समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
May 17, 2007
जब सब्जी खरीदने में कला की जरूरत नहीं होगी
रांची और इन्दौर में सब्जी के फूटकर व्यापारियों द्वारा द्वारा रिलायंस और सुभीक्षा के कंपनियों के व्यापार में प्रवेश का जमकर विरोध किया जा रहा है। ऐसा लगता है कि विश्व बाजार में आ रहे परिवर्तनों का भारत के परंपरागत व्यापार पर प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है , हालांकि इन दोनो जगह हो रहे प्रदर्शनों में वहां के स्थानीय कारण ही जिम्मेदार लगते हैं , और इन दोनों कंपनियों के सब्जी के फूटकर व्यापार में प्रवेश से कोई ज्यादा भूचाल आने वाला है इसकी कोई अभी निकट भविष्य में संभावना भी नहीं लगती।
देश में मौजूद कुछ मॉल में यह काम पहले ही शुरू हो चुका है और कहीं से किसी प्रकार के विरोध की खबर नहीं थी , और अचानक इस तरह विरोध शुरू होने के पीछे कोई राजनीतिक या स्थानीय व्यवसायिक कारण होने की संभावना इसी लिए भी हो सकती है क्योंकि जिन इलाकों में यह मॉल हैं या तो पोश इलाक़े हैं या नगरों के मध्य में स्थित हैं , और वहां से कुछ लोगों को ज्यादा फायदा है और वह इसे गवाना नहीं चाहते । भारत में जितने भी महानगर और नगर हैं वहां सब्जी मंडियां है और शायद ही कोई ऐसा शहर हो जहाँ कोई इलाका सब्जी मंडी के रुप में नहीं जाना जाता हो।खेरीज सब्जी व्यापार और उत्पादन में करोड़ों लोगों लगे हैं और एक अरब दस करोड़ की आबादी वाले इस देश में कोई एक कंपनी इसका व्यापार करने का सामर्थ्य नहीं रखती । परंपरागत खैरिज सब्जी व्यापार के मूल स्वरूप में बदलाव आने में अभी कयी बरस लग जायेंगे । हाँ अगर यह कंपनिया जब पूरे सामर्थ्य सा काम करेंगी तो उन इलाकों और उपभोक्ताओं की रुचियों पर नियत्रण कर सकती हैं जो नए और धनाढ्य प्रवृति के हैं। अभी इन इलाकों पर रैहडी वालों का एक छत्र नियंत्रण है और एक तरह से माने तो यह भारत के परंपरागत खैरिज व्यापार का ही नया रुप हैं जो शहरों के ब्रह्द रुप लेने की साथ ही पनपा है , जब शहर छोटे थे तो लोग पैदल ही मंडी की तरफ निकलकर अपना सामान ले आते थे। अब जब सभी जगह कालोनियां बन गयी हैं तो रेह्डी वालों को भी वहाँ सब्जी बेचकर रोजगार प्राप्त करने का अवसर मिल गया। अब इन कंपनियों के आने से उन्हें एक ऎसी चुनौती का सामना उन्हें करना होगा जिसके लिए वह तैयार नहीं है,और इस तरह प्रदर्शन कर रहे हैं। हालांकि इसके लिए कोई वह उचित कारण नहीं बता सकते क्योंकि यहां सभी को व्यापार करने का अधिकार प्राप्त है वह चाहे कोई कंपनी क्यों न हो।दरअसल अब उनके सामने अपने व्यवसाय को विश्वसनीय बनाने के चुनौती आने वाली है। अभी तक उन्होने अपना व्यवसाय किया पर आम उपभोक्ता कभी उनसे सन्तुष्ट नहीं रहा और कम तोलना और अधिक भाव बताने की आदत ने समाज में ऎसी हालत बना दीं कि आज सब्जी बेचना नहीं बल्कि खरीदना एक कला माना जाता है। इस मामले में मुझे हमेशा परिवार में फिसड्डी माना जाता है, पहले पिताजी कहते थे कि"-तुझे कभी सब्जी खरीदने के अकल नहीं आयेगी। "और अब यही ताने हमारी श्रीमती देतीं है कि आपको तो कभी सब्जी लेना नहीं आयेगी ।
रविवार को सत्संग के बाद हम दोनों एक सप्ताह की सब्जी खरीने मंडी जाते है। मैं स्कूटर बाहर खड़ा कर किराने का सामान खरीदने बाजार चला जाता हूँ हमारी श्रीमती सब्जी वालों से झिकझिक कर अपनी खरीद कर आती हैं और मैं बाजार से लौटता हू फिर दौनों घर आते हैं। वह इन सब्जी वालों की ख़ूब शिक़ायत करती हैं-हालांकि कुछ सब्जी वालों को वह ईमानदार भी मानती है और जो सब्जी उनसे मिलती है उसे खरीदकर ही दूसरी सब्जी उन लोगों से खरीद्ती हैं जिन पर उनका यकीन कम है। इस क्रम में एक वाक़या मुझे याद है जो सब्जी व्यापार के खेरीज विक्रीताओं के लिए एक सबक है। हुआ यह कि एक बार नाप्तोल वालों ने रविवार को मंडी के बाहर अपना शिविर लगाया , उस दिन सभी सब्जी वालों ने दाम बड़ा दिया और तर्क दिया कि आज हम पूरी तरह से सही तौल दे रहे है क्योंकि बाहर नाप्तोल वाले बैठे हैं कहीं फंस न जाये इसीलिये दाम कम नहीं करेंगे और न कम तौलेंगे -अगर कहें कि आज कम तौलने का अवसर नहीं है अत: अपने पूरे दाम लेंगे। उस समय हमारी श्रीमतीजी की टिप्पणी थी कि काश यह नापतौल वाले हर रविवार को आयें ताकी मैं इस झिकझिक से बच सकूं। कालोनी में आने वाले ठेले वालों से वह एकदम नाखुश रहती है और कहती हैं कि नाप में कम भाव में ज्यादा केमामले में तो वह मंडी वालों से भी आगे हैं -हालांकि उनका मानना है सब ऐसे नहीं है पर जो लोग सही हैं उनके लिए भी कम मुसीबत नहीं है लोग उनके एकदम उचित दाम और सही नापतौल का सम्मान नहीं करते।
मैं अपने लिए फल लाता हूँ तो वह उनमें उनके खराब, कच्चा और वजन में कम होने की बात जरूर करती हैं और दाम के बारे में तो यही कहती हैं कि महंगा है और वैसे भी तुम कहाँ कम करने के लिए कहते हो।मॉल के मामले में भी उनका कहना है वहां सब्जियाँ रखी हुयी मिलती है। मतलब वह अभी भी वह उसी ढंग से सब्जी खरीदने के लिए तैयार है जैसे अभी तक कर रहीं थीं। जबकि मैं सोच रहा था कि अब सब्जी खरीने में किसी कला की जरूरात नहीं पडेगी। कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है शोर ज्यादा है और तथ्य कम है कि कंपनियों के कारोबार से सब्जी बेचने वाले बेरोजगार हो जायेंगे। अभी बाज़ार बहुत बड़ा है और परंपरागत उपभोक्ता भी बहुत हैंजो शायद इन उंचे शोरूम की तरफ बरसों तक मुहँ उठाकर भी न देखें । हाँ , वह उपभोक्ता उनके पास जाएगा जो सब्जी खरीदने की कला में दक्ष नहीं है-हालांकि उनमें भी बहुत से लोग वहाँ नहीं जाएंगे
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