहीं उनके आसपास चाय, पान, तथा चाट ठेलों ने कब्जा किया है तो कहीं बड़े दुकानदार काबिज हो गये हैं। इसके विपरीत भीड़ बढ़ रही है। बाज़ार में खानपान करने वालों की संख्या भी कम नहीं है। ऐसे में पेशाब आने पर सबसे बड़ा संकट यह होता है कि उसके लिये स्थान ढूंढें। वैसे हमारे देश में धार्मिक लोग प्याऊ बनवाते रहे हैं पर पेशाबघर बनाने का जिम्मा राज्य पर ही रखा गया है। वैसे प्राचीन समय में पेशाबघर बनवाने की आवश्यकता नहंीं अनुभव होती थी क्योकि इसके लिये तो पूरी जमीन खाली थी पर समय के अनुसार सभ्यता बदली है। गनीमत है कि अनेक स्थानों पर पिशाबघर न दिखने पर भी गंदगी के ऐसे ढेर मिल जाते हैं जहां खड़े होकर अपने को तनाव मुक्त किया जा सकता है। जिस तरह विकास बढ़ रहा है उससे तो लगता है कि आगे चलकर पेशाब घर कंपनियों को इसका भी ठेका मिलने लगेगा। कई वाहन मोबाईल जलीय विसर्जन-पेशाब के लिये अच्छा साहित्यक शब्द ढूंढना जरूरी है-का काम करेंगे। कहीं कहीं तो एक के साथ एक फ्री जैसे भी नारे लिखे मिलेंगे।
             वैसे तो अनेक शहरों में सुलभ शौचालय हैं पर वहां पेशाब की सुविधा हो यह जरूरी नहीं है। दूसरी बात यह भी कि अंततः वहां कार्यरत कर्मचारी मालिकाना हक की तरह उसका इस्तेमाल करते हुए पैसे मांगते हैं। कुछ लोगों ने तो यह शिकायत भी की है कि वहां पुरुषों के पिशाब घर खुले होने के कारण उनसे पैसे नहीं मांगे जाते पर महिलाओं से पैसा मांगा जाता है। महिला कल्याण समर्थक इस तरफ भ ध्यान दें।
वैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली महिलायें फिर भी परेशान नहीं दिखती पर शहरी क्षेत्र की महिलाऐं बाज़ार में घुमते समय तनाव होने पर दोहरे संकट में आ जाती हैं। एक तो उनको बाज़ार में उनको अपना काम पूरा करना है दूसरा दैहिक तनाव उनके लिये भारी संकट हो जाता है। अपने साथ पुरुष होने पर अपनी बात कह सकती हैं पर दूसरे से तो वह इसमें बात करते हुए संकोच करती हैं।
            एक सभ्य महिला ने एक बार जरूर हमसे कहा था कि ‘महिलाओं के लिये सुविधा बढ़ाने के तो दावे हैं उन पर यकीन कौन करेगा? बाज़ार में भीड़ महिलाओं की संख्या पहले से ज्यादा है पर पिशाबघर पुरुषों के लिए ही अधिक है।’
         बात सही है पर यहां तो अब पुरुषों के पिशाबघर लुप्त होते जा रहे हैं। चिकित्सक कहते हैं कि रुका पिशाब विष हो जाता है। इसके अलावा यह भी कहते हैं कि मधुमेह से ग्रसित लोगों को तत्काल पिशाब करना चाहिए। ऐसे ढेर सारे उपाय वह बताते हैं। देश में कार वालों की संख्या बढ़ती जा रही है उनका बाज़ार में आना जाना मॉलों, बड़े होटलों या ऐसे स्थानों पर होता है जहां पेशाबघर बने रहते हैं मगर समस्या है मध्यम वर्गीय या आधुनिक परिवेश वाले गरीब लोगों के लिये है। कई बार तो ऐसा है कि कुछ लोग बाज़ार से घर इसलिये ही जल्दी घर लौट आते हैं क्योंकि वह देह में पल रहे जलीय तनाव से मुक्ति का स्थान नहीं ढूंढ पाते। बाज़ार में सामान बेचने वालों की यही समस्या होती है कि उनके आसपास पेशाब घर नहीं होते।
           ऐसे में लगता है कि विकास दर वह दीवार है जो आदमी के जलीय तनाव के विसर्जन को रोकने का काम कर रही है। ऊंची और शानदार इमारतें आंखों को भले ही अच्छी लगें पर निष्कासन अंगों का तनाव उसका सुख कम किये दे रहा हैं। हमारे देश में जब कहीं दो लोग आपस में लड़ते हैं तो पिशाब को धमकी के रूप में उपयोग करते हैं। एक तो कहते हैं कि ‘ऐसी हालत करूंगा कि पेशाब बंद हो जायेगी।’ या कहेंगे कि ‘ऐसी हालत करूंगा कि पेशाब निकल आयेगी।’
           मगर हमारे देश में विकास ऐसा हो रहा है कि वह लोगों की पेशाब बंद भी कर सकता है। आमतौर से राह में पेशाब आने पर लोग ऐसे स्थान ढंूढते हैं जो एकांत में और गंदे हों। एकांत में होने के साथ चमकदार भी हों तो कोई जलीय तनाव विसर्जन का साहस नहीं कर सकता। आधुनिक विकास वही चमकदार दीवार है जिस पर कोई वक्र दृष्टि नहीं डाल सकता ऐसे में तनाव तो बढ़ना ही है।
चलते चलते 
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           यह कहना मुश्किल है कि वह पानीपुरी बेचने वाला अपने ठेले पर रखे लोटे में पेशाब करते हुए कैमरे में कैद किस प्रकृति का है पर इस लेखक ने देखा है कि कुछ लोगों की बचपन से ही ऐसी प्रकृति होती है कि वह दूसरे को दुःख देकर या हानि पहुंचाकर खुश होने के आदी हो चुके होते हैं। ऐसे लोग जिंदगी में कुछ नहंी बन पाते। इस लेखक के साथ एक लड़का जूतों की दुकान पर नौकरी करता था। उसका वेतन लेखक के बराबर ही था पर  वह लड़का खराब नीयत का था। अकारण प्लास्टिक के जूते फाड़ता, आर्डर का माल पैक करते समय जिस साइज के जूते कागज पर लिखे होते उससे अलग साईज के भरता। बंडल तीन साइज का होता था पर वह अफरातफरी कर एक ही साईज के बना देता जिससे बाद में दुकानदार परेशान होते। अनावश्यक रूप से दूसरे नौकरों से भी वह लड़ता है। 
       आखिर उसका बाद में क्या हुआ? वह अब सब्जी मंडी में ठेला लेकर सब्जी ढोने का काम करता है। उसके साथ काम कर चुके चार लड़के उसी मंडी में दो कार में दो एक स्कूटर पर सब्जी खरीदने आते हैं। कार वाले तो उसको देखते तक नहीं है पर यह लेखक अनेक बार उसे देखता है पर बात नहीं करता। वह जिंदगी में नहीं बना इसके लिये अन्य कोई नहीं वह स्वयं जिम्मेदार है। यह नीच प्रकृति मनुष्य के विकास का मार्ग अवरूद्ध कर देती है-उस लड़के को देखकर हमारा तो यही मत बनता है।
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कवि, लेखक , संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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Apr 4, 2011

नववर्ष विक्रम संवतः 2068 का प्रारंभ-भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान, दर्शन और धर्म का महत्व समझें (happy new year of indian hindu religion vikram sanvat 2068-hindi article)

आज से नववर्ष विक्रम संवत् 2068 प्रारंभ हो गया है। चूंकि हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलता है इसलिये नयी पीढ़ी तथा बड़े शहरों पले बढ़े लोगों में बहुत कम लोगों यह याद रहता है कि भारतीय संस्कृति और और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला विक्रम संवत् देश के प्रत्येक समाज में परंपरागत ढंग मनाया जाता है। देश पर अंग्रेजों ने बहुत समय तक राज्य किया फिर उनका बाह्य रूप इतना गोरा था कि भारतीय समुदाय उस पर मोहित हो गया और शनैः शनैः उनकी संस्कृति, परिधान, खानपान तथा रहन सहन अपना लिया भले ही वह अपने देश के अनुकूल नहीं था। यह बाह्य हमारे समाज ने अपनाया पर गोरों की तरह खुले विचार और संस्कारों को स्वीकार नहीं किया। अब स्थिति यह है कि देश हर समाज और समुदाय दोनों संस्कृतियों के बीच अनंतकाल तक चलने वाले ऐसे द्वंद्व में जी रहा है जिससे उसकी मुक्ति का आसार नहीं है।
अंग्र्रेज चले गये पर उनके मानसपुत्रों की कमी नहीं है। सच तो यह है कि अंग्रेज वह कौम है जिसको बिना मांगे ही दत्तक पुत्र मिल जाते हैं जो भारतीय माता पिता स्वयं उनको सौंपते हैं। अंग्रेजी माध्यम वाले अनेक स्कूलों में भारतीय संस्कृति ही नहीं वरन् हिन्दी भाषा बोलने पर ही पाबंदी लग जाती है। ऐसे विद्यालयों में लोग अपने बच्चे भेजते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हैं। फिर यही बच्चे आगे देश इंजीनियर, डाक्टर, समाज सेवक तथा अधिकारी बनते हैं। उस समय उनके माता पिता शुद्ध रूप से भारतीय हो जाते हैं और उसके विवाह के लिये अच्छे घर की बहू के साथ ही दहेज की रकम ढूंढना शुरु कर देते हैं। विवाह होने के बाद पाश्चात्य संस्कृति में रचे बचे बच्चे माता पिता से दूर हो जाते हैं फिर कुछ समय बाद उनका रोना भी शुरु हो जाता है कि ‘बच्चे हमें पूछ नहीं रहे। हमें बहु अच्छी नहीं मिली।’
यह समाज का अंतद्वंद्व है कि लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे गुलाम पर अमीर बने। भारत में यह संभव हुआ है क्योंकि यहां सरकारी नौकरियों की संख्या अधिक रही है। इधर निजीकरण के दौर में तो महंगे वेतन वाली नौकरियों का भी निर्माण हुआ है। अब नौकरी तो नौकरी है यानि गुलामी! अपना बच्चा दूसरे का गुलाम बना दिया पर आशा यह की जाती है कि वह माता पिता की जिम्मेदारी आज़ादी से निभाये। यह कैसे संभव है? नौकरी अंततः गुलामी है और अगर बच्चा नौकरी कर रहा है तो फिर उससे आज़ादी से सामाजिक कर्तव्य निर्वहन की आशा करना व्यर्थ है।
पिछले अनेक दिनों से देश में अंग्रेज साहबों के खेल क्रिकेट की विश्व प्रतियोगिता का शोर चलता रहा है। इस खेल का प्राचीन इतिहास बताता है कि अंग्रेज गोरे साहब बल्लेबाज और उनके गुलाम गेंदबाज होते थे। आज यह खेल हमारे समाज का हिस्सा बन गया है। पिछले दिनों भूतपूर्व कप्तान कपिल देव ने कहा था कि क्रिकेट में बल्लेबाज साहब और गेंदबाज मजदूर की तरह होता है। हम जब देश के नामी खिलाड़ियों की सूची देखते हैं तो बल्लेबाजों का नाम ही ऊपर आता है और गेंदबाज को वास्तव में मज़दूर के रूप में ही देखा जाता है। जो लोग अपने बच्चों को क्रिकेटर बनते देखना चाहते हैं वह उसके बल्लेबाजी के स्वरूप की कल्न्पना करते हैं न कि गेंदबाज की।
इधर क्रिकेट से माल बटोर रहे प्रचार माध्यमों को यह होश नहीं है कि विक्रम संवत् 2068 प्रारंभ हो गया है। विक्रम संवत् आधुनिक बाज़ार में होने वाले सौदा का पर्व नहीं है। ईसवी संवत् इसके लिये बहुत है। जब हम भारतीय संस्कृति या धर्मों की बात करते हैं तो दरअसल वह बाज़ार के लिये प्रयोक्ता नहीं जुटाते।  विक्रम संवतः पर आधुनिक बाज़ार और उनके प्रचार माध्यम मॉल, टॉकीज, बार, तथा होटलों के लिये युवा पीढ़ी को प्रेरित नहीं कर सकते। उनके अंदर काम तथा व्यसन की भावनाओं को प्रज्जवलित नहीं कर सकते।  क्योंकि भारतीय संस्कृति और धर्म  मनुष्य को अंतर्मन में जाकर अपना ही आत्ममंथन करने के लिये प्रेंरित करते हैं जबकि विदेशी संस्कृति और धर्म मनुष्य को बाहर जाकर जीवन से जूझने के लिये प्रेरित करते हैं जिससे अंततः बाज़ार और धर्म के ठेकेदार उसे बंधक बना लेते हैं। विदेशी संस्कृति और धर्म में आज तक अध्यात्म का महत्व नहीं समझा गया। देह में मौजूद आत्मा तत्व को परखने का प्रयास ही नहीं किया गया। तत्वज्ञान तो उनमें हो ही नहीं सकता क्योंकि वह मनुष्य देह तथा परमात्मा के बीच स्थित उस आत्मा को स्वीकार ही नहीं करते जिसके साथ योग के माध्यम से संपर्क किया जाये तो यही आत्मा परमात्मा से संयोग कर मनुष्य देह को अत्यंत शक्तिशाली बना देता है। सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं।
इस शुभ अवसर पर समस्त पाठकों  तथा ब्लॉग लेखक मित्रों  को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें।
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कवि, लेखक , संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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