Feb 25, 2011

योग गुरू स्वामी रामदेव पर योगमाता की कृपा और माया का घेरा-हिन्दी लेख (yog guru swami baba ramdev,yogmata aur maya ka ghera-hindi lekh)

योग साधकों को यह समझाना व्यर्थ है कि उनको क्या करना चाहिए और क्या नहीं! अगर कोई योग शिक्षक अपने शिष्य को योग के आठों अंगों की पूर्ण शिक्षा प्रदान करे तो फिर इस बात की आवश्यकता नहीं रह जाती कि उसे वह संसार में परिवार या समाज के संभालने के तरीके भी बताये। व्यापार और राजनीति के सिद्धांत समझाये। इसका कारण यह है कि योग साधना से आदमी की समस्त इंद्रियां बाहर और अंदर तीक्ष्णता से सक्रिय रहती है। उसके चिंतन  की धार इतनी तीक्ष्ण हो जाती है कि वह सामने दृश्य देखकर अपने मस्तिष्क उसकी अगली कड़ी का अनुमान तो कर ही लेता है भूतकाल भी समझ लेता है। उसे अपनी देह, मन और बुद्धि को कुछ करने का निर्देश देने की आवयकता भी नहीं  पड़ती क्योंकि योग साधक की सभी क्रिया शक्तियां स्वाभाविक रूप से सक्रिय हो जाती हैं। अपनी धारणा शक्ति से योगसाधक अपने सामने हर गतिविधि के पीछे छिपी शक्तियों को देख लेता है-या अनुमान कर लेता है। वह वैचारिक योग की ऐसी प्रक्रिया से गुजरता है जहां उसे अपने मस्तिष्क को अधिक कष्ट देना नहंी पड़ता। हालांकि इस प्रकार के गुण पाने के लिये यह जरूरी है कि योगसाधक पतंजलि योग दर्शन तथा तथा श्रीमद्भागवत्गीता का अध्ययन करे। ऐसे में आज विश्व के सबसे प्रसिद्ध शिक्षक बाबा रामदेव का जनजागरण अभियान बहुत दिलचस्पी और चर्चा का विषय बन गया है।
एक प्रश्न अक्सर पूछा जाता है कि योग शिक्षक स्वामी रामदेव अपने कार्यक्रमों में योग से इतर विषयों पर क्यों बोलते हैं? कभी राष्ट्रवाद तो कभी धार्मिक तथा सामाजिक गतिविधियों पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्हें क्या इस बात का आभास होता है कि वह किसे और क्यों समझा रहे हैं? अगर स्वामी रामदेव इसे सामान्य ढंग से अपने जन जागरण का हिस्सा समझते हुए करते हैं तो कोई बात नहीं पर अगर वह अगर उनको लगता हैं कि उनके कथनों का प्रभाव हो रहा है तो गलती कर रहे हैं। पहली बात तो यह कि अगर वह उन लोगों को समझाते हैं जो योग साधना में नियमित रूप से संलग्न नहीं हैं तो शायद जरूर इस बात को न माने पर सच यह है कि ऐसे लोग इस कान से बात सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं। अगर लोग ऐसे ही समझने वाले होते तो आज शायद आज के संत लोग कबीर और तुलसी के दोहे पढ़ाकर उनको ज्ञान नहीं देते। मतलब योग साधना न करने वालों को अपना प्रवचन दिया कि नहीं, सब  बराबर है पर अगर योग साधक है तो उसे कुछ बताने या समझाने की आवश्यकता ही नहीं है वह सारी बातें स्वतः ही समझन की सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
हमारे देश में हर युग मे संत रहे हैं और आज भी हैं पर आमजन में कोई चेतना नहीं है। लोग अपने सांसरिक कामों में ही लिप्त रहते हुए सुख की कामना करते हैं। उनको अपने घर में कल्पित स्वर्ग के वह सुख चाहिये जिनकी कल्पना कुछ ग्रंथों में बताई गयी है। ज्ञान को वह केवल सन्यासियों की संपत्ति मानते हैं। एक अरब के इस देश को प्रचार माध्यमों के दम पर व्यापार, उद्योग राजनीति तथा फिल्म में रूढ़ता का दौर इसलिये चल रहा है क्योंकि चंद परिवार अपने ही समाज को मूढ़ समझते हैं। उनको कोई चुनौती नहंी दे सकता। हर स्तर पर वंशवाद फैला हुआ है। समाज का निचला तबका स्वयं को असहाय अनुभव करता है। स्पष्टतः इस चेतना विहीन समाज में योग साधना ही जान फूंक सकती है और बाबा रामदेव को अगर समर्पित बुद्धिजीवियों का सतत समर्थन मिल रहा है तो केवल इसलिये कि वह इस बात को समझते हैं कि लगभग बिखर रही सामाजिक परंपराओं को बचाने या नवीन समाज बनाने की जिम्मेदारी उन्होंने ली है शायद उससे कोई विकास का दीपक प्रज्जवलित हो उठे।
अपने को देश में मिल रहे समर्थन ने योग गुरु स्वामी रामदेव को प्रोत्साहित किया है जिससे उनके तेवर आक्रामक हो गये हैं। इसका प्रभाव भी हो रहा है क्योंकि प्रचार माध्यमों में उनके कथन सर्वत्र चर्चित हो रहे हैं, पर उनके भविष्य में प्रभावों का अभी अनुमान करना ठीक नहीं है क्योंकि समाज में चेतना विहीन लोगों से कोई आशा नहीं की जा सकती है और योग साधना से जिनकी इंद्रियों में चेतना है उनको तो कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है। सीधी बात कहें तो बाबा रामदेव के समर्थकों की प्रचारात्मक भूख इससे शांत होती है और हमें इस पर कुछ प्रतिकूल टिप्पणियां कर उनके अभियान पर प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं करना।
स्वामी रामदेव को राष्ट्रवादी अभियान में सबसे बड़ी समस्या यह आने वाली है कि उनके संगठन के प्रचारात्मक मोर्चे के अकेले ही सिपाही हैं और ऐसे अभियानों के लिय कम से कम आठ से दस उनको अपने जैसे लोग चाहिये। इतना ही नहीं अभी उनको यह भी प्रमाणित करना है कि वह योग साधना की शिक्षा से लेकर राष्ट्रवादी अभियान में उन शक्तियों से परे रहे हैं जो बाज़ार और प्रचार के दम पर समाज पर नियंत्रण किये हुए हैं। यह शक्तियां धर्म, राजनीति, समाज सेवा, कला, साहित्य और मनोरंजन के क्षेत्र में अपने मुखौटे रखकर आम लोगों की भीड़ पर शासन करती है। स्वामी रामदेव एक तरफ कहते हैं कि उनके पास एक भी रुपया नहीं है, पतंजलि योग पीठ की संपत्ति तो उनके द्वारा स्थापित ट्रस्ट की है’, तो दूसरी तरफ अपने ऊपर हो रहे शाब्दिक प्रहारों के लिये खुद ही सामने आकर कहते हैं कि ‘हमारे ट्रस्ट के आर्थिक कामकाज में पूरी तरह ईमानदारी बरती जाती है।’
ऐसे में कुछ सवाल स्वामी रामदेव से भी पूछे जा सकते हैं कि‘जब आपके पास रुपया नहीं है और ट्रस्ट काम देख रहा है तो आप उसकी ईमानदारी का दावा कैसे कर सकते हैं, खासतौर से जब उसमें दूसरे लोग भी सक्रिय हैं। आप तो घूमते रहते हैं तब आपको क्या पता कि ट्रस्ट के अन्य कामकाजी लोग क्या करते हैं? फिर वही लोग सामने आकर इन शब्दिक हमलों का सामना क्यों नहीं करते?’
योग शिक्षा से अलग स्वामी रामदेव की अन्य गतिविधियों मे अनेक पैंच हैं। क्या बाबा रामदेव के पीछे जो संगठन या व्यक्तियों का कोई ऐसा समूह है जो उनकी छवि या लोकप्रियता का लाभ निरंतर उठाकर अपना काम साध रहा है। 12 सौ करोड़ की संपत्ति होने की बात तो स्वयं स्वामी रामदेव ने स्वयं स्वीकारी है। इतनी संपत्ति को संभालने वालों में सभी माया से बचे रहने वाले पुतले हैं यह सहजता से स्वीकार करना कठिन है। किसी भी संगठन में पैसा देखकर कोई बेईमान न हो यह मान लेना कठिन लगता है। अगर बाबा रामदेव के संगठन में सभी योग साधना में निपुण हैं तो वह उनके अलावा अन्य कोई शब्दिक आक्रमण के बचाव में क्यों नहीं आता। हर बार अपने सर्वोच्च शिखर पुरुष को आगे क्यों करते हैं?
आखिरी बात यह कि हमारा मानना है कि बाबा रामदेव को अपनी शक्ति योग साधना की शिक्षा के साथ ही राष्ट्र जागरण के अभियान में लगाना चाहिए। वह चाहें तो समसामयिक विषयों पर भी बोलें, पर अपनी शक्ति अपने ऊपर लगने वाले आरोपों के खंडन में न लगायें। उनके स्थापित ट्रस्ट के पास 12 सौ करोड़ क्या 12 लाख करोड़ की संपत्ति भी हो तो हम उसमें छेद देखने का प्रयास नहंी करेंगे कि वह तो किसी एक व्यक्ति या उनके समूह की भी हो सकती है। चूंकि स्वामी रामदेव उसकी अपने होने से इंकार करते है तो फिर उनके भक्तों के लिये वह विवाद का विषय नहीं रह जाता। इस देश में इतने सारे लोगों के पास इतनी संपत्ति है पर आम लोग उनमें कितनी दिलचस्पी लेते हैं? यह काम राज्य का है और बाबा रामदेव के अनुसार उनके स्थापित ट्रस्ट की पूरी जानकारी संबंधित विभागां को है। अगर वह अपने ट्रस्ट की आर्थिक सफाई देते रहेंगे तो यकीनन अपने अभियान से भटक जायेंगे। एक बात याद रखनी चाहिये कि इस संसार में जो बना है नष्ट होगा। पतंजलि ट्रस्ट हो या उसकी संपत्ति भी एक न एक दिन प्रकृति के नियम का शिकार होगी पर बाबा रामदेव की पहचान भारत की प्राचीन विधा योग को चर्चित बनाने तथा जन जागरण की वजह से हमेशा रहेगी। आदमी के साथ संपत्ति नहीं जाती बल्कि उसका कर्म जाता हैं। ऐसे में इतने बड़े योगी को भौतिकता को लेकर विवाद में फंसना थोड़ा अचंभित करता है। एक आम लेखक और योग साधक होने के नाते हम देश की खुशहाली की कामना करते हैं और बाबा रामदेव इसके लिये प्रयासरत हैं तो उस पर हमारी दृष्टि जाती है तब कुछ न कुछ विचार आता ही है। खासतौर से तब जब हमने छह वर्ष पूर्व जब रामदेव को योग शिक्षा के लिये एक अवतरित होते देखा था तब यह आशा नहीं थी कि वह इतना सफर तय करेंगे। उन जैसे योगी पर माया भी अपना रंग जमायेगी। माया संतों की दासी होती है पर लगता है कि स्वामी रामदेव अब इसी दासी को अपने यहां जगह देने के लिये भी अपनी सफाई आलोचकों को देते हुए साथ में जनजागरण का अभियान भी जारी रखेंगे। अलबत्ता उन पर योगमाता की कृपा है और देखना यह है कि वह किस तरह यह दोनों काम एक साथ कर पायेंगे
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Feb 13, 2011

वेलेंटाइन डे और विश्व कप प्रतियोगिता-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन (velantine day and world cup cricket tournament-hindi vyangya)

भारतीय प्रचार माध्यम-टीवी समाचार चैनल और समाचार पत्र-पूरी तरह से बाज़ार प्रबंधकों को इशारे पर चलते हैं इस बात का पता सन् 2011 के वेलेंटाईन डे पर चल गया। भारत में कथित रूप से विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता होने वाली है। कथित रूप से इसलिये कहा कि विश्व के पांच ताकतवर देशों में से केवल एक इसमें खेल रहा है। राजनीति, खेल, व्यापार तथा सांस्कृतिक रूप से पूरे विश्व में अपनी ताकत दिखाने वाले यह पांच देश हैं, अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, सोवियत संघ तथा फ्रांस हैं जिसमें केवल ब्रिटेन की टीम इंग्लैंड के नाम से आती है। प्रसंगवश इस टीम की स्थिति बता दें। इस टंीम का नाम था एम. सी.सी. और यह इसी नाम से भारत आती थी पर कहा इसे इंग्लैंड की टीम जाता था। बीसीसीआई की टीम थी जो भारत के नाम से खेलती थी। एम.सी.सी. का का मतलब था मैनचेस्टर क्रिकेट क्लब और जिसका मुख्यालय लार्डस में था। बीसीसीआई का मतलब था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड-सीधे कहें तो यह भी एक तरह का क्लब है क्योंकि खेलों की दृष्टि से ओलम्पिक तथा एशियाड में भारत की तरफ से प्रतिनिधित्व करने वाले ओलम्पिक संघ से इसका कभी कोई वास्ता नहीं रहा।
आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने ऐसा जलवा पेला कि सभी उसकी राह पर चल पड़े। कहीं क्लब तो कहीं एसासिएशन शब्द जोड़कर क्रिकेट के नियंत्रण का दावा करने वाली संस्थाऐं अपने अपने देशों की प्रतिनिधि दिखने लगीं। क्रिकेट के अंतराष्ट्रीय गठजोड़ या गिरोह का परिणाम यह हुआ कि इसे कालांतर में भारतीय बाज़ार की शक्ति से संपन्न सौदागरों ने सभी संस्थाओं पर अपना नियंत्रण कर लिया।
खेल तो पैसा रहा है किक्रेट तो बस चल रहा है।
पिछले कई बरसों से भारतीय प्रचार माध्यम वेलेंटाइन   डे पर जमकर धांसू प्रचार करते हैं ताकि देश के युवा लोग भूलें नहीं और धनपतियों के बने बार, होटल, मॉल तथा फिल्म प्रदर्शन केंद्र गुलजार रहें। वेलेंटाईन डे के समर्थक नारीवादी बुद्धिजीवी और धर्म समर्थक विद्वानों की बहसें इंटरनेट, टीवी समाचार चैनलोें और समाचार पत्रों के दिखाई देती हैं। ऐसे में एक बात ही समझ में आती है कि वेलेंटाईन डे के विरोधी और समर्थक कहीं फिक्सिंग डिस्कशन-प्रायोजित पूर्वनिर्धारित बहस-तो नहीं कर रहे। अगर टीवी चैनल और समाचार पत्र वेलेटाईन डे का प्रचार न करें तो शायद ही कोई याद रख पाये। एक बार तो यह लगता है कि प्रचार माध्यम चर्चा इसकी चचा करें और फिर भी युवा वर्ग न सुनें तो यह संभव है पर अगर विरोधी इस अवसर पर लट्ठमार दिवस या धर्म स्मरण दिवस का आयोजन करें तो फिर इसकी याद न आये इसकी संभावना कम ही है। इस बार भी हमें वेलंेटाईन डे की याद नहंी रही वह तो टीवी चैनल वालों ने किसी समूह का लट्ठमार या डंडा दिवस मनाये जाने का समाचार दिया तब पता लगा कि आज वेलेंटाईन डे है।
हालांकि कल के एक समाचार में टीवी चैनलों और अखबारों ने अपने तरीके से याद दिलाया था। एक समाचार था जहां एक युवा लड़के ने अपनी गोली मार ली क्योंकि उसकी प्रेमिका की मौत होने की खबर उसे मिल गयी। इस मौत के पीछे प्रेमिका के परिवार वाले जिम्मेदार माने जा रहे हैं और घटना के बाद अपने घर से फरार हैं। ऐसी एक दो घटनायें और भी आयीं और सभी के साथ यही बताया कि वेलेंटाईन डे से पूर्व प्रेम का कत्ल हो गया। मतलब हमारे समाचार पत्र और टीवी चैनलों को विद्वान यह मानते हैं कि यह यौन संबंध से जुड़ा प्रेम दिवस ही है। बाज़ार ने प्रचार प्रबंधकों की मति हर ली है और व्यक्तिगत परिलब्धियों की बहुता ने उनके सारे भाषाई गणित बिगाड़ दिये हैं। न उनको हिन्दी का पता है और अंग्रेजी का तो भगवान ही मालिक है।
यह इष्ट या शुभेच्छु दिवस है-एक हिन्दी विद्वान ने बताया था। वह विद्वान है संदेह नहीं पर लिपिक नुमा लेखन करने के बावजूद वह साहित्य के रचयिता नहीं है। कहीं उनके पास अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी अनुवाद करने वाला कोई प्रमाणिक कोष है जिसका उन्होंने गहन अध्ययन किया है। हिन्दी के सामाजिक कार्यक्रमों में उनकी गतिविधियों पर हमारी भी दृष्टि रही है।
एक दिन हमसे उन्होंने कहा-‘हिन्दी में बेहूदे व्यंग्य लिखकर अपने आपको बहुत बड़ा साहित्यकार समझते हो, जरा बताओ कि वेलेंटाईन डे का मतलब क्या है?’
हमने उनसे कृत्रिम क्रोध में कहा-‘हम क्या जानें? लेखक हिन्दी के हैं न कि अंग्रेजी के! फिर यह फालतु विषय लेकर हमारे सामने लेकर आप आये कैसे? एकाध व्यंग्य कहीं आप पर लिख दिया तो फिर यह मत कहना कि ऐसा या वैसा कर दिया।’
ऐसा कहकर हमने जोखिम मोल लिया था क्योंकि उन पर व्यंग्य लिखने का मतलब था कि एक फ्लाप व्यंग्य रचना लिखकर बदनाम होना। बहरहाल वह डर गये और हंसते हुए बोले-‘भई, व्यंग्य मत लिखना हम तो आपकी जानकारी बढ़ाने के लिये बता रहे हैं कि वेलेंटाईन डे का मतलब है ‘शुभेच्छु दिवस’।’’
हम प्रसन्न हो गये। बहरहाल वह हमसे वरिष्ठ थे और उन्होंने आठ साल पहले बताया था कि यह केवल लड़के लड़की के प्रेम तक सीमित नहीं हैं। इस पर आप अपने किसी भी इष्ट का अभिनंदन या अभिवादन कर उसे मिल सकते हैं। मिलकर पार्टी वगैरह कर सकते हैं।
उस समय प्रचार माध्यमों की ऐसी हालत नहीं थी पर जब लगातार इसका व्यवसायिक उपयोग देखा तब चिंतन की कीड़ा कुलबुलाने लगा। यह प्रचार माध्यम ही है जो तमाम तरह की कहानियों से खालीपीली जोड़ देते हैं। जिस प्रेमिका की हत्या हुई और प्रेमी ने आत्महत्या की उसकी प्रेमकथा की शुरुआत भी पिछले वेलेंटाईन डे पर होना बताया। अब इसका प्रमाण ढूंढने कौन जायेगा? क्रिकेट की तरह वेलेंटाईन डे पर भी सब चलता है
बहरहाल इस बार बाज़ार की जान विश्वकप क्रिकेट टूर्नामेंट में अटकी है और प्रचार माध्यम बीसीसीआई की उसमें भाग लेने वाली टीम के सदस्यों को देश का महानायक बनाने पर तुले हैं। संतों के हाथ में बल्ला पकड़ाकर उनको टीम इंडिया को शुभकामनायें दिलवा रहे हैं। शायद इसलिये उसने वेलंटाईन डे के लिये उनको समय कम मिला। बहरहाल फिर भी कुछ घटनाओं को उससे जोड़कर उन्होंने अपना बाज़ार के प्रति कर्तव्य तो निभाया।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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Feb 7, 2011

बसंत पंचमी या ग्रीष्म पंचमी-हिन्दी लेख (basant panchami ya garmi ka mausam-hindi lekh)

यह बसंत आया कि गर्मी आई! विश्व में मौसम अपने अपने नये अंदाज दिखा रहा है। सूर्यनारायण उत्तरायण क्या हुए सर्दी ने अपना बिस्तरा बांध लिया। इसके बाद कश्मीर में बर्फबारी हुई पर फिर भी सर्दी उस तरह वापस नहीं लौटी जैसे मकर सक्रांति के पहले थी। 2011 की बसंत पंचमी इतनी गर्म रहेगी इसका अनुमान उस समय नहीं लग रहा था जब इस वर्ष के प्रारंभ में ही सर्दी उग्र रूप में थी।
ग्वालियर में तापमान 6 फरवरी को 34 के पास पहुंच गया। यह उग्र गर्मी के मौसम की शुरुआत का संकेत होता है। इस बार भारत में विकट गर्मी रही तो बरसात भी जोरदार हुई। इसके बाद सर्दी भी जमकर पड़ी मगर मौसम विशेषज्ञों की चिंताऐं यथावत हैं। धरती का तापमान बढ़ रहा है। इसके लिये पूरे विश्व में गैसों का उत्सर्जन बताया जाता है। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि इन गैसों का दुष्प्रभाव ओजोन परत पर पड़ता है जिसमें बहुत बड़ा छेद हो गया है जिसके कारण उस भाग से सूर्य की किरणें सीधे धरती पर आती हैं जिससे गर्मी बढ़ रही है। जहां तक हमारी जानकारी है उसके ओजोन परत एक तरह का कांच या वह सतह है जहां से सूर्य की किरणें बाधित होती हैं जिससे उनकी उष्मा कम हो जाती हैं और धरती का मौसम सामान्य बना रहता है। दूसरी भाषा में कहें तो आजोन परत एक छलनी की तरह है जो सूर्य की उष्मा की उग्रता को अपने में समेट लेती है ताकि धरती को परिष्कृत उष्मा मिल सके।
जहां विश्व के पर्यावरण को शुद्ध रखकर गैसों के उत्सर्जन पर नियंत्रण करने की बात आती है वहां विभिन्न देशों के राजनयिक नाटक करने लगते हैं और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर अपने देश को स्वयं के पर्यावरण हितैषी होने का प्रमाण पेश करते हैं। चीन और भारत पर अमेरिका अधिक गैस उत्सर्जन होने का आरोप लगाता है तो यह दोनों उस पर ही तोहमत जमाते हैं। मुख्य बात यह है कि सारी दुनियां का राजतंत्र धनपतियों-पहले इसमें उद्योगपति और व्यापारी शामिल होते थे और आजकल अपराधी भी इस शब्द के हकदार हो गये हैं-के हाथ में है जो एक नहीं अनेक प्रकार से इस धरती का ही बल्कि अंतरिक्ष का भी वातावरण बिगाड़ रहे हैं। हम इनके निरंकुश होने पर यह कहकर नहीं रो सकते कि राज्यतंत्र इनके इशारों पर चल रहा है बल्कि अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि आम आदमी क्या कर रहा है? वह स्वयं भी तो इनके बनाऐ ऐजेंडे पर चल रहा है। बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों में विज्ञापित वस्तुओं के साथ ही सुविधाओं के भुगतान के लिये आम आदमी प्राणप्रण से जुटा है।
टीवी, फ्रिज, एसी, कूलर, तथा पर्यावरण प्रदूषित करने वाले वाहनों का प्रयोक्ता होने की आम आदमी में ऐसी आदत हो गयी है कि वह सड़क, उद्यान तथा ऐतिहासिक धरोहरों को भी अपनी उपभोग की वस्तु समझने लगा है। सड़कों को खोदना, उद्यानों को गंदा करना तथा एतिहासिक धरोहरों के प्रति बेपरवाही दिखाना आम आदमी ने अपना अधिकार समझ लिया है। हम यहां पर अमेरिका और चीन पर आक्षेप करने की बजाय अपने देश के गिरेबान में झांके। जिस तरह विशेषज्ञ बताते हैं उससे यह बात तो साफ लगती है कि गैसें आसानी से नष्ट नहीं होती। ऐसे में भारत में आबादी के साथ घरेलू गैस का उपभोग बढ़ा है। तय बात है यह चीन में भी बढ़ा होगा पर अमेरिका में जनंसख्या इतनी नहीं है। इसी गैस को लेकर यह सवाल उठता है कि जलने के बाद वह जाती कहां है? यकीनन वह इसी पर्यावरण में ही बहती है। वातावरण में जिस तरह अप्रत्याशित रूप से गर्मी बढ़ रही है उससे तो यही लगता है कि कहीं न कहंी मानव ही इसके लिये जिम्मेदार है। विशेषज्ञ क्या कहते हैं कि हम नहीं जानते पर रसोई की आग में गैस के बढ़ते उपभोग के साथ ही यह गर्मी हमने बढ़ती देखी है। अमेरिका के अनेक कारखाने भी इससे अनेक गुना गैस उत्सर्जन के लिये जिम्मेदार माने जाते हैं। हम उस पर आक्षेप करने का अनावश्यक उत्साह नहीं दिखाना चाहते। हमारे यहां रसोई गैस के बढ़ते उपयोग के साथ ही विकास के नाम पर चौड़ी सड़के करने के लिये अनेक पेड़ पौद्यों की बलि दी जा रही है। आम आदमी को जहां भूखंड में खुली जगह रखने का कहा जाता है वहां वह पक्के निर्माण करा लेता है। जिनका मन करता है वह सरकारी जमीन पर पेड़ लगाकर पर्यावरण हितैषी होने का दावा करते हैं। मतलब पर्यावरण संतुलन रखने के लिये आम आदमी अपने जिम्मे से बचना चाहता है।
यह बकवास लिखने का विचार आखिर क्यों आया? यह लेखक प्रतिदिन अक्सर पार्कों में जाता है। कुछ पार्क कभी साफ लगते हैं। ऐसा लगता है कि उनको कोई राजकीय कर्मी साफ कर गया होगा पर फिर वही हालत! वहां प्लास्टिक की पन्नियां, बिस्कुट के खाली पैकेटों के झुंड, शराब की बोतले और तंबाकु के पाउच देखने गंदगी के रूप में विराजते हुए देखे जा सकते हैं। यकीनन यह राजकीय कर्मियों ने नहीं वरन् उन लोगों ने किया होता है जो कथित रूप से प्रयोक्ता बनकर आते हैं। केवल दोहन करने की प्रवृत्ति पर सृजन और सतर्कता से मुंह फेरने की आम आदमी की इस आदत ने शिखर पुरुषों को बेलगाम बना दिया है। अकर्मण्य तथा अचिंतक समाज में थोड़ी सक्रियता से ही बेईमानों को सत्ता मिल जाती है। जब बसंत पंचमी पर ग्रीष्म पंचमी का अहसास हो तो पर्यावरण प्रदूषण के लिये अपनी भड़ास निकालने के लिये दूसरा और क्या लिखा जा सकता है?
बहरहाल 8 फरवरी पर बसंत पंचमी पर अपने ब्लाग लेखकों तथा पाठकों को बधाई।
लेखक दीपक भारतदीप 

कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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