आज सुबह से टीवी समाचार चैनलों पर दहेज़ पर विवाद की तीन खबरें एक साथ चल रहीं हैं । एक खबर में एक मंगेतर ने दहेज़ के विवाद के चलते २३ साल के एक लडकी की हत्या किये जाने के चर्चा है-इसमे बताया गया है कि लड़के और लडकी का प्यार नौ वर्ष तक चला। दूसरी ख़बर में एक लडकी ने अपने बॉय फ्रेंड पर दहेज़ मांगने का आरोप लगाते हुए उससे शादी करने से इनकार कर दिया। तीसरे प्रकरण में एक लडकी ने दहेज़ लालची दूल्हे की पिटाई कर दीं । जैसा कि होना चाहिए यह सभी प्रकरण पुलिस के पास पहुंचे हैं और वह अपने हिसाब से निपटने का प्रयास कर रही है। ऎसी घटनाएँ लगातार टीवी पर लगातार आ रही हैं । हर जगह एक ही जैसी कहानी होती है , बस स्थान, शहर और पात्रों के नाम बदल जाते हैं। किसी एक घटना पर उसके पात्रों के कृत्यों पर नज़र डालने की बजाय इसमें सम्पूर्ण समाज में विचारों और नैतिकता के अभाव के रुप में देखना होगा।
जो लोग सोचते हैं कि प्रेम विवाह से इस समस्या का हल हो जाएगा उनकी गलतफहमी ऎसी घटनाएं देखकर दूर हो जायेंगी क्योंकि इसमें दो मामलों में प्रेम प्रसंग भी हैं और एक में तो भागकर शादी भी हो चुकी थी । पुराने समय में दहेज़ इस विकृत रुप में नहीं था जिस तरह आज दिख रहा है। समय के साथ हमारा समाज अपने विचार और परम्पराओं को बदल न पाने की वजह से उसमें जो खोख्लापान आया है उससे इस तरह की घटनाएं होना कोई आर्श्चय की बात नहीं है, पर इनमें जो पात्र हैं वह उस वर्ग से संबंधित हैं जो स्वयं को सभ्रांत कहता है-और वह इन परम्पराओं को धरम और जात के गौरव के रुप में देखता है। पहले और अब की जीवन शैली में जो फर्क आया है उसे अगर समझा नहीं जाएगा तो दहेज़ प्रथा से समाज का अंतर्द्वंद और बढ जाएगा जो अंतत: उसके पतन का कारण बनेगा। पहले एक लडकी के लालन-पालन और शिक्षा पर लड़के के मुकाबले कम खर्च होता था और उन्हें माता-पिता की संपत्ति में भी कोई हिस्सा नहीं मिलता था । उस समय यह परंपरा सौहार्द के साथ चली और इसके लिए किसी लडकी के पिता ने उसकी शादी में कभी दुखी होकर खर्च नही किया। उस समय दहेज़ देने वाला भी अपनी श्रध्दा से देता था तो लेने वाला भी झिकझिक नहीं करता था । अब हालत बदल गये हैं । लडकी के लालन-पालन और शिक्षा पर भी लड़के जितना ही खर्च होने लगा है और संपत्ति में भी उनको कानूनन हिस्सा मिलने लगा है। यह अलग बात है कि आज भी कयी ऎसी महिलाऐं हैं जो अपने माता-पिता की संपत्ति में अपने भाईयों से हिस्सा इसीलिये नहीं मांगती क्योंकि एक तो यह मानती हैं वह दहेज़ के रुप में अपना हिस्सा लेकर निकली हैं और दुसरे भाईयों से अच्छे संबंध का विचार उनके मन में रहता है। कुल मिलाकर समय ने अपने हिसाब से परिवर्तन किये हैं पर एक व्यक्ति के रुप में हमारी मानसिकता वैसी की वैसे है जैसे पहले थी। इसी कारण समाज में जो अंतर्द्वंद है जो इन घटनाओं के रुप में प्रकट हो रहा है। एक बात मजे की बात यह है इसके पीछे भी महिलाएं ही होती हैं पर मैं इसके लिए पुरुषों को ही जिम्मेदार मानता हूँ -या तो वह मूकदर्शक बने रहते हैं या फिर अपनी घर की महिलाओं को अपनी शक्ति दिखाने के लिए स्वयं ही इसमें शामिल हो जाते हैं जबकि जिस तरह का हमारा समाज पुरुष प्रधान अब भी बना हुआ है उसे देखते पुरुषों का ही दायित्व बनता है वह इस तरह की घटनाओं को न होने दे-खासतौर से उस पिता की जिसके पुत्र की शादी हो रही है । समाज के एक और अंतर्द्वंद की चर्चा करना भी जरूरी है कि अगर किसी को लड़का और लडकी दोनों ही हैं तो लडकी के विवाह के समय वह दहेज़ प्रथा को गाली देते हैं । जब लड़के के विवाह के समय आता है तब वह बताते हैं के समाज में लेनदेन के नाम पर क्या चल रहा है और वह उसी तरह ही चाहते हैं । इस तरह एक व्यक्ति और समाज के रुप में हमारी संकीर्ण सोच है उसे भी अब समझना होगा। जब मैं मासूम लड़कियों को इस दहेज़ से पीड़ित और परेशान देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्या समाज और व्यक्ति के रुप में मनुष्य जैसी संवेंद्नाये समाप्त हो चुकी हैं ?
एक बात कहना चाहता हूँ कि चाहे लड़का हो या लडकी माता-पिता को हो नहीं सोचना चाहिय कि उसकी शादी करना है बल्कि यह सोचना चाहिए कि उसका घर बसाना है -पहले लोग अपने बच्चे की शादी की नहीं उसके घर बसाने की बात करते थे-और इसीलिये बसा भी लेते थे । आज हम शादी की सोचते हैं घर बसाने की नहीं-इसीलिये शादी होती है पर घर बसाने पसीना आ जाता है। बदलते समय को देखें और अपने लड़के का घर बसाने की सोचते हुए दहेज़ न लें और फिर देखें उन्हें सुख मिलता है कि नहीं . जिस लडकी के पिता का कचूमर निकाल और दिल दुखाकर दहेज़ में ढ़ेर सारा सामान बटोर कर लाओगे उसकी बेटी तुम्हें सुख देगी यह गलतफहमी पालना लड़के के माता-पिता की विचार शून्यता को ही दर्शाती है।
समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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