May 1, 2007

मजदूर दिवस:श्री गीता में है समाजवाद का संदेश

"जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुध्द सत्वगुण से युक्त पुरुष संशय रहित, बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है।"
श्री मद्भागवत गीता के १८वे अध्याय के दसवें श्लोक में उस असली समाजवादी विचारधारा की ओर संकेत किया गया है जो हमारे देश के लिए उपयुक्त है । जैसा कि सभी जानते हैं कि हमारे इस ज्ञान सहित विज्ञानं से सुसज्जित ग्रंथ में कोई भी संदेश विस्तार से नहीं दिया गया है क्योंकि ज्ञान के मूल तत्व सूक्ष्म होते हैं और उन पर विस्तार करने पर भ्रम की स्थिति निमित हो जाती है, जैसा कि अन्य विचारधाराओं के साथ होता है। श्री मद्भागवत गीता में अनेक जगह हेतु रहित दया का भी संदेश दिया गया है।
आज मजदूर दिवस है और कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियाँ निकालीं जायेंगी और उन्हें करेंगे वह लोग जो स्वयंभू मजदूर नेता और समाज के गरीब तबकों के रक्षक होने का दावा करते हैं और इस दिन घड़ियाली आंसू बहाते हैं। अगर उनकी जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो कहीं से न मजदूर हैं और न गरीब। भारत में एक समय संगठित और अनुशासित समाज था जो कालांतर में बिखर गया। इस समाज में अमीर और गरीब में कोई सामाजिक तौर से कोई अन्तर नहीं था। श्री मद्भाग्वत गीता में ऊपर लिखे श्लोक को देखें तो यह साफ लगता है अकुशल श्रम से आशय मजदूर के कार्य से ही है । आशय साफ है कि अगर आप शरीर से श्रम करे हैं तो उसे छोटा न समझें और अगर कोई कर रहा है तो उसे भी सम्मान दे। यह मजदूरों के लिए संदेश भी है तो पूंजीपतियों के लिए भी है । और हेतु रहित दया तो स्पष्ट रुप से धनिक वर्ग के लोगों के लिए ही कहा गया है-ताकी समाज में समरसता का भाव बना रहे। आमतौर से मेरी प्रवृत्ति किसी में दोष देखने की नहीं है पर जब चर्चा होती है तो अपने विचार व्यक्त करना कोई गलत बात नहीं है उल्टे उसे दबाना गलत है । कार्ल मार्क्स एक बहुत बडे अर्त्शास्त्री माने जाते है जिन के विचारों पर वामपंथी विचारधारा का निर्माण हुआ और जिनका नारा था "दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ"। सोवियत रूस में इस विचारधारा के लोगों का लंबे समय तक राज रहा और चीन में आज तक कायम है । शुरू में नये नारों के चलते लोग इसमें बह गये पर अब लोगों को ल्गंने लगा है कि अमीर आदमी भी कोई ग़ैर नहीं वह भी इस समाज का हिस्सा है । जब आप किसी व्यक्ति या उनके समूह को किसी विशेष संज्ञा से पुकारते हैं तो उसे बाकी लोगों से अलग करते हैं और आप फिर कितना भी दावा करें कि आप समाजवाद ला रहे हैं गलत सिध्द होगा। भारतीय समाज में व्यक्ति की भूमिका उसके गुणों, कर्म और व्यक्तित्व के आधार पर तय होती है और उसके व्यवसाय और आर्थिक आदर पर नहीं। अगर ऐसा नहीं होता तो संत शिरोमणि श्री कबीरदास, श्री रैदास तथा अन्य अनेक ऎसी विभूतियाँ हैं जिनके पास कोई आर्थिक आधार नहीं था और वे आज हिंदू विचारधारा के आधार स्तम्भ माने जाते हैं , कुल मिलाकर हमारे देश में अपनी विचारधाराएँ और व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने इस समाज को एकजुट रखने में अपना योगदान दिया है और इसीलिये वर्गसंघर्ष के भाव को यहां कभी भी लोगों के मन में स्थान नहीं मिल पाया-जो वामपंथी विचारधारा का मूल तत्व है। परिश्रम करने वालों ने रूखी सूखी खाकर भगवान का भजन कर अपना जीवन गुजारा तो सेठ लोगों ने स्वयं चिकनी चुपडी खाई तो घी और सोने के दान किये और धार्मिक स्थानों पर धर्म शालाएं बनवाईं । मतलब समाज कल्यान को कोई अलग विषय न मानकर एक सामान्य दायित्व माना गया।
मैं कभी अमीर व्यक्ति नहीं रहा , और मुझे भी शुरूआत में अकुशल श्रम करना पडा, पर मैंने कभी अपने ह्रदय में अपने लिए कुंठा और सेठों कि लिए द्वेष भाव को स्थान नहीं दिया। गीता का बचपन से अध्ययन किया हालांकि उस समय इसका मतलब मेरी समझे में नहीं आता था पर भक्ती भाव से ही वह मेरे पथ प्रदर्शक रही है। आज के दिन अकुशल काम करने वाले मजदूरों के लिए एक ही संदेश मैं देना चाहता हूँ कि अपने को हेय न समझो । सेठ शाहुकारों के लिए भी यह कहने में कोइ संकोच नहीं है अपने साथ जुडे मजदूरों और कर्मचारियों पर हेतु रहित दया करें ।

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