अभी कहीं किसी सहृदय सज्जन ने कह दिया कि ‘वायुयान में मितव्ययी श्रेणी (economy class) तो मवेशी श्रेणी (cattle class) है।’
हमने जो अखबार और टीवी चैनलों में यही पढ़ा और सुना। हमें ऐसा नहीं लगा कि उन्होंने इस श्रेणी में यात्रा करने वालों के लिये ऐसे शब्द कहें हों। वैसे हमें बीच बहस में नहीं पढ़ना चाहिए पर कहीं न कहीं इसमें हमारे लिये लिखने लायक कुछ नया आ गया तो सो लिख रहे हैं। वायुयान की किसी श्रेणी में कभी यात्रा नहीं की न करने की संभावना है-क्योंकि लैपटाप नहीं है जो वहां से अंतर्जाल पर लिख सकें। अलबत्ता उन सहृदय सज्जन ने जब वायुयान की मितव्ययी श्रेणी (economy claas) को मवेशी श्रेणी (cattle class)कहा और उस पर जैसे बवाल मच रहा है उसने थोड़ा चक्कर में डाल दिया है।
सुना है अमेरिका में मितव्ययी श्रेणी को ‘मवेशी श्रेणी’ ही कहा जाता है। इधर भी अगर कह दिया तो क्या बुरा किया? मगर नहीं? यहां के संगठित प्रचार माध्यम में काम करने वाले लोग जानते हैं कि जैसा हम कहेंगें जनता मानेगी। वह मान भी लेती है सिवाय हम जैसे अधकचड़े चिंतकों के-जिनको पूरे वाक्य के एक एक शब्द का विश्लेषण न कर लें चैन नहीं पड़ता।
ऐसा लगता है कि प्रचार माध्यमों के लोगों को इस श्रेणी में चलने का अवसर मिलता है इसलिये वह अधिक नाराज हैं या अपने मालिकों से इससे बड़ी श्रेणी की चाहत रखते हुए उन्हें हड़का रहे हैं कि देखो हम तुम्हारे वफदार सेवक होकर भी ‘मवेशी श्रेणी’ में यात्रा करते हैं।
दरअसल पिछले कुछ समय से राई का पहाड़ और पहाड़ खोदकर निकली चुहिया को हथिनी बताने वाले यह प्रचार माध्यम अब जिस ‘सनसनीखेज‘ राह पर चल रहे हैं वहां चिंतन या मनन के लिये तो उनके पास समय रह ही नहीं सकता। पूरे वाक्य में एक शब्द मिला नहीं कि ‘यूरेका’ ‘यूरेका‘ कहते हुए दौड़ पड़ते हैं।
हम न तो किसी के समर्थक हैं न विरोधी! हम तो स्वांत सुखाय हैं सो इधर उधर देखते सुनते हैं उसके आधार पर ही लिख रहे हैं और इन्ही संगठित प्रचार माध्यमों में जो सुना और दिखा उसी के आधार पर हमें नहीं लगता कि वायुयान की मवेशी श्रेणी में यात्रा करने वालों को मवेशी कहा गया है। बाकी जानकारी से हम भी बहुत दूर हैं। तिस पर अंग्रेजी से पैदल हैं। इधर हिंदी वालों के यह हाल है कि वह सारी सनसनीखेज बातें अंग्रेजी से उठा लाते हैं।
अब प्रचार माध्यम जोर शोर से विलाप कर रहे हैं कि यहां के लोगों से मवेशी कहा, देश को मवेशी कहा आदि आदि। तर्क वितर्क के शिखर पर खड़े महानुभाव नीचे आने को तैयार ही नहीं है। बहुत दिन से सोच रहे हैं कि आखिर उस वाक्य में ऐसा क्या था जो सभी को परेशान कर रहा है।
कई बार मौसम खराब होता है तो हम कहते हैं कि कितना नारकीय वातावरण है तो क्या हम सब नरकवासी हो गये। अगर हम किसी कुत्ता गाड़ी चलाने वाले व्यक्ति के लिये यह कहें कि ‘वह तो कुत्ता गाड़ी में बैठता है तो क्या उसे कुत्ता समझा जायेगा।’
इससे भी आगे मान लीजिये हमारा कोई मित्र वायुयान की मितव्ययी श्रेणी में जाये और हम उससे कहें कि ‘क्या मवेशी श्रेणी में यात्रा करोगे?‘ तब वह हमसे लड़ने लगे तो..........................हम तो उसे मूर्ख कहेंगे क्योंकि वह श्रेणी अमेरिका में इसी श्रेणी के नाम से जानी जाती है न कि यात्री।
जहां तक मवेशियों का सवाल है पता नहीं अमेरिका में उनको पालने वालों का क्या रवैया है पर भारत में जो मवेशी पालते हैं वह उनकी बहुत साज संभाल करते हैं। बीमार पड़ने पर उसका इलाज करते हैं। यह ठीक है कि उनसे मालिकों को उससे आय होती है पर फिर कहीं न कहीं उनके प्रति अपनी संतान जैसा भाव मन में रहता है और इसे गांवों में जाकर देखा जा सकता है।
इधर जब यात्रा की बात चली तो हमारी सोच टैम्पो, बसों और ट्रेनों से आगे नहीं बढ़ सकती है-कथित रूप से भले ही हम विद्वानों जैसी छबि बनाये बैठे हैं पर अपनी औकात तक ही हमारी भी सोच है यह हम कभी कभार लिखते हैं। संभव है कि अल्पविद्वता या कंजूसी की वजह से हमें भी ऐसा दर्द झेलना पड़ता है या केवल वैसी अनुभूति होती है जब हमारे साथ कीड़ों जैसा व्यवहार होता है। चूंकि विमानों में अगर मवेशी श्रेणी है तो उससे नीचे के वाहनों की श्रेणी भी कुछ नीचे स्तर तक लानी होगी न!
ऐसा अनेक बार होता है कि गर्मी की दोपहर में हम अपने शहर आये-अब तो हम स्कूटर स्टेशन तक ले जाते हैं इसलिये इस समस्या से निजात पा ली है पर बाहर जकार शहरों में यह सब झेलना ही पड़ता है-और टैम्पो में बैठे पर वह जब तक ठसाठस भर नहीं लेगा तब तक नहीं चलेगा। फिर उसके आगे पीछे और दायें बायें बाहर लोग लटके होंगे। उनकी यह यात्रा जान हथेली पर लेकर की जाती है यह हम देखते हैं पर उस समय जो पीड़ा होती है तब ऐसा लगता है कि हम कीड़े मकौड़े श्रेणी के हैं। अगर कोई हमसे कोई कहे कि यह क्या टैम्पो में जा रहे हो कीड़े मकौड़े की तरह....................तो क्या कीड़े मकौड़े हो जायेंगे।
एक नहीं अनेकों बार ट्रेनों, बसों और टैम्पो में सफर के दौरान जो तकलीफ हमने झेली है उस समय ऐसा नहीं लगता कि हमसे पैसे लेने वाले हमें मनुष्य समझ रहे हैं। हां, चिल्ला लो! कितना चिल्लाओगे? किसके लिये चिल्ला रहे हो और कौन सुन रहा है। मवेशी श्रेणी के आगे भी एक क्लास है कीड़ा श्रेणी (worm class)। जो अपने ही देश के लोगों को ऐसा समझते हैं वह भी आम इंसान ही हैं पर उन पर पैसा कमाने का दबाव रहता है और दबाव डालने वाले भी इसी देश के हैं। अब यह तो कोई बात नहीं हुई कि कीड़ों की तरह व्यवहार करो और झेलो पर न कहो न सुनो। सच सुनने और आत्ममंथन से घबड़ाते बुद्धिजीवियों पर तो हंसी आयेगी ही!
यह सब होना ही है। मांग और आपूर्ति का नियम सभी जगह लागू होता है। भारत में मनुष्यों जनंसख्या बढ़ रही है। इस लिये उनका मूल्य कम तो होना ही है। अब कहेंगे कि भला इंसान को भी वस्तु बना दिया! मगर आप जाकर किससे कहेंगे। कभी सोचा है कि इसी कन्या भ्रंुण की गर्भ में हत्या कर दी जाती है या कहीं कहीं तो मां ही उसे रेल से फैंक देती है पर कभी लड़के के बारे में ऐसा सुना है। एक नहीं हजारों बल्कि लाखों ऐसी घटनायें हैं जिसमें लड़कियों को मनुष्य नहीं बल्कि अपना एक उत्पाद समझकर व्यवहार किया जाता है। मतलब यह इस समाज में संवेदनाओं की कमी हो गयी है। लोग अपने अलावा सभी को शय समझते हैं। हां, प्रचार माध्यमों को केवल इसलिये सफलता मिलती है क्योंकि हर व्यक्ति केवल अपने को जीवंत समझता है और उसे जब कोई कीड़ा मकौड़ा या मवेशी कहता है तो उसकी संवेदनायें जाग उठती हैं पर दूसरे के लिये वह कितना संवेदनहीन है इसके लिये ज्यादा क्या लिखें?
हां फिर भी लिख रहे हैं कि आदमी संवदेनहीन हो गया है इसलिये प्रचार माध्यमों की नकली संवेदनायें भी बिक रही हैं वैसे ही जैसे कमी होने जाने के कारण नकली, घी, दूध और पनीर बिक रहा है। लोगों की चिंतन क्षमतायें तो लुप्त हो गयी हैं इसलिये प्रचार माध्यम एक शब्द पकड़ कर ग्रंथ जैसा प्रस्तुत कर देते हैं और एक पंक्ति के समाचार पर तो तीन दिन तक विशेष कार्यक्रम आते हैं। वैसे हमने लिखने में पूरी सावधानी बरती है क्योंकि हमने यहां कीड़ा शब्द अपनी यात्राओं के लिये प्रयोग किया है किसी दूसरे के लिये नहीं। हमें पता है कि इतना बड़ा लेख कौन पढ़ेगा? पढ़ेगा तो समझेगा क्या? अलबत्ता एक शब्द पर कोहराम न मचे इसलिये हम यह साफ कह रहे हैं कि कीड़ा श्रेणी (worm class)तभी होती है जब हम स्वयं टैम्पो, बसों या ट्रेनों में सफर करते हैं। बाकी दिन तो वह खास श्रेणी होती है जैसे कि यहां का हर आदमी अपने बारे में सोचता है।
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यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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