Dec 10, 2007

इंसान और परिंदे

ऊपर उठ कर आसमान छू लेने की
चाहत किसमें नहीं होती
पर परिंदों जैसी
किस्मंत सभी की नहीं होती
उड़ते हैं आसमान में
पर उसे छू कर देखने की
ख्वाहिश उनमें नहीं होती
उड़ नहीं सकता आसमान में
फिर भी इंसान की
नजरें उसी पर होती
उड़ते हुए परिंदे
आसमान से जमीन पर भी आ जाते
पर इंसान के कदम जमीन पर होते
पर ख्याल कभी उस पर नहीं टिक पाते
लिखीं गयी ढेर सारी किताबें
आकाश के स्वर्ग में जगह दिलाने के लिए
जिसमें होतीं है ढेर सारी नसीहतें
पढ़कर जिनको आदमी अक्ल बंद होती
अपने पैर में जंजीरें डालकर
आदमी फिर भी कहता है
'काश हमारी किस्मत भी परिंदों जैसी होती'

Dec 8, 2007

इसे भाग्य कहें या कर्मों का लेखा

पत्थर और कागजों के टुकडों को
जोड़ने में जो अपना मन लगाते
उनको श्रृंगार रस में नहलाए
अलंकार से सजाए
शब्दों के गीत नहीं सुहाते
सुनने के आदी है भयानक शोर
अपने सुर से दूसरे को करते बोर
उन्हें कानों को संगीत के सुर नहीं भाते
इसे भाग्य कहें या कर्मों का लेखा
जन्नत के सुख के लिए आदमी
पूरी जिन्दगी भर लड़ता है
पर इस धरती पर मौजूद
वैसे ही सुनहरे दृश्य उसके नसीब में नहीं आते
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तन की भूख सूखी रोटी खाकर मिट जाये
पर मन की अनंत भूख कहाँ तक थम पाये
जमीन पर पाँव के साथ दिमाग भी रख कर
आदमी अगर सोचे तो कभी नहीं पछताए
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Dec 2, 2007

इसलिए आज हमने कुछ नहीं लिखा

आज कुछ नहीं लिखा। मैं आज सोच रहा था की कोई गजल, गीत, कविता, कहानी, व्यंग्य या कोई लेख लिखूं पर मेरा सारा ध्यान 'उड़न तश्तरी' शब्द चला जा रहा था। गजल लिख रहा था उसमें हर लाइन में उड़न तश्तरी शब्द आ जाता था। जैसे-
''शराब के नशे में देखा आकाश में थी उड़न तश्तरी
उसमें से निकली बहारें बिखेरती एक सुदंर सी परी।''

इसमें गड़बड़ कहीं नहीं है बस खुटका इस बात का था कि यह किसी बड़ी शख्सियत का नाम हुआ तो उसके प्रशंसक बिगड़ जायेंगे। अपनी भावनाएं आहत होने का आरोप लगायेंगे। कुछ और क्यों नहीं लिखा। परी को उड़न तश्तरी से ही क्यों उतारा एरोप्लेन से क्यों नहीं?

फिर गीत लिखने बैठा तो उसकी पहली पंक्ति में ही यह शब्द आ गया जैसे-
'' उनकी आँखें देखीं तो थी मदभरी
चमक रहीं थी जैसे उड़न तश्तरी''
बस इससे आगे बात नहीं बढ़ी। पहले यह तो पता करना चाहिऐ कि यह किसी का नाम तो नहीं है। ऐसा लगने लगा कि मैंने कई बार यह नाम देखा है और लगता है कि इस नाम के व्यक्ति के बहुत सारे समर्थक हैं। अब गीत और गजल हैं तो लिखते समय भावनाओं का उतार चढाव तो आते हैं और कुछ ऐसा-वैसा लिख गए तो फिर लोगों को समझाना कठिन हो जायेगा कि भई, हमारे इन शब्दों का उड़न तश्तरी नाम के किसी शख्सियत से कोई लेना-देना नहीं है, पर आजकल कोई किसी की सुनता कहाँ है, सब तो कहने में लगे हुए हैं। एक शब्द पढ़कर पूरे पाठ का अर्थ निकल लेते हैं।

व्यंग्य लिखने बैठे तो फिर 'उड़न तश्तरी' पर ही लिखने का विचार आया। कहीं कोई चमकता पत्थर पहाड़ से गिरा तो लोगों ने कहा यह उड़न तश्तरी है-ऐसे विचार बना और छोड़ दिया। हम जितना इस शब्द को भुलाना चाहते उतना ही याद आता।

कहानी लिखने बैठे तो एक गरीब बच्चे की याद आयी जिसे किसी ने बताया था कि ऊपर से उड़न तश्तरी में बैठकर फ़रिश्ते आते हैं और गरीबों को उपहार देते हैं और वह आकाश में बैठा रात को उड़न तश्तरी देखता रहता है-अब यह कहानी लिखते तो कहानी में अनेक बार इस शब्द को लिखना पड़ता। इसलिए यह विचार स्थगित कर दिया। फिर लेख लिखने को बैठा तो याद आया कि अमेरिका में बहुत पहले लोगों ने उड़न तश्तरी से लोग निकलते देखे थे। अगर उड़न खटोले में देखे होते तो मैं लिख देता। अब सवाल यह है कि क्या उड़न तश्तरी को किसी वस्तु से जोडें और किसी व्यक्ति का नाम हुआ तो समस्या आ जायेगी। जब कुछ लिखते हैं तो उसमें कोई प्रतिकूल टिप्पणी भी आ सकती है और और व्यंग्यात्मक कटाक्ष भी। ऐसे में किसी का नाम हुआ तो वह आपति करेगा और कोई बड़ी शख्सियत का मालिक हुआ तो उसके समर्थक ही बवाल खडा कर देंगे।

मतलब यह कि कोई भी नाम लिखें तो देखना पड़ेगा कि वह अधिक प्रचलित नहीं होना चाहिऐ। ब्लोग पर लिखते हुए कम से कम दो ब्लोग के नाम या उनके संचालन कर्ता का परिचय ऐसे हैं जिन्हें अपने ब्लोग पर लिखना कठिन होता है क्योंकि वह इस तरह के हैं कि उनकी संज्ञा और क्रिया दोनों ही व्यंग्य की और इंगित करतीं है और उनको लिखने का मतलब है उसके नामधारियों से झगडा मोल लेना। जब सारा दिन 'उड़न तश्तरी' शब्द दिमाग से नहीं निकला तो हमें आज लिखने का प्रोग्राम स्थगित कर दिया, ऐसा लिखने से क्या फायदा कि विवाद खडा हो जाये। वैसे देखा जाये तो आजकल लेखक वैसे भी काम है और हम भी कभी कभार ही कोई बड़ी रचना लिखने बैठते है तब एक-एक शब्द पर इतना सोचेंगे तो लिखेंगे क्या?
नोट-यह एक हास्य व्यंग्य आलेख है और किसी व्यक्ति या घटना से इसका कोई लेना-देना नहीं है, अगर किसी से मेल हो जाये तो संयोग होगा।

Nov 30, 2007

पर कब तक

उनकी यादों को अपने दिल में रखें
पर कब तक
उनके वादों के पूरा होने पर भरोसा करें
पर कब तक
उनके बारे में
अपने इरादों को जाहिर नहीं करें
पर कब तक
उम्मीद हो कोई तो
इन्तजार करे और भी
पर क्या फायदा बहारों का मौसम आने का
बिखर जाये हमारा आसरा तब तक
उनके दिल में हमारे लिए
भी प्यार की आग जलेगी
यह विश्वास कर लेते
चिंगारी भी दिख रही होती जब तक

Nov 11, 2007

उसकी दूसरी गलती-हिंदी कहानी

बोस का आदेश था कि मुझे उस कंपनी में एक 'आवश्यक सौदे ' के लिये जाना होगा। मैने मना किया और कहा कि-'मुझसे उंचे पद वाले अधिकारी जब इस कंपनी में हैं तो आप मुझे क्यों भेज रहें है और उस कंपनी की मैनेजिंग डायरेक्टर मुझ जैसे जूनियर से बात करना पसंद करेगी यह भी एक प्रश्न है।''
बोस ने मेरी राय को सिरे से ही नकारते हुए कहा-''नहीं! मैं तुम्हारी बात से एग्री नहीं करता क्योंकि तुम बहुत सीनियर हो, और रही अधिकारी होने या न होने की बात तो तुम इस शहर में बने रहने के लिये प्रमोशन नहीं लेते ताकि कहीं यहां से ट्रांसफर ना हो जाये। हैड क्वार्टर वाले भी इस बात को जानते है और इसलिए मुझे फोन पर तुम्हें ही इस काम के लिये भेजने को कहा है।"
आखिर मुझे वहां जाना ही पडा। मेरे इंकार के पीछे वह वजह नहीं थी जो मैने बोस को बताई थी। ऐक जैसे व्यवसाय होने के कारण उस कंपनी के संगठन और प्रबंधन की जानकारी मुझे होना स्वाभाविक थी कि ऐक एसा व्यक्ति वहां के प्रबंधन में था जो मेरे साथ पहले ऐक जगह काम कर चुका था और गबन के आरोप में वहां से निकला गया था। उसके इस कार्य की जानकारी उसके ही ऐक मित्र ने वहां के प्रबंधन को दी थी कि वह उसके साथ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं करेंगे। मगर प्रबंधन ने उसकी नहीं मानी और उसके खिलाफ़ पुलिस कार्रवाई की और वह कुछ दिन जेल में रहा और उसका मित्र उसे यह समझाने में सफ़ल रहा था कि यह सब मेरी वजह से हुआ था। वह जाते-जाते मुझसे बद्ला लेने की धमकी दे गया था-और वह जिस तरह का आदमी था उससे दूर रहना ही बेहतर था।
आखिर बोस के आदेश पर मैं वहां पहुंचा। मैं शंकित जरूर था पर डरा हुआ बिलकुल नहीं था। साथ ही मैं यह भी जानता था कि सब कुछ वैसा नहीं होगा जैसे बोस चाहते थे।
कंपनी की इमारत में घुसते ही वहां खडे चौकीदर को मैने अपना परिचय दिया तो उसने अंदर ऐक टेबल की तरफ़ जाने का इशारा किया जहां ऐक महिला बैठीं थी। मैं वहां पहुंचा और उसे अपना परिचय दिया तो उसने कहा-''आप अभी बैठिये।''
मैं उसके पास बैठ गया, कुछ देर बाद वह बोली-'' हमारी मेम साहब से मिलने के पहले उनके सचिव से मिलना होगा। वह अभी आते ही होंगे।"
मैने अभी बैठा ही था कि वह बोली-''लीजिये सर आगये।'' मैने पलट कर देखा और मुझे मिली जानकारी गलत नहीं थी। वही था और मुझे घूर रहा था। वह महिला उससे बोली-" सर, इनसे मिलिये, यह उस कंपनी से आये हैं जिसके लिये मेमसाहब कल बता रही थीं।''
वह मुझे घूर रहा था। मैं उससे उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था पर वह ऐसे ही चला गया।
मैने स्वागती महिला की तरफ देखा तो वह बोलीं-''वह उधर मेमसाहब के चेम्बर में पूछ्ने गये हैं।'' मुझे उसकी बात पर यकीन नहीं था। वह कुछ खेल करेगा यह मैं जानता था। थोडी देर बाद चपरासी आया और स्वागती से बोला-''वह कौन साह्ब हैं जो मेमसाहब से मिलने आये हैं। आप उनसे बोल दीजिये कि मेम साह्ब अपने ही समकक्ष किसी अधिकारी से बात करेंगी, मामूली कर्मचारी से नहीं।''
ऐसा कहकर वह चला गया, इस बीच स्वागती के पास फोन आगया और वह मुझसे बोली-''तुम तो कोई छोटे कर्मचारी हो। मेडम तुमसे नहीं मिलना चाहतीं। तुम अब यहां से तुरंत चले जाओ मेम साह्ब के सेक्रेटरी का आर्डर है।''
मैं जानता था कि कौन बोल रहा था , और मुझे उसके व्यवहार पर बिल्कुल गुस्सा नहीं आया क्योंकि मैं जानता था हमारी कंपनी से ज्यादा उस कंपनी को हमारी जरूरत थी। अगर मैं वहां से चला जाता तो किसी ऐक को जवाब देना ही था मुझे या उस कंपनी की डिप्टी डायरेक्टर को। मेरा इस तरह वहां से लौटना मेरी कंपनी स्वीकार नहीं कर सकती थी।
मैने स्वागती पर बैठी उस महिला कर्मचारी से कहा-''क्या मैं फोन कर सकता हूं।"
उसने एकदम शुष्क और कड़े स्वर में कहा-''नहीं। आपको यहाँ से जाने का आदेश है।''
मैंने बाहर निकल गया और बाहर से पीसीओ से अपने बॉस को फोन किया और उन्हें जानकारी दी। वह बोले-''उन्हें ग़लतफ़हमी है। तुमसे इस तरह का व्यवहार कर हमारी कंपनी से अनुबंध की उम्मीद छोड़ देना चाहिये, क्योंकि हमारा हेड क्वार्टर इस बहुत गंभीरता से लेगा। फ़िर भी मैं बात करता हूं। तुम दस मिनट बाद मुझे फोन करना।''
मैं वहीं खडा रहा। बरसात के दिन थे और मुझे पसीना आने के साथ प्यास भी बहुत लग रही थी, पर इससे ज्यादा इस बात की फिक्रथी कि दो कंपनियों के बीच मेरी वजह से विवाद छिड़ने वाला था। मैं ऐक होटल में गया और चाय्-नाश्ता करने के बाद फ़िर उसी पी.सी.ओ. पर आया। लगभग आधा घंटा गुजर गया था। मैने बॉस को फोन किया, मेरी आवाज सुनते ही बॉस बोले-''क्या कभी तुम किसी कंपनी में गबन करने के बाद जेल गए हो। क्या तुम्हें कभी नौकरी से निकाला गया। और क्या तुम इस कंपनी की तरफ़ से कांट्रेक्ट करने में अपना कमीशन खाते हो। क्यातुम ऐक बहुत बडे कमीशन खोर हो?''
मैने हंसकर कहा-'आपके मूंह से अपने बारे में यह कहानी सुनकर मुझे बिल्कुल ताज्जुब नहीं हुआ।' ''मैं जानता हूं!" बोस ने कहा-''तो तुम यह भी जानते हो कि किसने यह कहानी गढी होगी। मुझे उसका नाम बताओ। अभी तुम वहां जाओ मेडम तुमसे बात करने को तैयार हैं।''
पीसीओ उस कंपनी के दफ़्तर से ज्यादा दूर नहीं था। मैं जैसे ही वहां से बाहर निकला वैसे ही वह चपरासी मुझे मिल गया तो अंदर से मेरे लिये संदेश ले आया था और स्वागती ने मुझे बाहर जाने का आदेश दिया था। वह बोला-'सर, मेडम आपको बुला रहीं है।'
मैं उस कंपनी के इमारत की सीढियाँ चढ़कर उसी स्वागती के पास से गुजरा तो वह एकदम बोली-''सॉरी सर, मुझे मेडम के सेक्रेटरी साह्ब ने ऐसा करने को कहा था।"
मैं उसकी बात का जवाब दिये बिना ही डिप्टी मेनेजिंग की नेम प्लेट लगे कक्ष में दाखिल हो गया। वह काम कर रही थी और मेरी आहट सुनते ही उसने सिर ऊपर किया, मैं हतप्रभ रह गया वह एकदम मेरी तरफ़ देख रही थी। फ़िर बोली-''आप! नहीं मैं यकीन नहीं करती कि आप..................वह झूठ बोल रहा था।''
मैं उसे वहां देखकर आश्चर्य में था''तुम यहां कब आयी।'
वह बहुत खुश होकर बोली-''मैं तीन महिने से यहां हूं और आपका पता ढूंढ रही हूं और पता लगा कि अपने मकान बना लिया है। पहले तो आप बैठिये । मैं कुछ मंगवाती हूं। काम की बातें तो होती रहेंगी। मैं आपको ऐसे तो जाने नहीं दूंगी."
मैंने कहा-''हां। वैसे तुम्हें देखकर बहुत खुशी हो रही है, पर हमें काम पर भी बात करना चहिये क्योंकि बोस इस मामले में आज ही निर्णय करना चाह्ते हैं।"
-''आप बैठो तो सही-" काम की बाते तो होती रहेंगीं, मैं इस समय अपने हैड क्वार्टर से ओनलाइन बात कर रही हूं और उसमें आपकी कंपनी के बारे में भी चर्चा हो रही है। वैसे घर परिवार में सब ठीक है! मेरी प्यारी सहेली के हाल कैसे हैं। मैं उससे मिलना चाहती हूं। उसीको तो ढूंढ रही हूं और आज उसका पति हाथ आ गया तो अब उसे इतनी आसानी से नहीं छोडूंगी।"वह खुश होकर बोली.
मैं बैठ गया। वह ओन लाइन बात कर रही थी और मैं पिछली यादों में खो गया।
वह मेरी पत्नी की बचपन की सहेली थी और हमारे ऐक वर्ष बाद ही उसका विवाह भी हमारे शहर में हुआ। चूँकि दोनों ऐक ही शहर की थी इसलिए ऐक बार उसके विवाह के ऐक माह बाद दोनों अपने मायके भी साथ गयीं थीं । वह विवाह सेपहले ऐक कंपनी में कलर्क थी और यह आश्वासन मिलने के बाद कि उसकी कंपनी उसी शहर में उसका ट्रांसफर कर देगी लड़के वाले शादी को तैयार हुए थेक्योंकि वह कामकाजी लड़की चाह्ते थे। विवाह के बाद वह बहुत दिनों तक परेशान रही और इस दौरान मेरी पत्नी उसका हौसला बढाती , फ़िर ऐक दिन वह और उसका पति शहर छोड़ गये और उसके बाद कोई संपर्क नहीं हुआ पर यह जरूर पता लगा कि दोनों ने अपनी जिंदगी में आगे बहुत तरक्की की है। उसके बारे में जानकारी तभी मिलती जब मेरी पत्नि मायके जाती और उसके घर जरूर जाती और वहीं से जानकारी मिल जाती।
''मैं कल ही आपके घर आउंगी।"वह बोली तो मेरे विचारों कर क्रम टूटा-'आप अपना फोन नंबर दो तो मैं पहले अपनी सहेली से बात कर लूं। उसे यह बताऊँ तो सही मैं यहां हूं।"
हमारी कार्य सबंधित बात भी पूरी हो गयी थी और मैने उसे अपना फोन नंबर दिया और बाहर निकलने लगा तो वह बोली-''हां, आप यह तो बताओ वह मेरा सेक्रेटरी किसकी कहानी सुना रहा था। यकीनन आपकी तो है नहीं, क्योंकि आप जेल तो गये नहीं है क्योंकि मुझे पता पड़ जाती। कहीं अपनी तो नहीं सुना रहा था क्योंकि वह यहां बदनाम है।'
''यह तो उसी से ही पूछ लेना-"मैने कहा और बाहर निकल गया।
वह बाहर ही खडा था और उसका मूंह सूखा हुआ लग रहा था। मुझसे बोला-"वह तुम्हें जानती है?"
मैंने शुष्क स्वर में कहा-''वह मुझे बहुत मानती भी है पर मैने तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कहा और न कहूंगा। मगर तुमने अपनी मुसीबत ऐक बार खुद बुलाई है। वह तुम्हें छोडेगी नही क्योंकि मेरी पत्नि से जब मिलेगी तो वह उसे जरूर बताएगी, आज से छह वर्ष पूर्व अपनी नौकरी खोने के बाद किस तरह धमकी दी थी। मैं कोशिश करूंगा वह इसे न बताये पर लगता है तुम्हारे पाप पीछा कर रहे हैं क्योंकि जिस कहानी को मैं भूल चुका था उसे तुमने खुद याद किया है, तुम्हें मेरी चर्चा उससे नही करनी थी, ताकि पुरानी बाते फिर एक बार हमारे सामने न आ सकें।"
मैं वहां से निकल आया और वह वहीं खडा आसमान में देख रहा था।शायद वह समझ गया था की उसने यह दूसरी गलती की है और लगभग वैसी ही जैसे पहले की थी जब उसने अपनी करिस्तानियों का जिक्र अपने मित्र से किया था जिसने प्रबंधन को पूरी बात बता दी थी।
नोट-यह मेरी मौलिक एवं स्वरचित हिंदी कहानी है।

Nov 6, 2007

तुम्हारे प्रेम के विरह में हास्य लिखता हूँ

ब्लोगर उस दिन एक पार्क में घूम रहा था तो उसकी पुरानी प्रेमिका सामने आकर खडी हो गयी। पहले तो वह उसे पहचाना ही नहीं क्योंकि वह अब खाते-पीते घर के लग रही थी और जब वह उसके साथ तथाकथित प्यार (जिसे अलग होते समय प्रेमिका ने दोस्ती कहा था) करता था तब वह दुबली पतली थी। ब्लोगर ने जब उसे पहचाना तो सोच में पड़ गया इससे पहले वह कुछ बोलता उसने कहा-''क्या बात पहचान नहीं रहे हो? किसी चिंता में पड़े हुए हो। क्या घर पर झगडा कर आये हो?"

''नहीं!कुछ लिखने की सोच रहा हूँ।''ब्लोगर ने कहा;''मुझे पता है कि तुम ब्लोग पर लिखते हो। उस दिन तुम्हारी पत्नी से भेंट एक महिला सम्मेलन में हुई थी तब उसने बताया था। मैंने उसे नहीं बताया कि हम दोनों एक दूसरे को जानते है।वह चहकते हुए बोली-''क्या लिखते हो? मेरी विरह में कवितायेँ न! यकीनन बहुत हिट होतीं होंगीं।'

ब्लोगर ने सहमते हुए कहा-''नहीं हिट तो नहीं होतीं फ्लॉप हो जातीं हैं। पर विरह कवितायेँ मैं तुम्हारी याद में नहीं लिखता। वह अपनी दूसरी प्रेमिका की याद में लिखता हूँ।''

''धोखेबाज! मेरे बाद दूसरी से भी प्यार किया था। अच्छा कौन थी वह? वह मुझसे अधिक सुन्दर थी।''उसने घूरकर पूछा।

''नहीं। वह तुमसे अधिक खूबसूरत थी, और इस समय अधिक ही होगी। वह अब मेरी पत्नी है। ब्लोगर ने धीरे से उत्तर दिया।

प्रेमिका हंसी-''पर तुम्हारा तो उससे मिलन हो गया न! फिर उसकी विरह में क्यों लिखते हो?'

''पहले प्रेमिका थी, और अब पत्नी बन गयी तो प्रेम में विरह तो हुआ न!''ब्लोगर ने कहा।
पुरानी प्रेमिका ने पूछा -''अच्छा! मेरे विरह में क्या लिखते हो?"

''हास्य कवितायेँ और व्यंग्य लिखता हूँ।" ब्लोगर ने डरते हुए कहा।
''क्या"-वह गुस्से में बोली-''मुझे पर हास्य लिखते हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की। वरना तुम तो मेरे को बदनाम कर देते। आज तो मेरा मूड खराब हो गया। इतने सालों बाद तुमसे मिली तो खुशी हुई पर तुमने मुझ पर हास्य कवितायेँ लिखीं। ऐसा क्या है मुझमें जो तुम यह सब लिखते हो?'

ब्लोगर सहमते हुए बोला-"मैंने देखा एक दिन तुम्हारे पति का उस कार के शोरूम पर झगडा हो रहा था जहाँ से उसने वह खरीदी थी। कार का दरवाजा टूटा हुआ था और तुम्हारा पति उससे झगडा कर रहा था. मालिक उसे कह रहा था कि''साहब. कार बेचते समय ही मैंने आपको बताया था कि दरवाजे की साईज क्या है और आपने इसमें इससे अधिक कमर वाले किसी हाथी रुपी इंसान को बिठाया है जिससे उसके निकलने पर यह टूट गया है और हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं. तुम्हारा पति कह रहा था कि'उसमें तो केवल हम पति-पत्नी ने ही सवारी की है', तुम्हारे पति की कमर देखकर मैं समझ गया कि...............वहाँ मुझे हंसी आ गई और हास्य कविता निकल पडी. तब से लेकर अब जब तुम्हारी याद आती है तब......अब मैं और क्या कहूं?''

वह बिफर गयी और बोली-''तुमने मेरा मूड खराब किया। मेरा ब्लड प्रेशर वैसे ही बढा रहता है। डाक्टर ने सलाह दी कि तुम पार्क वगैरह में घूमा करो। अब तो मुझे यहाँ आना भी बंद करना पडेगा। अब मैं तो चली।"

ब्लोगर पीछे से बोला-''तुम यहाँ आती रहना। मैं तो आज ही आया हूँ। मेरा घर दूर है रोज यहाँ नहीं आता। आज कोई व्यंग्य का आइडिया ढूंढ रहा था, और तुम्हारी यह खुराक साल भर के लिए काफी है। जब जरूरत होगी तब ही आऊँगा।''

वह उसे गुस्से में देखती चली गयी। ब्लोगर सोचने लगा-''अच्छा ही हुआ कि मैंने इसे यह नहीं बताया कि इस पर मैं हास्य आलेख भी लिखता हूँ। नहीं तो और ज्यादा गुस्सा करती।''

नोट-यह एक स्वरचित और मौलिक काल्पनिक व्यंग्य रचना है और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई लेना देना नहीं है और किसी का इससे मेल हो जाये तो वही इसके लिए जिम्मेदार होगा.

Nov 5, 2007

रास्ते तो बनते हैं बिगड़ते हैं

अपने रास्ते को नहीं जानते जब
दूसरे के पद चिन्हों पर चलते हैं
जब कोई अपना ख्याल नहीं बनाते
दूसरे के नारों पर कहानी गढ़ते हैं
जब अपने शब्द नहीं रच पाते
तब दूसरे के वाद पर
अपने प्रपंच रचते है

पुराने बिखर चुके विचार
नयेपन की हवा से दूर होते हैं
हम तरक्की की चाह में
बेकार अपने सिर ढोते हैं
कहवा घरों और चाय के गुमटियों पर
चुस्कियाँ लेते हुए अपनी गरीबी और बीमारी
पर बात करते हुए रोते हैं
पर इससे घर और देश नहीं चलते हैं

हाथ में सिगरेट लेकर रास्ते पर चलते हुए
टीवी के कैमरे के सामने अपने विचारों की
आग उगलते हुए
अपने को बहुत अच्छे लगते हैं
गरीबी और भुखमरी पर लिखते हैं
बडे-बडे ग्रंथ
शब्दों में मार्मिकता का बोध गढ़ते हैं
पर यह तुम्हारा गढा गया सोच
कभी गरीब और भूख से बेजार लोगों का
पेट नहीं भर सकता
जिनके लिए तुम सब रचते हो
वही लोग उसे नहीं पढ़ते हैं

सच तो यह है कि
गरीबी के लिए चाहिऐ धन
भूख के लिए रोटी
जिस आकाश की तराग देखते हो
दोनों वहाँ नहीं बनते हैं
इसलिए चलते जाओ रास्ता सामने है
खडे होकर बहस मत करो
रेत और पानी की धाराओं से
इस धरती पर रास्ते बिगड़ते और बनते हैं

Nov 4, 2007

पाकिस्तान में प्रतिबन्ध का दौर

पाकिस्तान में न्याय पालिका, प्रचार माध्यम, मानव अधिकार, और राजनितिक दलों पर जिस तरह मुशर्रफ ने जिस तरह प्रतिबन्ध लगाए हैं और पूरा विश्व इसे खामोशी से देख रहा है वह बहुत ताज्जुब की बात है। मुशर्रफ ने तो साफ तौर से न्याय पालिका और आतंकवाद को तराजू के एक ही पलडे में रखा है उस पर सबको आश्चर्य हुआ है। अगर आज भी यह पूछा जाए कि वह किस कानून के तहत वहाँ के राष्ट्रपति बने बैठे हैं तो उनके पास इसका जवाब नहीं होगा। शायद यह भूल गए हैं कि इसी न्याय पालिका ने इस मामले में उनकी मदद की थी।

पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता आसमान जहांगीर को भी घर में नजरबन्द कर दिया गया है, और अब यह देखना यह है कि विश्व भर के मानवाधिकार कार्यकर्ता उस पर किस तरह का रवैया अपनाते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक किसी भी देश ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इसका मतलब यह है कि मुशर्रफ उन लोगों को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि वह अगर अपने देश में आतंकवाद को नहीं मिटा पाये हैं तो उसके लिए वह सब लोग जिम्मेदार हैं जिन पर वह अब प्रतिबन्ध लगा रहे हैं। दूर बैठे पश्चिमी राष्ट्रों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि उन पर विश्वास करे। कहीं न कहीं अब भी उनके मन में भारत के सामने एक प्रबल चुनौती बनी रहे और पाकिस्तान के बने रहने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

अब सिर्फ़ एक ही सवाल रह गया है कि क्या आतंकवाद फैलाने वाले पूरी तरह से परास्त किए जा सकते हैं? एक तरह तो आतंकवादी मुशर्रफ और अमेरिका को अपना दुश्मन मानते हैं दूसरी तरफ़ उनके कामों से दोनों को ही लाभ पंहुचा रहे हैं। अगर वह लोग अपनी कारिस्तानी नही करते तो मुशर्रफ कभी का अपने पद से रुखसत हो गए होते पर आतंकवाद के चलते वह मुशर्रफ पश्चिमी राष्ट्रों के सबसे बडे मित्र बनते जा रहे हैं, और अमेरिका को वहाँ दखल देने का अवसर भी मिल रहा है। इस लिहाज से तो आतंक फैलाने वाले उन्हीं तत्वों को रास्ता बना रहे हैं जिनसे लड़ने का दावा वह करते हैं।

कभी-कभी तो लगता है कि आतंकवाद की लड़ाई कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि जितना धन और मानव श्रम इसके ख़िलाफ़ लड़ने में लग रहा है उतना ही उसे बनाए रखने में लग रहा है। इससे लड़ने और बनाए रखने में लोगों के आर्थिक फायदे हैं और लगता है यह एक तरह का व्यवसाय बन गया है और ख़त्म हो गया तो कई लोगों की दूकान बंद हो जायेगी। सात वर्ष तक आतंकवाद से लड़ने वाले मुशर्रफ एक बार फ़िर नए सिरे से तैयार हो रहे हैं उस पर उनके समर्थक जिस तरह अपनी सहमति की मोहर लगा रहे हैं वह दिलचस्प है और विश्व भर के राजनेतिक विशेषज्ञ अभी तक अपनी कोई राय कायम नहीं कर पाये। न बोतल बदली और न उसमें रखा द्रव्य फ़िर भी उसे जिस तरह नया कर पेश किया जा रहा है वह बहुत आश्चर्यजनक है। हो सकता है कि आने वाले समय में शायद ईरान के ख़िलाफ़ उसके इस्तेमाल की कोई योजना हो।

Nov 3, 2007

पाकिस्तान में सरकार पुरानी, इमरजेंसी नयी

पाकिस्तान में फिर इमरजेंसी लगा दी गयी है। अगर देखा जाये तो हालत वैसे ही जैसे नवाज शरीफ के तख्ता पलट के समय थे, पर इस बार कोई तख्ता पलट नहीं है पर मुशर्रफ ने ऐसा माहौल बनाया गया जैसे कोई तख्ता पलट हो रहा हो। इसमें में कोई शक नहीं है की मुशर्रफ में ऐसी चालाकी हो यह कभी नहीं लगता पर उनके पीछे कोई बहुत चालाक खोपडी है जो उनका संचालन कर रही है। सामने कोई नहीं है पर मुशर्रफ ऐसे सिद्ध हैं कि दुनिया को भूत दिखा रहे हैं। हमने कई भूत भगाने वाले ओझा देखे हैं पर मुशर्रफ जैसा नहीं देखा। हमेशा गरजने वाला अमेरिका भी केवल दु:ख व्यक्त कर रहा है। पिछले आठ वर्ष से मुशर्रफ वहाँ राज्य कर रहे हैं पर हालत बिगड़ते रहे हैं। आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में लड़ने निकले मुशर्रफ से किसी ने नहीं पूछा कि 'जनाब, यह आतंकवाद आया कहाँ से?' आठ वर्ष से जूझ रहे मुशर्रफ अब तक आतंकवाद पर काबू नहीं पा सके। अमेरिका ने जिस तरह पाकिस्तान में अपना उपनिवेश कायम कर रखा है वह अब उसे तकलीफ देह होने वाला है।

मुझे लगता है कि यह इमरजेंसी बहुत दूर तक जाने वाली है। जिसे पाकिस्तान कहा जाता है उसका राजनीतिक मानचित्र कुछ भी कहता हो पर उसका संविधान बलोचिस्तान और सीमा प्रांत के इलाकों में नाम भर को चलता है। अंग्रेजों ने इस देश पर डेढ़ सौ वर्ष राज्य किया पर फिर भी यह उनकी निजी जागीर नहीं था जो सिंध, बलूचिस्तान और सीमा प्रांत और पूर्वी बंगाल पाकिस्तान के नाम पर लिख गए। पूर्वी बंगाल तो पाकिस्तान से अलग हो गया पर बाकी तीनों प्रांत भी अब इस रास्ते पर हैं। मैंने अंतर्जाल पर अंग्रेजी में कई पाकिस्तानी ब्लोग देखे हैं और मुझे उनको पढ़ने पर यह यकीन करना मुश्किल होता है कि क्या वह उनके ही हैं या कोई छद्म ब्लोग हैं। पाकिस्तान पर बहुत समय तक पंजाब से प्रभावित लोगों का राज्य रहा है। उनका नजरिया केवल पंजाब के हितों तक ही सीमित रहा है। वैसे पाकिस्तान में आपातकाल लगना कोई बड़ी बात नहीं है पर इस बार का संकट पाकिस्तान के अस्त्तित्व के लिए चुनौती बनने जा रहा है-और जो लोग सोच रहे हैं कि मुशर्रफ इसे बचा लेंगे वह गलती पर हैं।

वैसे पाकिस्तान एक राष्ट्र है इस बात की पोल तो कई बार खुल चुकी है पर नवाज शरीफ की हाल ही में पाकिस्तान वापसी के समय एक छोटे देश के राजदूत ने उन्हें समझौते के वह दस्तावेज दिखाए जो उन्होने अपनी रिहाई के लिए उसको गवाह बनाकर दस्तक किये थे-यह बात का खुला प्रमाण था कि पाकिस्तान में अन्य राष्ट्रों की कितनी चलती है। अभी तक हर संकट में पाकिस्तान की सेना मजबूत रहती थी पर इस बार वह वजीरिस्तान में ऐसी जंग में फंसी हुई है जहाँ से उसका निकलना अगले कई बरसों तक संभव नहीं है। यह ऐसे इलाके हैं जिन पर अंग्रेज भी कभी पूरी तरह नियंत्रण नहीं कर पाए और लोग भी वह हैं जो आज कश्मीर का हिस्सा आज पाक के पास है वह इन्हीं कबाइलियों के वजह से है। इस बार पाकिस्तान की सेना उनसे लड़ रही है जो पाकिस्तान के लिए एक हथियार रहे हैं।
भारत तो सदियों से पाकिस्तान के क्षेत्रों से आने वाले संकटों का सामना करता रहा है और वह आने वाली इस उथल-पुथल से उपजे संकट को भी झेल लेगा पर विश्व के अन्य देशों को वहां से आतंकवाद निर्यात होने वाला संकट और भी बढ़ सकता है। पाकिस्तान एक परमाणु संपन्न राष्ट्र है और कई लोगों को शक है कि वहाँ से परमाणु तकनीकी आतंकवादियों के हाथ लग सकती है। यह कोई साधारण बात नहीं है कि पाकिस्तान एक परमाणु राष्ट्र है उसकी अस्थिरता अब पूरे विश्व के लिए खतरा है। मुशर्रफ बहुत समय तक पूरे विश्व को धोखा नही दे सकते और फिर उन पर आतंकवाद को पनपाने का आरोप है और आज वह उससे संघर्ष जिस तरह कर रहे हैं लोग उनकी नीयत पर शक करते हैं। इसी आतंकवाद का भी उन्होने इस बार ऐसा भूत खडा किया और अपने को पूरे विश्व में स्वीकार्य दिखाने का जिस तरह प्रयास किया उससे तो यह सवाल यह उठता है कि आखिर वह दोस्त किसके हैं-अमेरिका के, आतंकवादियों के या अपनी कुर्सी के। बहरहाल अगर सब कुछ पटरी पर नहीं आया तो पूरा विश्व इस घटनाक्रम प्रभावित होगा।

Oct 30, 2007

भले लोगों का तलाश करें ठौर

सामने कुछ कहैं
पीठ पीछे कुछ और
ऐसे लोगों की बातों पर क्या करें गौर
बात काम करें मचाएँ ज्यादा शोर
बोले और पीछे पछ्ताएं
जैसे नाचने के बाद रोए मोर
जिनके मन में नही सदभाव
उनकी वाणी में होता है कटुता का भाव
अपनी पीठ आप थपथपापाएं
अपने दिल का मैल छिपाएं
क्या पायेंगे ऐसे लोगों को बनाकर सिरमौर
उनकी भीड़ में शामिल होने से बेहतर है
अकेले में समय गुजारें
उनके झुंड में रहने से अच्छा है
भले लोगों का तलाश करें ठौर

Oct 27, 2007

सच और झूठ

एक झूठ सौ बार बोला जाये
तो वह सच हो जाता है
और एक सच सौ बार
दुहराया जाये तो
मजाक हो जाता है
सच होता है अति सूक्ष्म
विस्तार लेते वृक्ष की तरह
कई झूठ भी समेटे हुए
वटवृक्ष बन जाता है
कौनसा पता झूठ का है
और कौनसा सच का
पता ही नही लग पाता है
लोग पते पकडे हाथ में ऐसे
मानो सच पकडा हो
भले ही झूठ ने उनकी बुद्धि को जकडा हो
जिनके पास सच है
उनको भी भरोसा नहीं उस पर
जिन्होंने झूठ को पकडा है
वह भी अपने पथ को सच
मानकर चलते हैं उस पर
सदियों से चल रहा है द्वंद
सच और झूठ का
इसका अंत कहीं नहीं आता है।
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Oct 23, 2007

अनुभूति

अपने अन्दर ही अपने पर
जब यकीन नहीं होता
तब किसी दूसरे पर
कोई कैसे भरोसा करेगा
जैसे मन में होगा खुद का चेहरा
वैसा ही दूसरे का भी लगेगा
तुम कितना चाहो
उधार की रौशनी से
तुम्हारा मन रोशन हो जाये
वह कभी संभव नहीं
क्योंकि जब तक तुम
खुद के नहीं बन सकते
तब क्या लगेगा गैर भी अपना
तुम्हें तो अपना भी गैर लगेगा
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Sep 23, 2007

क्रिकेट बहुत दिन बाद जनचर्चा का विषय बना

आज पहली बार बहुत समय बाद लोगों के मुहँ से क्रिकेट के बारे में चर्चा करते सुना, और स्पष्ट है कि यह कल बीस ओवरीय विश्वकप प्रतियोगिता के सेमी फाइनल में आस्ट्रेलिया को हारने के बाद शुरू हुई। पहले ऎसी चर्चा १९८३ में शुरू हुई थी बाजार में लोगों को जमकर भुनाया गया और विश्व में आर्थिक रुप से गरीब कहे जाने वाला भारत क्रिकेट का आर्थिक आधार बन गया। फिर एक दौर एसा आया कि भारतीय टीम अंतर्राष्ट्रीय दौरों पर तो अच्छा प्रदर्शन करती पर प्रतियोगिताओं में पिट कर आ जाती। क्रिकेट के कर्ण धारों को लगता कि अन्तराष्ट्रीय दौरों के सफलता से भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता बरकरार रहेगी और उन्होने प्रतियोगिताओं को भी सामान्य रुप से लिया और पिछले विश्व कप के बाद भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता कम हो गयी भले ही क्रिकेट से जुडे लोग इसे नही मानते हैं पर इसके आर्थिक पक्ष से जुडे विशेषज्ञ इस पहलू को जानते हैं कि लोगों में अगर लगाव अधिक नहीं है तो उसका फ़ायदा नही उठाया जा सकता है।

बीस ओवरीय मैच अगर देखा जाये तो भारत में क्रिकेट को लोकप्रियता दिला सकते हैं और बाजार में एक बार फिर लोगों में इसके प्रति लगाव पैदा कर उसे भुना सकते है पर उसकी एक ही शर्त है कि भारत इस कप को जीत ले। महत्वपूर्ण मैच हारने के मामले में भारतीय खिलाडी बदनाम है और इसी कारण दर्शकों में खेल और खिलाडियों के प्रति जज्बा कम भी है। हालांकि लोग कहते हैं कि खेल है उसको खेल की भावना से देखा जाना चाहिऐ पर और यह सही भी है पर जब इससे जुडे आर्थिक पक्षों के बारे में सोचेंगे तो यह साफ लगेगा कि जीत और सिर्फ जीत ही उसमें काम करती है, खिलाडियों को आर्थिक फायदा दिलाने में । सभी जगह एक नंबर को सलाम किया जाता है और दो और तीन नंबर वाले कहा जाता है कि'कोई बात नहीं अगली बार प्रयास करना'।

कल की जीत के बाद अगर लोगों में पुन: क्रिकेट के बारे में चर्चा शुरू हुई है तो इससे जुडे बाजार के लोग जरूर खुश हुए होंगे। आज मैं बाजार गया तो दुकानों, ठेलों और पार्कों के आसपास एकत्रित लोगों के मुहँ से इस बात में चर्चा सुनी -शायद कई वर्षों बाद। इसमें हर वर्ग का आदमी था-अब वर्गों के स्वरूप तो सब जानते ही हैं उनमें विस्तार से जाने की बजाय हम कह सकते हैं कि क्रिकेट के बारे मे पहली बार जन सामान्य के बीच चर्चा हुई। आर्थिक समीक्षकों की दृष्टि से कहें तो आज बहुत दिन बाद क्रिकेट का बाजार खुला।

बहुत दिन से क्रिकेट के लेकर लोगों में निराशा का भाव था और फाइनल में उत्साह का संचार तो हुआ है पर यह आगे बना रहे तो इसकी एक ही शर्त है कि भारत इस विश्व कप को जीत ले। वैसे मुझे यह यकीन है कि भारत इस विश्व कप जीत लेगा क्योंकि इसमें सब युवा खिलाड़ी हैं और उनमें पूरी तरह एकजुटता का भाव दिखाई देता है जबकि पिछले एक दिवसीय विश्व कप में गयी टीम के बारे में किसी को विश्वास नहीं था और खिलाडियों के मनमुटाव की चर्चाएं भी सार्वजनिक रुप से हो चुकीं थी। फिर उसके अनेक खिलाडी अनफिट थे। जैसा कि मैं कहता हूँ कि क्रिकेट खिलाड़ी की फिटनेस का आंकलन उसकी बैटिंग और बोलिंग से नही बल्कि उसकी रन लेने के लिए विकेटों की बीच दौड़ तथा क्षेत्र रक्षण करने की फुर्ती से देखा जाना चाहिऐ और मुझे इस टीम में इस दृष्टि से कोई कमी नहीं दिखाई देती। मेरी इस टीम को शुभकामना है कि वह जीते और देशवासियों का मनोबल बढाए जिनके जज्बातों पर उनका और इस खेल का भविष्य टिका हुआ है।

Sep 8, 2007

दृष्टा बनकर जो रहेगा

अगर मन में व्यग्रता का भाव हो तो
सुहाना मौसम भी क्या भायेगा
अंतर्दृष्टि में हो दोष तो
प्राकृतिक सौन्दर्य का बोध
कौन कर पायेगा
मन की अग्नि में पकते
विद्वेष, लालच, लोभ, अहंकार और
चिन्ता जैसे अभक्ष्य भोजन
गल जाता है देह का रक्त जिनसे
तब सूर्य की तीक्ष्ण अग्नि को
कौन सह पायेगा
अपने ही ओढ़े गये दर्द और पीडा का
इलाज कौन कर पायेगा
कहाँ तक जुटाएगा संपत्ति का अंबार
कहाँ तक करेगा अपनी प्रसिद्धि का विस्तार
आदमी कभी न कभी तो थक जाएगा
जो दृष्टा बनाकर जीवन गुजारेगा
खेल में खेलते भी मन से दूर रहेगा
वही अमन से जीवन में रह पायेगा
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Sep 3, 2007

अपनी सोच से अपने को बचाओ

विश्वास, सहृदयता और प्रेम हम
ढूंढते दोस्तो, रिश्तेदारों और
अपने घर-परिवार में
अपने मन में कब और कहाँ है
कभी झांक कर देखा है
इस देह से बनी दीवार में

अपने अहं में खुद को जलाए देते हैं
इस भ्रम में कि कोई और
हमें देखकर जल रहा है
लोगों के मन में हमारे प्रति
विद्वेष पल रहा है
कभी अपने मन को साफ नहीं कर पाते
चाहे कितनी बार जाते
सर्वशक्तिमान के दरबार में

कुछ देर रूक जाओ
अपनी सोच को अपने से बचाओ
और फिर अपनी देह में सांस ले रहे
उस अवचेतन की ओर देखो
उससे बात करो
तब तुम्हारा भ्रम टूटेगा कि
कितना झूठ तुम सोच रहे थी
और सच क्या है इस संसार में
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Aug 30, 2007

इस ब्लोगर मीट पर हास्य कविता मत लिखना

पहले ब्लागर का पता उसके मित्र ने ही दूसरे ब्लागर को दिय था और सख्त हिदायत थी कि किसी भी तरह उससे बहस अधिक मत करना-वह कभी कामेडियन लगता है तो कभी ऐकदम दार्शनिक हो जाता है।
दूसरा ब्लागर उसके पत्ते पर पहुंचा। उसने पहले ब्लागर को उसके मित्र का परिचय दिया। पहले ब्लोगर ने भी उसका स्वागत किया और पूछा-'' आपको देखकर खुशी हुई पर मैने कभी आपका ब्लोग देखा ही नहीं है।'
जरूरत क्या-'दूसरे ने कहा-'मैंने उस पर लिखा ही क्या है जो आप पढ पाते। बस अपने आने की घोषणा करने वाली दो-चार लाइनें डालीं और हो गये ब्लोगर, पर मैं आपका लिखा पढता हूं।'
पहला ब्लोगर-'क्या आपने कभी मेरे ब्लोग पर कमेंट दी है?'
दूसरा ब्लोगर्-''नहीं अब मैं आपका लिखा पढ्कर भूल जाता हूं कि कमेंट भी लिखा जाना चाहिये।'
पहला ब्लोगर-आपको बहुत पसंद आता है?'
दूसरा ब्लोगर-नही!आपका लिखा मेरे समझ से परे होता है, पर आप अच्छा लिखते हैं।'
पहला ब्लोगर-जब आपके समझ में नहीं आता तो कैसे कह सकते हैं कि अच्छा लिखता हूं?'
दूसरा ब्लोगर-मेरे समझ में नहीं आता इसलिये। खैर छोडिये इस बात को, काम की बात करें।' पहला ब्लोगर्-'आप मुझसे क्या चाह्ते हैं?'
दूसरा ब्लोगर-'कुछ खास नहीं! बस ऐक ब्लोगर मीट कर लेते हैं। इतनी सारी ब्लोग मीट हो रहीं हैं पर कोई अपने को बुला ही नहीं रहा है, इसलिये आज हम लोग भी ऐक मीटिंग कर लेते हैं। आप उसकी रिपोर्ट लिख देना।'
पहला ब्लोगर-'मैं क्यों लिखूं? आप क्यों नहीं लिखेंगे ?''
दूसरा ब्लोगर-मैं तो उस पर जबरदस्त कमेंट लिखूंगा।''
पहले ब्लोगर ने देखा कि वह लगातार अपने कंधे उचकाये जा रहा था-ऐसा लग रहा था कि वह कोई व्यायाम करने का आदी हो। पहले ब्लोगर ने कहा-'आप अपने कंधे लगातार इस तरह घुमा क्यों रहे हैं। कोई व्यायाम कर रहे हैं या बचपन से ही ऐसी कोई आदत है। इस तरह आपके कंधे घूम रहे हैं या नाच रहे हैं पता ही नहीं लग रहा है।'
दूसरा बोला-'आप ही देख लीजिये।'
पहला ब्लोगर-'आप ऐसा कर क्यों रहे हैं?'
दूसरा बोला-'और क्या करूं? कंप्युटर पर लिखते-लिखते ऐसी आदत हो गयी है। उस पर काम करते हुए भी टाइप करूं या नहीं ऐसे ही कंधे उचकाता रहता हूं ताकि मुझे यह याद रहे कि मैं ऐक ब्लोगर हूं।'
पहला ब्लोगर-हां, अभी आपने बताया था कि उस पर अपने आने की घोषणा करते हुए ऐक पोस्ट डाली थी। वैसे आप किस तरह और कौनसे विषयों पर लिखते हैं?'
दूसरा ब्लोगर्-'मैंने आपको बताया थ कि बस ऐक बार लिख है और वह मेरी जिंदगी की पहली और आखिरी रचना है।
पहला ब्लोगर्-'कुछ तो लिखते ही होंगे।'
दूसरा ब्लोगर्-'बस कुछ ज्यादा नहीं बस कमेंट लिखता हूं कभी-कभी। वैसे इस लाइन में आपसे सीनियर हूं। वैसे कमेंट लिखना भी कोई आसान काम नहीं है।'
पहला ब्लोगर-'आपकी बात सही हैं, कमेंट लिखना भी कोई आसान काम नहीं है। पर आप बताईये हम दो लोग मिलकर कैसे ब्लोगर मीट कर सकते हैं? क्या आपके पास इसके कोई योजना है?'
दूसरा ब्लोगर्-'मेरे पास दस ब्लोग हैं। आपके पास भी छह ब्लोग है। फ़िर चिंता की क्या बात है? किसी भी ब्लोगमीट में इतने सारे ब्लोग लिखने वाले लेखक नहीं शामिल हुए होंगे।'
वह अपने कंधे लगातार उचकाये जा रहा था। पहला ब्लोगर-'आपकी बात सही हैं। पर हम लिखने वाले तो दो ही लोग हैं।'
दूसरा बोला-'मेरे सभी ब्लोगों पर अलग-अलग नाम हैं। किसीपर मेरा असली नाम नहीं हैं। सभी नाम छ्द्म हैं, आपके भी छ्द्म नाम से कुछ् ब्लोग तो होंगे ही?'
पहला ब्लोगर-हां! ऐक धार्मिक ब्लोग है और उस पर केवल धार्मिक विषयों पर ही लिखता हूं।'
दूसरा ब्लोगर-'तब तो मजा आ गया। हमारे मीट में धार्मिक ब्लोगर का होना चार चांद लगा देगा।'
पहला ब्लोगर-पर वह तो मैं ही हूं।'
दूसरा-पर यहां कौंन देखने आ रहा है। आप तो अपने छ्द्म नाम ही लिख देना। और हां मैने अपने अपनी बच्ची और पत्नी के नाम पर भी ब्लोग बनाये हैं पर उन पर कुछ लिखा नहीं है, मीट में उनकी उपस्थिति भी दिखा देना। इससे महिलाओं की उपस्थिति भी हो जायेगी। '
गृह्स्वामिनी चाय और नाश्ता ले आयी उनके जाने के बाद दूसरा ब्लोगर बोला-'आपने भाभी जी से परिचय नहीं कराया?'
पहला-इसलिये कि आप और मैं आराम से चाय और नाश्ता उदरस्थ कर सकें।'
दूसरा-'क्या ब्लोगिंग से चिढती हैं?"
पहला-'नहीं, नफ़रत करती हैं।'
दूसरा-'कोई बात नहीं है। मेरी पत्नी ने भी घर से निकाल दिया है। अब इधर्-उधर रिश्तेदारों के यहां रहकर गुजार लेता हूं। घर में दोबारा घुसने देने के लिये उसने ब्लोगिंग छोडने की शर्त रखी है।'
पहला-'फ़िर आप ब्लोगिंग कैसे करते हैं?'
दूसरा-'ऐक साइबर कैफ़े वाले को पटा रखा है।'
पहला-'आप किस तरह के ब्लोग पर कमेंट रखते है।'
दूसरा-चाहे जिस पर भी। बस लेखक चिढ जाये या डरकर ब्लोगिंग छोड जाये। मुझे कोई डर भी नहीं लगता क्योंकि मेरा तो सब जगह छ्द्म नाम है, यहां तक कि घर परिवार के लोगों के नाम भी छ्द्म हैं। वह तो मैं खुद मानकर चलता हूं कि उनके नाम है।"
पहला-'आपके ब्लोग का नाम क्या है?"
जैसे ही उसने अपने ब्लोग का नाम बताया पहला ब्लोगर उछल कर खडा हो गया और बोला-'अच्छा तो वह तुम थे जो मेरे छ्द्म ब्लोग पर अभद्र कमेन्ट रख गये थे। तुमने मुझे विचाराधारा की लडाई लडने की चुनौती दी थी और मैने उसी वजह से उसे धर्म का ब्लोग बना दिया। उसके बाद तुम आये ही नहीं। आज आओ तो कर लें विचारधारा पर बहस!'
दूसरा-आप नाराज क्यों हो रहें है? आपने खुद ही कहा कि आपका छ्द्म नाम है, अगर आपक असली नाम होता तो आपका हक बनता शिकायत करने का । अच्छा अब आप ब्लोगर मीट पर रिपोर्ट लिख देना।'
पहला-कौनसी ब्लोगर मीट?'
दूसरा-'यह जो अभी यहां हुई।'
पहला-'यह ब्लोगर मीट थी?'
दूसरा-' और क्या थी? मुझे क्या बेवकूफ़ समझ रखा है जो इतने देर से बात कर रहा हूं। मैं केवल मीटिंग में ही बोलता हूं। मेरे पास फ़ालतु समय नहीं है। और हां, इस पर कोई हास्य कविता मत लिख देना। मुझे वह बिल्कुल पसंद नही है।फ़िर कमेंट नहीं लिखूंगा।'

वह चला गया। पहले ब्लोगर ने यह सोचकर चैन की सांस ली ऐक तो घर में यह किसी को पता नहीं लगा कि वह ब्लोगर था दूसरा उसने हास्य कविता के मनाही की थी हास्य आलेख की नहीं।

Aug 27, 2007

क्रिकेट:अब मनोरंजन की दृष्टि से ही देखना ठीक रहेगा

आजकल क्रिकेट में जो द्वंद चल रहा है उससे तो कुछ क्रिकेट प्रेमी बहुत खुश हैं। वजह बिल्कुल साफ है कि जो क्रिकेट के पागलपन की हद तक दीवाने थे अब उनको यह पता लग गया है कि वह ठगे गये हैं-और उनके भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया गया है। उनके राष्ट्र प्रेम को भुनाने के लिए क्रिकेट ऐक ऐसा व्यवसाय बना जिससे की लोगों ने दौलत और शोहरत पाई पर वास्तव में उनका उसकी भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं था।

उस दिन कपिल देव ने टीवी में ऐक साक्षात्कार में इंग्लेंड गयी टीम को बीसीसीआई की टीम कहा बाद में एंकर द्वारा घूर कर देखे जाने पर वह बोले 'मैं यह मजाक में कह रहा हूँ' , पर हम उन लोगों में हैं जो क्रिकेट में कपिल देव के आगे किसी को गिनते भी नहीं है और आज के खिलाड़ी जिनमें सचिन, राहुल और सौरभ भी शामिल हैं कितने भी बडे बने रहें पर उनकी तुलना मैं कपिल से नहीं कर सकता। बहरहाल क्रिकेट की आड़ में जिस तरह इस देश के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया गया उस पर मीडिया दबे स्वर में सही उस पर दृष्टिपात करता है पर खुल कर कोई नहीं कहता क्योंकि इसकी प्रायोजक कंपनिया ही उनकी भी उनकी सबसे बड़ी विज्ञापनदाता हैं।

आजकल देश में जो दो क्रिकेट संस्थाओं के बीच जो द्वंद चल रहा है उससे मैं भी बहुत खुश हूँ, क्योंकि जिस तरह क्रिकेट की इकलौती संस्था के कर्णधारों ने अपनी संस्था को प्राईवेट कंपनी के रुप में चलाया और इस बात की परवाह नहीं की विश्व में भारतीय क्रिकेट का क्या सम्मान रह जाएगा और राष्ट्र प्रेम की आड़ में लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ हुआ उससे उसके प्रति लोगों में कोई सम्मान नहीं रह गया है। इसके विपरीत भारत द्वारा जीते गये गये इकलौते विश्व कप के कारण कपिलदेव का आज भी देश में सम्मान है क्योंकि उन्होने ही उस टीम का नेतृत्व किया था। सचिन तथाकथित रुप से विश्व के महानतम बल्लेबाज पर उनके नाम ऐक भी विश्वकप नहीं है। हम तो ऐक ही बात कहते हैं कि 'अपने कपिल का जवाब नहीं'

बीसीसीआई और आईसीएल दोनों ही संस्थाएं क्रिकेट की व्यवसायिक संस्थाएं हैं मतलब यह कि क्रिकेट अब ऐसा व्यवसाय बन चूका है जिसे शौक़ से देखें पर देशप्रेम जैसी चीज इसमें देखने वाली कोई बात नहीं होगी। जरूरत तो पहले भी नहीं थी पर ऐक ही टीम होने के कारण लोग उसे अपने देश की टीम समझ लेते थे पर अब तो टीम की पहचान संस्थाओं के नाम पर हो जायेगी। कभी बीसीसीआई की टीम खेलती दिखेगी तो कभी आईसीएल की टीम दिखेगी। मेरा मानना है कि इससे खेल में गुणवता ही आयेगी। अब हमें क्या मतलब कि किसकी टीम है? हम तो अच्छी टीम का ही मैच देखेंगे । उल्टे पहले से ज्यादा मजा आयेगा क्योंकि पहले देश के लिए भी दिल धड़कता था अब उस तनाव से मुक्त हो जायेंगे। कम से कम कोई खिलाड़ी देशप्रेम का नकली भाव तो नहीं ओढ़ कर सामने आएगा। क्रिकेट भी फिल्म और मीडिया की तरह ऐक शो बिजिनेस हो गया है और जिस तरह फिल्म के लोग पैसा लेकर अभिनय करते हैं पर उसकी आड़ में देश प्रेम का कोई दिखावा नहीं करते उसी तरह अब क्रिकेट खिलाडियों को भी अब राष्ट्र नायक का दर्जा नहीं मिलने वाला । अब तो यह है कि अपना अच्छा खेल दिखाओ और पैसा पाओ। देखने वाले भी बेपरवाह होकर देखेंगे। जिस तरह हम किसी फिल्म को देखकर किसी उसके अभिनेता, अभिनेत्री और निदेशक की तुलना किसी पाकिस्तानी फिल्म के अभिनेता, अभिनेत्री और निदेशक से नहीं करते वैसे ही क्रिकेट का भी होने वाला है। अभी हम कहते हैं 'हमारे पास सचिन है' तो पाकिस्तानी कहते हैं के 'हमारे पास इंजमाम है'। यह झगडा अपने आप खत्म हो जाएगा।

कुल मिलाकर अब अपनी भावनाएं क्रिकेट से लगाने का समय निकल गया है। हालांकि क्रिकेट से मुझे विरक्ति तो चार वर्ष पहले से हो गयी थी पर इस बार के विश्व कप के समय तो मेरा दिमाग अपने ब्लोग बनाने में के चक्कर में लगा हुआ था और सोचा था कि प्रतियोगिता का पहला चरण क्योंकि ज्यादा आकर्षक नहीं है इसलिये दूसरे चरण के मैचों से देखेंगे पर बीसीसीआई की टीम पहले ही बाहर हो गयी। इस टीम विश्व का विश्व कप जीतना संदिग्ध है यह बात मैंने अपने पहले लेख में लिखी थी यह अलग बात है कि सादा हिन्दी फॉण्ट में होने के कारण लोग उसे नहीं पढ़ सके। लिखने के बावजूद दिल हैकि मानता ही नहीं था कि हो सकता है शायद अपनी टीम जीत जाये। कपिल देव द्वारा आईसी एल का गठन करने के बाद यह दबाव तो खत्म हो गया है कि क्रिकेट में देशप्रेम जैसी भावनाएं जोड़ने की कोई जरूरत है, क्रिकेट को मनोरंजन की दृष्टि से देखना ही ठीक रहेगा।

Aug 24, 2007

ऐसा भी होता है-कहानी

उनके दोनो बेटे-बहु प्रतिवर्ष की भांति भी इस वर्ष अपने माता-पिता के पास रहने के लिए आये। अब पति-पत्नी अकेले ही रहते थे। पति अब रिटायर हो गये थे, और दोनों ही सुबह, दोपहर और शाम एक मंदिर में जाते थे। उनके दोनों लड़के पढने के बाद शहर से बाहर नौकरी कर रहे थे और उनकी अच्छी आय थी। अपने माता-पिता से मिलने वह साल में पांच-छ: बार जरूर आते थे पर विवाह के बाद पिछले तीन वर्षों में यह आगमन केवल एक वर्ष तक रह गया था। इधर उनके पिताजी भी रिटायर हो गये थे। रिटायर होने से पूर्व भी पति महोदय दिन में दो बार अपनी पत्नी को सुबह-शाम जरूर मंदिर गाडी पर बैठा कर जरूर ले जाते थे, अब वह क्रम तीन बार हो गया था। उनकी पत्नी अपने मंदिर जाने का प्रदर्शन पडोस में जरूर करतीं और बार-बार अपने धर्मभीरू होने की चर्चा अवश्य करती। और कभी-कभी बिना किसी आग्रह के ज्ञान भी देतीं देती थी। उनका मंदिर घर से दो किलोमीटर दूर था और किसी दिन गाडी खराब हो या पति महोदय का स्वास्थ्य ठीक न हो तो उन्हें अनेक ताने सुनने को मिलते। वह कभी घर से मंदिर तक पैदल नहीं गयीं।


उस दिन वह अपनी बहुओं पर अपना ज्ञान बघार रहीं थीं-"अपने शरीर को चलाते रहना चाहिए, वरना लाचार हो जाता है अब देखो तुम्हारे ससुर कभी नाराज होकर मंदिर नहीं ले जाते तो मैं पैदल ही चली जाती हूँ कभी भी झगडा नहीं करती- अपने पति से कभी भी झगडा नहीं करना चाहिए। बिचारे पुरुष तो जीवन भर कमाने में ही समय गंवाते हैं।"

वगैरह........वगैरह।इधर वह अपने पति के साथ मंदिर गयी और उधर उनकी बहुओं ने पडोसियों से बातचीत शुरू की और फिर उसने सासके दावे की इस तरह सत्यता का पता लगाने का प्रयास किया कि वह बिचारे समझ नहीं पाए ।

एक पडोसन बोली -"हमने तो कभी भी तुम्हारी सास को पैदल जाते हुए नहीं देखा, अगर गाडी खराब हो या उनका मन न हो या उनके कोई रिश्तेदार आ गये हौं तो मंदिर न ले जाने के लिए उनको हजार ताने देतीं हैं। तुम्हारे ससुर तो सीधे हैं सब सह जाते हैं।"

बहुओं की ऑंखें खुल गयीं, उन्हें अपनी सास पर वैसे भी यकीन नहीं था- और अब तो पडोसियों से भी पुष्टि करा ली थी। उन्होने अपने-अपने पतियों को उनकी माँ की पोल बतायी-हालांकि पडोसन ने आग्रह किया था कि वह ऐसा न करे क्योंकि उनके जाने के बाद उनकी सास उनसे लडेगी।

इधर उनके बहु-बेटे अपने घरों को रवाना हुए और उधर वह अपने पडोसियों पर पिल पडी-"तुम लोगों से किसी का सुख देखा नहीं जाता। मेरी बहुओं को भड़काती हो। अब देखना जब तुम्हारे घर में बहुएँ आयेंगी तो मैं भी यही करूंगी।"

एक पडोसन बोली-"हमें क्या पता था कि तुम्हारी बहुएँ चालाकी करेंगी। पता नहीं तुमसे क्या बात नमक मिर्च लगाकर कह गयीं हैं।"

मगर वह नहीं रुकीं और बोलतीं गयी-"तुम लोगों का क्या मतलब? मैं अपनी बहुओं से कुछ भी कहूं। तुन कौन होती हो बीच में दखल देने वाली ....." उन्होने और भी बहुत कुछ कहा और इस तरह सास-बहु का झगडा पडोसियों के मत्थे आ चूका था।

Aug 23, 2007

धूल का प्रतिरोध

बहुत दिन बाद ऑफिस में
आये कर्मचारी ने पुराना
कपडा उठाया और
टेबल-कुर्सी और अलमारी पर
धूल हटाने के लिए बरसाया
धूल को भी ग़ुस्सा आया
और वह उसकी आंखों में घुस गयी
क्लर्क चिल्लाया तो धूल ने कहा
'धूल ने कहा हर जगह प्रेम से
कपडा फिराते हुए मुझे हटाओ
मैं खुद जमीन पर आ जाऊंगी
मुझे इंसानों जैसा मत समझो
कि हर अनाचार झेल जाऊंगी
इस तरह हमले का मैंने हमेशा
प्रतिकार किया है
बडों-बडों के दांत खट्टे किये हैं
जब भी कोई मेरे सामने आया '
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Aug 22, 2007

आदमी उमर भर अनजान रहता है

अपने शारीर के हर अंग को
उपयोग प्रतिदिन करते हुए
भी कौन उसका महत्व जान पाता है
जीता है जिस मन के साथ
जीवन भर उसे कौन समझ पाता है

ऑंखें देखने के लिए मिली
पर क्या देखता है उमर भर
केवल अपने दायरे में क़ैद
खुद को ही करते हुए
अपने परिश्रम से एकत्रित वस्तुएं
और उनके रक्षा के लिए कर देता है
बरबाद कर देता है अपनी कीमती दृष्टि
नहीं देख पाता पूरी सृष्टि
कभी मूक जीवों की आँखों को नहीं देखता
इसलिये उमर भर आदमी आंखों की
भाषा को नहीं पढ़ पाता है

नाक से लेता सांस
चीखता-चिल्लाता, डरता और क्रोध में
खर्च कर देता
कभी फूलों के पास जाकर उन्हें सूंघे
कभी पेड के नीचे बैठकर अपनी साँसें ले
पर उमर भर अपने ही घर की चाहरदीवारी में
घुसकर बैठ जाता और
कभी अपने नाक से ली गयी साँसों का
आदमी महत्व नहीं जान पाता है

अपने दोनों हाथों से बटोरता है वह दौलत जो
कभी उसके साथ नहीं जाती
लुटने के भय से हमेशा ताने रहता
कभी नहीं अपने हाथ से दूसरे के
कल्याण के लिए नहीं उठाता
अपने हाथों की अस्तित्व को
उमर भर आदमी नहीं जान पाता है

पूरी जिन्दगी अपनी टांगो पर इधर-उधर
दौड़ता फिरता है
जब तक नहीं थकता
तब तक नहीं करता विश्राम
अपनी टांगों की ताकत से हमेशा
आदमी अपने को अनजान पाता है
सब जगह ढूँढता ख़ुशी पर
अपने मन को हमेशा खाली पाता है

Aug 4, 2007

जीवन के खेल निराले

आँखों से देखने की चाहत में
कई लोगों को गर्त में
गिरते देखा है
बोलने के लिए चाहे जैसे
शब्द दूसरों पर पत्थर की
तरह फेंकने वालों को
अपने ही वाक जाल में
फंसते देखा है
झूठ और दिखावटी अभिनंदन के
लिए उठने वाले हाथों को
हाथकडी में बंधते देखा है

इन सबसे परे होकर
जो रखते हैं अपने
मन पर नजर
जीभ से निकले शब्दों में
जिनके होता है मिठास
हाथ उठते हैं
जिनके केवल सर्वशक्तिमान के आगे
उन्हें ही सहज भाव से
जीवन जीते देखा है
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Aug 1, 2007

पहले तय करो चाहते क्या हो

तुम तय करो पहले
अपनी जिन्दगी में
चाहते क्या हो
फिर सोचो
किस्से और कैसे चाहते क्या हो

उजालों में ही जीना चाहते हो
तो पहले चिराग जलाना सीख लो
उससे पहले तय करो
रोशनी में देखना चाहते क्या हो


बहारों में जीना है तो
फूल खिलाना सीख लो
उड़ना है हवा में तो
जमीन पर पाँव
पहले रखना सीख लो
अगर तैरना है तो पहले
पानी की धार देखना सीख लो
यह ज़िन्दगी तुम्हारी
कोई खेल नहीं है
इससे खिलवाड़ मत करो
इसे मजे से तभी जीं पाओगे
जब दिल और दिमाग पर
एक साथ काबू रख सकोगे
तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होता
अपने नसीब अपने हाथ से
अपनी स्याही और
अपने कागज़ पर
लिखना सीख लो
पर पहले यह तय करो
इस जिन्दगी के इस सफर में
देखना और पढ़ना चाहते क्या हो
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Jul 24, 2007

चुनते हैं भाषा से शब्दों को जो फूल की तरह

तुम्हारे मुख से निकले कुछ
प्रशंसा के कुछ शब्द
किस तरह लुभा जाते हैं
जो तुम्हे करते हैं नापसंद
वही तुम्हारे प्रशंसक हो जाते हैं

जुबान का खेल है यह जिन्दगी
कर्ण प्रिय और कटु शब्दों से
ही रास्ते तय हो पाते हैं
जो उगलते हैं जहर अपने लफ्जों से
वह अपने को धुप में खडे पाते हैं
जिनकी बातों में है मिठास
वही दोस्ती और प्यार का
इम्तहान पास कर
सुख की छाया में बैठ पाते हैं

जिन्होंने नहीं सीखा लफ्जों में
प्यार का अमृत घोलना
रूखा है जिनका बोलना
वह हमेशा रास्ते भटक जाते हैं
उनके हमसफर भी अपने
हमदर्द नहीं बन पाते हैं
चुनते हैं भाषा से शब्दों को
फूल की तरह
लुटाते हैं लोगों पर अपनों की तरह
गैरों से भी वह हमदर्दी पाते हैं
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Jul 22, 2007

मन का रिश्ता

तुम्हारे बदन पर हो कोई जख्म
दर्द मुझे होता है
यह रिश्ता तन का नहीं
मन का बना होता है

घाव तो कभी न कभी
हर किसी को लगते हैं
गैरों और परायों में भी
कोई न कोई मरहम लगाने
वाला भी होता है

साथ निभाने के लिए
वादा तो बहुत लोग करते हैं
जिन्दगी के इस रास्ते पर
कई लोग साथ चलते हैं
पर हमसफर का हमदर्द होना भी
जरूरी होता है
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तुम्हारी आंखों में
मेरे लिए हमदर्दी
हमेशा दिखती है
तुम्हारी सांसों में
मेरी मदद की चाह
हमेशा पलती है
न चाहूँ मैं प्यार
न चाहूँ अपने लिए हमदर्दी
तुम्हारी जुबान से निकले
शहद जैसे मीठे शब्दों से ही
जीवन में जीतने की इच्छा
मेरे दिल में बढती है
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Jul 12, 2007

सबसे अलग हटकर लिखो

तू लिख
समाज में झगडा
बढाने के लिए लिख
शांति की बात लिखेगा
तो तेरी रचना कौन पढेगा
जहां द्वंद्व न होता वहां होता लिख
जहाँ कत्ल होता हो आदर्श का
उससे मुहँ फेर
बेईमानों के स्वर्ग की
गाथा लिख
ईमान की बात लिखेगा
तो तेरी ख़बर कौन पढेगा


अमीरी पर कस खाली फब्तियां
जहाँ मौका मिले
अमीरों की स्तुति कर
गरीबों का हमदर्द दिख
भले ही कुछ न लिख
गरीबी को सहारा देने की
बात अगर करेगा
तो तेरी संपादकीय कौन पढेगा

रोटी को तरसते लोगों की बात पर
लोगों का दिल भर आता है
तू उनके जज्बातों पर ख़ूब लिख
फोटो से भर दे अपने पृष्ठ
भूख बिकने की चीज है ख़ूब लिख
किसी भूखे को रोटी मिलने पर लिखेगा
तो तेरी बात कौन सुनेगा

पर यह सब लिख कर
एक दिन ही पढे जाओगे
अगले दिन अपना लिखा ही
तुम भूल जाओगे
फिर कौन तुम्हे पढेगा

झगडे से बडी उम्र शांति की होती है
गरीब की भूख से लडाई तो अनंत है
पर जीवन का स्वरूप भी बेअंत है
तुम सबसे अलग हटकर लिखो
सब झगडे पर लिखें
तुम शांति पर लिखो
लोग भूख पर लिखें
तुम भक्ति पर लिखो
सब आतंक पर लिखें
तुम अपनी आस्था पर लिखो
सब बेईमानी पर लिखें
तुम अपने विश्वास पर लिखो
जब लड़ते-लड़ते थक जाएगा ज़माना
मुट्ठी भींचे रहना कठिन है
हाथ कभी तो खोलेंगे ही लोग
तब हर कोई तुम्हारा लिखा पढेगा
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Jul 8, 2007

ज्ञान के चिराग कुछ यूँ बेचे जा रहे हैं

बौद्धिक अँधेरे में ज्ञान के चिराग
कुछ यूँ बेचे जा रहे हैं
सदियों से अपनी जगह खडे बुत भी
लोगों को चलते नजर आ रहे हैं

जिनको नहीं दिखता उनको क्या कहें
जिनको दिखता है वही
हवा में अपने संदेश उडाये जा रहे हैं

इधर है ताज खङा
उधर है हिमालय अड़ा
एक को बनाया गरीब और
मजदूरों ने अपने ख़ून पसीने से
इस बात को जग भूला
दुसरे को सृष्टी ने खुद गडा
जिस पर होता है व्यापार
वहीं लोग अपने जज्बात
बेचने जा रहे हैं

विज्ञान ने की है इतनी तरक्क़ी
कि लोग अपने ज्ञान-चक्षुओं की
रोशनी खोते जा रहे हैं

कहैं दीपकबापू
कभी गर्मी की तीक्ष्ण धुप में जलते
कभी वर्षा की फुहारों में चमकते
कभी सर्दी में ठंड में दमकते
ताज में भला पहिये लग सकते हैं
पर लोग हैं कि लगाए जा रहे हैं
हम ज्ञानी हैं कि अज्ञानी यही
नहीं समझ पा रहे हैं

Jul 7, 2007

क्या वह बचपन का बदला ले रहा था?

उसने मुझे अपने लड़के की विवाह समारोह में शामिल होने के लिए अनेक बार फोन किया तब मैंने भी सोचा कि क्यों न वहां जाकर उसको प्रसन्नता का अनुभव कराया जाये, और मैं अपनी पत्नी के साथ रेल से उसके शहर रवाना हो गया।

उसके यहां जाने के पीछे मेरा यह भी स्वार्थ था कि उसके और मेरे बचपन के रिश्ते को सब जानते थे और मैं वहाँ नहीं जाता तो रिश्तेदार लोग जो कि मुझे पहले मुझे शराबी कहकर बदनाम करते थे उन्हें अपने विरुद्ध बोलने का अवसर देना।
मैंने अपनी वापसी टिकट का इंतजाम कर लिया क्योंकि मैं उसके घर रहने का इच्छुक नहीं था। रिश्ते में वह मेरा चचेरा भाई था और उसका और मेरा बचपन साथ-साथ बीता था और उसके और मेरे पिता आपस में भाई होने के साथ दुकान में साझेदार भी थे।

हम दोनों दुकान पर साथ बैठते, बाहर खेलते और आपस में झगडा करते और साथ-साथ घुमते भी थे। मेरा वह चचेरा भी होने से ज्यादा बडे भाई की तरह हो गया था। वह मुझसे बड़ा था। नौवी कक्षा तक प्रवेश लेने तक उसने उसने मेरे शैक्षणिक जीवन में अपनी भूमिका निभाई - दोनों के पिता की साझेदारी टूटने के साथ ही हम दोनों का बिछोह हो गया पर इसकी पीड़ा मुझे ज्यादा लगती थी उसे कम। मैं शुरू से चिन्तन करने वाला था और वह शुद्ध रुप से अपना स्वार्थ सिद्ध करने वाला। मुझे हमेशा लगता था कि वह केवल मुझे इसीलिये प्रेम करता दिखता है क्योंकि उस समय उसके पास कोई नहीं होता। जब उसे खेलने और घूमने के लिए दुसरे दोस्त मिल जाते तब वह मुझे एक तरह से भूल जाता था। हालांकि इसकी वजह यह भी हो सकती है कि वह आयु में मुझसे आठ वर्ष बड़ा था । मौका पड़ने पर अपनी बदतमीजी दिखाने से बाज नहीं आता था। समय गुजरता गया।

वह शहर से बाहर था और मैं अपने ही शहर में। उसके बाहर रहने से उसके बारे में रिश्तेदार ज्यादा नहीं जानते थे। इधर मैं पीने लगा था तो मेरी छबि उसके मुक़ाबले खराब होती जा रही थी। पीते तो और भी थे पर उसका नाम लेकर जब मेरी तुलना होती तो मुझे उससे कमतर करार दिया जाता ।

हमारी रिश्तेदारी बहुत बड़ी है और अनेक शादी के अवसरों पर उससे मुलाक़ात होती मैं शराब पीता पर उसे कभी शराब पीते नहीं देखा। उसे बदबू न आ जाये इसलिये उसके पास नहीं जाता था पर मुझे शक था कि वह भी पिए रहता था। मैं बचपन से ही अखबार और किताब पढने का शौक़ीन रहा हूँ और वह इसके लिए मेरी खिल्ली भी उडाता था और कहता था यह तो ज्ञानी है। बाद में वह जब मुझसे कोइ ज्ञान वर्द्धक चर्चा होती तो बडे ध्यान से सुनता।

स्टेशन पर उतरते ही मैंने उसको फोन किया तो उसने मुझे अपने घर का पता दिया और हम दोनों आटो से उसके घर पहुंच गये। वह घर पर नहीं था और उसकी पत्नी ने हम दोनों का स्वागत किया। उसके बेटे-जिसकी शादी हो रही थी-और बेटी ने हमारा अभिवादन तक नहीं किया। जब उनसे मुलाकत होती थी तो वह परिचय तक नहीं कराता था क्योंकि अधिकतर मुलाकातें किसी खास अवसर पर लोगों के हुजूम के बीच होतीं-और उसके मेरे संबंध भी ऐसे थे कि उसे लगता होगा कि उसके बच्चे मुझसे परिचित होंगे पर मैं जानता था कि उनसे मेरी दूरी थी-मैं उनके लिए एक तरह से पिता का एक ऐसा मित्र था जिससे उनको परिचय की आवश्यकता नहीं थी।

कुछ देर बाद वह आया और आकर मेरे गले मिला और बोला -"कल तुम काकटेल पार्टी में नहीं आये?ऐसा क्या काम था जो अपने भतीजे की शादी में बिल्कुल उस टाईम आये हो जब बरात निकलने वाली है?"

वह उस भतीजे की शादी की बात कर रहा था जिसने मेरा अभिवादन तक नहीं किया था। मैंने उससे कहा कि_तुम जानते हो कि मैंने अब पीना छोड़ दिया है, और मुझे लग रहा था कि अगर काकटेल पार्टी में आता तो लोग पीने की लिए दबाव डालते। मैंने सोचा कि ठीक बारात के वक्त ही पहुंचूं , यही अच्छा रहेगा।

वह चुप हो गया। मैंने देखा वहां उस मकान में उसके ससुराल पक्ष का ही कब्जा था-इसका मतलब यह था कि मेरे चाचा, बुआएं तथा उसके बहिन और बहनोई कही और ठहरे थे इस बात को मैं समझ गया। कुछ देर बाद मेरी चाची वहां आयी और उससे पता लगा कि उसने आसपास तीन-चार मकान लिए हैं और वहां बाकी रिश्तेदार भी ठहरे है। मैं अपना सामान लेकर पास लिए एक मकान में चला गया।

थोड़े देर बाद नहा धोकर उसके मकान के बाहर लगे टेंट में आकर बैठ गया तब वह मुझसे बोला-'' अब तुम यहीं जमे रहना और देखभाल करते रहना।"

मैं खुश हो गया कि उसने मुझसे एक काम तो कहा , हालांकि मैं जानता था कि वह कभी भी अपनी बदतमीजी दिखाने से बाज नहीं आयेगा। मुझे लगा कि वह कहीं न कहीं मुझे अपमानित कर मजे जरूर लेगा। इसमें ज्यादा वक्त नहीं लगा।

लडकी वाले बाहर से आये थे और उनसे मिलने के लिए दस लोगों को मिलने के लिए जाना था।मेरे चाचा, उसका ससुर, साडू समेत दस लोगों का चुनाव उसने किया जबकी उसमे मेरी वरीयता तीसरे नंबर की थी, पर उसने एक बार भी मुझसे नहीं कहा। रिश्तेदारों में इसको लेकर कानाफूसी भी हुयी -मैं खामोश रहा। दरअसल वहाँ से रिश्तेदारों को पैसे मिलने वाले थे और वहां हर कोई जाने को उत्सुक्त था। मेरी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थे और अगर वह मुझसे कहता भी तो किसी अन्य का नाम सुझा कर अलग हो जाता।

बारात दोपहर की थी । बारात से पहले नाश्ते में उसने सबसे पहले मुझे आवाज दीं -उस समय ऐसा लगा कि देखो वह मुझे कितना प्यार करता है ,और मैं उसके द्वारा किये गये अपमान को भूलने का प्रयास करना लगा।

पीने वालों के लिए उसने पीने का इंतजाम कर दिया था। सबने पी पर मैंने और मेरे अन्य चचेरे भाई ने पीने से इंकार कर दिया -मैं उसका जिक्र नहीं किया था-वह बचपन से ही हमारे साथ स्टेपनी की तरह रहा था, पर वह चुंकि दुकान पर साथ नहीं रहा था इसीलिये उसे लोग हमसे इस तरह जोड़ कर नहीं देखते थे जैसे हम दोनों को ।

बेंड बजना शुरू हुआ , वह किराए की पगडियां लाया था और सबको पहनने लगा, और मुझे छोड़ गया। मेरे एक चाचा ने उसे इशारा भे किया पर वह अनदेखी कर गया। उसने मेरे साथ उस चचेरे भाई की अनदेखी कर गया। मेरा चचेरा भाई इस बात से नाराज भी हुआ ।

बरात में सब पिए हुए नाच रहे थे हम दोनों के अलावा । बरात में कुछ देर चलने के बाद फिर हमें बस में बैठना था । बस के पास पहुंचे तो बरसते शुरू हो गयी थी और पीने वाले नाच रहे थे। मैं और मेरा दूसरा चचेरा भाई बारात के पास ही सब देख रहे थे। वह आकर मेरे पास कहने लगा कि तुम लोग क्या मेरी बारात का मजा खराब कराने आये हो जो बस में नहीं बैठ रहे हो।

दूसरा चचेरा भाई बोला -'तेरा दिमाग खराब हो गया है , या बहुत पी ली है जो हमसे कह रहा है कि बारात का मजा खराब करने आये हो।

फिर वह चुप हो गया। बरात जब अपने ठिकाने पर पहुंची तो वहां स्वागत की तैयारी थी। उसने सब पुरुष और महिला रिश्तेदारों को मालाएं दीं लडकी के रिश्तेदारों को पहनाने के लिए हम दोनों चचेरे भाईयों और पत्नियों को इससे भी वंचित कर दिया।

रात को जब देर हो गयी और हम दोनों चचेरे भाईयों को अपने शहरों की तरफ रवाना होना था-उसे बस से और मुझे रेल से जाना था । बस स्टेंड और स्टेशन थोडी दूरी पर थे , हमने उससे विदा मांगी-मैंने उससे कहा"क्या तुम हम लोगों के लिए अपनी गाडी दिलवा दोगे , इस समय बरसात हो रहे है, आटो मिलना मुश्किल है।"

वह बोला-'मेरी गाडी कहीं गयी है। इस समय तो है नहीं।"

वह मुस्करा रहा था। उसके चेहरे पर मैंने पहली बार कुटिलता के भाव देखे थे। हम चारों ने बस में रखे अपने बैग उठाएँ और जाने के लिए जैसे ही नीचे आये तो देखा वह अपने मित्र को गाडी में बिठा रहा था और चालक से कह रहा था_'इन्हें जल्दी स्टेशन पर पहुँचाओ, इनकी गाडी का समय हो रहा है। "

उसकी हमारी तरफ पीठ थी। वह अपनी बात पूरी कर चला गया, और हमें नहीं देख पाया। हम चारों आटो पर रवाना हो गये। बस स्टेंड पर मेरा चचेरा भाई बस स्टेंड पर आटो से उतरा और मुझसे बोला-"बचपने में हमने इसके साथ ऐसा क्या किया था जिसका इसने इस तरह बदला लिया। अब तो इसके पास मैं कभी नहीं आऊंगा। "

मैंने उससे कहा-"तुम अपने मन से यह बातें निकाल दो। हो सकता है कि वह हमसे झिझकता हो। "

मैंने उससे कहा जरूर पर मैं जानता था कि उसने यह सब जानबूझकर बचपन का कोई बदला लेने के लिए ही किया है। स्टेशन पर हमने देखा कि उसका वह मित्र उसी गाड़ी में बैठ रहा था जिसमें हम बैठ रहे थे।

तब में सोचने लगा कि _'क्या वह वाकयी बचपन का बदला ले रहा था?'
(यह एक काल्पनिक कहानी है और इसका किसी व्यक्ति या घटना से कोई सबंध नहीं है)

Jun 29, 2007

याद आते हैं शराब के नशे में गुजरे पल

राहुल ने उसके लिए पूछा था-''आंटी, अंकल की आँखें हमेशा लाल क्यों रहती हैं? क्या वह शराब पीते हैं?

आंटी ने कहा-हाँ, बहुत पीते हैं। बेटा तुम ही उन्हें समझाओ न!

राहुल ने कहा-'आंटी, मैं उन्हें कैसे समझा सकता हूँ? वह तो मुझसे बडे हैं उन्हें खुद ही समझना चाहिए। उल्टे हम पीयें तो वह हमें समझायें।"

वह आकर अपने पति से लड़ने लगी-"देखो पड़ोस का बच्चा भी तुम्हें शराबी के तरह देखता है, कितने शर्म की बात है? हम लोगों को क्या समझाएं

वह चुपचाप सुनता रहा। उसने पीना नहीं छोडा। रोज शाम को काम से आने के बाद उसका पीना शुरू हो जाता था । बरसों तक वह दौर चला, परिवार और रिश्तेदारों में भी वह बदनाम हो गया था। एक बार राहुल ने उससे कहा था-" अंकल दिन-ब-दिन आपका चेहरा काला पड़ता जा रहा है । क्या आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता, किसी डाक्टर को दिखाईये न !

वह उसका मंतव्य समझ गया, पर फिर भी अपने नशे से उसे इतना प्यार था कि वह हर बात को बेशर्मी से टाल जाता था।

मगर आज वह ऐसा नहीं था। आज राहुल ने उसे वायरलेस इयर फोन देते हुए कहा-"अंकल, लीजिये यह इयर फोन मैं आपके लिए लाया हूँ । अभी तक ईमेल के जरिये ही संपर्क रखते हैं , कितनी बार आपको चैट के लिए ट्राई किया पर आप लाईन पर होते है और अपने लिखने में इतना व्यस्त रहते हैं कि ध्यान ही नहीं देते। अब मैं यह आपके कंप्यूटर में लगा कर जा रहा हूँ , और आप और आंटी मुझसे बात करियेगा। में आपका लिखा इन्टरनेट पर पढता हूँ और चाहता हूँ कि आपसे बात भी करता रहूँ।"

फिर वह आंटी से बोला-"क्या बात है अंकल एकदम बदल गये हैं, कंप्यूटर पर लिखने लगे हैं , और चेहरा तो पहले से कहीं ज्यादा खिलने लगा है । मैं तो अंकल को देखकर हैरान रह गया।

वह बोलीं-"अब तुम्हारे अंकल ने शराब छोड़ दीं है और योग साधना और ध्यान में मस्त रहते हैं , और फिर आजकल यह इण्टरनेट पर लिखने लगे हैं और पीना तो भूल ही गये हैं। काम से वापस आते ही लिखने बैठ जाते हैं।

" हाँ, मैंने इनके लिखे लेखों को देखकर समझ लिया था, इतना लिखते हैं तो पीने के लिए समय ही कहॉ मिलता होगा। "राहुल खुश होकर अंकल की तरफ देखते हुए बोला।

उसने राहुल से वायरलेस इयर फोन हाथ में लिया और मैं उसे देख रहा था, मुझे याद आते हैं वह पल क्योंकि वह मैंने ही जिए थे। मैं खुद हैरान था और सोच रहा था 'क्या वाकई वह मैं ही था।'

Jun 27, 2007

तब भी अकेले नजर आओगे

जब तुम बदलाव के लिए
आगे बढते जाओगे
भीड़ से अलग होकर
अकेले नजर आओगे

बदलाव की हवा के झोंके से भी
लोग घबडा जाते हैं
तुम्हारे तूफ़ान लाने की कोशिश
उनके ठहरे मन को
हिला कर रख देगी
जिनके लिए बदलाव चाहते हो
तुम उनसे ही लड़ते नजर आओगे

हकीकत से परे लोग देखते हैं ख्वाब
सवालों पर सवाल करते हैं
देता नहीं कोई जवाब
जवाब देने की कोशिश में
तुम असंख्य सवालों में
खुद ही घिर जाओगे

फिर भी तुम अपनी कोशिश
कभी मत छोड़ना
बदलाव के तूफान से
कभी मुहँ मत मोड़ना
चलते रहो अपनी राह पर
हर खबर पर तुम्हारा नाम होगा
बनेगी तुम्हारी अलग पहचान
जब तुम जीत जाओगे
भीड़ होगी तुम्हारे पीछे
हालांकि तुम तब भी
अकेले नजर आओगे
---------

Jun 24, 2007

शाश्वत प्रेम पर एक कविता

न पीडा से
न किसी चाहत से
न किसी शब्द से
वह बहता आता है
सहज भाव से
अपनी पीडाओं को भुला दो
अपनी चाहतों को छोड़ दो
अपनी वाणी को मौन दो
तब शाश्वत प्रेम
आत्मा में प्रकट हो जाता है

न दुःख का भय
न सुख की आशा
न बिछड़ने का मोह
न मिलने की ख़ुशी
न किसी इच्छा से उपजा प्रेम
आत्मा में उपज कर
सारे बदन में
स्फूर्ति लहराए जाता है
कितनी भी कोशिश कर लो
शाश्वत प्रेम कभी
बाहर दिखाया नहीं जाता है

शाश्वत प्रेम एक भाव है
जो इंसानों के साथ
पशु-पक्षियों और पडे-पौधों में भी
पाया जाता है
प्रेम करने वाले मिट जाते है
पर शाश्वत प्रेम का भाव
जीवन के साथ बहता जाता है
जो व्यक्त होता है
उसे समझो क्षणिक प्रेम
जो अव्यक्त है
शाश्वत प्रेम कहलाता है

--------------------

Jun 20, 2007

लड़ते रहो, हमें अपने ब्लोग हिट कराना है

लड़ते रहो दोस्तो
ख़ूब लड़ो
किसी तरह अपनी रचनाएं
हिट कराना है
बेझिझक छोडो शब्दों के तीर
गजलों के शेर अपने
मन की किताब से
निकल कर बाहर दौडाओ
कुछ कवितायेँ हौं
तुम्हारे हृदय पटल पर
उन्हें भी यहां ले आओ
किसी तरह अपना नाम
दुनिया में चमकाना है


निडर होकर लड़ो
इस प्रचार की रणभूमि में
इतना लड़ो कि
तुम्हारे लिखे को पढने के लिए
लोगों की भीड़ जुट जाये
तुम्हारे लिखे डायलाग
शोले की तरह
जनमानस में छा जाये
किसी तरह
अपने निज-पत्रक
घर-घर पहुंचाना है


पर शब्दों के तीर से
किसी अपने का मन घायल न करना
गजलों के शेरों की दहाड़ से
किसी का दिल विचलित न करना
लड़ना मिलजुलकर (नूरा कुश्ती )
पर अपने मन मैले न करना
अभी तो शुरूआत है
हमें बहुत दूर जाना है
-------------------
कुछ तुम कहो
कुछ हम कहें
खामोशी से तो अच्छा है
हम मिलजुलकर लड़ने लगें

जो नहीं देखते हमें
वह भी देखने लगें
बदनाम होंगे तो क्या
नाम तो होगा
आओ मुकाबला फिक्स करने लगें

कभी तुम जीतो कभी हम
खिलाडियों में नाम तो होगा
अन्दर हंसो
पर बाहर दिखो गंभीर
ऐसा न हो लोग
असलियत समझने लगें
जब फीका हो आकर्षण
लोग हमसे बोर होने लगें
हम अपनी लडाई के
ढंग बदलने लगें
-----------
(यह व्यंग्य कविता काल्पनिक हैं और किसी घटना या व्यक्ति से इसका कोई संबंध नहीं है)

Jun 18, 2007

झूठ को नारों की बैसाखियों का सहारा

>NARAD:Hindi Blog Aggregator
शहर में आकर आग-आग चिल्लाते हैं
फिर शहर को ख़ाक कर चले जाते हैं
न्याय के लिए जंग करने का ऐलान करके
समाज को टुकड़ों में बँटा दिखाते हैं
अपने ही चश्में के अनोखे होने का दावा
एक झूठ को सौ बार बोलकर सच बताते हैं
नारे लगाकर लोगों के झुंड जुटाकर
गाँव और शहर में जुलूस सजाते हैं
बंद कमरों में करते ऊंची आवाज में बहस
लड़ते हुए जन-कल्याण के लिए बाहर आते हैं
उनकी संज्ञा से अपनी पहचान लेकर लोग
अपना सीना तानकर घुमते नज़र आते हैं
कहते है कि झूठ को कभी पाँव नहीं होते
पर नारों की बैसाखियों के सहारे उसे वह चलाते हैं
----------------------------------
एक झूठ सौ बार बोलो तो
सच लगने लगता है
छिपाने लगो तो
सच भी झूठ लगता है
पर हम अपने को कितना समझायेंगे
नारे लगाकर कब तक झूठ को
बैसाखियों के सहारे चलाएँगे
सच भी नहीं चलता पर
हमारे दिल में
कांटे की तरह चुभा रहता है
-------------------

Jun 15, 2007

मौसम की पहली वर्षा में अपनी कविता हिट

तो बदहाल हो गया
तो निहाल हो गया
कविता लिखकर
निकला घर से बाहर
साईकिल पर पसीने में नहाते
बाज़ार के लिए
लौटने के लिए ज्यों ही तैयार हुआ
तेज आंधी और बादल
लड़ते-लड़ते चले आ रहे थे
इस मौसम की पहली बरसात में
रिम-झिम फुहारों से मुझे
नहला रहे थे
सोचा कहीं रूक कर
पानी से अपने बदन को बचाऊँ
फिर याद आया मुझे वह बहता पसीना
जो कविता लिखते समय आ रहा था
सोचा क्यों न उसके हिट होने का
लुत्फ़ बूंदों में नहाकर उठाऊं
कुछ पल अपने को "महाकवि"
होने का अहसास कराऊँ
मेरी कविता को पढने
स्वयं बदल आये थे
पानी साथ भरकर लाए थे
कविताएँ तो कई लिखीं
यह पहली कविता थी
जिसकी बूंदों में बादल भी
लगते नहाये थे
जो वर्ष ऋतू की पहली बूंदे
मेरे शहर में लाकर
मेरी कविता हिट करने लाए थे
------------

Jun 4, 2007

क्योंकि अब यहाँ चमत्कार नहीं होते

(इस ब्लोग पर व्यंग्य लिखें का मेरा यह एक प्रयास है)
देखो वही अपनी जिन्दगी मैं चमत्कार की उम्मीद लगाए बैठा है, ऐसे बहुत कम लोग दिखाई देंगे जो अपनी जिन्दगी में किसी चमत्कार की आशा में चुप बैठता हो।
बेटा या बेटी मैट्रिक क्या पास करते हैं माता-पिता उसके इंजीनियर, डोक्टर ,कलेक्टर और एस।पी।होने की आशा संजोये रखने लगते हैं। सब लोगों की बात मैं नहीं कह सकता पर अधिकतर लोग उसके विवाह के सपने देखते हैं । बेटा है तो सोचते हैं इतना दहेज़ मिल जाएगा कि रिश्तेदार,मित्र,आस-पडोस और समाज भी क्या कहेगा ? यार उनका लड़का भी क्या हीरा है? अगर बेटी है तो लोग सोचते हैं कि उसकी कहें नौकरी लग जाये तो हो सकता है कि बिना दान-दहेज़ के उसकी शादी हो जाये तो लोग कहें देखो अपनी लडकी को इतना लायक बनाया कि उसकी बिना दहेज़ की शादी हो गयी।केवल यही नहीं जो सौ रूपये रोज कमा रहा है वह हजार के , जो हजार कमा रहा है वह लाख और जो लाख रोज कमा रहा है -----अब यह फेह्स्त बहुत लंबी हो जायेगी।
मेरी बात पर यकीन नहीं हो तो बाबाओं और फकीरों के यहां लगने वाली भीड़ को देखिए ----सायकिल वाले से लेकर कार वाले तक वहां तक पहुंचते हैं। गरीब का तो समझ में आता है पर अमीर लोग भी वहाँ पहुंच जाते हैं -कहा जाता है कि पैसे से सारे काम हो जाते हैं, फिर भी अमीरों का वहां देखकर गरीबों को समझ में नहीं आता कि जब पैसे वाले भी सुखी नहीं है तो कौन खुश रह सकता है? फिर भी लाईन में लगा रहता है जबकि अपने सामने देख रहा है कि पैसे वाले को उस जगह बिना लाईन के वहां प्रवेश मिल रहा है -उल्टे वह सोचता है कि वह सिध्द बाबा कोई चमत्कार कर दे तो मैं भी ऐसे ही दर्शन करूंगा।
मतलब लोग हैं कि चमत्कार के लिए मरे जा रहे हैं, पर कोई स्वयं चमत्कार नहीं करना चाहता है । अरे, भाई तुम जब तक स्वयं चमत्कार नहीं करोगे तब तक कोई और तुम्हारे लिए चमत्कार क्यों करेगा?तुम कभी सोचते हो कि अपनी थाली से रोटी निकालकर किसी बेजुबान पशु को दें-जब तुम उसे रोटी दोगे तो वह उसके लिए चमत्कार जैसा है। क्या कभी तुम किसी गरीब मजदूर के घर जाकर उसके बच्चे को नए वस्त्र देते हो? उसके लिए यह चमत्कार जैसा नहीं होगा?
फिर भी नही समझते तो मैं तुमसे सवाल करता हूँ कि क्या तुमने कभी ऐसे चमत्कार देखे हैं जिस पर हम जैसा कोई फ्लाप लेखक कहानी लिखकर सुपर हिट हो गया हो। अगर आपने कुछ ऐसे चमत्कार देखे हैं तो मेरे इस ब्लोग में कमेन्ट में रख दें , मुझे बड़ी ख़ुशी होगी । क्योंकि मुझे लगता है अब इस देश में चमत्कार होते नहीं दिखते जो कर सकते हैं वह स्वयं ही इनके चक्कर में घूम रहे हैं
।१।क्या आपने सुना है कि कोई बूढा हो चूका अभिनेता अब निर्माता बनकर अपने बेटे की बजाय किसे बाहर के लड़के को अपनी फिल्म का हीरो के रुप में ले रहा हो या कोई निर्माता किसी पुराने अभिनेता के बेटे की जगह किसी गाँव से लड़का लाकर उसे हीरो बना रहा है। ऐस भी नहीं होता कि कोई निर्माता अपनी फिल्म के लिए बस कंडक्टर को हीरो बना रहा हो , यह हो भी कैसे सकता है आजकल कोई निर्माता भला बस में सफ़र करता है ? मैं देख रहा हूँ कि बिचारे लड़के गली-मुहल्लों में खाली -पीली एक्टिंग करते फिर रहे हैं कि शायद कोई निर्माता उन्हें देखकर अपनी फिल्म के लिए अनुबंधित कर ले। उन पर तरस आता है
।२।क्या आपने सुना है कि किसी राजनीतिक पार्टी के नेता ने अपने बेटे-बेटी, पत्नी, बहु और दामाद के आलावा परिवार के बाहर के आदमी को पार्टी के अध्यक्ष पद या मुख्यमंत्री पद के लिए नियुक्त करनातो दूर ऐसा करने का सोचा भी है?
३।क्या आपने सूना है कि किसी बडे संत या धर्मं स्थान के प्रमुख ने अपने बेटे के अलावा अपने किसी अन्य शिष्य को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया हो
।४।क्या आपने सुना है कि भारतीय क्रिकेट चयन समिति का कोई मेंबर किसी गली मुहल्ले में जाकर किसी खिलाड़ी का चयन करके लाया हो और उसे टेस्ट मैच खिलाया हो।
नहीं सुना तो भूल जाओ और सुना है तो यह चमत्कार सबके साथ नही होता-वैसे कोई कहे कि किसी के साथ हुआ है तो झूठ बोल रहा है क्योंकि वह चमत्कार प्रायोजित ही हो ससकता है ।सो मेरे दोस्तो भूल जाओ अब यहाँ चमत्कार नही होते ।खेलो, ख़ूब खेलो, नाचो, ख़ूब नाचू, भजो और ख़ूब भजो पर चमत्कार की उम्मीद नहीं करना। थी जिन्दगी में खुश रह पाओगे

Jun 2, 2007

क्या वह तुम्हारा दोस्त है

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"क्या वह तुम्हारा दोस्त है ?"बोस ने मुझसे पूछा ।
मैं खामोश खड़ा रहा , ऐसे प्रश्न मुझे थोडा असहज कर देते हैं जिनके अर्थ बहुत गहरे होते हैं पर पूछने वाले खुद अपने प्रश्न की गहराई को नहीं समझते हैं।
जैसे यह पूछा जाये कि 'क्या तुम अमुक व्यक्ति को जानते हो', 'क्या अमुक व्यक्ति पर यकीन करते हो', या 'वह तुम्हारा वफादार है'।

लोग कहते हैं -'तुम सोचते बहुत हो'।मैं खामोश रह जाता हूँ । आख़िर क्या जवाब है उनका ।
मैं कहता हूँ कि 'वह मेर दोस्त है ' तो फिर यह विचार करना भी होता है कि दोस्त के मायने क्या होते है और यह भी सोचना होता है उस पर क्या खरा उतरता है या नहीं ।
अगर कोई पूछे कि ' अमुक व्यक्ति को क्या जानते हो' तो भी असहज करत प्रश्न है कि किस तरह यह दावा किया जा सकता है कि उस व्यक्ति के बारे में सब कुछ जानते हैं ।वह व्यक्ति जो हमसे रोज मिलता है हमसे अच्छी तरह बात करता है उसका व्यव्हार दूसरों के बारे में कैसा हम नहीं जानते तो उसके बारे में हम अपनी राय किस तरह कायम कर सकते हैं ।
इसी तरह ' क्या वह तुम्हारा वफादार है ' जैसा प्रश्न मुझे असहज कर देता है । कोई व्यक्ति रोज मिलता है पर कैसे हम कैसे कह सकते हैं कि वह हमारे पीछे भी हमारे हित की बात करता है। कोई हमसे लाभ लेता है तो समझते हैं कि हमारे लिए वफादार हैं पर इस राय को स्थापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि वफादार का पता तो तब लगता है जब उसके लाभ बंद हो जाये और फिर भी वह वफादारी दिखाए ।
मुझे खामोश देखकर बोस ने फिर पूछा -''तुम बताते क्यों नहीं कि क्या वह तुम्हारा दोस्त है"।
अब इस सवाल का मैं क्या जवाब देता, जबकि खुद नहीं जानता था। आख़िर बोस की बात का जवाब देना था , कुछ सूझ नही रहा था तो मैंने कहा-"बोस आप तो हुक्म दीजिए काम क्या है? करना क्या है । "
मैंने चेन की सांस ली कि मुझे उत्तर मिल गया था एक असहज प्रश्न से बचने के लिए ।
"नहीं...नहीं ऐसा नहीं चलेगा । तुम्हें जवाब तो देना होगा। मैंने सुना है कि वह तुम्हारा दोस्त है। तुम उसके ऑफिस और घर के ढ़ेर सारे काम कर देते हो पर वह तुम्हारे काम का नहीं है। " बॉस ने टेबल पर अपने हाथ झुकाते हुए कहा।
मैं फिर असहज हो गया । आख़िर मैंने बोस से कहा,- सर, आप तो काम बताईये , मैं हुक्म बजाने के लिए तैयार हूँ ।"
"तुम या तो बहुत चालाक हो या एकदम भले। "बोस ने कहा-"खैर कल तुम नहीं आये थे तो मैंने उससे तुम्हारा काम करने को कहा , उसने कहा कि वह तुम्हारा काम कतई नहीं करेगा। उसने यह भी कहा कि तुम उसके एक सहकर्मी हो दोस्त नहीं । "
बोस के कमरे से निकलकर उसकी सेक्रेटरी के पास गया। उसने मुझसे कहा-"क्या वह वाकई तुम्हारा दोस्त है? "
मैं फिर असहज हो गया । मुझे खामोश देखकर वह बोली -"कल मैंने बोस और उसके बीच की बातचीत सूनी थी , मुझे ताज्जुब है वह तुम्हारे साथ रोज मिलकर लंच करता है फिर भी तुम्हारी बुरायी कर रहा था। "
मैंने उसके बात का भी कोई जवाब नहीं दिया। मैं अपने कमरे में आया , वह भी वहीं अपना काम आकर रहा था , हम दोनों पास ही बैठते हैं । मुझे देखकर बोला -"बहुत देर कर दीं साहब के पास? क्या कह रहे थे?'
मैं खामोश था। वह बोला -"कल तुम नहीं आये तो पूछ रहे थे । मैंने कहा कि तुम्हारा काम मैं कर देता हूँ तो कहने लगे नहीं जिसका काम है वही करेगा। "
मैं उसे चुपचाप देखता रहा। मैंने उससे कहा-"चलो चाय पीकर आते हैं ।"
हम दोनों चाय पीकर आये। वहां दोनों के बीच सामान्य बातें हुईं । बोस और उसके सेक्रेटरी के बीच हुई बातचीत मेरे मन से हवा हो चुकी थी ।
अगले दिन मैं फिर बोस के पास पहुंचा । मैंने अपनी फाइलें उनको सौंपी वह खुश होकर बोले-" बहुत अच्छा काम किया है।"
फिर थोडी देर बाद बोले-"तुमने मेरी बात का कल जवाब नहीं दिया कि क्या वह तुम्हारा दोस्त है ?"
"यह बात तो वह जाने"_मैंने मुस्कराते हुए कहा-" पर मैं उसका दोस्त हूँ , मैं आपके प्रश्न के उत्तर में बस यही कह सकता हूँ ।"
"बहुत बढ़िया-"बोस ने कहा-" मैं बहुत खुश हूँ तुम्हारे इस जवाब से ।"
मैं उनके कमरे से बाहर आया ऐसा लग रहा था कि मेरे मन से कोई बड़ा बोझ उत्तर गया था।

May 29, 2007

कुछ न लिखने से तो कविता लिखना ही अच्छा

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पिछले कई दिनों से मैं देख रहा हूँ कि कुछ लोग ब्लोगों पर आने वाली कविताओं पर ज्यादा खुश नहीं होते उनको लगता है कि ऐसे लोग केवल जगह घेर रहे हैं। जैसे-जैसे ब्लोगों के संख्या बढ रही है वैसे वैसे कविताओं की रचनाएं में भी बढ़ना स्वाभाविक हैं । इस पर नाखुश होने की बजाय ऐसे कवियों को प्रोत्साहन ही दिया जाना चाहिए जो विपरीत हालतों में कुछ लिख तो रहे हैं, और हिंदी ब्लोग अभी अपने शैशव काल में है और उसे इस तरह की रचनाओं की आवश्यकता भी है । अभी तो कई लोगों को यही नहीं पता कि हिंदी में ब्लोग लिखे कैसे जा सकते हैं । मैं अपने आस-पास के लोगों को जब अपने ब्लोगों के बारे में बताता हूँ तो वह सुनते हैं पर उनके कोई ऎसी प्रतिक्रिया नहीं देते जिससे मेरा उत्साहवर्धन हो । स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर मेरी रचनाएँ प्रकाशित होती रहती है और लोग जब मुझसे मिलते हैं तो उनकी प्रशंसा करते हैं। वह मेरे रचना पर मेरे सामने सकारात्मक और कुछ लोग नकारात्मक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं। जितना पिछले तीन माह में जितना मैं इन ब्लोगों में लिख चुका हूँ उतना तो मैं दो साल में भी नहीं लिख पाता , पर नये शौक़ की वजह से यह कर पा रहा हूँ पर वास्तविकता यह है कि इसमें जितनी मेहनत है उतनी कोई करना नहीं चाहेगा । कोई आर्थिक फायदा न हो तो ऐसा मनोरंजन भी कौन चाहेगा ?

मेरे मित्र मुझसे हमेशा कहते हैं तुम तो कवितायेँ न लिखकर केवल व्यंग्य, कहानी और हास्य-व्यंग्य लिखा करो । मेरे एक मित्र है जो अक्सर मुझे मेरी गद्य रचनाओं पर दाद देते हैं पर जब कोई कविता छपती है तो उसकी चर्चा नहीं करते । एक बार मैंने उनसे पूछा था कि आप कभी मी कविताओं पर दाद नहीं देते क्या बात है?

तो वह मुझसे बोले कि -" तुम जो कवितायेँ लिखते है उनमें विषय अत्यंत गूढ़ होते है या एकदम हलके और उनका प्रस्तुतीकरण भी काव्यात्मक कम गद्यात्मक अधिक होता है और मुझे लगता है कि तुम मेहनत से बच रहे है और दूसरा यह कि इतनी गूढ़ बात पर मैं उससे ज्यादा पढना चाहता हूँ जितना आपने लिखा होता है, तुम्हारे गद्य रचनाओं का तो मैं प्रशंसक हूँ । "

उनकी बात सुनकर मैं हंस पडा तो वह बोले-'' मैं सच कहूं कि तुम गद्य ही लिखा करो, और लोग भी तुम्हें गद्य लेखक के रुप में ही देखना चाहते हैं। कविता तो कोई भी लिख सकता है ।"

कई पत्रिकाओं के संपादक भी मुझसे पद्य रचनाओं की बजाय गद्य रचनायें ही माँगते हैं। फिर भी मौका मिलते ही मैं कविता लिखने से बाज नहीं आता, क्योंकि कई बार कविता विषय कोई संजोये रखने के काम भी आती है। कई बार ऐसे अवसर आते हैं कि किसी घटना को देखकर कोई विचार पैदा होता है तो उस समय इतना समय नही होता कि या मन नहीं होता कि कोई गद्य रचना लिखी जाये तब कविता में उसे लिखकर संचित किया जाना भी कोई आसान कम नहीं है पर अगर उसमें दक्ष हैं तो गद्य लेखन भी आसान होता है ।

अभी मेरे इसी ब्लोग पर पिछली रचना "हाँ, मैं उसे जानता हूँ" मेरे पास रजिस्टर में पद्य के रुप में दर्ज थी और उसे मैं ब्लोग पर उसी रुप में लिखने वाला था पर मुझे लगा कि इसे थोडा विस्तृत ढंग से लिखने का प्रयास करना चाहिए, और तब मैंने यह महसूस किया कि अगर मैं उस समय इस पर कविता नहीं लिखता तो शायद इस गद्य के रुप में प्रस्तुत नहीं कर सकता था।जब मैंने युनिकोड में लिखने का प्रयास शुरू किया तो सबसे पहले कविताएं लिखीं थी और आज भी जब मैं वह पढता हूँ तो लगता है ब्लोग पर जो शुरूआत में कवितायेँ लिख रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिऐ-इस बात के लिए कि वह विपरीत परिस्थतियों में भी लिख रहे हैं । यह देश बहुत विशाल है उतना ही व्यापक हिंदी भाषा का प्रभाव है। हिंदी में लिखने वाले कई नए लेखकों तो यह पता ही नहीं है कि ब्लोग क्या चीज है और हिंदी के गोदरेज टाईप का उनका ज्ञान बहुत अच्छा है, अपने अनुभव से मैं यह जान गया हूँ कि उनके लिए युनिकोड में लिए एक नया अनुभव होगा और बिना किसी प्रोत्साहन के वह शायद ही इतनी मेहनत करने को तैयार हौं, खासतौर से जब इसमें किसी आर्थिक लाभ की कोई ज्यादा आशा तत्काल न हो।
अत: नए लोगों को उनके कविताओं पर भी दाद अवश्य दीं जानी चाहिए। जहाँ तक मेरी काव्य रचनाओं का सवाल है वह अपने विषयों को सजोये रखने के लिए करता ही रहूँगा । अभी मुझे समय लगेगा बड़ी रचनाओं को -जैसे कहानी व्यंग्य , और आलेख-प्रस्तुत करने में समय लगेगा क्योंकि वह एक बैठक में लिखे नहीं जा सकते , और उसे पहले लिखने से पहले कागज पर उतरना जरूरी होगा। मैंने अभी तक जो लिखा है वह सीधे कंप्युटर पर टाईप किया है और कभे स्वयं ही लगता है कि मैं इसे बेहतर करूं। यह तय है पहले कागज़ पर लिख कर उसे फिर कम्प्यूटर पर उतारने में मजा आयेगा। फिलहाल अपने हाथ को साफ करने के लिए कवितायेँ लिख रहा हूँ और चाहता हूँ कि जो नए लिखने वाले कवितायेँ लिख रहे हैं उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए ।

May 26, 2007

हाँ, मैं उसे जानता हूँ

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सुबह सायकल पर अपने काम पर निकल जाने वाला वह शख्स मुझे आज भी याद है। उसकी आय अच्छी थी पर घूमता वह सायकल पर ही था। गर्मी के दिनों में अपना मकान बनवा रहा था। पसीने -पसीने हो जाता था, लोग कहते भाई गाडी लो लो, वह सुनकर चुप हो जाता था। उसने अपना मकान भी बनवा लिया उसमें रहने भी आ गया और स्कूटर भी ले लिया पर फिर भी घूमता वह सायकिल पर ही था केवल छुट्टी के दिन ही वह अपने परिवार को घुमाने के लिए उसे चलाता था।

लोग कहते कि पैट्रोल के पैसे बचा रहा है वह फिर भी खामोश रहता । इसके पीछे उसके कोई अन्य मजबूरी नहीं थी, बस वह शराब पीता था और उसकी आय में या तो स्कूटर के लिए पैट्रोल आ सकता था या फिर दारू की बोतल। वह बहुत सोचता था कि दारू पीना छोड़ दे पर नहीं छोड़ पाता। सायकल पर जाता था , भीषण गर्मी में उसके शरीर से पसीना इतना निकलता की उसकी पैंट और कमीज से टपकने लगता था आँखों में सूनापन उसके शरीर में धड़कता ऐसा संवेदनहीन ह्रदय कि उसे अपनी शारीरिक और मानसिक तकलीफों को अनदेखा करने में भी संकोच नहीं था। अपने लिए उसने ऐसा रास्ता चुना था जो सिवाय तबाही के और कुछ नहीं देता।

वह लक्ष्यहीन चला जा रहा था, उसकी सोच और विचार......वह नहीं जानता था कि उसके मन में क्या चल रहा है, अपनी जिन्दगी को वह बिचारा तो बेमन से जीं रहा था । भला बिना मन भी जिया जा सकता है ? वह बिचारा नहीं जानता था। कितना क्रूर था , नशे में चूर था-अनचाहे वह अपने और परिवार के साथ क्रूरतापूर्ण बर्ताव कर रहा था । लोगों ने उसकी ख़ूब हंसी उडाई-उसके और उसके परिवार की भी । वह ऎसी आग में अपने को जला रहा था जो उसने खुद लगाई थी-वह जनता था कि व्यसन एक आग की तरह ही हैं जो इन्सान को जीते जीं नष्ट कर देते हैं । लोगों से बात करते वह कतराता था -वह अच्छी तरह जानता था कि उसके दिमाग की यह हालत शराब की वजह से हुई है।

रोज तय करता था कि आज नहीं पियेगा पर फिर शाम होते होते उसके दिमाग में पीने से पहले ही शराब का नशा चढ़ने लगता था , उसके कदम शराब की दुकान की तरफ बढ जाते थे , उसकी हालत यह हो गयी थी कि मई-जून की गर्मी के दिनों में भरी दोपहर में पीने लगा था । एकदम पक्का शराबी हो गया था । ग़ैर या अपने उस पर क्या यकीन करते वह खुद अपने पर यकीन नहीं करता था ।

अब कहाँ है वह। मैं उसे ढूँढ रहा हूँ, मुझे पता है वह अब कभी दिखाई नहीं देगा । क्या वह मर गया ? अगर मनुष्य की पहचान देह से है तो जवाब है "नहीं, वह अभी जिंदा है" ।

अगर बुध्दी, विचार और कर्म से है तो-" हाँ वह अब इस दुनियां में नहीं है ।"

वह कुछ कह रहा है मुझे सुनाई नहीं दे रहा, वह दिखता है पर मैं उसे देखना नहीं चाहता। वह मेरे मन को विचलित कर देता है, मेरी आँखें बंद होने लगती हैं , मैं बहुत भयभीत हो जाता हूँ । मगर वह मुस्कराता है , उसका आत्मविश्वास देखते हुए बनता है। उसके इशारे पर मेरी उंगलियां इस कम्प्यूटर पर नाचने लगती हैं और वह आत्मविश्वास से मुस्कराने लगता है । मैं उसकी आखों की चमक को नहीं देख पाता क्योंकि कभी मैंने उसकी आंखों में भयानक सूनापन देखा था-जो मुझे आज भी याद है और जब उसकी तरफ देखता हूँ तो मुझे वह याद आ जाता है और मैं पानी नज़रें फेर लेता हूँ ।

इससे भी ज्यादा भयानक था उसके विचारों और बुध्दी में सूनापन .....जो मुझे डरा देता था । बहुत लिख चुका उसके बारे में, एक शराबी के बारे में और क्या लिखा जा सकता है । हालांकि लिखने के लिए बहुत कुछ है , क्योंकि वही तो लिखवा रहा है यह सब।
मैंने उससे पूछा -"तुम यह तो बताओ तुम शराब क्यों पीते थे ?"

मैंने अपना प्रश्न टाईप कर इधर-उधर देखा। वह वहाँ नहीं था। वह मुझे अब नहीं दिखता पर मेरे साथ ही रहता है। जब सामने आता है तो... ...वह अब भी बिचारा लगता है पर लगता है वह कुछ सोचता है । उसकी आँखें चमकते लगती हैं पर मैं उन्हें नही देखा पाता । किसी शीशे में अपने बाह्य रुप को देखना आसान है पर क्या ऐसा आइना है जिसमे अपने आन्तरिक रुप को देखा जा सकता है। मेरे पास वह भी है पर मैं उस शराबी को उसमें नहीं देखना चाहता। वह डरपोक है , बहुत बोलता है, ज्ञान बघारता है पर जब पूछते हूँ कि-" तुम शराब क्यों पीते थे?" तो दुम भागकर भाग जाता है।

मैं सोचता हूँ कि मुझे ऐसा प्रश्न नहीं करना चाहिए । आख़िर वह एक शराबी था और मैं उसे जानता था फिर उसे पूछकर परेशान नहीं करना चाहिऐ । हो सकता है कि वह बिचारा.........इस प्रश्न का उत्तर खुद नही जानता हो । मैंने देखा जैसे ही यह रचना लिख चुका वह कहीं मेरे आसपास मंडरा रहा है, मैं उसे देखना चाहता हूँ पर कुदरत ने कोई ऎसी चीज ही नहीं बनाए जो आदमी अपने सामने बैठाकर खुद को देख सके । अगर आप मुझे कांच देखने को कहेंगे तो यकीन करें वह इसमे मेरी मदद नही कर सकता ।

May 25, 2007

चलना नाम है ज़िन्दगी का

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थका हुआ शरीर उदास मन
सूनी आँखें और कांपती जुबान
पूछते है पता वह सुख और ख़ुशी का
ओढ़े हैं लिबास स्वार्थों का
बैठने और सोने को माना है आराम
हवा में उड़ने की चाह
एक-एक कदम चलना
प्रतीक माना बेबसी का
आकाश की तरफ देख उसे छूने की चाह
जिस पर सदा जीवन टिका है
यकीन नहीं उस जमीन का
भ्रम में जिए जा रहे हैं
सुख के लिए दुःख के
रास्ते जा रहे हैं
क्षय करते हैं बदन का
पर ठानी है जिसने
एक-एक कदम
जीवन-पथ पर आगे बढाने की
अपने हाथ से युध्द लड़ने की
सोने की तरह निखरने के लिए
अपने उर्जा से उत्पन्न
अग्नी में जलने की
चहकता है उसका मन
तना रहता है बदन
बनता है घर ख़ुशी का
उनके क़दमों पर सुख और आनन्द
बिछ्ता है कालीन की तरह
वह नहीं थामते कभी दामन
बेबसी का
उनके लिए
चलना नाम है जिन्दगी का
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May 24, 2007

झूठी शान की खातिर

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रुप रचाएं साधू का
चाल, चरित्र और चाहत असाधु की
यज्ञ करें राष्ट्र के कल्याण के लिए
मूहं मैं राम, बगल में छुरी
बगला भगत पर टिकी धर्म की धुरी
कौन किसको साधे
कौन किससे सधे
सबने निज स्वार्थ ओढ़ लिए
माया के अँधेरे में भटक रहे हैं
एअर कन्डीशन कमरे में सांस ले रहे हैं
भ्रम,भय और भ्रष्टाचार का अँधेरा फैलाकर
लोगों को रोशनी के अहसास बैच रहे हैं
खालीपन है सबकी आँखों में
इन्सान तरस रहा है
इन्सान देखने के लिए
कहीं समंदर का पानी मीठा बताएं
कभी भगवान को दूध पिलायें
कही मूर्ती के आंसू टपक्वायें
इंसानियत और ईमान ढूंढते थक गये
किसी इन्सान में देखने के लिए
कौन कहता है कि
मजहब नहीं सिखाता बैर रखना
दुनियां में हर जंग पर
धर्म-मजहब का नाम है
इंसानों के बीच खडी है दीवार
इनके नाम पर
सब लड़ रहे है अपने -अपने
पंथ के गौरव के लिए
बनाया था इश्वर ने
इन्सान को आजादी से
जीने के लिए
उसने स्वर्ग के मोह में
अपने को गुलाम बना लिया
जात , भाषा और धर्म की
झूठी शान की खातिर लड़ने के लिए
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May 23, 2007

सागर की तरह होता है मन

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सागर की तरह मन है मेरा
जब भी लहरों से खेलता है
कुछ शेर ही जुबान से
कहला कर दम लेता है
मैं भी उसे नहीं रोक पाता
बहने देता हूँ उसके भावों को
दिमाग मेरा किनारा कर लेता है
मैं जानता हूँ कि मन चंचल होता है
शेरों से अठखेलियां करता है
तो क्या बुरा करता है
बस चन्द अल्फाजों की
ख़ुराक ही तो लेता है
मैं उसे तड़पाऊंगा
वह मुझे भटकाएगा
मैं शेर नहीं लिखूंगा
वह व्यसनों की तरफ भगाएगा
मैं मन को काबू में रखने की बात
कभी नहीं मानता
दिमाग से उसकी दिशा तय
करना संभव है
पर मन को मारकर भला
कौन जीवन जीं लेता है
------------------
सब कुछ पाकर भी मन
खुश क्यों नहीं होता
हर पल भटकाए जाता है
दौलत और शौहरत के
हिमालय पर पहुंचकर भी
उसे चेन क्यों नहीं आता है
वह उदास क्यों हो जाता है
कुछ सवाल उससे करो
कुछ करो अपने से
उत्तरों में ही रास्ता नज़र आता है
जब तुम स्वार्थ पूरा करते हो
वह परमार्थ चाहता है
जब तुम दुश्मन बनाते हो ज़माने को
वह दोस्त बनाना चाहता है
वह तड़पता है तुमसे बात करने को
तुम उसे अपनी ख्वाहिशों से ढक लेते हो
और वह उदास हो जाता है

May 19, 2007

अपने आंसू धीरे-धीरे बहाओ

NARAD:Hindi Blog Aggregatorशिष्य के हाथ से हुई पिटाई
गुरुजी को मलाल हो गया
जिसको पढ़ाया था दिल से
वह यमराज का दलाल हो गया
गुरुजी को मरते देख
हैरान क्यों हैं लोग
गुरू दक्षिणा के रुप में
लात-घूसों की बरसात होते देख
परेशान क्यों है लोग
यह होना था
आगे भी होगा
चाहत थी फल की बोया बबूल
अब वह पेड युवा हो गया
राम को पूजा दिल से
मंदिर बहुत बनाए
पर कभी दिल में बसाया नहीं
कृष्ण भक्ती की
पर उसे फिर ढूँढा नहीं
गांधी की मूर्ती पर चढाते रहे माला
पर चरित्र अंग्रेजों का
हमारा आदर्श हो गया
कदम-कदम पर रावण है
सीता के हर पग पर है
मृग मारीचिका के रूपमें
स्वर्ण मयी लंका उसे लुभाती है
अब कोई स्त्री हरी नहीं जाती
ख़ुशी से वहां जाती है
सोने का मृग उसका उसका हीरो हो गया
जहाँ देखे कंस बैठा है
अब कोइ नहीं चाहता कान्हा का जन्म
कंस अब उनका इष्ट हो गया
रिश्तों को तोलते रूपये के मोल
ईमान और इंसानियत की
सब तारीफ करते हैं
पर उस राह पर चलने से डरते हैं
बैईमानी और हैवानियत दिखाने का
कोई अवसर नहीं छोड़ते लोग
आदमी ही अब आदमखोर हो गया
घर के चिराग से नहीं लगती आग
हर आदमी शार्ट सर्किट हो गया
किसी अवतार के इन्तजार में हैं सब
जब होगा उसकी फ़ौज के
ईमानदार सिपाही बन जायेंगे
पर तब तक पाप से नाता निभाएंगे
धीरे धीरे ख़ून के आंसू बहाओ
जल्दी में सब न गंवाओ
अभी और भी मौक़े आएंगे
धरती के कण-कण में
घोर कलियुग जो हो गया

May 17, 2007

जब सब्जी खरीदने में कला की जरूरत नहीं होगी

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रांची और इन्दौर में सब्जी के फूटकर व्यापारियों द्वारा द्वारा रिलायंस और सुभीक्षा के कंपनियों के व्यापार में प्रवेश का जमकर विरोध किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि विश्व बाजार में आ रहे परिवर्तनों का भारत के परंपरागत व्यापार पर प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है , हालांकि इन दोनो जगह हो रहे प्रदर्शनों में वहां के स्थानीय कारण ही जिम्मेदार लगते हैं , और इन दोनों कंपनियों के सब्जी के फूटकर व्यापार में प्रवेश से कोई ज्यादा भूचाल आने वाला है इसकी कोई अभी निकट भविष्य में संभावना भी नहीं लगती।

देश में मौजूद कुछ मॉल में यह काम पहले ही शुरू हो चुका है और कहीं से किसी प्रकार के विरोध की खबर नहीं थी , और अचानक इस तरह विरोध शुरू होने के पीछे कोई राजनीतिक या स्थानीय व्यवसायिक कारण होने की संभावना इसी लिए भी हो सकती है क्योंकि जिन इलाकों में यह मॉल हैं या तो पोश इलाक़े हैं या नगरों के मध्य में स्थित हैं , और वहां से कुछ लोगों को ज्यादा फायदा है और वह इसे गवाना नहीं चाहते । भारत में जितने भी महानगर और नगर हैं वहां सब्जी मंडियां है और शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहाँ कोई इलाका सब्जी मंडी के रुप में नहीं जाना जाता हो।खेरीज सब्जी व्यापार और उत्पादन में करोड़ों लोगों लगे हैं और एक अरब दस करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोई एक कंपनी इसका व्यापार करने का सामर्थ्य नहीं रखती । परंपरागत खैरिज सब्जी व्यापार के मूल स्वरूप में बदलाव आने में अभी कयी बरस लग जायेंगे । हाँ अगर यह कंपनिया जब पूरे सामर्थ्य सा काम करेंगी तो उन इलाकों और उपभोक्ताओं की रुचियों पर नियत्रण कर सकती हैं जो नए और धनाढ्य प्रवृति के हैं। अभी इन इलाकों पर रैहडी वालों का एक छत्र नियंत्रण है और एक तरह से माने तो यह भारत के परंपरागत खैरिज व्यापार का ही नया रुप हैं जो शहरों के ब्रह्द रुप लेने की साथ ही पनपा है , जब शहर छोटे थे तो लोग पैदल ही मंडी की तरफ निकलकर अपना सामान ले आते थे। अब जब सभी जगह कालोनियां बन गयी हैं तो रेह्डी वालों को भी वहाँ सब्जी बेचकर रोजगार प्राप्त करने का अवसर मिल गया। अब इन कंपनियों के आने से उन्हें एक ऎसी चुनौती का सामना उन्हें करना होगा जिसके लिए वह तैयार नहीं है,और इस तरह प्रदर्शन कर रहे हैं। हालांकि इसके लिए कोई वह उचित कारण नहीं बता सकते क्योंकि यहां सभी को व्यापार करने का अधिकार प्राप्त है वह चाहे कोई कंपनी क्यों न हो।दरअसल अब उनके सामने अपने व्यवसाय को विश्वसनीय बनाने के चुनौती आने वाली है। अभी तक उन्होने अपना व्यवसाय किया पर आम उपभोक्ता कभी उनसे सन्तुष्ट नहीं रहा और कम तोलना और अधिक भाव बताने की आदत ने समाज में ऎसी हालत बना दीं कि आज सब्जी बेचना नहीं बल्कि खरीदना एक कला माना जाता है। इस मामले में मुझे हमेशा परिवार में फिसड्डी माना जाता है, पहले पिताजी कहते थे कि"-तुझे कभी सब्जी खरीदने के अकल नहीं आयेगी। "और अब यही ताने हमारी श्रीमती देतीं है कि आपको तो कभी सब्जी लेना नहीं आयेगी ।

रविवार को सत्संग के बाद हम दोनों एक सप्ताह की सब्जी खरीने मंडी जाते है। मैं स्कूटर बाहर खड़ा कर किराने का सामान खरीदने बाजार चला जाता हूँ हमारी श्रीमती सब्जी वालों से झिकझिक कर अपनी खरीद कर आती हैं और मैं बाजार से लौटता हू फिर दौनों घर आते हैं। वह इन सब्जी वालों की ख़ूब शिक़ायत करती हैं-हालांकि कुछ सब्जी वालों को वह ईमानदार भी मानती है और जो सब्जी उनसे मिलती है उसे खरीदकर ही दूसरी सब्जी उन लोगों से खरीद्ती हैं जिन पर उनका यकीन कम है। इस क्रम में एक वाक़या मुझे याद है जो सब्जी व्यापार के खेरीज विक्रीताओं के लिए एक सबक है। हुआ यह कि एक बार नाप्तोल वालों ने रविवार को मंडी के बाहर अपना शिविर लगाया , उस दिन सभी सब्जी वालों ने दाम बड़ा दिया और तर्क दिया कि आज हम पूरी तरह से सही तौल दे रहे है क्योंकि बाहर नाप्तोल वाले बैठे हैं कहीं फंस न जाये इसीलिये दाम कम नहीं करेंगे और न कम तौलेंगे -अगर कहें कि आज कम तौलने का अवसर नहीं है अत: अपने पूरे दाम लेंगे। उस समय हमारी श्रीमतीजी की टिप्पणी थी कि काश यह नापतौल वाले हर रविवार को आयें ताकी मैं इस झिकझिक से बच सकूं। कालोनी में आने वाले ठेले वालों से वह एकदम नाखुश रहती है और कहती हैं कि नाप में कम भाव में ज्यादा केमामले में तो वह मंडी वालों से भी आगे हैं -हालांकि उनका मानना है सब ऐसे नहीं है पर जो लोग सही हैं उनके लिए भी कम मुसीबत नहीं है लोग उनके एकदम उचित दाम और सही नापतौल का सम्मान नहीं करते।

मैं अपने लिए फल लाता हूँ तो वह उनमें उनके खराब, कच्चा और वजन में कम होने की बात जरूर करती हैं और दाम के बारे में तो यही कहती हैं कि महंगा है और वैसे भी तुम कहाँ कम करने के लिए कहते हो।मॉल के मामले में भी उनका कहना है वहां सब्जियाँ रखी हुयी मिलती है। मतलब वह अभी भी वह उसी ढंग से सब्जी खरीदने के लिए तैयार है जैसे अभी तक कर रहीं थीं। जबकि मैं सोच रहा था कि अब सब्जी खरीने में किसी कला की जरूरात नहीं पडेगी। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है शोर ज्यादा है और तथ्य कम है कि कंपनियों के कारोबार से सब्जी बेचने वाले बेरोजगार हो जायेंगे। अभी बाज़ार बहुत बड़ा है और परंपरागत उपभोक्ता भी बहुत हैंजो शायद इन उंचे शोरूम की तरफ बरसों तक मुहँ उठाकर भी न देखें । हाँ , वह उपभोक्ता उनके पास जाएगा जो सब्जी खरीदने की कला में दक्ष नहीं है-हालांकि उनमें भी बहुत से लोग वहाँ नहीं जाएंगे

May 13, 2007

मौसमविदों से पूछकर खेलेंगे क्रिकेट

NARAD:Hindi Blog Aggregator
भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अधिकारीयों ने तय किया है कि इस उपमहाद्वीप में में क्रिकेट मैचों के आयोजन के लिए मौसम विभाग की मदद लेगा ताकी मैचों को वर्षा और गर्मी के प्रकोप से बचाया जा सके। अभी बंगलादेश में भारतीय खिलाड़ी भारी गर्मी में खेल रहे हैं और मौसमविदों की भविष्यवाणी है टेस्ट मैचों के दौरान ६० से ८० प्रतिशत तक वर्षा की संभावना है। मेरा मानना है कि यह देर से लिया गया फैसला है और शायद लिया भी इसीलिये गया है क्योंकि उसके अध्यक्ष भारत के कृषी मंत्री है और मौसम के मामले में विशेष रूचि लेते हैं।मुझे याद है जब भारत-पाकिस्तान के बीच तनाव ख़त्म करने की दृष्टि से पहली क्रिकेट श्रंखला आयोजित की गयी थी, उसमें लाहौर और मुल्तान में खेले गये टेस्ट मैचों में तापमान भारत में उत्तरीय इलाकों जितना ही था और एकदम गरम था। मुझे उस समय भारत और पकिस्तान के खिलाडियों पर तरस आ रहा था, मैंने अपने एक मित्र के सामने टिप्पणी की थी कि -"यार, देखो इन बिचारों को कितनी गर्मी में खेल रहे हैं , हम लोग खेलना तो दूर इतने तापमान में बाहर निकलने के लिए भी तैयार नहीं हैं।

"तब वह मुझसे बोला था-" अरे यार, उन्हें तो लाखो और करोड़ों रूपये मिलते हैं , और रूपये में वह ताकत है कि गर्मी में ठंडी और ठंडी में गर्मी अपने आप पैदा हो जाती है। "

उसकी बात मैं मान लेता पर दर्शकदीर्घा में पचास लोग भी नहीं थे जो इस बात का प्रमाण था कि भीषण गरमी में पैसे की ठंडक में खिलाड़ी खेल जाये पर दर्शक कभी नहीं आने वाला। स्टेडियम में जाकर देखना तो दूर घर पर कूलर में बैठकर देखना भी तकलीफ देह हो जाता है , देखते देखते नींद आने लगती है । पूरे उपमहाद्वीप में एक जैसा मौसम होता है इसीलिये यह नहीं कहा जा सकता कि केवल भारतीय खिलाडियों या दर्शकों को ही इससे तकलीफ होती है। बंगलादेश के खिलाडियों और दर्शकों के लिए भी यही हालत होगी , पर भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड को अब इसीलिये भी ध्यान आया क्योंकि भारत में क्रिकेट के लिए लोगों में आकर्षण कम हो रहा है और इससे उनकी विरक्ति आर्थिक रुप से उसके लिए और नुकसानदेह होने वाली है। इसकी वजह से उसके आर्थिक स्त्रोत का जल स्तर वैसे ही नीचे जा रहा है और गर्मी उसे बिल्कुल सुखा डालेगी । भूमि का जल स्तर तो वर्षा के साथ बढने लगता है पर भारतीय क्रिकेट के लिए धन का स्तर अब चार साल अगले विश्व कप तक तो बढने वाला नहीं है और गर्मी का यही हाल रहा तो एकदम सूख भी सकते हैं ।
कुछ इस गर्मी के बारे में भी कहे बिना मेरी बात पूरी नहीं होगी। पूरे विश्व में तापमान बढ रहा है और यह मौसम विदों के लिए चिन्ता का विषय है। पिछले एक दशक से गर्मी १२ में से ११ महीने पड़ने लगी है। इस वर्ष मैंने शायद ही १५ दिन से अधिक हाफ स्वेटर पहना होगा। बाकी दिन तो मैं सुबह स्कूटर में उसे डाल कर ले जाता ताकी कहीं आसपास बर्फबारी की वजह से ठंड न बढ जाये, और अगर ऐसा हो तो स्वेटर पहनकर अपना बचाव किया जा सके। मैं पहले तेरीकात की शर्ट पहनता था पर बढती गर्मी ने मुझे इतना तंग किया कि अब होजरी की बनी बनाई टीशर्ट पहनने लगा हूँ और उससे आराम भी मिलता है और तनाव कम होता है। मुझे टीशर्ट पहनते हुए छ: वर्ष हो गये हैं और साल में दस महीने वही पहनता हूँ । जब से टीशर्ट पहनना शुरू की है तब से तैरीकात की कोई शर्ट नहीं सिल्वाई जो रखी हैं वही नयी लगती हैं। उन्हें सर्दी में ही पहनता हूँ।

क्रिकेट तो वैसे भी सर्दी का खेल है और उस पर इस महाद्वीप की दो बड़ी टीमें खस्ता हाल हैं और लोगों का अब इसके प्रति आकर्षण कम होता जा रहा है ऐसे में यह गर्मी उसके लिए संकट ही पैदा करने वाली है। क्रिकेट से जुडे धंधों के भी स्त्रोत अब सूखना शुरू हो गये हैं। इस समय देश के कई बडे शहर पाने के संकट से गुजर रहे हैं किसे फुर्सत है कि बंगलादेश पर भारत की जीत पर जश्न मनाए? आदमी पहले अपने लिए पाने की तो जुगाड़ कर ले, शायद यही वजह है कि क्रिकेट के लोग अब अपने कार्यक्रम मौसमविदों से पूछकर बनाने की सोच रहे हैं ।