Dec 28, 2009

खुशियां और अहसास-हिन्दी शायरी (khushiyan ka ahasas-hindi shayri)

 हाथ में बंधी घड़ी में टंगी सुईयां

चलती जा रही हैं

समय खुद अपने रूप को

दिन, रात, महीना और वर्ष के नाम से

नहीं पकड़ पाया।

इंसान क्यों झूम रहा है

आते हुए दिन को देखकर

गुजरे वक्त के निकल जाने का

गम उसने कभी नहीं मनाया।

--------

आसमान में कहीं खुशियां नहीं टंगी

जो गिर हाथ में आ जायेंगी,

बाजार में किसी दाम नहीं मिलतीं

जो खरीदने पर घर सजायेंगी।

आंखों से न दिखाई  देती

कानों से सुनाई नहीं देती

और छूकर स्पर्श नहीं करती

मर चुके अहसासों को जिंदा करके देखो

खून मे खुशियां दौड़ती नजर आयेंगी।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Dec 20, 2009

मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम)-हिन्दी हास्य व्यंग्य (traffic-hindi satire article)

मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसना कोई बड़ी बात नहीं है। इस देश के करोड़ों लोग रोज फंसते हैं। उनकी कोई खबर नहीं बन सकती। खबर के लिये सनसनी होना जरूरी है। यह सनसन असामान्य लोगों के उठने, बैठने, चलने, फिरने और छींकने पर बनती है। मैंढकी को जुकाम हो जाये तो क्या फर्क पड़ता है, अगर किसी फिल्मी मेम को हो जाये तभी सनसनीखेज खबर बनती है क्योंकि उसके किये गये विज्ञापनों पर सारे टीवी चैनल और रोडियो चल रहे हैं। उसके लगाये ठुमकों पर जमाने भर के लड़को दिल जलते हैं। उसको जुकाम होने की खबर हो तो उनके दिल भी बैठ जाते हैं और यही काम खबरों से किया जाता हैं। दरअसल जिन खबरों से दिल उठे बैठे उससे ही सनसनी फैलती है।
ऐसे में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की खबर भी तभी सनसनी फैलाती है जब उसमें कोई खास हस्ती हो और अगर अंतराष्ट्रीय हो तो फिर कहना ही क्या? फिर एक दो नहीं बल्कि अनेक हों तब तो वह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अंतर्राष्ट्रीय स्तर का होता है और सनसनी अधिक ही फैल जाती है। अलबत्ता कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा के काफिले की वजह से अन्य राष्ट्रों के प्रमुखों के काफिले मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये। यह खबर सुन और पढ़कर भी इस देश के बहुत कम लोगों पर उसकी प्रतिक्रिया दिखाई दे रही है। किसी से कहो तो वही यह कहता है कि‘यार, ऐसा क्या है इस खबर में! हम तो यहां दिन में गंतव्य तक पहुंचने में चार चार बार मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंसते हैं।’
यह बताये जाने पर कि यह मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) अमेरिकी राष्ट्रपति की वजह से हुआ तो लोग कहते हैं कि‘ इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी वजह से हुआ। अगर वह उनके खास आदमी होने की वजह से हुआ तो भी क्या? यहां तो आम आदमी की वजह से भी मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो जाता है!
हमें तो ऐसी आदत हो गयी है कि अगर किसी दिन अगर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया तो लगता है कि जैसे यात्रा ही नहीं की हो। इतना ही नहीं अगर किसी कार्यक्रम या गंतव्य पर विलंब से पहुंचते हैं और उसकी सफाई मांगी जाती है तो भले ही मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) का सामना नहीं किया हो बहाना उसी का बना देते हैं।
कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये गैस उत्सर्जन कम करने के प्रयासों पर बैठक हो रही थी। पता नहीं उसका क्या हुआ? बहरहाल इस तरह के गैस उत्सर्जन में मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने का भी कम योगदान नहीं है। मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हो गया तो गाड़ियां चालू हालत में ही गैस छोड़ती रहती हैं। कई गाड़ियों में पैट्रोल में धासलेट भरा होता है जिसके जलने पर निकलने वाली दुर्गंध बता देती है। उसका धुआं जब सांस में घुसता है तो तकलीफ कम नहीं होती। कई बार तो ऐसा लगता है कि इन जामों में जितना पैट्रोल खर्च होता है अगर उससे रोका जाये तो न केवल देश का पैसा और पर्यावरण दोनों बचेगा। कितना, यह हमें पता नहीं। अलबत्ता, ऐसे जामों में हम अपनी गाड़ी बंद कर देते हैं-गैस उत्सर्जन से बचने के लिये नहीं पैसा बचाने के लिये।
वैसे हम सोच रहे थे कि कोई मोबाईल के लिये कोई ऐसा धुन बन जाये जिसमें ‘ओबामा...ओबामा... मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ जैसे शब्द हों तो मजा आ जाये। अगर इस पर कोई गीत फिल्म वाले बनाकर दिखायें तो शायद वह हिट भी जाये। ऐसे में उसे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने पर लोगा गुनगुनाकर दिल हल्का कर लेंगे। उसे हम अपने मोबाइल पर लोड कर लेंगे और जब कहीं फंस जायें तो उसे सुनेंगे। धुन पाश्चात्य संगीत पर आधारित होना चाहिये या फिर शास्त्रीय संगीत पर। भारतीय फिल्म संगीत के आधार पर तो बिल्कुल नहीं क्योंकि वह अब हमें प्रभावित नहीं करती। ओबामा का नाम इसलिये लिया क्योंकि जिस तरह कोपेनहेगन की खबर पढ़ी उससे तो यही लगता है कि इस समय वह दुनियां के इकलौते आदमी हैं जिनको कहीं मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) फंसना नहीं पड़ेगा! आखिर अमेरिका के राष्ट्रपति जो हैं। यह अलग बात है कि उनकी वजह से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) हुआ और उसमें फंसी गाड़ियों में ईंधन जलने से विषाक्त गैस वातावरण में फैली।
इधर भारत ने भी तय किया कि वह गैस उत्सर्जन कम करेगा। हमारा मानना है कि हमारे राष्ट्र के प्रबंधक इस मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) से बचना चाहते हैं तो वह सड़कों का सुधार करें। इससे मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) होने की समस्या से तो निजात मिलेगी और साथ मेें गाड़ियों की गति कम होने से ईंधन की खपत कम होगी जिससे गैस का विसर्जन कम ही होगा। हालांकि यह एक सुझाव ही है। हमें पता है कि इस पर अमल शायद ही हो क्योंकि विकास कभी बिना विनाश के नहीं होता। अगर आपको सड़कें बनानी हैं तो टूटी पाईप लाईन भी बनानी है। फिर टेलीफोन लाईन लगानी है तो सड़क खोदनी है। खोदने, बनाने और लगाने में कमीशन का जुगाड़ का होना भी जरूरी है। जिस पर सड़क बनाने या बनवाने का जिम्मा है उसे भी उसी सड़क से गुजरना है पर वह बिना कमीशन के मानेगा नहीं भले ही सड़क के खस्तहाल से जूझेगा। विकास में कमीशन का मामला फिट होता है। लोगों को अपने बैंक खाते भरते दिखना चाहिये सड़क कौन देखता है? अरे, धक्के खाते हुए आफिस या घर पहुंच ही जाते हैं कौन उस पर रहना है?
किसी से मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की बात कहो तो यही कहेगा कि ‘यार, इसमें तो केवल ओबामा ही नहीं फंसेंगे? तुम क्या ओबामा हो जो इससे बचना चाहते हो?’
इधर भारत ने गैस उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है तो अनेक बड़े धनिकों ने उस पर आपत्तियां की हैं। उनको देश का विकास अवरुद्ध होता नजर आ रहा है पर मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) की समस्या देखते तो उनको लगता कि यह कठिन काम नहीं है पर बात वही है कि कौन उनको ऐसी सड़कों पर चलना है। हम तो मार्ग अवरुद्ध होने पर अपनी ही यह एक पंक्ति ‘ओबामा...ओबामा... मार्ग अवरुद्ध (ट्रैफिक जाम) में फंस गये रामा रामा’ दोहरायेंगे। पूरा गीत लिखना वैसे भी अपनी बौद्धिक क्षमता के बाहर की बात है।
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Dec 12, 2009

ज़माने की बैचेनी बढ़ा देता है-हिन्दी शायरी (zamane ki baicheni-hindi shayri)

 अपनी रोटी पकाकर

मेहननकश  इंसान आग बुझा देता है

पर जिस शैतान ने

लालच को लक्ष्य बना लिया

वह पूरे जमाने को

झौंक कर झुलसा देता है।
भर जाता है दो रोटी से पेट,

पर खातों में अपनी रकम को

बढ़ते देखकर भी नहीं सो रहा सेठ,

अपने पास जमा सोने की ईंटों से भी

नहीं भर रहा है दिल उसका

तिनके से बनी झौंपड़ी को खाक कर

उसकी राख में रुपया तलाश लेता है।
फरिश्ते और शैतान

कोई आसमान में नहीं बसते,

इंसानी चेहरों में वह भी संवरते,

पसीने की आग से जो रोटी खा रहे हैं,

अपने दर्द और खुशियों के साथ

जीवन बिता रहे हैं,

मुफ्त में जिनको मिली है विरासत,

जंग की ही करते हैं सियासत,

बनते हैं जो जमाने के खैरख्वाह,

नाम के हैं वह फरिश्ते

उनके आशियाने हैं

इंसानी जज़्बातों की कत्लगाह,

ऐसा हर शैतान

अपनी जिंदगी  के चैन के लिये

जमाने की बैचनी बढ़ा देता है।
 
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Dec 6, 2009

हादसों की तारीख-हिन्दी साहित्य क्षणिकायें (hadson ki tarikh-hindi sahitya kavita)

 वह हर रोज तारीखों पर लिखते हैं।

इसलिए कलेंडर में हमेशा झांकते दिखते  हैं।

बाजार के सौदागरों के लिए दलालों ने

अपने कारिंदों के सहारे

जमाने में किये हैं इतने हादसे कि

पेशेवर कलमकारों के शब्द

उन्हीं पर कहीं रोते तो कहीं हंसते मिलते हैं।

----------

हम हादसों की तारीखें भूल जाते हैं

पर शब्दों के सौदागर

हर तारीख को कब्र से ढूंढ कर लाते हैं।

भूल न जाये जमाना उनके साथ जमाना

शब्दों की जादूगरी और उनका नाम

इसलिये हर रोज की तारीख का

हादसा याद दिलाते हैं।


 
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Nov 29, 2009

आम इंसान की गलती-व्यंग कविता (mistake of comman man-hindi satire poem)

मु्फ्त की हवाओं से
जिंदगी की सांस चलती,
पानी से बुझती प्यास की आग
जब गले में जलती।
सूरज की धूप अपने स्पर्श से
देह को मलती।
कुदरत से जिंदगी के साथ मिले मुफ्त
तोहफों की इंसान कहां करता कदर,
ख्वाब करते हैं उसे दर-ब-दर,
रेत में ढूंढता है पत्थर की कोड़ियां,
भरता है उससे अपनी बोरियां,
आंखों से देखने को आतुर है सोना
नींद बेचकर खरीदता है बिछौना,
कागज के नोटों का बना लिया ढेर,
मन को समझाता है
पूजकर पत्थर के शेर,
लाचार क्या कर सकता है
इसके अलावा,
आजाद अक्ल मिली है
पर साथ मिला जरूरतों की
गुलामी का छलावा,
अपना सोचने में लगती है देर,
अक्लमंद भी सजाते हैं सामने
सपनों का अंधेर
भला कहां है आम इंसान की गलती।।

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Nov 16, 2009

कायरता और बहादुरी-हिंदी कविता (kayrata aur bahaduri-hindi kavita)

सच कहते हैं
जिंदगी के फैसले
कभी जंग से नहीं होते।
पर्दे के पीछे
तय हो जाते फैसले ले देकर
कटवाते है वही सिर अपना
जो इससे बेखबर होते।
कहीं गद्दारी तो
कही वफदारी बिक जाती है
दौलत और शौहरत वह शय है
जो ईमान भी खरीद लाती है
खून खराबे के आदी होते कायर
बहादुर तो जमाने के साथ
बांटकर खाने वाले होते।
जिंदगी की जंग जीतते हैं वही लोग
जो जमाने का दिल जीत चुके होते।

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Nov 12, 2009

इज्जतदार लोग-व्यंग्य कविता (ijjatdar log-vyangya kavita)

इंसान के चेहरे बदल जाते हैं
नहीं बदलती चाल।
खून खराबा करने वाले
हाथ बदल जाते हैं
वही रहती तलवार और ढाल।

इंसान से ही उगे इंसान
संभालते उसका खानदान
जमाने को काबू करने का मिला जिनको वरदान,
पांव हमेशा पेट की तरफ ही मुड़ता है,
दौलत से ही किस्मत का साथ जुड़ता है,
बड़े आदमी करते दिखावा
जमाने का भला करने का
मगर लूटते हैं गरीब का दान,
छोटे आदमी के हिस्से आता है अपमान,
थामे अपनी अगली पीढ़ी का झंडा
लुटेरे लूट रहे जमाने को
लगे हैं कमाने को
अपनी दौलत शौहरत देकर
अपनी औलाद में जिंदा
रहने की ख्वाहिश पाले
मौत की सोच पर लगा ताले
दौड़ जा रहे हैं इज्जतदार लोग,
लिये साथ पाप और रोग
वाह री कुदरत! तेरा कमाल।


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Nov 4, 2009

गलतफहमी-हास्य व्यंग्य (galatfahmi-hasya vyangya)

दीपक बापू तेजी से अपनी राह चले जा रहे थे कि पान की एक दुकान के पास खड़े आलोचक महाराज ने उनको आवाज देकर पुकारा-‘अरे, ओए फ्लाप कवि कहां जा रहे हो, कहीं सम्मान वम्मान का जुगाड़ करना है क्या?’
दीपक बापू चैंक गये। दायें मुड़कर देखा तो साक्षात आलोचक महाराज खड़े थे। दीपक बापू उनको देखकर उतावली के साथ बोले-‘आलोचक महाराज, आप अपनी घर से इतनी दूर यहां कैसे पधारे? हमारे लिये तो यही सम्मान है कि आपने हमें पुकारा। धन्य भाग हमारे जो इस इलाके की सीमा तक ही आपका पदार्पण तो हुआ। वरना आप जैसा साहित्यक महर्षि कहां इतनी दूर से यहां आयेगा? चलिये हुजूर हमारे घर को भी पवित्र कर दीजिये जो यहां से केवल तीन किलोमीटर दूर है।’
आलोचक महाराज ने पास ही नाली में पहले थूका फिर बोले-‘जब भी करना, घटिया बात ही करना! ऐसे भी साहित्यक महर्षि नहीं है कि तुम्हारे घर तक तीन किलोमीटर पैदल चलें। वैसे हमारी कार देखो उधर खड़ी है, पर अगर तुम्हें अपने घर लेकर चलना हो तो कोई अलग से इंतजाम करो।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज क्या करें, अपनी साइकिल तो घर पर ही छोड़े आये इसलिये यह संभव नहीं है कि कोई दूसरा इंतजार करें। हां, यह बताईये कि आप इधर कैसे आये, कोई सेवा हमारे लायक हो तो जरूर बतायें।’
आलोचक ने फिर दूसरी बार जाकर नाली में थूक और बोले-‘हमेशा लीचड़ बात ही करना! हम कार में बैठने वाले तुम्हारी साइकिल पर बैठकर क्या अपनी भद्द पिटवायेंगे। गनीमत समझो तुमसे बार कर रहे हैं। बहरहाल यह लो पर्चा! एक साहित्य पुस्तक केंद्र का उद्घाटन हैं। वहां जरूर आना। हमने तुम्हारी दो कवितायें एक गांव के अखबार में छपवा दी थी जिसमें अपनी समालोचना भी लिखी थी। लोगों ने हमारी समालोचना की प्रशंसा की। यह कार्यक्रम नये कवियों का परिचय कराने के लिये भी हो रहा है। तुम तो पुराने हो सोचा क्यों न उद्घाटन पर बुलाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करें ताकि वह तुमसे कुछ सीखें।’

दीपक बापू शर्माते हुए बोले-‘क्यों शर्मिंदा कर रहे हैं आप? हमारे अंदर ऐसी क्या येाग्यता है जो हम उस केंद्र का उद्घाटन करें? हम तो ठहरे एक अदना कवि! केवल कवितायें ही लिख पाते हैं। आप जैसे आलोचकों के सामने हमारी क्या बिसात? भले ही आप कहानी या कविता न लिखते हों पर साहित्य महर्षि का खिताब आपको ऐसे ही न मिला होगा। यह सम्मान कोई छोटी बात नहीं है।

अबकी बार आलोचक महाराज थूके बिना ही उनकी तरफ मुखातिब हुए और घूर घूर कर देखने लगे। अपना मुंह उनके मुंह के पास ले गये। फिर अपना हाथ उनके मस्तक पर रखा। दीपक बापू सिहर कर बोले-‘यह क्या आलोचक महाराज?’
आलोचक महाराज बोले-‘हम सोच रहे हैं कि कहीं तुम बुखार में तो घर से बाहर भाग कर नहीं आ गये। आजकल मौसम खराब है न! यह कैसी गलतफहमी पाल ली कि हम तुम्हारे इन नाकाम हाथों से किसी पुस्तक केंद्र का उद्घाटन करायेंगे। हमने तुम्हें उद्घाटन करने वाले मुख्य अतिथि के ंरूप में नहीं बल्कि वहां आकर कुछ किताबें खरीदो जिनको पढ़कर तुम्हें लिखने के लिये ढंगा आईडिया मिले, इसलिये बुलाया है। नये कवियों को तुम्हारा यह थोबड़ा दिखाकर बतायेंगे कि देखो इनको, ताउम्र कवितायें लिखने का प्रयास किया पर लिख नहीं सके। कभी कभी कामयाब आदमी की कामयाबी के साथ ही नाकाम आदमी की नाकामी से भी नये लोगों को सिखाने का एक अच्छा प्रयास होता है।’

दीपक बापू का चेहरा उतर गया वह बोले-‘ठीक है आलोचक महाराज, हमने कविता लिखने का प्रयास किया पर न लिख सके यह अलग बात है? मगर आपने तो कभी लिखी ही नहीं। बल्कि दूसरे लोगों की कविताओं का आलोचना करते हुए उनके कुछ हिस्सों को अपनी कविता बना डाला। हमारी कवितायें कहीं नहीं छपवायीं बल्कि हर बार टरका दिया। खैर, हमें बुरा नहीं लगा। अब चलता हूं।

आलोचक महाराज ने कहा-’नहीं! अभी रुको! मैंने अपना वक्त तुम्हें रोककर खराब नहीं किया। सुनो, यह कूपन लेकर उस दुकान पर आना। इसके लिये पांच सौ रुपया हमें दे दो। वहां इसके बदले तुम छह सौ रुपये की किताब खरीद सकते हो। वैसे मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारी कवितायें अब शहर के अखबारों में भी छपवा दूं। तुमसे बहुत तपस्या करवा ली। लाओ, निकालो पांच सौ रुपये। वहां आकर साढ़ छह सौ रुपये किताबें खरीदना। तुम्हारे लिये पचास रुपये का फायदा करवा देंगें।’
दीपक बापू बोले-‘महाराज, किताबों का तो मेरे घर पर ढेर लगा हुआ है। एक नयी अलमारी बनवा लूं तभी अब किताबें खरीद पाऊंगा। वैसे भी हम आपके पास अपनी एक किताब छपवाने के लिये पांडुलिपि लाये थे तब आपने इतनी अधिक सामग्री देखकर उसे पढ़ने से मना करते हुए कहा था कि ‘किताबों से पढ़ने योग्य पढ़ा जाये उससे अच्छा है कि उनमें लिखने योग्य कार्य किया जाये।’ आपकी बात चुभ गयी तभी से किताबें खरीदना बंद कर दिया। अब जब उनमें लिखने योग्य कर लेंगे तभी सोचेंगे।’
आलोचक महाराज ने कहा-’ठीक है! अब भूल जाना कि मैं तुम्हारी कविताओं पर आलोचना लिखकर उनको प्रकाशित करवाऊंगा।’
दीपक बापू वहां से जल्दी खिसक लिये यह सोचकर कि कहीं उनको पांच सौ रुपये की चपत न लग जाये। साथ ही उनको अपनी गलतफहमी पर भी हैरानी हो रही थी।
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Oct 31, 2009

जंग और सत्संग-हिंदी कविता (zang aur satsang-hindi kavita)


धर्म के लिए अब नहीं होता सत्संग
हर कोई लड़ रहा है, उसके नाम पर जंग.
किताबों के शब्द का सच
अब तलवार से बयान किया जाता
तय किये जाते हैं अब धार्मिक रंग.

एक ढूँढता दूसरे के किताब के दोष
ताकि बढ़ा सके वह ज़माने का रोष
दूसरा दिखाता पहले की किताब में
अतार्किक शब्दों का भंडार
जमाने के लिए अपना धर्म व्यापार
बयानों का है अपना अपना ढंग..

धर्म का मर्म कौन जानना चाहता है
जो किताबें पढ़कर उसे समझा जाए
पर उसके बिना भी नहीं जमता विद्वता का रंग,
इसलिए सभी ने गढ़ ली अपनी परिभाषाएं,
पहले बढ़ाते लोगों की अव्यक्त अभिलाषाएं,
फिर उपदेश बेचकर लाभ कमाएं,
इंसान चाहे कितने भी पत्थर जुटा ले
लोहे और लकडी के सामान भी
उसका पेट भर सकते हैं
पर मन में अव्यक्त भाव कहीं
व्यक्त होने के लिए तड़पता हैं
जिसका धर्म के साथ बड़ी सहजता से होता संग.
सब चीजों के तरह उसके भी सौदागर हैं
अव्यक्त को व्यक्त करने का आता जिनको ढंग..
कहीं वह कराते सत्संग
कहीं कराते जंग..
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Oct 18, 2009

बड़े दरख्त और इंसान-हिंदी व्यंग्य कविता (darkht aur insan-hindi vyangya kavita)

बड़े दरख्त अपने नीचे
छोटे पौद्यों को नहीं पनपने देते.
उनके मन की हलचल को
चेहरे पर पढना हो तो
ऐसे इंसानों को देख लो
जो गुजार रहे हैं जिंदगी ख़ास शख्सियत बनकर,
खड़े हैं दरख्त की तरह तनकर,
अपनी कम लायकी और औकात की
असलियत उनके जेहन को करती है तंग,
चेहरे का उड़ जाता है रंग,
कोई दूसरा आकर बराबरी न करे
इसी सोच में आँखे आकाश की ओर कर लेते.
अपने से बड़े की करते चाटुकारिता
छोटे को देखकर भी करते अनदेखा
अपने अन्दर बैठे उनके खौफ
खुद को ही घेर लेते.
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Oct 14, 2009

नापसंद लेखक, पसंदीदा आशिक-हिन्दी हास्य कविता (rejected writer-hindi hasya kavita)

आशिक ने अपनी माशुका को
इंटरनेट पर अपने को हिट दिखाने के लिये लिए
अपने ब्लाग पर
पसंद नापसंद का स्तंभ
एक तरफ लगाया।
पहले खुद ही पसंद पर किल्क कर
पाठ को ऊपर चढ़ाता था
पर हर पाठक मूंह फेर जाता था
नापसंद के विकल्प को उसने लगाया।
अपने पाठों पर फिर तो
फिकरों की बरसात होती पाया
पसंद से कोई नहीं पूछता था
पहले जिन पाठों को
नापसंद ने उनको भी ऊंचा पहुंचाया।
उसने अपने ब्लाग का दर्शन
अपनी माशुका को भी कराया।
देखते ही वह बिफरी
और बोली
‘‘यह क्या बकवाद लिखते हो
कवि कम फूहड़ अधिक दिखते हो
शर्म आयेगी अगर अब
मैंने यह ब्लाग अपनी सहेलियों को दिखाया।
हटा दो यह सब
नहीं तो भूल जाना अपने इश्क को
दुबारा अगर इसे लगाया।’’

सुनकर आशिक बोला
‘‘अरे, अपने कीबोर्ड पर
घिसते घिसते जन्म गंवाया
पर कभी इतना हिट नहीं पाया।
खुद ही पसंद बटन पर
उंगली पीट पीट कर
अपने पाठ किसी तरह चमकाये
पर पाठक उसे देखने भी नहीं आये।
इस नपसंद ने बिना कुछ किये
इतने सारे पाठक जुटाये।
तुम इस जमाने को नहीं जानती
आज की जनता गुलाम है
खास लोगों के चेहरे देखने
और उनका लिखा पढ़ने के लिये
आम आदमी को वह कुछ नहीं मानती
आम कवि जब चमकता है
दूसरा उसे देखकर बहकता है
पसंद के नाम सभी मूंह फुलाते
कोई नापसंद हो उस पर मुस्कराते
पहरे में रहते बड़े बड़े लोग
इसलिये कोई कुछ नहीं कर पाता
अपने जैसा मिल जाये कोई कवि
उस अपनी कुंठा हर कोई उतार जाता
हिट देखकर सभी ने अनदेखा किया
नापसंद देखकर उनको भी मजा आया।
ज्यादा हिट मिलें इसलिये ही
यह नापसंद चिपकाया।
अरे, हमें क्या
इंटरनेट पर हिट मिलने चाहिये
नायक को मिलता है सब
पर खलनायक भी नहीं होता खाली
यह देखना चाहिये
मैं पसंद से जो ना पा सका
नापसंद से पाया।’’

इधर माशुका ने सोचा
‘मुझे क्या करना
आजकल तो करती हैं
लड़कियां बदमाशों से इश्क
मैंने नहीं लिया यह रिस्क
इसे नापसंद देखकर
दूसरी लड़कियां डोरे नहीं डालेंगी
क्या हुआ यह नापसंद लेखक
मेरा पसंदीदा आशिक है
इसमें कुछ बुरा भी समझ में नहीं आया।’


लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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Oct 10, 2009

छोटा रहा दिल और जिगर-व्यंग्य शायरी (Dil aur Zigar-hindi shayri)

इंसान की नज़र में ही बसते, झूठे चमकते शिखर
उस पर चढ़ने को लालायित है, सभी का जिगर।
ऊंची जगह पर पहुंचे, जो नहीं है उसके लायक
बदचलनों का हुआ बाजार पर कब्जा, जंग के बिगर।
कमजोर को हमेशा डराते, हथियारबंद होकर बड़े लोग
दहशतगर्दों के सामने लगती खुद उनको जान की फिकर।
पानी की बहती धार को पत्थर से रोकते, बेचने के वास्ते
तेल के व्यापार मे फायदे में भी आता है उनका जिकर।
कहलाते अमन के पहरेदार, मुजरिमों को देते पनाह
जमाने की जान क्या बचायेंगे, कर लें अपनी फिकर।
‘दीपक बापु’ असलियत जिनकी बौनी रही हमेशा
बड़ी जगहों पर पहुंचे पर छोटा रहा दिल और जिगर।।

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Sep 29, 2009

पसंद नापसंद-हास्य व्यंग्य (pasand napasan-hindi hasya vyangya)

एक सज्जन ने मन्नत मांगी थी कि अगर उनको कभी कहीं से कोई सम्मान प्राप्त होगा तो वह किसी नये कवि का सम्मेलन करायेंगे। इससे तो उनका सम्मान का प्रचार तो होगा ही साहित्य में नयी पीढ़ी को आगे लाने के लिये भी प्रसिद्धि मिलेगी। दरअसल उन्होंने अपने बेकारी के दिनों में अनेक कवितायें लिखी थी जिनका एक किताब के रूप में प्रकाशन कराया। उन्होंने अपने मित्र को वह कविता दिखाई तो उसने कहा-‘‘चुपचाप इनको रख लो। यह कवितायें तुम्हारी मजाक बनवायेंगी। अलबत्ता जब तुम्हारे सपंर्क बन जायें तो इस किताब के सहारे कोई सम्मान वगैरह जुगाड़ लेना क्योंकि तुम जिस तरह अपने व्यवसाय में आगे जा रहे हो तुम्हारे लिये अच्छे अवसर हैं।’’
वह सज्जन अनेक तरह के ठेके लिया करते थे। ढेर सारी किताबें रखने के लिये उन्होंने एक अलमारी बनवायी थी जिस पर रोज अगरबत्ती जलाकर घुमाते।
इधर समय के साथ उनके व्यवसाय के साथ बड़े और प्रतिष्ठित लोगों से संपर्क बढ़ रहे थे। एक कारखाने में निर्माण का ठेका उनको मिला। वह कंपनी अवार्ड वगैरह भी बांटा करती थी। दरअसल उसका यह समाज कल्याण अभियान बड़े लोगों से संपर्क बढ़ाने के लिये था और वह अपने को फायदा देने वालों को सम्मानित भी कर चुकी थी। ठेकेदार सज्जन की उसी कंपनी के प्रबंधक से बातचीत हुई। ठेकेदार सज्जन को मालुम था कि यह कंपनी अवार्ड वगैरह बांटती है इसलिये वह प्रबंधक से अधिक प्रगाढ़ संबंध बनाने लगे। एक दिन उन्होंने प्रबंधक से कहा-‘आप हमें साहित्य के लिये अपना अवार्ड दिलवा दीजिये। आपका कमीशन दुगना कर देता हूं।’
प्रबंधक ने कहा-‘पहले वह किताब दिखाओ। नहीं दिखाना है तो कमीशन तीन गुना करो।’
ठेकेदार सज्जन बहुत खुश हो गये। मन ही मन कहने लगे कि‘यह बेवकूफ है, अगर चार गुना भी कहता तो देता।’
उन्होंने अपनी सहमति दी। इस तरह यह इनाम उनको मिल गया। वह भी साहित्यकार के रूप में। शहर भर के साहित्यकारों को तो मानो सांप सूंध गया। हरेक कोई एक दूसरे से पूछा रहा था कि ‘यह कौन महाकवि इस शहर में रहता है जो हमारी नजर से नहीं गुजरा। कभी किसी मंच पर नही देखा। उसका अखबार में नहीं पढ़ा।’
सम्मान मिलना तो सो मिल गया। एक दो आलोचक उनके घर पहुंच गये और कविता के शीर्षकों से ही समीक्षा अखबारों में लिखकर छाप दी। ठेकेदार सज्जन ने बकायदा आलोचकों की खातिर की। इधर उनके मन में बस एक ही बात थी कि किसी नये लेखक का एकल पाठ कराकर अपनी वह मिन्नत पूरी करूं जो किसी दिन मन में आ गयी थी। भले ही दस वर्ष बाद यह पूरी हुई पर मिन्नत का मान रखना भी जरूरी था। मुश्किल यह थी कि पहले उन्होंने नये कवि को अच्छी खासी रकम देने का विचार रखा था पर इधर खर्चा इतना हो गया कि वह सोच रहे थे कि सस्ते में निपट जाये। इसी चिंता में रहते थे। घर से बाहर एक दिन एक लड़का उनको मिल गया जिसके बारे में उनको पता लगा कि उसकी कोई कविता कहीं छपी थी-यह दावा वह मोहल्ले में करता फिर रहा था।

उन्होंने उससे पूछा-‘‘क्यों गंजू उस्ताद, कैसी चल रही है तुम्हारी कवितागिरी।’’
गंजू उस्ताद ने कहा-‘आपसे तो अच्छी नहीं चल रही। अब सोच रहा हूं कि मैं भी ठेकेदारी शुरु करूं। बहुत दिनों से काम तलाश रहा हूं। सोच रहा हूं कि आपको गुरु बना लूं। हो सकता है एक दो अवार्ड अपने किस्मत में भी आ जाये।’
ठेकेदार सज्जन ने कहा-‘अरे, कहां ठेकेदारी के चक्कर में पड़े हो। तुम तो अपनी कविता सविता के साथ आनंद करो।’
गंजू उस्ताद बीच में ही बोल पड़ा-‘‘छि...छि.........चुप हो जाईये। अभी अभी तो मेरी शादी हुई है। किसी ने सुना लिया कि सविता से मेरा चक्कर था तो गड़बड़ हो जायेगी।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘कविता के साथ मैंने तो ऐसे ही सविता जोड़ दिया। इधर मैं सोच रहा हूं कि तुम्हारा काव्य पाठ करवा दूं। इससे तुम्हें प्रचार मिलेगा और मुझे भी तसल्ली होगी कि साहित्य की सेवा की।’’
गंजू उस्ताद बोला-‘‘हां, पर अब आप मुझे उस्ताद न कहकर कवि नाम से पुकारें। आप अवसर दे रहे हैं तो अच्छी बात है। आप तैयारी करिये मैं अपनी नयी नवेली पत्नी के पास जाकर उसे यह खबर देता हूं। वह मुझे निठल्ला कहने के साथ ही कवितायें जलाने की धमकी देती है। इधर पिताजी भी कह रहे हैं कि अब तेरी शादी हो गयी तो कुछ कमाई करो। आप कितना पैसे देंगे।’’
ठेकेदार ने कहा-‘‘अरे, तुम्हें एक कवि सम्मेलन मिल गया तो फिर रास्ता खुल जायेगा। यही क्या कम है?’’
गंजू उस्ताद मान गया। वह गया तो ठेकेदार सोचने लगा कि ‘कितना बेवकूफ है कि अगर पांच सात सौ रुपये भी मांगता तो मैं देता।’
एक पार्क में बने बनाये मंच पर गंजू उस्ताद का एकल कविता पाठ प्रारंभ हुआ। मगर वह नया था उसे क्या मालुम कि कवितायें ठेली जाती हैं श्रोताओं की परवाह किये बिना। वह हर कविता पर श्रोताओं से पूछता-‘‘आप बताईये कि यह कविता आपको पसंद आयी।’’
लोग चिल्लाये -‘‘नापसंद नापसंद’’।
इस तरह उसने दस कवितायें सुनायी। अब तो हर कविता की समाप्ति पर लोग चिल्लाते-‘‘नापसंद नापसंद।’’
गंजू उस्ताद के बारे में यह कहा जाता है कि जब वह घर में अपने माता पिता से नाराज होता तो अपने कपड़े फाड़ने और बाल नौचने लगता था। इतना ही नहीं फिर घर से बाहर आकर ऐसे ही पत्थर उड़ाने लगता। यह बचपन की बात थी पर जब लोगों ने उसे इस तरह प्रताड़ित किया तो खिसियाहट में अपने बाल्यकाल में चला गया। वह अपने कपड़े फाड़ने लगा। उधर से लोग चिल्लाये ‘‘पसंद पसंद’’।
वह बाल नौचने लगा। लोग चिल्लाये-‘‘पसंद पसंद’’।
वह मंच से उतर गया और पत्थर उछालने लगा। लोग चिल्लाने लगे ‘‘पसंद पसंद।’’
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे ठेकेदार सज्जन भाग निकले। उनके पीछे गंजू उस्ताद भी भाग निकला। पीछे से लोग भी चिल्लाते हुए भागे-‘पसंद पसंद’
बाद में वह ठेकेदार सज्जन से मिला-‘‘और कुछ नहीं तो मेरे कपड़े फट गये उसके पैसे दे दो। आपको पता है कि वह शादी में मुझे ससुराल से मिले थे। आपके कार्यक्रम को सफल बनाने के लिये मैंने उनको फाड़ डाला। तभी तो लोग चिल्ला रहे थे ‘पसंद पसंद’। वरना तो ‘नापसंद नापसंद’ कर पूरा कार्यक्रम ही बरबाद किये दे रहे थे।’’
ठेकेदार सज्जन बोले-‘बेशरम आदमी! तुम्हारी वजह से मेरी बदनामी हुई है। मैंने तुम्हार काव्य पाठ सुनने के लिये कार्यक्रम करवाया था या लोगों की पसंद नापसंद जानने के लिये। अरे, यह भीड़ है इस पर चाहे जितना अपनी कवितायें या कहानी थोप दो चुपचाप झेलती है। अगर बोलने का अवसर दो तो फिर यही करती है जो तुम्हारे साथ किया।’
गंजू उस्ताद उदास होकर चला गया। इधर ठेकेदार सज्जन सोचने लगे कि‘अगर जिद्द करता तो एक दो हजार मैं दे ही देता। चलो अच्छा है चला गया। मुझे तो अपना प्रचार मिल ही गया न!
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Sep 18, 2009

मवेशी श्रेणी, कीड़ा श्रेणी-हिंदी हास्य व्यंग्य (cattle class, worm class-hindi hasya vyangya)

करें भी तो क्या? अखबार पढ़े और टीवी चैनल देखे बिना चैन ही नहीं पड़ता। अखबार पढ़ने में भी अब प्रथम पृष्ठ की खबरों की बजाय अंदर के पृष्ठ देखते हैं कि शायद कुछ अलग हटकर मिल जाये जबकि ताकि हास्य कविता या व्यंग्य लिख सकें। टीवी चैनलों से तो उकता गये हैं इसलिये अखबार वालों से थोड़ा बहुत लिखने लायक विषय मिलने की संभावना रहती है मगर मुश्किल यह हो गयी है कि वह भी टीवी चैनलों की तरह ‘शब्द पकड़ पाठ लिख’-हमारी मूल शैली भी यही है-नीति पर चलते हैं। इसमें बुरा कुछ भी नहीं है पर मुश्किल तब होती है जब किसी के श्रीमुख से उच्चारित पूर्ण वाक्य से केवल एक शब्द निकालकर उसका भाव भी अपने हिसाब से प्रस्तुत कर दिया जाता है।
अभी कहीं किसी सहृदय सज्जन ने कह दिया कि ‘वायुयान में मितव्ययी श्रेणी (economy class) तो मवेशी श्रेणी (cattle class) है।’
हमने जो अखबार और टीवी चैनलों में यही पढ़ा और सुना। हमें ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने इस श्रेणी में यात्रा करने वालों के लिये ऐसे शब्द कहें हों। वैसे हमें बीच बहस में नहीं पढ़ना चाहिए पर कहीं न कहीं इसमें हमारे लिये लिखने लायक कुछ नया आ गया तो सो लिख रहे हैं। वायुयान की किसी श्रेणी में कभी यात्रा नहीं की न करने की संभावना है-क्योंकि लैपटाप नहीं है जो वहां से अंतर्जाल पर लिख सकें। अलबत्ता उन सहृदय सज्जन ने जब वायुयान की मितव्ययी श्रेणी (economy claas) को मवेशी श्रेणी (cattle class)कहा और उस पर जैसे बवाल मच रहा है उसने थोड़ा चक्कर में डाल दिया है।
सुना है अमेरिका में मितव्ययी श्रेणी को ‘मवेशी श्रेणी’ ही कहा जाता है। इधर भी अगर कह दिया तो क्या बुरा किया? मगर नहीं? यहां के संगठित प्रचार माध्यम में काम करने वाले लोग जानते हैं कि जैसा हम कहेंगें जनता मानेगी। वह मान भी लेती है सिवाय हम जैसे अधकचड़े चिंतकों के-जिनको पूरे वाक्य के एक एक शब्द का विश्लेषण न कर लें चैन नहीं पड़ता।
ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लोगों को इस श्रेणी में चलने का अवसर मिलता है इसलिये वह अधिक नाराज हैं या अपने मालिकों से इससे बड़ी श्रेणी की चाहत रखते हुए उन्हें हड़का रहे हैं कि देखो हम तुम्हारे वफदार सेवक होकर भी ‘मवेशी श्रेणी’ में यात्रा करते हैं।
दरअसल पिछले कुछ समय से राई का पहाड़ और पहाड़ खोदकर निकली चुहिया को हथिनी बताने वाले यह प्रचार माध्यम अब जिस ‘सनसनीखेज‘ राह पर चल रहे हैं वहां चिंतन या मनन के लिये तो उनके पास समय रह ही नहीं सकता। पूरे वाक्य में एक शब्द मिला नहीं कि ‘यूरेका’ ‘यूरेका‘ कहते हुए दौड़ पड़ते हैं।
हम न तो किसी के समर्थक हैं न विरोधी! हम तो स्वांत सुखाय हैं सो इधर उधर देखते सुनते हैं उसके आधार पर ही लिख रहे हैं और इन्ही संगठित प्रचार माध्यमों में जो सुना और दिखा उसी के आधार पर हमें नहीं लगता कि वायुयान की मवेशी श्रेणी में यात्रा करने वालों को मवेशी कहा गया है। बाकी जानकारी से हम भी बहुत दूर हैं। तिस पर अंग्रेजी से पैदल हैं। इधर हिंदी वालों के यह हाल है कि वह सारी सनसनीखेज बातें अंग्रेजी से उठा लाते हैं।
अब प्रचार माध्यम जोर शोर से विलाप कर रहे हैं कि यहां के लोगों से मवेशी कहा, देश को मवेशी कहा आदि आदि। तर्क वितर्क के शिखर पर खड़े महानुभाव नीचे आने को तैयार ही नहीं है। बहुत दिन से सोच रहे हैं कि आखिर उस वाक्य में ऐसा क्या था जो सभी को परेशान कर रहा है।
कई बार मौसम खराब होता है तो हम कहते हैं कि कितना नारकीय वातावरण है तो क्या हम सब नरकवासी हो गये। अगर हम किसी कुत्ता गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति के लिये यह कहें कि ‘वह तो कुत्ता गाड़ी में बैठता है तो क्या उसे कुत्ता समझा जायेगा।’
इससे भी आगे मान लीजिये हमारा कोई मित्र वायुयान की मितव्ययी श्रेणी में जाये और हम उससे कहें कि ‘क्या मवेशी श्रेणी में यात्रा करोगे?‘ तब वह हमसे लड़ने लगे तो..........................हम तो उसे मूर्ख कहेंगे क्योंकि वह श्रेणी अमेरिका में इसी श्रेणी के नाम से जानी जाती है न कि यात्री।
जहां तक मवेशियों का सवाल है पता नहीं अमेरिका में उनको पालने वालों का क्या रवैया है पर भारत में जो मवेशी पालते हैं वह उनकी बहुत साज संभाल करते हैं। बीमार पड़ने पर उसका इलाज करते हैं। यह ठीक है कि उनसे मालिकों को उससे आय होती है पर फिर कहीं न कहीं उनके प्रति अपनी संतान जैसा भाव मन में रहता है और इसे गांवों में जाकर देखा जा सकता है।
इधर जब यात्रा की बात चली तो हमारी सोच टैम्पो, बसों और ट्रेनों से आगे नहीं बढ़ सकती है-कथित रूप से भले ही हम विद्वानों जैसी छबि बनाये बैठे हैं पर अपनी औकात तक ही हमारी भी सोच है यह हम कभी कभार लिखते हैं। संभव है कि अल्पविद्वता या कंजूसी की वजह से हमें भी ऐसा दर्द झेलना पड़ता है या केवल वैसी अनुभूति होती है जब हमारे साथ कीड़ों जैसा व्यवहार होता है। चूंकि विमानों में अगर मवेशी श्रेणी है तो उससे नीचे के वाहनों की श्रेणी भी कुछ नीचे स्तर तक लानी होगी न!
ऐसा अनेक बार होता है कि गर्मी की दोपहर में हम अपने शहर आये-अब तो हम स्कूटर स्टेशन तक ले जाते हैं इसलिये इस समस्या से निजात पा ली है पर बाहर जकार शहरों में यह सब झेलना ही पड़ता है-और टैम्पो में बैठे पर वह जब तक ठसाठस भर नहीं लेगा तब तक नहीं चलेगा। फिर उसके आगे पीछे और दायें बायें बाहर लोग लटके होंगे। उनकी यह यात्रा जान हथेली पर लेकर की जाती है यह हम देखते हैं पर उस समय जो पीड़ा होती है तब ऐसा लगता है कि हम कीड़े मकौड़े श्रेणी के हैं। अगर कोई हमसे कोई कहे कि यह क्या टैम्पो में जा रहे हो कीड़े मकौड़े की तरह....................तो क्या कीड़े मकौड़े हो जायेंगे।
एक नहीं अनेकों बार ट्रेनों, बसों और टैम्पो में सफर के दौरान जो तकलीफ हमने झेली है उस समय ऐसा नहीं लगता कि हमसे पैसे लेने वाले हमें मनुष्य समझ रहे हैं। हां, चिल्ला लो! कितना चिल्लाओगे? किसके लिये चिल्ला रहे हो और कौन सुन रहा है। मवेशी श्रेणी के आगे भी एक क्लास है कीड़ा श्रेणी (worm class)। जो अपने ही देश के लोगों को ऐसा समझते हैं वह भी आम इंसान ही हैं पर उन पर पैसा कमाने का दबाव रहता है और दबाव डालने वाले भी इसी देश के हैं। अब यह तो कोई बात नहीं हुई कि कीड़ों की तरह व्यवहार करो और झेलो पर न कहो न सुनो। सच सुनने और आत्ममंथन से घबड़ाते बुद्धिजीवियों पर तो हंसी आयेगी ही!
यह सब होना ही है। मांग और आपूर्ति का नियम सभी जगह लागू होता है। भारत में मनुष्यों जनंसख्या बढ़ रही है। इस लिये उनका मूल्य कम तो होना ही है। अब कहेंगे कि भला इंसान को भी वस्तु बना दिया! मगर आप जाकर किससे कहेंगे। कभी सोचा है कि इसी कन्या भ्रंुण की गर्भ में हत्या कर दी जाती है या कहीं कहीं तो मां ही उसे रेल से फैंक देती है पर कभी लड़के के बारे में ऐसा सुना है। एक नहीं हजारों बल्कि लाखों ऐसी घटनायें हैं जिसमें लड़कियों को मनुष्य नहीं बल्कि अपना एक उत्पाद समझकर व्यवहार किया जाता है। मतलब यह इस समाज में संवेदनाओं की कमी हो गयी है। लोग अपने अलावा सभी को शय समझते हैं। हां, प्रचार माध्यमों को केवल इसलिये सफलता मिलती है क्योंकि हर व्यक्ति केवल अपने को जीवंत समझता है और उसे जब कोई कीड़ा मकौड़ा या मवेशी कहता है तो उसकी संवेदनायें जाग उठती हैं पर दूसरे के लिये वह कितना संवेदनहीन है इसके लिये ज्यादा क्या लिखें?
हां फिर भी लिख रहे हैं कि आदमी संवदेनहीन हो गया है इसलिये प्रचार माध्यमों की नकली संवेदनायें भी बिक रही हैं वैसे ही जैसे कमी होने जाने के कारण नकली, घी, दूध और पनीर बिक रहा है। लोगों की चिंतन क्षमतायें तो लुप्त हो गयी हैं इसलिये प्रचार माध्यम एक शब्द पकड़ कर ग्रंथ जैसा प्रस्तुत कर देते हैं और एक पंक्ति के समाचार पर तो तीन दिन तक विशेष कार्यक्रम आते हैं। वैसे हमने लिखने में पूरी सावधानी बरती है क्योंकि हमने यहां कीड़ा शब्द अपनी यात्राओं के लिये प्रयोग किया है किसी दूसरे के लिये नहीं। हमें पता है कि इतना बड़ा लेख कौन पढ़ेगा? पढ़ेगा तो समझेगा क्या? अलबत्ता एक शब्द पर कोहराम न मचे इसलिये हम यह साफ कह रहे हैं कि कीड़ा श्रेणी (worm class)तभी होती है जब हम स्वयं टैम्पो, बसों या ट्रेनों में सफर करते हैं। बाकी दिन तो वह खास श्रेणी होती है जैसे कि यहां का हर आदमी अपने बारे में सोचता है।

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Sep 11, 2009

फिल्म और क्रिकेट का रिश्ता-हास्य कविता (film aur cricket-hasya kavita)

नायिका ने बहुत किया अभिनय
पर चलचित्रों में सफलता का
दौर नहीं चल पाया।
नंबर वन की दौड़ में न पहुंचने पर
उसने प्रेमी निदेशक से अफसोस जताया।
तब वह बोला-
‘‘लगता है कि अपना नाम
फिल्म बाजार में ऐसे नहीं चलेगा,
केवल किसी अभिनेता के साथ
तुम्हारे नकली इश्क से मामला नहीं बनेगा,
मेरे अंदर एक नया विचार चल रहा है,
चलचित्र जगत की ऊंचाई पर तुम पहुंचो
यह सपना मेरे अंदर भी पल रहा है,
जिस तरह क्रिकेट और फिल्म का
रिश्ता आपस में बन गया है
उसका लाभ उठाओ,
किसी कुंवारे क्रिकेट खिलाड़ी से
इश्क का प्रचार करवाओ,
घूमते हुए फोटो खिंचवाना और
किसी मैच में जाकर उसके लिये
बजाना जोर से तालियां,
मेरे से प्रेम की बात कोई करे तो
देना चाहे मुझे खुलेआम गालियां,
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
होगी कृपा उनकी
तुम्हारे साथ होगा सफलता का साया।
चलचित्रों से पिटने की हट जायेगी छाया।
................................



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Sep 7, 2009

मन की आंखें-हिंदी कविता (eye of heart-hindi sahityak kavita)

दिल में कुछ
दिमाग में कुछ
जुबां से दूसरे बोल ही निकल आते हैं।
दिल का दिमाग से
दिमाग का जुबां से रिश्ता
भला कितने लोग जान पाते हैं।
दूसरों से संवाद क्या करेंगे
अपने ही भाव नहीं पढ़ पाते हैं।
...................
अर्थहीन शब्द
औपचारिक संवाद
सुनने की आदत हो गयी है।
दोस्ती और रिश्तों की भीड़ में
आत्मीयता ढूंढती थक चुकीं
मन की आंखें, अब सो गयी हैं।

.........................
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Sep 2, 2009

राहत का उदघाटन करायेंगे-हिंदी हास्य कविता

बेटे ने मां से कहा
‘‘मां, मुझे पैसा दो तो
कार खरीद कर लाऊं
कालिज उससे जाकर अपनी छबि बनाऊं
पापा, नोटों की भरी पेटी रखकर
दौरे पर गये हैं
मुझे अपने दोस्तों में रुतवा दिखाना है
क्योंकि सभी नये हैं
पता नहीं पापा कब आयेंगे
तब तक अपनी इस मोटर साइकिल पर जाऊंगा तो
सभी मेरी हंसी उड़ायेंगे।’

सुनकर मां गद्गद्वाणी में बोली
‘बेटा, तुम्हारे पापा समाज सेवक है
सभी जानते हैं
उनको इसलिये मानते हैं
यह पेटी उन्हीं चंदे के नोटों से भरी है
जो सूखा राहत बांटने के लिये यहां धरी है
माल तो यह सभी अपना है
सूखा पीड़ितों के लिये तो बस एक सपना है
पर तुम्हारे पापा कागज पत्रक पूरे करने के लिये
दौरे पर गये हैं
उनका नया होना जरूरी है
क्योंकि यह नोट भी नये हैं
यह दौरा कर वह राहत बंटवा रहे हैं
सच तो यह है कि
बांट सकें जिनको
उन मरे लोगों के नाम छंटवा रहे हैं
अगर अभी पैसा खर्च कर ले आओगे
अपने पापा पर शक की सुई घुमाओगे
इसलिये आने दो उनको
इस भरी पेटी से तुम्हारी कार का पैसा निकालकर
तुम्हारे हाथों से इसका
और तुम्हारी राहत का उद्घाटन करायेंगे।

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Aug 30, 2009

हर बच्चा ज्ञान पा जाता है-हास्य कविता (child and knowledge -hindi hasya kavita)

आज के बच्चे
अपने माता पिता के बाल्यकाल से
अधिक तीक्ष्ण बुद्धि के पाये जाते
यह सच कहा जाता है।
किस नायिका का किससे
चल रहा है प्रेम प्रसंग
अपने जन्मदिन पर नायक की
किस दूसरे नायक से हुई जंग
कौन गायक
किस होटल में मंदिर गया
कौन गीतकार आया नया
कौनसा फिल्मी परिवार
किस मंदिर में करने गया पूजा
कहां जायेगा दूजा
रेडियो और टीवी पर
इतनी बार सुनाया जाता है।
देश का हर बच्चा ज्ञान पा जाता है।

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Aug 27, 2009

छह गल्तियां-हिंदी हास्य कविता (six merrige or mistake-hindi hasya kavita)

छह शादियां करने वाला
पकड़ा गया
पहरेदार उसे जब
हथकड़ियां लेकर जा रहे थे
तब एक हास्य कवि ने उनसे कहा
‘भई, इसे कैद में नहीं बल्कि
मनोचिकित्सक के पास ले जाओ।
यह बदमाश नहीं लगता क्योंकि
कभी एक के बाद एक छह
गल्तियां नहीं करता
यहां तो एक शादी में ही
मैं हास्य कवि बन गया
अपनी उस गलती पर
व्यंग्य कसने लग गया
दूसरी का विचार भी नहीं करता
इसने छह शादियां की हैं
इसका मतलब यह है कि
यह मानसिक रूप से अस्थिर है
पेशे से इंजीनियर
कमाता है कुल अस्सी हजार महीना
कैसे हो सकता है इसमें
छह बीबियों का खाना पीना
यहां तो करोड़पति भी
एक बार शादी जैसी गलती कर
फिर दूसरी की नहीं सोचता
इसे मानसिक चिकित्सा की जरूरत है
इस पर जरा तरस खाओ।

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Aug 10, 2009

नकली आंसू फूटे नहीं-हिंदी शायरी (naqli ansu-hindi shayri)

जिंदगी के सफर में
कई बार अपनों ने ही गिराया
फिर भी टूटे नहीं।
काम निकालकर भूल गये
फिर भी हम रूठे नहीं।
हमारे अरमानों को लगाई गयी आग
फिर भी अपने दूसरे के सपने फूंके नहीं।
कभी कभी लगता है
गलती दर गलती करते गये
लोगों को झूठे दर्द
अपने समझ कर सहते गये
पर फिर सोचते हैं कि
भला वह लोग भी तो
इतनी दगा के बावजूद
अपनी जिंदगी में उठे नहीं।
यूं ही खड़े हैं जिंदगी में
सलामत हैं हाथ पांव क्या यह कम है
जुटा लेते अपने लिये
हम भी नकली हमदर्द
पर इन आंखों से कभी नकली आंसू फूटे नहीं।

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Aug 8, 2009

नये इंसान के उड़ने की चाहत-हास्य व्यंग्य (insan ki chahat-hasya vyangya)

सर्वशक्तिमान ने एक नया इंसान तैयार किया और उसे धकियाने से पहले उसके सभी अंगों का एक औपचारिक परीक्षण किया। आवाज का परीक्षण करते समय वह इंसान बोल पड़ा-‘महाराज, नीचे सारे संसार का सारा ढर्रा बदल गया है और एक आप है कि पुराने तरीके से काम चला रहे हैं। अब आप इंसानों का भी पंख लगाना शुरु कर दीजिये ताकि कुछ गरीब लोग धनाभाव के कारण आकाश में उड़ सकें। अभी यह काम केवल पैसे वालों का ही रह गया।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘पंख दूंगा तो गरीब क्या अमीर भी उड़ने लगेंगे। बिचारे एयरलाईन वाले अपना धंधा कैसे करेंगे? फिर पंख देना है तो तुम्हें इंसान की बजाय कबूतर ही बना देता हूं। मेरे लिये कौनसा मुश्किल काम है?
वह इंसान बोला-‘नहीं! मैं इंसान अपने पुण्यों के कारण बना हूं इसलिये यह तो आपको अधिकार ही नहीं है। जहां तक पंख मिलने पर अमीरों के भी आसमान में उड़ने की बात है तो आपने सभी को चलने और दौड़ने के लिये पांव दिये हैं पर सभी नहीं चलते। नीचे जाकर आप देखें तो पायेंगे कि लोग अपने घर से दस मकान दूर पर स्थित दुकान से सामान खरीदने के लिये भी कार पर जाते हैं। ऐसे लोगों पर आपकी मेहरबानी बहुत है और पंख मिलने पर भी हवाई जहाज से आसमान में उड़ेंगे। मुद्दा तो हम गरीबों का है!’

सर्वशक्तिमान ने कहा-‘वैसे तुम ठीक कहते हो कि पांव देने पर भी इंसान अब उसका उपयोग कहां करता है पर फिर भी पंख देने से तुम पक्षियों का जीना हराम कर दोगे। अभी तो तुम उड़ते हुए पक्षी को ही गुलेल मारकर नीचे गिरा देते हो। फिर तो तुम चाहे जब आकाश में उड़ाकर पकड़ लोगे।’

उस इंसान ने कहा-‘ऐसा कर तो इंसान आप का ही काम हल्का करता है। वरना तो आपका यह प्रिय जीव इंसान हमेशा हीं संकट में रहेगा। इनकी संख्या इतनी बढ़ जायेगी कि इंसान भाग भाग कर आपके पास जल्दी आता रहेगा।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘अरे चुप! बड़ा आये मेरा काम हल्का करने वाले। वैसे ही तुम लोगों की वजह से हर एक दो सदी में अहिंसा का संदेश देने वाला कोई खास इंसान जमीन पर भेजना पड़ता है। वैसे तुम इंसानों ने वहां पर्यावरण इतना बिगाड़ दिया है कि नाम मात्र को पशु पक्षी भेजने पड़ते हैं। अधिक भेजे तो उनके लिये रहने की जगह नहीं बची है। सच तो यह है मुझे सभी प्रकार के जीव एक जैसे प्रिय हैं इसलिये सोचता हूं कि कुछ पशु पक्षी वहां मेरा दायित्व निभाते रहें। वह बिचारे भी मेरे नाम पर शहीद कर दिये जाते हैं इस कारण उनको अपने पास ही रखना पड़ता है। कभी सोचता हूं कि उनको दोबारा नीचे भेजूं पर फिर उन पर तरस आ जाता है। वैसे मैंने तुम इंसानों को इतनी अक्ल दी है कि बिना पंख आकाश में उड़ने के सामान बना सको।’
वह इंसान बोला-‘वह सामान तो बहुत है पर वहां पेट्रोल की वजह से एयर लाईनों में किराये बढ़े गये हैं और उसमें अमीर ही उड़ सकते हैं या आपके ढोंगी भक्त! गरीब आदमी का क्या?’

सर्वशक्तिमान ने कहा-‘गरीब आदमी जिंदा तो है न! अगर उसे पंख लगा दिये तो भी उड़ नहीं सकेगा। अभी गरीब आदमी को कहीं बैल की तरह हल में जोता जाता है और कहीं उसे घोड़े की जगह जोतकर रिक्शा खिंचवाया जाता है। अगर पंख दिये तो उसे अपने कंधे पर अमीर लोग ढोकर ले जाने पड़ेंगे। इंसान को इंसान पर अनाचार करने में मजा आता है और इस तरह तो गरीब पर अनाचार की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। वैसे तुम क्यों फिक्र कर रहे हो।
वह इंसान बोला-‘महाराज, मैं तो बस जिंदगी भर आकाश में उड़ना चाहता हूं।’
सर्वशक्तिमान ने कहा-‘अब तो बिल्कुल नहीं। तुम इंसानों को अक्ल का खजाना दिया है पर तुम उसका इस्तेमाल पांव से चलने पर भी नहीं कर पाते तो उड़ते हुए तो वैसे ही वह अक्ल कम हो जाती है। इतनी सारी दुर्घटनाओं के शिकार असमय ही यहां चले आते हैं और जब तक उनके दोबारा जन्म का समय न आये तब तक उनको भेजना कठिन है। उनसे पूरा पुराना अभिलेखागार भरा पड़ा है। अगर तुमको आकाश में उड़ने के लिये पंख दिये तो फिर ऐसे अनेक पुराने अभिलेखागार बनाने होंगे। अब तुम जाओ बाबा यहां से! कुछ देर बाद कहोगे कि सांप की तरह विष वाले दांत दे दो। अमीर तो अपनी रक्षा कर लेता है गरीब कैसे करेगा? जबकि उससे अधिक विष अंदर रहता ही है भले दांत नहीं दिये पर उसने तुम इंसान कहां चूकते हो।’
सर्वशक्तिमान ने उस जीव को नीचे ढकेल दिया।
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Aug 1, 2009

एक अलबेला कौवा, नारियों के लिये हौवा-हिंदी हास्य व्यंग्य (ek albela kauva-hindi hasya vyangya)

एक टीवी समाचार चैनल पर प्रसारित यह समाचार अत्यंत दिलचस्प था कि एक गांव में एक अलबेला कौवा नारियों को चोंच मारकर परेशान कर रहा है। हालांकि उसमें एक तरफ तो यह कहा जा रहा था कि नारियों को परेशान किया जा रहा है दूसरी तरफ कह रहे थे कि वह युवा नारियों को छेड़ रहा है। अलबत्ता खबर से यह लगा कि वह चैंच मारकर भाग जाता है।
दरअसल उस कौवे ने एक पेड़ पर अपने अंडे रखे हैं और उस मोहल्ले की लड़कियां जब वहां से निकलती हैं तो वह उन पर हमला कर भाग जाता है।
एक स्त्री कहना था कि ‘उसने उस पेड़ पर अपने अंडे रखे हैं और शायद वह इस डर से हमले करता है कि लड़कियां उसके अंडे न उठाकर ले जायें।’
वहां महिलायें परेशान होने के बावजूद उसे एक मनोरंजक घटना भी मान रहीं थी। मजे की बात यह है कि वह कौवा पुरुष वर्ग के बारे में निश्चित है कि वह उसके अंडे नहीं ले जायेंगे।
एक महिला ने कहा-‘अगर वह कोई लड़का होता तो उसकी शिकायत करते पर इस छिछोरे कौवे की भला कहां शिकायत की जा सकती है।’
कहने को तो सभी कौवे काले रंग के होते हैं पर उनमें कुछ मादा भी होती/होते हैं-यह हम अनुमान से कह रहे हैं क्योंकि हमारी जानकारी में ऐसी कोई बात नहीं आई कि कौवे समलैंगिक होते हैं। जब मादा होगी तभी तो उसे बच्चे पैदा होते होंगे। इंसानों की तरह पशु पक्षियों में भी नारी जाति बच्चे की रक्षा करने के लिये तत्पर रहती है। कुछ पशु पक्षियों के बारे में कहा जाता है कि अपने बच्चे को खतरा देखकर उनकी मादा खूंखार हो जाती है। जैसे बिल्ली के बारे में कहते हैं कि वह किसी आदमी से अपने बच्चे को खतरा देखती है तो उसकी आंखों में पंजे गाड़ देती है।
जिस तरह यह समाचार प्रसारित हो रहा था उसमें सनसनी कम मनोरंजन अधिक नजर आ रहा था। ऐसे मनोरंजक प्रसारण भी समाचारों की श्रेणी में आते हैं जो सीधे निर्मित होते हैं न कि फिल्मी या खेल के वह समाचार जो बनते हैं कमाई के लिये और उनका विज्ञापन मनोरंजन के नाम पर किया जाता है।
बहरहाल उस कौवा की चर्चा बहुत दिलचस्प लगी। आखिर वह नारी जाति पर के लिये हौव्वा क्यों रहा है? क्या पिछले जन्म में वह कोई ऐसा नर था जिसे नारी ने धोखा दिया। वैसे कौवे द्वारा नारियों को छेड़ने की यह पहली घटना नहीं है। इससे पहले इंद्रपुत्र जयंत ऐसी खुराफात भगवान श्रीराम जी की अर्धांगिनी श्रीसीता जी से कर चुका है जिसमें उसने अपनी आंख गंवा दी थी। संभव है कि यह कौवा फिर प्रकट हुआ हो पर अब यहां इस धरती पर श्रीराम जैसा कोई चरित्र तो है नहीं जो उसकी दूसरी आंख निकाल सके। फिर जैसे वह चैदह पंद्रह वर्ष की युवतियों को छेड़ रहा है उससे यह भी संदेह हो रहा है कि वह उस इतिहास को पढ़ चुका है या स्वयं संबद्ध रहा है इसी कारण जिस युवती के पीछे पति रूपी रक्षक न हो उन्हीं पर अपनी चैंच संभवतः गड़ा रहा है।
बहरहाल इस तरह दूसरे कौवे भी करने लगे तो महिलाओं के लिये परेशानी और मनोरंजन दोनों ही होगा ं। कहते हैं कि झूठ बोले कौवा काटे! अगर दूसरी महिला को काट गया तो कह सकती हैं कि देखो झूठ बोलती होगी।’
खुद को काट जाये तो फिर सोचती होंगी-हाय! मैं तो कभी नहीं झूठ बोलती!’
मगर जमाने का क्या? वह तो यही कहेगा कौवा काट गया तो इसका मतलब यही है कि झूठ बोलती होंगी।’
वैसे दूसरे कौवे भी यह करने लगें तो आश्चर्य नहीं होगा। हो सकता है कि वह कौवा पूर्वाभ्यास कर रहा हो। आजकल झूठ बोलने का रिवाज बढ़ गया है। कौवा किसी को काट नहीं रहा है। ऐसे में समस्त कौवों को अपनी छबि की चिंता होगी। इसलिये संभव है कि वह कौवा अपनी जाति का दूत होकर विचर रहा हो कि देखें मनुष्य की तरफ से किस तरह की प्रतिक्रिया होती है। वह अपना प्रतिवेदन कौवा महासम्मेलन में प्रस्तुत कर सकता है और फिर उसके निष्कर्षों के आधार पर बाकी कौवे भी सक्रिय हो जायें तो कोई आश्चर्य नहीं है।
आजकल मोबाइल आ गया है। लोग अधिक ही झूठ बोलते हैं।
लड़की ने मोबाईल उठाया। बात की और रख दिया। मां ने पूछा-‘किसका फोन था?’
‘फैंड्स का था-’कहीं भी ऐसा जवाब सुनने को मिल सकता है।
अब यह फैं्रड्स लड़का भी हो सकता है और लड़की भी! मां यह सोचकर चुप हो जाती है कि ‘लड़की का होगा’। लड़कीे चालाकी दिखाती है। उसने मां से झूठ न बोलकर अपने दिल को तसल्ली दी कि ‘मां से झूठ नहीं बोलकर मैंने अपना धर्म निभाया।’
यही स्थिति लड़के की भी है। फोन उठाता है। बात कर मोबाइल अपने हाथ पकड़ कर चल देता है। बाप पूछता है कि-‘कहां जा रहे हो?’
‘फैं्रड्स से मिलने।’यह भी जवाब अक्सर सुनने को मिलता है।’
अभी तक माता पिता यही मानकर चलते हैं कि वह समलैंगिक मित्र से मिलने जा रहा है-हालांकि इसका आशय अभी तक अच्छा था पर आगे यह बुरा लगने लगेगा। जो पाठक इस पाठ को पचास वर्ष बाद पढ़ें तो यह बात ध्यान रखें कि समलैंगिक से आशय केवल इतना ही है कि लड़का अपने मित्र लड़के और लड़की अपनी सहेली से केवल वार्तालाप करने जा रही है। पचास वर्ष बाद तो समलैंगिक शब्द ही खतरनाक होने वाला है यह हमें आज ही पता है।
आप सोच रहे होंगे कि लड़के भी झूठ बोलते हैं तो कौवा उनको शायद नहीं काटेगा तो यह भ्रम भी निकला दीजिये। इसी कार्यक्रम में एक दूसरे कौवे का जिक्र भी था जिसमें वह एक ग्रामीण को परेशान कर रहा है। वह ग्रामीण तमाम तरह के तंत्र मंत्र कर चुका है पर वह कौवा उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है। यह कौवा बड़ा चालाक पक्षी है। यह तो पता नहीं कि दोनों घटनाओं में वह झूठ बोलने के कारण हमले कर रहा है या नहीं पर हो सकता है कि यह केवल अभ्यास हो बाद में कौवा जाति केवल झूठ बोलने वालों पर ही हमला करे।
दरअसल यह कौवा इस देश में ही इसलिये बचा हुआ है कि अभी भी इस देश में पुरानी अध्यात्मिक वृत्ति के लोग अधिक हैं। अगर देश से कहीं बाहर होता तो अभी तक दोनों कौवों को मारकर उनका मांस खा लिया जाता। तिस पर नारी जाति पर आंख डालने पर तो पूरी कौवा कौम ही मिटा दी जाती। हमारा अध्यात्मिक दर्शन सभी प्रकार के जीवों के साथ सहिष्णुता से जीना सिखाता है पर यह सभी जगह नहीं है। बाकी जगह तो इंसान के लिये पशु पक्षी क्या दूसरे ऐसे इंसान को भी मिटा दिया जाता है जो समूह के कायदे और कानून नहीं मानता या विद्रोह करता है।
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Jun 28, 2009

बर्बर और रहबर-व्यंग्य कविता

कहीं दूर पहाड़ी के पार
होने का दावा करते
कहीं कागज पर चित्र खींचकर दिखाते
वह ख्याली बर्बर इंसान का खौफ
आम आदमी के मन में बिठाते।
अपना नाम इसी तरह
रहबरों में लिखाते।

इतिहास में बही खूनी नदियां
बीत गयी अनेक सदियां
पर वह अभी भी
कलम से कागज पर लिखवाते
इसी तरह जमाने को
अपनी रहबरी का कमाल दिखाते।

कहीं तलवार फहराते
कहीं कलम लहराते
मकसद से परे निशाना लगाते
जंग में अमन का रास्ता ढूंढना सिखाते।

उनके अल्फाजों से
जो बहका
वह अपने रास्ते से भटका
जिंदा रहा तो भीड़ में भेड़ की तरह
मरा तो शहीद दिखाते।

धरती पर पैदा इंसान
बनता न हैवान
तो फरिश्ता बनने का
मौका वह कैसे पाते
इसलिए बर्बरों की तस्वीर सजाकर
वह अपनी रहबरी दिखाते।

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Jun 21, 2009

प्यार के शिकार का दर्द-हिंदी शायरी

ढूंढ रहे हैं बाज़ार में
किसी भाव भी किसी का दिल मिल जाए.
प्यार वह शय है
जो हर बाज़ार में बिकती है
मगर खरीद फरोख्त
मुफ्त में होती दिखती है
चेहरे पर भले नकली चमक हो
जेब में भले ही छोटे सिक्कों की खनक हो
किसी को नीयत और असलियत की न भनक हो
जाल बिछाकर बैठो
भटके दिमाग और खाली दिल
शिकार की तरह चले आयेंगे
अपना प्यार लुटाएंगे मुफ्त में
भले ही फिर उनका मज़ाक बन जाए.
तुम तो ठहरे शिकारी
भला कौन तुम्हें
प्यार के शिकार का दर्द समझाए.

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May 9, 2009

ओ! उदास रहने वालों-हिंदी शायरी

उदास मन है जमाने के
क्योंकि लोग खुशी बांटते नहीं हैं
अपने गमों का पिटारा खोले बैठे है सभी
खुश होने के अपने इरादे बांधते नहीं है।

बंद कर लिये हैं दरवाजे सोच के
दूसरे के दर्द पर हमदर्द बनना तो दूर
उसके दिल के दरवाजे पर झांकते नहीं है।

हारे हुए लोग ढूंढ रहे हैं
अंधेरों में खुशी के चिराग
ठंडा है शरीर पर
दिल में लगी है आग
अपनी खुशी को छिपाने की कोशिश
न हों फिर भी गम दिखाने की कोशिश
बांटते नहीं अपनी खुशी जमाने में हवा की तरह
एक झौंका बहकर कितने लोगों को
खुश कर सकता है जानते नहीं है।

ओ हमेशा उदास रहने वालों
बुरी खबरें तो अक्सर आती है
फिर भी देखते रहो उसमें कहीं अच्छी तो नहीं है
बनाये रखे अपना मनोबल
उससे अधिक ताकत किसी में नहीं है

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Apr 6, 2009

अनुभूति के रस का प्रवाह-हिंदी शायरी

प्यार अगर कहीं उगता तो
बरसता हर सावन में
महकता हर बसंत में
हर पल
हर जगह जमीन पर छितरा जाता।
हाथ से पकड़ा न जाये
आंख से देखा न जाये
कान से सुनना है कठिन
मूंह से चूसा न जाये
इंसान के रक्त में
अनुभूतियों के रस का प्रवाह न हो
तो प्यार की पहचान नहीं हो सकती
दिल के अहसास में प्यार अपनी जगह बनाता।
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Mar 28, 2009

विरह में हास्य कवितायेँ लिखता हूँ- (हास्य-व्यंग्य)

व्यंग्य कवि उस दिन एक पार्क में घूम रहा था तो उसकी पुरानी प्रेमिका सामने आकर खडी हो गयी। पहले तो वह उसे पहचाना ही नहीं क्योंकि वह अब खाते-पीते घर के लग रही थी और जब वह उसके साथ तथाकथित प्यार (जिसे अलग होते समय प्रेमिका ने दोस्ती कहा था) करता था तब वह दुबली पतली थी। ब्लोगर ने जब उसे पहचाना तो सोच में पड़ गया इससे पहले वह कुछ बोलता उसने कहा-''क्या बात पहचान नहीं रहे हो? किसी चिंता में पड़े हुए हो? क्या घर पर झगडा कर आये हो?"
''नहीं!कुछ लिखने की सोच रहा हूँ।''व्यंग्य कवि ने कहा।

''मुझे पता है कि तुम हमेशा कुछ न कुछ पर लिखते हो। मेरे प्यार ने तुमको कवि बना दिया था. एक उस दिन तुम्हारी पत्नी से भेंट एक महिला सम्मेलन में हुई थी तब उसने बताया था। मैंने उसे यह नहीं बताया कि हम दोनों एक दूसरे को जानते है।वह चहकते हुए बोली-''क्या लिखते हो? मेरी विरह में कवितायेँ न! यकीनन बहुत हिट होतीं होंगीं।'
व्यंग्य कवि ने सहमते हुए कहा-''नहीं हिट तो नहीं होतीं फ्लॉप हो जातीं हैं। वैसे अब मैं श्रृंगार रस में लिखने वाला कवि नहीं रहा बल्कि हास्य कवि बन गया हूँ और विरह में व्यंग्य और हास्य कवितायेँ लिखता हूँ. दूसरी बात यह है मैं तुम्हारी याद में नहीं बल्कि वह अपनी दूसरी प्रेमिका की याद में श्रंगार रस से लबालब कवितायेँ लिखता हूँ।''
''धोखेबाज! मेरे बाद दूसरी से भी प्यार किया था। अच्छा कौन थी वह? वह मुझसे अधिक सुन्दर थी।''उसने घूरकर पूछा।
''नहीं। वह तुमसे अधिक खूबसूरत थी, और इस समय अधिक भी ही होगी। वह अब मेरी पत्नी है। व्यंग्य कवि ने धीरे से उत्तर दिया।
प्रेमिका हंसी-''पर तुम्हारा तो उससे मिलन हो गया न! फिर उसकी विरह में क्यों लिखते हो?'
''पहले प्रेमिका थी, और अब पत्नी बन गयी पर उसके प्रेम में कभी कभी श्रृंगार रस से डूबी कवितायेँ लिखता हूँ,''व्यंग्य कवि ने कहा।
पुरानी प्रेमिका ने पूछा -''अच्छा! मेरे विरह में क्या लिखते हो?"
''हास्य कवितायेँ लिखता हूँ।" व्यंग्य कवि ने डरते हुए कहा।

''क्या"-वह गुस्से में बोली-''मुझ पर हास्य लिखते हो। तुम्हें शर्म नहीं आती। अच्छा हुआ तुमसे शादी नहीं की। वरना तुम तो मेरे को बदनाम कर देते। आज तो मेरा मूड खराब हो गया। इतने सालों बाद तुमसे मिली तो खुशी हुई पर तुमने मुझ पर हास्य कवितायेँ लिखीं। ऐसा क्या है मुझमें जो तुम यह सब लिखते हो?'
व्यंग्य कवि सहमते हुए बोला-"मैंने देखा की एक दिन तुम्हारे पति का उस दिन कार के शोरूम पर झगडा हो रहा था जहाँ से उसने वह खरीदी थी। कार का दरवाजा टूटा हुआ था और तुम्हारा पति उससे झगडा कर रहा था। मालिक उसे कह रहा था कि''साहब। कार बेचते समय ही मैंने आपको बताया था कि दरवाजे की साईज क्या है और आपने इसमें इससे अधिक कमर वाले किसी हाथी रुपी इंसान को बिठाया है जिससे उसके निकलने पर यह टूट गया है और हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं हैं। तुम्हारा पति कह रहा था कि'उसमें तो केवल हम पति-पत्नी ने ही सवारी की है', तुम्हारे पति की कमर देखकर मैं समझ गया कि...............वहाँ मुझे हंसी आ गई और हास्य कविता निकल पडी। तब से लेकर अब जब तुम्हारी याद आती है तब......अब मैं और क्या कहूं?''
वह बिफर गयी और बोली-''तुमने मेरा मूड खराब किया। मेरा ब्लड प्रेशर वैसे ही बढा रहता है। डाक्टर ने सलाह दी कि तुम पार्क वगैरह में घूमा करो। अब तो मुझे यहाँ आना भी बंद करना पडेगा। अब मैं तो चली।"
व्यंग्य कवि पीछे से बोला-''तुम यहाँ आती रहना। मैं तो आज ही आया हूँ। मेरा घर दूर है रोज यहाँ नहीं आता। आज कोई व्यंग्य का आइडिया ढूंढ रहा था, और तुम्हारी यह खुराक साल भर के लिए काफी है। जब जरूरत होगी तब ही आऊँगा।''
वह उसे गुस्से में देखती चली गयी। व्यंग्य कवि सोचने लगा-''अच्छा ही हुआ कि मैंने इसे यह नहीं बताया कि इस पर मैं उसकी विरह में बड़े हास्य व्यंग्य भी लिखता हूँ। नहीं तो और ज्यादा गुस्सा करती।''
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Mar 16, 2009

जब शब्द हो जाता है शय-व्यंग्य कविता

दर्पण हो पूरे समाज का ऐसा साहित्य लिखता कौन है।
इनामों के ढेर बंटते हैं, ढेर की तरह खड़े शब्दों का अर्थ मौन है।।

कहानी, कविता, व्यंग्य और निबंध में छाये हैं वही चरित्र
बाजार में छाये हैं जिनके चेहरे, पर उनसे ऊबता कौन है।।

भड़के हुए लगते हैं शब्द, पर अर्थ है समझ से परे
बाजार में जो बिका वही हुआ प्रसिद्ध, घर में रहा वह मौन है।।

तौल तौल कर लिखना, बोल बोलकर का खुद ही बड़ा दिखना
बिकने के लिये लगी गुलामी की दौड़, आजादी चाहता कौन है।।

फिर भी यह सच है कि बाजार में बिका आखिर सड़ जाता है
जब शब्द हो जाता शय, उसका भाव हो जाता मौन है।।

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Mar 8, 2009

चमन में कांटो की भीड़ भी होती-व्यंग्य कविता

इश्क एक इबादत होता
गर उसमें खता और बेवफाई नहीं होती।
पर उनके बिना नीयत की
आजमायश भी कैसे होती।
जब इश्क जुनून बन जाता है
तब दुनियांदारी का इल्म नहीं होता
पर महबूब के कदम चलना तो
इस जमीन पर ही हैं
जहां फूलों से खिले
चमन में कांटों की भीड़ भी होती।
................................
औरत की आजादी का हक
मांगते हैं शादी की बेडि़यों में।
मांस को नौचने की बजाय
सहलाने की बात करते हैं भेडि़यों में।
रस्म रिवाज से दूर रहने का देते फतवा
नये जमाने को नारों से कर लिया अगवा
आदमी को शेर से बकरा बनाने का सपना
औरत का हथियार बनाकर
दुनियां में चला रहे सिक्का अपना
तरक्की पसंदों की बात कौन समझ पाया
पुरानी रस्में उन्हें कभी नहीं भाती
पर शादी की कसमें निभाने की याद आती
सोचते आगे और देखते हैं पीछे
आसमान से करते नफरत, ताकते हैं नीचे
दिमाग दौड़ाते आगे, ख्याल बांध कर बेडि़यों में।

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Mar 1, 2009

दवाईयों की सेल का पता नहीं बताया-हास्य व्यंग्य कविता

‘सेल में जाकर खरीदने का शौक
एक बहुत बड़ा मनोरोग है’
डाक्टर ने महिला को बताया
दवाईयों का पर्चा भी हाथ में थमाया

बिना दवा लिये महिला घर लौटी
पति के पूछने पर बताया
‘डाक्टर भी कैसा अनपढ़ और अनगढ़ था
भला एक दिन में भी कोई
बीमारी दूर होती है
मैंने रास्ते भर छान मारा
दवाईयों की दुकानें तो बहुत थीं
पर सेल का बोर्ड कहीं नजर नहीं आया
आप ही जाकर पता करना
सेल में दवायें कहां मिलती हैं
तो खुद ही ले आऊंगी
आप दुकान से ले आये या सेल से
यकीन नहीं कर पाऊंगी
उसके यहां भीड़ बहुत थी
पर सेल कहीं नहीं लिखा था
अधिक मरीजों को कारण
उसकी अस्पताल का माहौल वैसा ही दिखा था
बीमारी देखी और दवाई लिख दी
पर दवाईयों की सेल का पता नहीं बताया

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Feb 23, 2009

पहले लिखा तो अब क्या लिखते-व्यंग्य आलेख

अब ऑस्कर पर हम क्या लिख सकते हैं? पहले ही एक नहीं तीन तीन आलेख और पता नहीं कितनी हास्य कवितायें लिख कर ठेल दी। एक मित्र ने फोन पर पूछा-‘आज आस्कर पर कुछ लिख रहे हो क्या? मुझे पता है तुम उस पर आज जरूर कुछ लिखोगे। आखिर स्लमडाग को ऑस्कर अवार्ड मिला है।
हमने पूछा-‘बोल कहां से रहे हो?
उसने कहा-‘तुम्हें पता तो होगा कि आज महाशिवरात्रि है? तुमने भी आज सुबह अपने एक ब्लाग पर लिखा है। हम भी यहां मंदिर के बाहर खड़े हैं। नयी मोटर साइकिल है उसकी देखभाल कर रहे है। वैसे यह तो बहाना है वरना यहां स्टेंड भी पर भीड़ में जाकर लाईन में लगने की इच्छा नहीं थी सो पत्नी से कह दिया है कि वह दर्शन कर आये। यहां खाली खड़े थे तो सोचा तुमसे बतिया लें। पूछ लें कि आज ऑस्कर अवार्ड पर कुछ लिख रहे हो क्या?
हमने कहा-‘मित्र तुम हो किस मंदिर पर? यहां एक नहीं चार पांच प्रसिद्ध मंदिर हैं। हम भी एक मंदिर के बाहर ही खड़े हैं और अपनी गाड़ी को शुरू कर चलने वाले हैं।’
इधर हमारी नजर अपने मित्र पर पड़ गयी। हमने गाड़ी वहीं खड़ी की और उसके पास पहुंच गये। वह चैंक गया तो हमने कहा-‘तुम अंदर दर्शन करने जाओ। हम तुम्हारी गाड़ी देख लेते हैं। अर,े कम से कम आज तो अपने भगवान के प्रति समर्पण दिखाओ। यह क्या स्लमडाग स्लमडाग लगा रखी है। वैसे हम इस विषय पर पहले ही लिख चुके हैं।
मित्र ने कहा-‘कुछ ताजा लिखो। उसी में मजा आता है।
हमने कहा-‘देखो लेखक भी दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो इलाज करते हैं दूसरे जो पोस्टमार्टम करते हैं। हम पहली वाली श्रेणी के हैं। इस विषय पर हमारा लिखा क्या तुमने पढ़ा नहीं।’
मित्र ने कहा-‘हां, पढ़ा है। एक तो तुमने लिखा था कि ऑस्कर मिलने से कोई फिल्म दीवार और अभिनेता अमिताभ बच्चन तो नहीं बन जाता। दूसरा तुमने अमिताभ बच्चन के इस बयान को भी लिखा था कि आॅस्कर कोई बड़ी चीज नहीं है। मगर यह सब तो पहले की चीज थी।
हमने कहा-‘वही तो हम कह रहे हैं कि हम पहली श्रेणी के ब्लाग लेखक हैं अब दूसरी वाली श्रेणी के ब्लाग लेखक लिखेंगे उनको पढ़ लेना। कोई घटना होती है तो उसके कारणों से अधिक हम भविष्य की संभावनाओं और परिणामों का विश्लेषण करते हैं कारणों का नहीं। इस घटना के साथ देश की कोई संभावना नहीं जुड़ी है इसलिये इस पर क्या लिखें?
मित्र ने कहा-‘यार इतनी बड़ी घटना पर कुछ तो तुम्हें लिखना चाहिये। यह कोई राजनीतिक विषय तो है नहीं जो इस पर लिखने से कतरा रहे हो।’
हमने कहा-‘हमें तो यह एक राजनीतिक और व्यवसायिक विषय ही लगता है। इतना बड़ा भारत, उसमें एक बड़ा शहर और उसमें भी एक कोई बस्ती के कल्पित पात्र की कहानी पर बनी एक फिल्म वह भी विदेशी ने बनायी उस पर क्या लिखा जा सकता है? खासतौर से जब फिल्म कब भारत में आयी और चली गयी। चल रही है कि नहीं। वैसे तुमने यह फिल्म देखी थी?
उसने कहा-‘नहीं, वैसे भी हम कहां फिल्में देख पाते हैं। हां, कभी कभी किसी फिल्म की अच्छी वाली सीडी आती है तो उसे जरूर देख लेता हूं। वैसे भी यार इतने सारे काम रहते हैं फिर टीवी पर भी बहुत सारे सीरियल दिखते हैं। कभी कभी लाफटर शो भी देख लेता हूं। इतने सारे मनोरंजन में कहां फिल्मों का ध्यान रह पाता है?
हमने कहा-‘यही वास्तविकता है। आज की दुनियां में मनोरंजन का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि उसमें किसी एक फिल्म पर बहुत समय तक लोग नजर नहीं रख पाते। पहले तो यह कहा जाता था कि भारत के फिल्म उद्योग में नंबर वन का खिताब हर शुक्रवार को नयी फिल्म प्रदर्शित होते ही बदल जाता है पर आजकल तो कुछ ही घंटों में यह काम होता है। यह अलग बात है कि टीवी और अखबार वालों के लिये अब पंद्रह दिन का मसाला मिल गया। पिछले एक महीने से इस विषय को घसीट रहे हैं पर कोई घ्यान नहीं दे रहा। अब सभी लोग शायद ढूंढ लेंगे अपने लिये कुछ नये चेहरे अपने प्रचार और विज्ञापन के लिये।’
मित्र ने हंसते हुए कहा-‘हमें भी अभी तक तुम्हारी वजह से ध्यान रहा था। इसलिये तुम्हें फोन किया वरना कहां याद रहता। आज समाचार देखे थे तो आॅस्कर कम तुम्हारे लिखने की याद अधिक आयी। इसलिये पूछ लिया।

बहरहाल हमारे मित्र और हम फिर अन्य विषयों पर कुछ देर चर्चा करने के बाद विदा हुए। अभी आकर घर पर अन्य ब्लाग देखे तो अनेक लोगों ने इस पर लिखा है पर हमारा मन नहीं हुआ। इस फिल्म के साथ भारत की कहानी और अभिनेता जुड़े हुए हैं पर मूलतः यह विदेशी फिल्म है। फिल्म हमेशा निर्देशक की मानी जाती है इसलिये इसे भारत की कहना तो गलत ही होगा। मगर भारत के प्रचार माध्यमों के लिये एक ऐसा विषय मिल गया है जिस पर वह बहुत समय तक कार्यक्रम चला सकते हैं। सच बात तो यह है कि जहां सृजनशीलता के लिये काम होना चाहिये वहां उधार के विषय पर काम चलाया जा रहा है। अपनी तरफ से नये विषय प्रस्तुत करने में मेहनत लगती है या पैसा खर्च होता है। मेहनत करने वाले तो कर भी लें पर उनपर पैसा खर्च करने वाले इसके लिये तैयार नहीं है। इस फिल्म के संगीतकार ए.आर. रहमान बहुत प्रसिद्ध हैं। उनकी काबलियत पर कोई संदेह उठाना नहीं चाहिये पर सच बात तो यह है कि उनको प्रचार बहुत अधिक मिलता रहा है जबकि आम भारतीय उनके संगीत का उतना प्रशंसक कभी नहीं रहा जितना बताया जाता रहा है। हालांकि उनके संगीत से सजे अनेक गाने हमें बहुत पंसद आते हैं पर इस तरह तो बहुत से गाने हम सुनकर आनंद उठाते हैं। उनको इस अवसर पर बधाई देते हमें प्रसन्नता अवश्य हो रही है क्योंकि वह एक सामान्य परिवार के होते हुए भी इतनी ऊंचाई पर पहुंचे। फिर उन्होंने ऑस्कर में अपना भाषण तमिल में दिया। प्रसंगवश हमने स्लगडाग और पिंकी दोनों फिल्में नहीं देखी पर इधर उधर उनकी कहानियों के बारे में पढ़ा और उसमें पिंकी की कहानी पसंद आयी।

सो बहुत सोच विचार कर भी हम ऑस्कर पर कुछ नहीं लिख पाये। सच बात तो यह है कि किसी विषय पर जब आप दो तीन बार लिख जाते हैं तो वह विषय पुराना लगता है। फिर इस पुरस्कार में भारत के लिये प्रशंसा, प्रेरणा या प्रोत्साहन जैसी कोई बात नहीं है इसलिये भी हमारे लिखने का कोई आईडिया नहीं बन पाया। जहां तक दोनों फिल्म की कहानियों की बात है तो संपूर्ण भारत का प्रतिबिंब उसमें नहीं है। अगर गरीबों के संघर्ष कर विजयी होने की बात करें तो बहुत सारी कहानियां देश में हैं। यह जरूरी नहीं है कि गरीब हमेशा गंदी बस्तियों में रहते हैं-बड़े शहरों में यह होता होगा यह अलग बात है। अगर आप किसी नयी बनती काॅलोनी में रहते हैं तो अपने आसपास मजदूर परिवारों का संघर्ष, उनके दुःख और खुशियों के तौर तरीकों पर बहुत कुछ लिख सकते हैं। यह अलग बात है कि अगर पूर्वाग्रह पाल कर देखें तो वह हमेशा दुःखी ही दिखाई देंगे पर अपनी छोटी दुनियां में वह खुशियां भी मनाते हैं और इसके लिये किसी से याचना नहीं करते। शायद मध्यम वर्गीय शहरों के गरीबों पर रोचक कहानियां न लिखे जाने का कारण यह भी हो सकता है कि वह झौंपड़ी में तो रहते हैं पर उनकी बस्तियां गंदी नहीं होती। प्रसंगवश यहां अपनी लिखी एक पुरानी कविता याद आयी जो प्रस्तुत है।
दिन भर ईंट, पत्थर और
सीमेंट के मसाले का तस्सल सिर
पर रखकर ढोती वह औरत
रात्रि में प्लास्टिक की छत से ढंकी
झौंपडी के बाहर आंगन में
बबूल की लकड़ी से
अग्नि जलाकर
उस पर रोटी सेंकती वह औरत

सुबह चाय बनाते हुए
अपने बच्चे को
गोद में बैठाकर
बडे स्नेह से
मुस्कान बिखेरती
और दूध पिलाती वह औरत

अपने अनवरत संघर्ष से
इस सृष्टि में जीवन को ही
सहजता से जीवनदान देती
चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती
अपनी शक्ति और सामर्थ्य का
प्रतीक है वह औरत

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Feb 15, 2009

मन के ख्यालों से बनते है प्यार के जज्बात-हिन्दी शायरी

मन में प्यास थी प्यार की
एक बूंद भी मिल जाती तो
अमृत पीने जैसा आनंद आता
पर लोग खुद ही तरसे हैं
तो हमें कौन पिलाता

स्वार्थों की वजह से सूख गयी है
लोगों के हृदय में बहने वाली
प्यार की नदी
जज्बातों से परे होती सोच में
मतलब की रेत बसे, बीत गईं कई सदी
कहानियों और किस्सों में
प्यार की बहती है काल्पनिक नदी
कई गीत और शायरी कही जातीं
कई नाटकों का मंचन किया जाता
पर जमीन पर प्यार का अस्तित्व नजर नहीं आता

गागर भर कर कभी हमने नहीं चाहा प्यार
एक बूंद प्यार की ख्वाहिश लिये
चलते रहे जीवन पथ पर
पर कहीं मन भर नहीं पाता

जमीन से आकाश भी फतह
कर लिया इंसान
प्यार के लिये लिख दिये कही
कुछ पवित्र और कुछ अपवित्र किताबों
जिनका करते उनको पढ़ने वाले बखान
पर पढ़ने सुनने में सब है मग्न
पर सच्चे प्यार की मूर्ति हैं सभी जगह भग्न
लेकर प्यार का नाम सब झूमते
सूखी आंखों से ढूंढते
पर उनकी प्यास का अंत नजर नहीं आता
प्यार कोई जमीन पर उगने वाली फसल नहीं
कारखाने में बन जाये वह चीज भी नहीं
मन में ख्यालों से बनते हैं प्यार के जज्बात
बना सके तो एक बूंद क्या सागर बन जाता
पर किसी को खुश कोई इंसान नहीं कर सकता
इसलिये हर कोई प्यार की एक बूंद के
हर कोई तरसता नजर नहीं आता

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Jan 29, 2009

पता नहीं यह भ्रम है कि सत्य-व्यंग्य

इस देश में भ्रम भी सच की तरह बिकता है यह तो बहुत समय से देखते आ रहे है पर इस कदर विवेकवान और पढ़े लिखे लोग भी वाद और नारों की बाढ़ में बह सकते हैं यह कभी सोचा नहीं था। टीवी चैनल,अखबार और अंतर्जाल पर कई ऐसी घटनाओं की विवेचना देखता हूं जो यथार्थ से परे केवल कल्पना या झूठ पर आधारित होती हैं।

बात शुरु करें ‘चक दे इंडिया फिल्म से’। उसका गाना बहुत हिट हुआ और जहां देखों वही गाना बज रहा है। फिल्म में दिखाया गया था कि भारत की महिला टीम विश्व कप विजेता बन जाती है। ऐसा कभी नहीं हुंआ पर फिल्म पर ऐसी बहस हो रही थी जैसे कि कोई वास्तविक घटना हो। सच बात तो यह है कि भारत ने पिछले पच्चीस वर्ष में किसी भी खेल में विश्व कप नहीं जीता था पर लोग ऐसे झूम रहे थे कि गोया कि वास्तव में भारत ने विश्व कप जीत लिया हो। उस दौरान कहीं भारतीय क्रिकेट टीम कोई मैच जीत लेती थी तो बस यही गाना बजता था। भारतीय क्रिकेट टीम 1906 में जब विश्व खेलने जा रही थी तब उसके ऐसे प्रचार हुआ कि जैसे वह विश्व कप जीत कर लाई हो।

अभी हाल ही में स्लमडाग मिलेनियर फिल्म बनी है। वह एक काल्पनिक कथा है-और गरीब लड़के के अमीर बनने की अनेक कहानियों पर हमारे देश में फिल्म बनी है- पर इस फिल्म पर ऐसे बहस हो रही है जैसे कि वास्तव में कोई गंदी बस्ती का लड़का अमीर बन गया हो।
हमारे देश में ‘फिल्मों’’ और उर्दू शायरों ने इश्क को ऐसी आराधना के रूप में स्थापित किया है जिसमें एक स्त्री पुरुष का प्रेम ही इस सृष्टि का अंतिम बताया जाता है। इसमें स्त्री को तो जीवन में एक बार वह भी युवावस्था में ही प्रेम करने की इजाजत है पर पुरुष को बाल बच्चे और पत्नी जीवित रहते हुए दूसरा विवाह करने की इजाजत है। उमर का पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है।
वैसे तो दुनियां कोई भी धर्म अपनी स्त्री को एक विवाह करने की इजाजत देता है पर पुरुष के लिये कोई बंधन नहीं है। हां, कुछ देशों ने ऐसे कानून बनाये हैं जिसमें किसी धर्म विशेष के पुरुषों को एक ही विवाह करने की इजाजत है। अपने देश में ही केवल एक ही धर्म के लोगों को चार विवाह करने की छूट है पर बाकी धर्म वालों की इसकी इजाजत नहीं है। ऐसे में हुआ यह है कि फिल्मों के एक दो अभिनेताओं ने धर्म बदल कर पहली पत्नी को तलाक दिये बिना ही दूसरा विवाह कर लिया। बस उससे देश में ऐसी परंपरा शुरु हुई। प्रचार माध्यमों में सक्रिय लोग स्त्रियों के कल्याण के लिये बहुत सक्रिय रहते हैं पर इश्क ही है इबादत के नारे में वह ऐसे लोगों का समर्थन करते हैं जो अपनी पत्नी को बेसहारा छोड़कर दूसरी के साथ हो जाते हैं। तब इन प्रचार माध्यमों को बस इश्क दिखाई देता है। आदमी की पहली पत्नी तो उनके लिये परिदृश्य मे रहने वाली एक निर्जीव वस्तु की तरह हो जाती है।

अभी कुछ दिनों पहले ही एक घटना हुई थी जिसमें आदमी ने धर्म बदलकर दूसरा विवाह कर लिया। उसकी पत्नी और युवा बच्चे भी हैं पर प्रचार माध्यम और बुद्धिजीवियों ने इस इश्क की कथित दास्तान पर खूब लिखा। समाज को हजारों गालियां दी। उस आदमी के पूरे परिवार को इश्क का दुश्मन बताया तब यह भी विचार नहीं किया कि उसकी पहली पत्नी और बच्चों के मन पर ऐसे प्रचार से क्या गुजरेगी? अब सुनने में आया कि उस आदमी की दूसरी पत्नी ने आत्महत्या का प्रयास किया। ऐसे में कुछ बुद्धिजीवी और लेखक -जिसमें महिलायें भी शामिल हैं-फिर इस बात पर बहस कर रहे हैं कि किस तरह एक स्त्री पूरे समाज से संघर्ष कर रही है-वह उनके लिये लिये नायिक बन गयी है। सभी उसे क्रांतिकारी साबित करने में लगे हैं पर पहली पत्नी और बच्चों के जीवन पर प्रकाश उालने के लिये न तो उनके पास शब्द हैं और न ही समय। गनीमत है किसी ने उनको खलनायक बनाने का प्रयास नहीं किया। अगर इस तरह प्रकरण चला तो हो सकता है कि प्रचार माध्यम इश्क को पवित्र बनाने के लिये पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक ही घोषित करने वाली कहानियां बनाने लगें।

भई, हम तो कहते हैं कि अगर इतना ही इश्क का मोह है तो क्यों नहीं यह मांग करते हो कि सभी धर्मो में स्त्री पुरुषों को चाहे जब शादी और तलाक लेने के लिये आसान या बिना तलाक लिये दोनों प्रकार के जीवों-मनुष्यों में स्त्री पुरुष के लिये ही कानून बनते हैं- को ही चाहे जितने विवाह करने का कानून बनाया जाये। अगर स्त्री को अधिक अधिकार नहीं देना तो सभी धर्मों के पुरुषों को ही अधिक विवाह की आजादी देने की मांग तो की ही जा सकती है। इश्क को इबादते मानने वाले ऐसे कानून का विरोध यह कहकर करेंगे कि इससे तो दूसरा विवाह करने वाले पुरुष की स्त्रियां असहाय हो जायेंगी? तुब उनके इश्क का नारा छोड़कर वह प्रगतिवाद का विषय पकड़ने लगते हैं मगर जिस आदमी ने धर्म बदल कर दूसरा विवाह किया है उसकी पहली पत्नी का क्या? तब वह फिर इश्क तो इश्क है के नारे लगाने लगेंगे।
मजे की बात यह है कि पुरुष बुद्धिजीवी और लेखक ही नहीं महिलायें भी दूसरी बीबी के समर्थन में खड़ी हैंं। उन्हें उस क्रांतिकारी दूसरी पत्नी से हमदर्दी है। ऐसे में जो पहली पत्नी और बच्चों की बात करेगा तो वह उनके गुस्से का शिकार हो जायेगा। सभी पुरुषों को इश्क पर चलने की आजादी दिलाने की बात करो तो यही सब लोग बवाल मचा देंगे। ऐसे में सोचते सोचते दिमाग में भ्रम हो जाता है कि आखिर सही रास्ता क्या है? पहली पत्नी जिसने अपना पूरा जीवन एक आदमी के लिये गुजार दिया। उसके बच्चों को जन्म दिया। जब वह बच्चे बड़े हुए और पिता के सहारे आगे बढ़ने के उनको आवश्यकता हुई तब वह दूसरा विवाह कर बैठ गया। उस पर कोई नहीं लिखता।
इन सब बातों को देखकर यह कहना ही पड़ता है कि हमारा आध्यात्मिक ज्ञान वाकई संपूर्ण है और उसको प्रमाणित करने के लिये और बहर बेकार है क्योंकि े सारे विश्व में उसकी मान्यता है। जैसे कमल कीचड़ में और गुलाब कांटों में खिलता है वैसे ही सच की खोज वहीं होती है जहां भ्रम होता है। हमारे मनीषियों ने जीवन के रहस्यों को जानकर जिस सत्य को इस अध्यात्मिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया उसके लिये उनका आभारी नहीं होना चाहिये क्योंकि उनको यहां हमेशा ही भ्रम मेंे रहने वाला एक बड़ा समाज मिल गया जिससे सीखकर वह अनुसंधान और प्रयोग कर सके। बल्कि उन ऋषियों,मुनियों और तपस्वियों को इस समाज का आभार मानना चाहिये जिन्होंने उनको अपने भ्रम के कारण सत्य की खोज करने के के लिये प्रेरित किया। यह ज्ञान निरंतर बृहद रूप लेता गया पर इसका कारण भी यहां के लोग हैं क्योंकि भ्रम में रहने की उनकी आदत ही इसके लिये जिम्मेदार है। गनीमत है कि उन महान ऋषियों और तपस्वियों द्वारा प्रदाय अध्यात्मिक ज्ञान की वजह से अनेक लोग उसके अध्ययन के कारण भ्रम में आने से बचे रहते हैं वरना तो पूरे देश का हाल यही होता कि सूर्य की बजाय चंद्रमा की रौशनी को वास्तविक मान लिया जाता। इस भ्रम का निवारण कोई आसान नहीं होता। बहरहाल देश में इतना बड़ा भ्रम भी चलता है यह आश्चर्य की बात है। टीवी चैनल, समाचार पत्र पत्रिकायें और अंतर्जाल पर पढ़ते हुए तो कई बार अपने आप पर भी संदेह होता है कि हम ही तो कहीं गलत नहीं कह रहे? कहीं हम तो गलत सवाल नहीं उठा रहे? अतर्जाल पर यही सोचकर लिख रहे हैं कि हम तो फ्लाप है और पढ़ने वाले अधिकतर ब्लाग लेखक अपने मित्र हैं इसलिये अगर वाकई हम भ्रम में है तो इसे हमारी मूर्खता मानकर चुप्पी साघ लेंगे। जो अन्य पाठक हैं वह भी इसे मूर्खतापूर्ण बात कहकर भूल जायेंगे। वैसे पाठकों से कभी कोई किसी पाठ पर प्रतिकूल टिप्पणी नहीं मिली इसलिये यह लिखने का साहस कर सके। अब तो इस बात की आशंका है कि इश्क की इबादत को संपूर्णता प्रदान करने वाली दूसरी शादी करने वाली कहानियों में बिचारी पहली पत्नी और बच्चों को खलनायक साबित करने की परंपरा न बन जाये।
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Jan 13, 2009

ब्लागर सरकार पर एसा वैसा मत लिख देना-हास्य व्यंग्य

सर्दी की सुबह चाय पीने के बाद ब्लागर कोहरे में घर से बाहर निकला। उसका शरीर ठंड से कांप रहा था पर चाय पीने से जो पेट मं गैस बनती है उससे निपटने का ब्लागर के पास यही एक नुस्खा था कि वह बाहर टहल आये। वह थोड़ा दूर चला होगा तो उसे कालोनी के नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका दिखाई दिया। वह उसे देखकर कर अनेदखा कर निकल जाता पर उसे लगा कि कहीं ब्लागर शब्द लिखा हुआ है। वह सोच में पड़ गया कि यह आखों का वहम होगा। भला यहां कौन जानता है ब्लागर के बारे में। फिर वह रुककर उस पर्चे के पास गया और उसे पढ़ने लगा। उस पर लिखा था कि
‘आज ब्लागर सरकार की दरबार पर विशेष कार्यक्रम होगा। सभी इंटरनेट धार्मिक बंधुओं से निवेदन है कि वहां पहुंचकर लाभ उठावें । इस अवसर पर ब्लागर सरकार की विशेष आरती होगी उसके बाद समस्त धार्मिक बंधुओं को ज्योतिष,विज्ञान,तकनीकी तथा वैवाहिक ब्लाग तथा वेबसाईटों की जानकारी दी जायेगी। ब्लागर सरकार की पूजा से अनेक लोगों ने इंटरनेट पर हिट पाये हैं और उनके प्रवचन भी इस अवसर पर आयोजित किये जायेंगे। स्थान-नीली छतरी, दो पुलों के बीच, घाटी के बगल में। निवेदक ब्लागर स्वामी।


ब्लागर का माथा ठनका। वह भागा हुआ घर लौटा। गृहस्वामिनी ने कहा-‘क्या बात है इतनी जल्दी लौट आये। क्या सर्दी सहन नहीं हुई। मैंने पहले ही कहा था कि बाहर मत जाओ।’
ब्लागर ने कहा-‘यह बात नहीं हैं। मैं साइकिल पर जा रहा हूं थोड़ा दूर जाना होगा। वह जो दूसरा ब्लागर है न! उसने शायद कोई ब्लागर सरकार का दरबार के नाम से कुछ बनाया है। इतने दिन से आया नहीं हैं। मैं समझ गया था कि वह कुछ न कुछ करता होगा।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘वह क्यों ब्लागर सरकार का दरबार बनायेगा। उसके सामने तो वैसे ही सर्वशक्तिमान का पुराना बना बनाया दरबार है जहां उसकी महफिल जमती है।’
ब्लागर ने कहा-‘पर ठिकाना वही है। जरूर वह कुछ गड़बड़ कर रहा है। मैं जाता हूं। यह दरबार उसी का होना चाहिये। उसने कोई नया बखेड़ा खड़ा किया होगा। वह बहुत दिनों से उस दरबार में भक्तों के जमावड़े और चढ़ावा बढ़ाने की योजनायें बन रहा है।
गृहस्वामिनी ने कहा-‘तो फिर स्कूटर ले जाओ।’
ब्लागर अपने पुराने स्कूटर की तरफ झपटा तो गृहस्वामिनी ने कहा-‘अब इस पुराने स्कूटर को मत ले जाओ। नया स्कूटर ले जाओ। वैसे ही वहां भीड़ होगी और वह मजाक बनायेगा। उसके नये दरबार में अपनी भद्द मत पिटवाओ।
ब्लागर ने अपना नया स्कूटर लिया। रास्ते में उसका कालोनी का एक मित्र टिप्पणी स्वामी मिल गया। उसे जब ब्लागर ने अपनी बात बताई तो वह भी उसके साथ हो लिया। स्कूटर पर बैठते हुए वह बोला-‘वैसे तो वह तुम और वह दोनों फालतू हो पर क्योंकि स्कूटर तुम्हारा है और पेट्रोल भी तो साथ चलता हूं। मेरा घूमना फ्री में हो जायेगा इसलिये साथ चल रहा हूं।’
दोनों स्कूटर पर सवाल होकर साढ़े तीन मिनट में-टिप्पणी स्वामी की वहां पहुंचते ही दी गयी टिप्पणी के अनुसार-वहां पहुंच गये। ब्लागर का संदेह ठीक था। दूसरे ब्लागर ने अपने सामने बने पुराने दरबार पर पहले ही कब्जा कर रखा था और उसके आंगन में खाली पड़ी जमीन पर बना दिया था ‘ब्लागर सरकार का दरबार’।
ब्लागर अपना स्कूटर सीधे अंदर ले गया। वहां एक आदमी तौलिया पहने दांतुन कर रहा था। उसने सिर से ठोढ़ी तक टोपा तथा शरीर पर भारीभरकम पुराना स्वेटर पहनकर रखा था। मूंह में दातुन रखे ही उसने ब्लागर की तरफ उंगली उठाकर कहा-‘उधर रखो। इधर स्कूटर कहां रख रहे हो। यह ब्लागर सरकार का दरबार है।’
ब्लागर उसे घूर कर देख रहा था। टिप्पणी स्वामी ने उससे कहा-‘अरे, भाई यह ब्लागर सरकार का दरबार है और हमारे यह मित्र ब्लागर हैं। इस दरबार का जो स्वामी है वह इनका खास मित्र है। जाओ उसे बुलाओ। ब्लागरों का स्कूटर भी खास होता है।’

जानता हूं। जानता हूं। इसका नया स्कूटर तो क्या पुरानी साइकिल भी खास होती है।’ यह कहकर वह आदमी कुल्ला करने गया। इधर पहले ब्लागर ने टिप्पणी स्वामी से कहा-‘अरे, तुमने पहचाना नहीं यही है वह ब्लागर स्वामी। अब लौटते ही शाब्दिक आक्रमण करेगा।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘अरे, यार मैंने उसे एक बार ही देखा है। तुम तो अक्सर उससे मिलते हो।’

उधर से दूसरा ब्लागर लौटा और पहले ब्लागर से बोला-‘यह कौन कबूतर पकड़ लाये? जो मुझे बता रहा है कि तुम्हारा स्कूटर खास है?
पहले ब्लागर ने कहा-‘यह टिप्पणी स्वामी है। कभी कभार टिप्पणी देता है। हालांकि जबसे इसके मकान की उपरी मंजिल बनना शुरू हुई तब से इसकी पत्नी इसे इंटरनेट पर काम नहीं करने देती इसलिये वह भी अब बंद है। बहरहाल यह ब्लागर सरकार के दरबार का क्या चक्कर है।’

दूसरे ब्लागर ने कहा-‘चक्कर क्या है? अधार्मिक कहीं के। तुम अपनी टांग क्यों फंसाने आ गये? तुम तो अध्यात्मिक ज्ञान और धर्म को अलग अलग मानते हो न! क्या जानो धर्म के बारे में। चक्कर नहीं है। यह मेरीे श्रद्धा और आस्था है। उस दिन रात को सपने में ब्लागर सरकार के दर्शन हुए और उन्होंने बताया कि उनकी स्थापना करूं! आजकल इंटरनेट के समय लोग सर्वशक्तिमान के सभी नाम और स्वरूपों को पुराना समझते हैं इसलिये उन्होंने मुझे इस नये स्वरूप की स्थापना का संदेश दिया। वैसे तुम यहां निकल लो क्योंकि तुम अपने ब्लाग पर मूर्तिपूजा के विरुद्ध लिखते रहते हो जबकि चाहे जिस दरबार में मूंह उठाये पहुंच जाते हो। हमारा चरित्र तुम्हारी तरह दोहरा नहीं है।’
टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से कहा-‘यार, यह तो तुम्हें काटने दौड़ रहा है। इसे मालुम नहीं कि तुम अध्यात्म के विषय पर लिखते हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘कोई बात नहीं। इस बिचारे का दोष नहीं है। बहुत व्यस्त आदमी है इसलिये इसे पढ़ने का अवसर नहीं मिलता।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-वैसे तुम पढ़ने लायक लिखते क्या हो जिसे मैं पढ़ूं। वैसे इस नये स्कूटर का मुहूर्त करने यहां आये हो क्या? यह केवल खाली हाथ मुझे दिखाकर क्या दिखाना चाहते होे। वैसे मैंने तुम्हें उस दिन नये स्कूटर पर देख लिया था। अब बताओ यहां किसलिये आये हो।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘तुम्हारे इस दरबार का पर्चा अपनी कालोनी में पढ़ा। मुझे लगा कि यह तुम्हारा कोई नया स्वांग है जिसे देखने चला आया।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘हां, तुमसे यही उम्मीद थी। तुम मेरी धार्मिक भावनाओं को आहत कर रहे हो। वैसे तुम चाहे कितना भी लिखो जब तक ब्लाग स्वामी की कृपा नहीं होगी तब तक तुम हिट नहीं हो सकते।’
पहला ब्लागर-‘ठीक है पहले तुम्हारे ब्लागर सरकार की मूर्ति अंदर चलकर देख लें।’
दूसरा ब्लागर बोला-नहीं। तुम जैसे नास्तिकों का अंदर प्रवेश वर्जित है।’
टिप्पणीकार बोला-‘मैं तो अस्तिक हूं। अंदर जाकर देख सकता हूं न!
दूसरा ब्लागर बोला-‘नहीं! तुम इसके साथी हो। नास्तिक का साथी भी नास्तिक ही होता है मेरे सामने तुम्हारा यह पाखंड नहीं चल सकता।’
पहला ब्लागर बोला-‘ठीक है। अंदर क्या जाना? यहीं से पूरी तस्वीर दिख रही है। यह पत्थर की है न!
दूसरा ब्लागर-‘नहीं प्लास्टिक की है। आर्डर देकर बनवाई है।
पहला ब्लागर बोला-‘यार, फिर तुम मुझसे नाराज क्यों होते हो? मैंने तो कभी प्लास्टिक की मूर्तियों की पूजा करने से तो रोका नहीं है। वैसे यह डिजाइन तो ठीक है।’
दूसरा ब्लागर-‘‘हां, डिजाइन पर अधिक पैसा खर्च हुआ है जो भक्तों के चंदे से मिले हैं। जैसे सपने में डिजाईन जैसी देखी थी वैसी ही बनवाई है।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘यह डिजाईन तो शायद मैंने किसी पत्रिका में देखा था। फिर पैसे किस पर खर्च हुए। लगता है किसी ने ठग लिया।’
दूसरा ब्लागर-टिप्पणी स्वामी! तुम अपनी बेतुकी टिप्पणियां करने बाज आओ। कहीं ब्लागर सरकार नाराज हो गये तो तुम्हारा इस दोस्त को एकाध टिप्पणी मिलती है उससे भी तरस जायेगा। मकान बनने के बाद भी तुम्हारी पत्नी तुम्हें इंटरनेट पर काम करने नहंी देगी।
दोनों मूर्तियां देखने लगे। कंप्युटर के उपर रखे कीबोर्ड पर अपने दोनों हाथों की उंगलियां रख ेएक चूहा बैठा मुस्कराने की मुस्कराने की मुद्रा में था। कंप्यूटर से जुड़ी हर सामग्री को वहां दिखाया गया था। कंप्यूटर की स्क्रीन पर लिखा था ब्लागर सरकार।

टिप्पणीकार ने धीरे से कहा-‘यह चूहा और कीबोर्ड कंप्यूटर के ऊपर क्यों रखा हुआ है।’
दूसरा ब्लागर चीखा-‘चूहा! अरे, यही तो हैं ब्लागर स्वामी! तुम कुछ तो सोचकर बोला करो। अपने इस दोस्त के चक्कर में तुम भी वैसी ही बेहूदा टिप्पणियां कर रहे हो जैसे यह पाठ लिखता है।’
पहला ब्लागर अभी प्लास्टिक की मूर्ति को घूर रहा था। फिर बोला-‘मैंने अपनी कालोनी में एक पहचान वाले के यहां ऐसी ही मूर्ति देखी थी। वह बता रहे थे कि उन्होंने यह कबाडी को बेची थी।’
दूसरा ब्लागर’-‘तुम क्या कहना चाहते हो कि मैंने यह कबाड़ी से खरीदी थी। अब तुम जाओ। यार, तुम मेरा समय खोटी कर रहे हो। अब यहां भक्तों के आने का समय हो गया है। यहां पर मैंने लोगों को ज्योतिष,चैट,विवाह तथा नौकरी में मदद देने के लिये असली कंप्यूटर लगा रखे हैं। वह भक्त आते होंगे।
पहले ब्लागर ने देखा कि टीन शेड से बने केबिन थे जहां कंप्यूटर रखे दिख रहे थे। दूसरा ब्लागर बोला-‘जैसे जैसे भक्तों के कमेंट आते जायेंगे वैसे वैसे दरबार का विकास होता जायेगा।’
ब्लागर और टिप्पणी स्वामी ने आश्चर्य से पूछा-‘कमेंट!
दूसरा ब्लागर बोला-‘कमेंट यानि चढ़ावा। अरे, इतने दिन से ब्लागिंग कर रहे हो तुम्हें मालुम नहीं कि कमेंट भी चढ़ावे की तरह होता है और प्रसाद भी! वैसे तुम क्या समझोगे? तुम्हारे पाठ पढ़ता कौन है? जो कमेंट लगायेगा।’
दूसरा ब्लागर मूर्ति तक गया और वहां से लड्ड्ओं की थाली ले आया। उस एक लड्ड् के दो भाग किये। एक भाग अपने मूंह में रख गया। फिर दूसरे भाग के दो भाग कर उसका एक भाग अपने मूंह में रख लिया और बाकी के दो भागों में एक पहले ब्लागर को दूसरा टिप्पणी स्वामी को देते हुए बोला-तुम दोनों तो हो नास्तिक। फिर भी यह थोड़ा थोड़ा प्रसाद खा लो। कल हमारे यहां एक लड़के को इंटरनेट पर चैट करते समय अपनी गर्लफ्रैंड का पहला ईमेल मिला तो उसने मन्नत पूरी होने पर यह लड्डूओं की कमेेंट चढ़ा गया।’
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘इसकी क्या जरूरत थी। हम तो ब्लागर सरकार के दर्शन कर वैसे ही बहुत खुश हो गये।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘चुपचाप खालो टिप्पणी स्वामी! वरना इससे भी जाओगे।
फिर उसने दूसरे ब्लागर से पूछा-‘वह तुम्हारा विशेष कार्यक्रम कब है?’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘परसों हो गया। क्या तुमने उस पर्चे में तारीख नहीं पढ़ी थी।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘यार, जोश में होश नहीं रहा। अच्छा हम दोनों चलते हैं।’
दूसरे ब्लागर ने कहा-‘बहुत मेहरबानी! अब मैं ब्लाग सरकार की विशेष आरती करूंगा। ब्लाग सरकार की मेहरबानी हो तो अच्छा अच्छे कमेंट आयेंगे तो तुम दोनों की शक्लें देखने से जो बुरा टोटका हो गया उसको मिटाने के लिये यह जरूरी है। और हां! ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’

पहला ब्लागर और टिप्पणी स्वामी स्कूटर से वापस लौटने लगे। टिप्पणी स्वामी ने पहले ब्लागर से पूछा-‘तुम इस पर कुछ लिखोगे।’
पहले ब्लागर ने कहा-‘हां, हास्य व्यंग्य!
टिप्पणी स्वामी ने कहा-‘पर उसने मना किया था न! कहा था कि ब्लागर सरकार पर कुछ एैसा-वैसा मत लिख देना।’
पहले ब्लागर ने स्कूटर रोक दिया और बोला-‘यार, उसने हास्य व्यंग्य लिखने से मना तो नहीं किया था! चलो लौटकर फिर भी पूछ लेते हैं।’
टिप्पणीकार हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगा। फिर पहले ब्लागर ने कहा-‘अगली बार पूछ लूंगा।
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