‘‘मां, मुझे पैसा दो तो
कार खरीद कर लाऊं
कालिज उससे जाकर अपनी छबि बनाऊं
पापा, नोटों की भरी पेटी रखकर
दौरे पर गये हैं
मुझे अपने दोस्तों में रुतवा दिखाना है
क्योंकि सभी नये हैं
पता नहीं पापा कब आयेंगे
तब तक अपनी इस मोटर साइकिल पर जाऊंगा तो
सभी मेरी हंसी उड़ायेंगे।’
सुनकर मां गद्गद्वाणी में बोली
‘बेटा, तुम्हारे पापा समाज सेवक है
सभी जानते हैं
उनको इसलिये मानते हैं
यह पेटी उन्हीं चंदे के नोटों से भरी है
जो सूखा राहत बांटने के लिये यहां धरी है
माल तो यह सभी अपना है
सूखा पीड़ितों के लिये तो बस एक सपना है
पर तुम्हारे पापा कागज पत्रक पूरे करने के लिये
दौरे पर गये हैं
उनका नया होना जरूरी है
क्योंकि यह नोट भी नये हैं
यह दौरा कर वह राहत बंटवा रहे हैं
सच तो यह है कि
बांट सकें जिनको
उन मरे लोगों के नाम छंटवा रहे हैं
अगर अभी पैसा खर्च कर ले आओगे
अपने पापा पर शक की सुई घुमाओगे
इसलिये आने दो उनको
इस भरी पेटी से तुम्हारी कार का पैसा निकालकर
तुम्हारे हाथों से इसका
और तुम्हारी राहत का उद्घाटन करायेंगे।
..............................
यह आलेख इस ब्लाग ‘राजलेख की हिंदी पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.दीपक भारतदीप का चिंतन
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिकालेखक संपादक-दीपक भारतदीप
No comments:
Post a Comment