Aug 30, 2015

हमने भी बांची है किताबें-हिन्दी कविता(hamane bhi baanchi hai kitaben-hindi poem)

ढेर सारी किताबें
ज्ञान बेचना नहीं आया,
चेलों को सजा देते
हम भी दुकान पर
सच की तरह झूठ
बेचना नहीं आया।
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खत का ज़माना
अब कहां रहा
बेतार से बात
यूं ही हो जाती है।
ढेर सारे शब्द बहते
समझ के झरने में
अर्थ की बूंदें खो जाती हैं।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Aug 25, 2015

दो क्षणिकायें(two short poem)


रास्ते पर जरा संभलकर चला करो।
विकास के पहिये कभी
बहक भी जाते हैं, जरा डरा करो।
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हिन्दी दिवस आ रहा है
हमें भुला देना।
 अंग्रेजी राईटर्स से स्पीच दिलाकर
लोगों को सुला देना
उनके सम्मान का खाता भी खुला देना।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Aug 20, 2015

संसार सागर में फंसी सभी की नाव-हिन्दी कविता(sansar sagar mein fansi sabhi ki naav hai-hindi poem)


जिंदगी की जंग में
हमारे शरीर पर भी
लगे बहुत सारे घाव हैं।

बस नहीं सजाते
कभी चौराहे पर जाकर
इसलिये उनके कम भाव हैं।

कहें दीपक बापू अपने दर्द के साथ
जीने की आदत डाली है
किससे उम्मीद करें
अपने संसार सागर के मझधार में
फंसी सभी की नाव है।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Aug 14, 2015

अभी नहीं आजादी की बारी है गुलाम सोच जारी है-15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस पर विशेष हिन्दी लेख(abhi nahin azadi ke bari hai gulam soch jari hai-A Special hindi thought on 15 August independence day, azadi ka din,Swatantrata diwas)


                                   15 अगस्त भारत का स्वतंत्रता दिवस हमेशा अनेक तरह से चर्चा का विषय रहता है। अगर हम अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो भारत कभी गुलाम हुआ ही नहीं क्योंकि भौतिक रूप से कागजों पर  इसका नक्शा छोटा या बड़ा  भले ही होता रहा हो पर धार्मिक दृष्टि से भौतिक पहचान रखने वाले तत्वों में  गंगा, यमुना और नर्मदा नदियां वहीं बहती रहीं हैं जहां थीं।  हिमालय और विंध्याचल पर्वत वहीं खड़े रहे जहां थे। अध्यात्मिक दृष्टि से श्री रामायण, श्रीमद्भागवत गीता तथा वेदों ने अपना अस्तित्व बनाये रखा-इसके लिये उन महान विद्वानों को नमन किया जाना चाहिये जो सतत इस प्रयास में लगे रहे। भारत दो हजार साल तक गुलाम रहा-ऐसा कहने वाले लोग शुद्ध राजसी भाव के ही हो सकते हैं जो मानते हैं कि राज्य पर बैठा शिखर पुरुष भारत या यहां की धार्मिक विचारधारा मानने वाला नहीं रहा।
                                   हम जब अध्यात्मिक दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि विदेशों से आयी अनेक जातियां यहीं के समाज में लुप्त हो गयीं पर उस समय तक विदेशों में किसी धार्मिक विचाराधारा की पहचान नहीं थी। जब विदेशों में धार्मिक आधार पर मनुष्य में भेद रखना प्रारंभ हुआ तो वहां से आये राजसी व्यक्तियों ने भारत में आकर धार्मिक आधार पर भेद करने वाला  वही काम किया जो वहां करते थे।  अब तो स्थिति यह है कि भारतीय विचाराधारा न मानने वाले लोग यहीं के प्राचीन इतिहास से परे होकर विदेशी जमीन से अपनी मानसिक सोच चलाते हैं।  पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक तारिक फतह ने एक टीवी चैनल में साक्षात्कार में अपने ही देश की विचारधारा की जो धज्जियां उड़ाईं वह अत्यंत दिलचस्प है।  उन्होंने कहा कि पाकिस्तान का मुसलमान यह सोचता है कि वह अरब देशों से आया है जबकि उसे समझना चाहिये कि वह प्राचीन भारतीय संस्कृति का हिस्सा है।
                                   भारतीय उपमहाद्वीप में आये विदेशी लोगों ने यहां अपना वर्चस्प स्थापित करने के लिये जो शिक्षा प्रणाली चलाई वह गुलाम पैदा करती है। अगर हम राजसी दृष्टि से भी देखें तो भी आज वही शिक्षा प्रणाली प्रचलन में होने के कारण भारत की पूर्ण आजादी पर एक प्रश्न चिन्ह लगा मिलता है।  लोगों की सोच गुलामी के सिद्धांत पर आधारित हो गयी है।  विषय अध्यात्मिक हो या सांसरिक हमारे यहां स्वतंत्र सोच का अभाव है।  लोग या तो दूसरों को गुलाम बनाने की सोचते हैं या फिर दूसरे का गुलाम बनने के लिये लालयित होते हैं। इसलिये स्वतंत्रता दिवस पर इस बात पर मंथन होना चाहिये कि हमारी सोच स्वतंत्र कैसे हो?
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Aug 9, 2015

सिद्धांत धूल खाते हैं-हिन्दी कविता(siddhant dhool khate hain-hindi poem

)
पराया पैसे देखकर
वह पुण्य  की बात
भूल जाते हैं।

अपने खाते में रकम
बढ़ाने के लिये
बेईमानी में झूल जाते हैं।

कहें दीपक बापू आदर्श की राह पर
नहीं चला पाते
अपनी जिंदगी की गाड़ी
वही सेवक की उपाधि लिये
ठग बन जाते
 नारों की अल्मारी में
सिद्धांत धूल खाते हैं।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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Aug 5, 2015

परबुद्धिजीवियों के मत से प्रभावित होना ठीक नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख(parbuddhijiviyon ke mat se prabhavit hona theek nahin-hindi thought article)


                              जब से भारत में राजनीतिक बदलाव आया है तक से विदेशी विचाराधाराओं के कथित भारतीय परबुद्धिजीवी राजकीय और न्यायालयीन विषयों पर इस तरह हस्तक्षेप करने लगे हैं जैसे लोकतंत्र में हर विषय में उनको विरोध करने का अधिकार है या वह भारतीय विचाराधारा के विरोधी है इसलिये उनके पास नकारात्मक टिप्पणियां करने का विशेषाधिकार है। भारत में बरसों से एक राजकीय प्रबंध व्यवस्था है जिसमें स्थाई अधिकारी होते हैं जो विचाराधाराओं से प्रभावित हुए अपना काम करते हैं।  हालांकि यह देखा गया है कि जिस तरह भारतीय समाज की चिंत्तन शैली में परबुद्धिजीवियों के प्रचार का जो प्रभाव हुआ है उससे वह भी प्रभावित हैं पर इससे उन्हें पक्षपाती मानना गलत होगा।  यही अधिकारी समय समय समाज के हित की दृष्टि से अनेक निर्णय लेते हैं। उनसे कोई सहमत या असहमत हो सकता है पर उनके निर्णय को समाज हित से अलग नहीं किया जा सकता।  अभी हाल में एक पोर्न साईट यानि अश्लील अंतर्जालीय सामग्री पर राजकीय प्रतिबंध लगा जिस पर अनेक परबुद्धिजीवियों ने अपना विरोध जताया जिसका यह प्रभाव हुआ कि वह वापस ले लिया गया।
                              हम पौर्न साईट पर ही राज्य के प्रतिबंध पर राय नहीं कायम कर पाये पर  यह जरूर कहते हैं कि समाज सुधार और कल्याण में भी राजकीय हस्तक्षेप नहीं होना चाहिये मगर क्या परबुद्धिजीवी-विदेशी विचाराधाराओं  से देश में स्वर्ग बनाने का सपना दिखाने वाले-इस बात को मानेंगे जो इस मसले पर उछल कूद कर रहे थे। यह परबुद्धिजीवी समाज के समग्र विकास में अपना अस्तित्व नहीं ढूंढ पाते इसलिये हमेशा ही गरीब, बीमार, महिला, बालक, वृद्ध, किसान, मजदूर तथा दलित नाम के शीर्षकों से समाज का उद्धार करने का सपना दिखाते हैं।  इनके पास समाज के विकास की कोई योजना तो होती नहीं है  इसलिये  हर शीर्षक के लिये अलग अलग परबुद्धिजीवी तैनातहोता है।  अधिक संख्या होने के कारण गपशप करने ओर पिकनिक मनाने के लिये  बहुत सारे लोग मिल ही जाते हैं।
                              सच तो यह है कि इन परबुद्धिजीवियों का समाज के हित से अधिक प्रचार से अपनी दैवीय छवि बनाने का लक्ष्य रहता है।  इन्हें पुरस्कार आदि भी मिल जाते हैं।  खासतौर से भारतीय राज्य प्रबंध तथा विचाराधारा के प्रतिकूल टिप्पणियां करने से उनको विदेश में भी सम्मानित किया जाता है।  वैसे भी भारतीय सम्मान से अधिक उनको विदेशी सम्मान प्रिय होते हैं।  हमारा मानना है कि ऐसे परबुद्धिजीवियों के समर्थन या विरोध के आधार पर न कोई निर्णय लेना या वापस लेना दोनों काम नहीं करना चाहिये।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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Aug 1, 2015

सावन मनभावन होने के साथ सावधानी रखने का भी है-हिन्दी चित्तन लेख(month of sawan and care for life-hindi article)

                              आज से सावन का महीना प्रारंभ हो गया है। जब  वर्षा ऋतु अपनी  जलधारा से गर्मी की उष्णा को ठंडा करती है तब  मनुष्य ही नहीं वरन् हर जीव अपने अंदर एक नयी स्फूर्ति का अनुभव करता है। सावन में संतुलित वर्षा देह को अत्यंत सुखद लगती है पर मौसम विशेषज्ञों ने बता दिया है कि अनेक जगह वर्षा कहर बरसायेगी तो अनेक  जगह अल्प वर्षा की स्थिति भी तरसायेगी।  हमारा क्षेत्र दूसरी स्थिति वाला है।  उज्जैन में महाकाल के शिखर तक जल पहुंचाने वाले बादल हमारे शहर तक आते आते सूख जाते हैं। हवा का प्रवाह रुक जाता है और उमस त्रास का कारण बनती है। बादल शहर तक न आयें एक दुःख पर आकर न बरसें और फिर हवा रोक कर उमस बरसायें तो मानसिक संताप के साथ बीमारियां भी बढ़ती हैं।
                              मनभावन होने के बावजूद सावन का महीना मार्गशीर्ष जैसा पवित्र नहीं होता-श्रीमद्भागवत गीता में यही महीना श्रेष्ठ माना गया है।  मौसम की दृष्टि से यह मार्गशीर्ष  का  महीना न केवल सुहाना होता है वरन् अध्यात्मिक दृष्टि से भी उसका महत्व है।  सावन के महीने में जलाशय भर जाते हैं और देव प्रतिमाओं पर जलाभिषेक का क्रम भी प्रारंभ होता है। धन्य है वह भक्त जो प्रातःकाल ही मंदिरों में जाते हैं-उनकी वजह से सैर सपाटे करने वालों को अंधियारी सड़कों पर चहल पहल मिलती है।
                              इस महीने को संभवतः इसलिये भी अध्यात्मिक दृष्टि से मार्गशीर्ष से कम महत्व शायद इसलिये ही दिया गया क्योंकि इस माह में बीमारियों का भी प्रकोप रहता है।  वैसे तो जिस तरह का खानपान हो गया है उससे बिमारियां सदाबाहर हो गयी हैं पर इसके बावजूद सावन में चिकित्सालयों में कमाई की झड़ी लग जाती है। जब तक उच्च चिकित्सा सरकार के दायरे में थी तब तक ठीक था पर अब तो निजी क्षेत्र में तो इलाज का एक  ऐसा उद्योग बन गया है जिसमें संवेदनाओं का कोई स्थान नहीं है।  इस लेखक से उम्र में बड़ा एक बुद्धिमान मित्र बताता था कि बरसात में खाने को  लेकर मन में बड़ी उत्तेजना रहती है पर पाचन की दृष्टि से मौसम अत्यंत संवदेनशील होता है।
                              हमारे यहां वर्षा के चार मास शांति से एक स्थान पर बने रहने के साथ ही जलाशयों से दूर रहने की बात कहते हैं ।।  हमारे यहां स्थिति उलट गयी है।  आज खाये पीये अघाये लोगों को पिकनिक मनाने के लिये जलाशय भाते हैं।  अनेक जगह भारी उमस में पका भोजन किया जाता है। कहा जाता है कि पहले सड़के नहीं थी इसलिये ही वर्षा में पर्यटन वर्जित किया गया था।  हमें लगता है कि यह विकासवाद का अंधा तर्क है वरना तो वर्षा में सड़कें अब भी लापता लगती हैं-उल्टे अब कचड़े के निष्पादन के अभाव के उसके ढेर बांध बनकर पानी रोकते हैं और सड़कें नदियां बन जाती हैं। शहरों में जिस तरह पानी से जूझते हुए लोग दिखते हैं उतना तो गांवों में नहीं दिखते।

                              बहरहाल हमारा मानना है कि सावन का महीना भले ही मनभावन है पर इस समय खान पान और चाल चलन में सावधानी रखने का भी है।
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कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

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