Oct 27, 2011

चुंबन का स्वाद न मीठा न नमकीन-हिन्दी हास्य व्यंग्य रचना (chumban ka swad n meetha n namakeen-hindi hasya vyangya or comic satire article in hindi)

          सिनेमा या टीवी के पर्दे पर चुंबन का दृश्य देखकर लोगों के मन में हलचल पैदा होती है। पहले की युवा पीढ़ी तो देखकर मन में कसमसाकर रह जाती थी क्योंकि उस समय लड़कियों की शैक्षणिक तथा व्यवसायिक क्षेत्रों में उपस्थिति नहिनी थी। अब समय बादल गया है और खुलेपन के कारण युवा पीढ़ी को सार्वजनिक रूप से प्रेम के अवसर खूब मिलते हैं और वह उनका उपयोग करने के लिए बेताब हो उठती है।  अगर ऐसे में कहीं किसी प्रसिद्ध हस्ती ने किसी दूसरी हस्ती का सार्वजनिक रूप से चुंबन  लिया और उसकी खबर उड़ी तो हाहाकार भी मच जाता है। कुछ लोग मनमसोस कर रह जाते हैं कि उनको ऐसा अवसर नहीं मिला पर कुछ लोग समाज और संस्कार विरोधी बताते हुए सड़क पर कूद पड़ते हैं। चुंबन विरोधी चीखते हैं कि‘यह समाज और संस्कार विरोधी कृत्य है और इसके लिये चुंबन लेने और देने वाले को माफी मांगनी चाहिये।’
          अब यह समझ में नहीं आता कि सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना समाज और संस्कारों के खिलाफ है या अकेले में भी। अगर ऐसा है तो फिर यह कहना कठिन है कि कौन ऐसा व्यक्ति है जो कभी किसी का चुंबन नहीं लेता। अरे, मां बाप बच्चे का माथा चूमते हैं कि नहीं। फिर अकेले में कौन किसका कैसे चुंबन लेता है यह कौन देखता है और कौन चुंबन ले देकर उसको सार्वजनिक रूप से प्रकट करता है?
           किसी के सार्वजनिक रूप से चुंबन लेने देने पर लोग ऐसे ही हाहाकार मचा देते हैं भले ही लेने और देने वाले आपस में सहमत हों। अगर किसी विदेशी होंठ ने किसी देशी गाल को चुम लिया तो बस राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए खतरा और समाज के साथ ही  संस्कार विरोधी घोषित कर दिया जाता है। अन्य  भी न जाने कितनी नकारात्मक संज्ञाओं से उसे नवाजा जाता है। कहीं कहीं तो जाति,धर्म और भाषा का लफड़ा भी खड़ा हो जाता है। पश्चिमी देशों में सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना शिष्टाचार माना जाता है जबकि भारत में इसे अभी तक अशिष्टता की परिधि में रखा जाता है। यह किसने रखा पता नहीं पर जो रखते हैं उनसे बहस करने का साहस किसी में नहीं होता क्योंकि वह सारे फैसले ताकत से करते हैं और फिर समूह में होते हैं।
          इतना तय है कि विरोध करने वाले भी केवल चुंबन का विरोध इसलिये करते हैं कि वह जिस सुंदर चेहरे का चुंबन लेता हुआ देखते हैं वह उनके ख्वाबों में ही बसा होता है और उनका मन आहत होता है कि हमें इसका अवसर क्यों नहीं मिला? वरना एक चुंबन से समाज,संस्कृति और संस्कार खतरे में पड़ने का नारा क्यों लगाया जाता है।
           दूसरे संदर्भ में इन विरोधियों को यह यकीन है कि समाज में कच्चे दिमाग के लोग रहते हैं और अगर इस तरह सार्वजनिक रूप से चुंबन लिया जाता रहा तो सभी यही करने लगेंगे। ऐसे लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो पूरे समाज को कच्ची बुद्धि का समझते हैं। यकीनन उनको अपनी आक्रामकता से ही समाज की संस्कृति और संस्कार बचते नज़र आते है।
         फिल्मों में भी नायिका के आधे अधूरे चुंबन दृश्य दिखाये जाते हैं। नायक अपना होंठ नायिका के गाल के पास लेकर जाता है और लगता कि अब उसने चुंबन लिया पर अचानक दोनों में से कोई एक या दोनों ही पीछे हट जाते हैं। इसके साथ ही सिनेमाहाल में बैठे वह  लड़के -जो इस आस में हो हो मचा रहे होते हैं कि अब नायक ने नायिका का चुंबन लिया-हताश होकर बैठ जाते हैं। चुम्मा चुम्मा ले ले और देदे के गाने जरूर बनते हैं नायक और नायिक एक दूसरे के पास मूंह भी ले जाते हैं पर चुंबन का दृश्य फिर भी नहीं दिखाई देता। फिल्म निर्माता जानते हैं कि ऐसा करना खतरनाक हो सकता है।
        आखिर ऐसा क्यों? क्या वाकई ऐसा समाज और संस्कार के ढहने की वजह से है। नहीं! अगर ऐसा होता तो फिल्म वाले कई ऐसे दृश्य दिखाते हैं जो तब तक समाज में नहीं हुए होते पर जब फिल्म में आ जाते हैं तो फिर लोग भी वैसा ही करने लगते हैं। फिल्म से सीख कर अनेक अपराध हुए हैं ऐसे में अपराध के नये तरीके दिखाने में फिल्म वाले गुरेज नहीं करते पर चुंबन के दृश्य दिखाने में उनके हाथ पांव फूल जाते हैं। सच तो यह है कि चुंबन  जब तक लिया न जाये तभी तक ही आकर्षण है उसके बाद तो फिर सभी खत्म है। यही कारण है कि काल्पनिक प्यार बाजार में बिकता रहे इसलिये होंठ और गाल पास तो लाये जाते हैं पर चुंबन का दृश्य अधिकतर दूर ही रखा जाता है।
       यह बाजार का खेल है। अगर एक बार फिल्मों से लोगों ने चुंबन लेना शुरू किया तो फिर सभी जगह सौंदर्य सामग्री की पोल खुलना शुरू हो जायेगी। महिला हो या पुरुष सभी सुंदर चेहरे सौंदर्य सामग्री से पुते होते हैं और जब चुंबन लेंगे तो उसका स्पर्श होठों से होगा। तब आदमी चुंबन लेकर खुश क्या होगा अपने होंठ ही साफ करता फिरेगा। सौंदर्य प्रसाधनों में कोई  ऐसी चीज नहीं होती जिससे जीभ को स्वाद मिले। कुछ लोगों को तो सौदर्य सामग्री से एलर्जी होती और उसकी खुशबू से चक्कर आने लगते हैं। अगर युवा वर्ग चुंबन लेने और देने के लिये तत्पर होगा तो उसे इस सौंदर्य सामग्री से विरक्त होना होगा ऐसे में बाजार में सौंदर्य सामग्री के प्रति पागलपन भी कम हो जायेगा। कहने का मतलब है कि गाल का मेकअप उतरा तो समझ लो कि बाजार का कचड़ा हुआ। याद रखने वाली बात यह है कि सौदर्य की सामग्री बनाने वाले ही ऐसी फिल्में के पीछे भी होते हैं और उनका पता है कि उसमें ऐसी कोई चीज नहीं है जो जीभ तक पहुंचकर उसे स्वाद दे सके।
       कई बार तो सौंदर्य सामग्री से किसी खाने की वस्तु का धोखे से स्पर्श हो जाये तो जीभ पर उसके कसैले स्वाद की अनुभूति भी करनी पड़ती है। यही कारण है कि चुंबन को केवल होंठ और गाल के पास आने तक ही सीमित रखा जाता है। संभवतः इसलिये गाहे बगाहे प्रसिद्ध हस्तियों के चुंबन पर बवाल भी मचाया जाता है कि लोग इसे गलत समझें और दूर रहें। समाज और संस्कार तो केवल एक बहाना है।
        एक आशिक और माशुका पार्क में बैठकर बातें कर रहे थे। आसपास के अनेक लोग उन पर दृष्टि लगाये बैठै थे। उस जोड़े को भला कब इसकी परवाह थी? अचानक आशिक अपने होंठ माशुका के गाल पर ले गया और चुंबन लिया। माशुका खुश हो गयी पर आशिक के होंठों से क्रीम या पाउडर का स्पर्श हो गया और उसे कसैलापन लगा। उसने माशुका से कहा‘यह कौनसी गंदी क्रीम लगायी है कि मूंह कसैला हो गया।’
       माशुका क्रोध में आ गयी और उसने एक जोरदार थप्पड़ आशिक के गाल पर रसीद कर दिया। आशिक के गाल और माशुका के हाथ की बीचों बीच टक्कर हुई थी इसलिये आवाज भी जोरदार हुई। उधर दर्शक तो जैसे तैयार बैठे ही थे। वह आशिक पर पिल पड़े। अब माशुका उसे बचाते हुए लोगों से कह रही थी कि‘अरे, छोड़ो यह हमारा आपसी मामला है।’
      एक दर्शक बोला-‘अरे, छोड़ें कैसे? समाज और संस्कृति को खतरा पैदा करता है। चुंबन लेता है। वैसे तुम्हारा चुंबन लिया और तुमने इसको थप्पड़ मारा। इसलिये तो हम भी इसको पीट रहे हैं।’
        माशुका बोली‘-मैंने चुंबन लेने पर थप्पड़ थोड़े ही मारा। इसने चुंबन लेने पर जब मेरी क्रीम को खराब बताया। कहता है कि क्रीम से मेरा मूंह कसैला हो गया। इसको नहीं मालुम कि चुंबन कोई नमकीन या मीठा तो होता नहीं है। तभी इसको मारा। अरे, वह क्रीम मेरी प्यारी क्रीम है।’
       तब एक दर्शक फिर आशिक पर अपने हाथ साफ करने लगा और बोला-‘मैं भी उस क्रीम कंपनी का ‘समाज और संस्कार’रक्षक विभाग का हूं। मुझे इसलिये ही रखा गया है कि ताकि सार्वजनिक स्थानों पर कोई किसी का चुंबन न ले भले ही लगाने वाला कोई  भी क्रीम लगाता हो। अगर इस तरह का सिस्टम शुरु हो जायेगा तो फिर हमारी क्रीम बदनाम हो जायेगी।’
        बहरहाल माशुका ने जैसे तैसे अपने आशिक को बचा लिया। आशिक ने फिर कभी सार्वजनिक रूप से ऐसा न करने की कसम खाई।
        हमारा देश ही नहीं बल्कि हमारे पड़ौसी देशों में भी कई चुंबन दृश्य हाहाकर मचा चुके हैं। पहले टीवी चैनल वाले प्रसिद्ध लोगों के चुंबन दृश्य दिखाते हैं फिर उन पर उनके विरोधियों की प्रतिक्रियायें बताना नहीं भूलते। कहीं से समाज और संस्कारों की रक्षा के ठेकेदार उनको मिल ही जाते हैं।
        वैसे पश्चिम के स्वास्थ्य वैज्ञानिक चुंबन को सेहत के लिये अच्छा नहीं मानते। यह अलग बात है कि वहां चुंबन खुलेआम लेने का शिष्टाचार है। भारतीय उपमहाद्वीप में इसे बुरा समझा जाता है। चुंबन लेना स्वास्थ्य के लिये बुरा है-यह जानकर समाज और संस्कारों के रक्षकों का सीना फूल सकता है पर उनको यह जानकर निराशा होगी कि अमेरिकन आज भी आम भारतीयों से अधिक आयु जीते हैं और उनका स्वास्थ हम भारतीयों के मुकाबले कई गुना अच्छा है।
         वैसे सार्वजनिक रूप से चुंबन लेना अशिष्टता या अश्लीलता कैसे होती है इसका वर्णन पुराने ग्रंथों में कही नहीं है। यह सब अंग्रेजों के समय में गढ़ा गया है। जिसे कुछ सामाजिक संगठन अश्लीलता कहकर रोकने की मांग करते हैं,कुछ लोग कहते हैं कि वह सब अंग्रेजों ने भारतीयों को दबाने के लिये रचा था। अपना दर्शन तो साफ कहता है कि जैसी तुम्हारी अंतदृष्टि है वैसे ही तुम्हारी दुनियां होती है। अपना मन साफ करो, पर भारतीय संस्कृति के रक्षकों देखिये वह कहते हैं कि नहीं दृश्य साफ रखो ताकि हमारे मन साफ रहें। अपना अपना ज्ञान है और अलग अलग बखान है।
जहां तक चुंबन के स्वाद का सवाल है तो वह नमकीन या मीठा तभी हो सकता है जब सौंदर्य सामग्री में नमक या शक्कर पड़ी हो-जाहिर है या दोनों वस्तुऐं उसमें नहीं होती।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।

Oct 16, 2011

विश्व में महंगाई, मंदी और बेरोजगारी पर बढ़ता असंतोष खतरनाक-आर्थिक विषय पर हिन्दी लेख-vishva mein mehngai,mandi aur berojgari par badhta asantosh-hindi article on ecomonmics subject)

          दुनियां भर के 82 देशों एक हजार के करीब शहरों में मंदी, महंगाई और बेरोजगारी के विरुद्ध प्रदर्शन होना आम भारतीय के लिये कोई बड़ी बात नहीं है पर देश के आर्थिक रणनीतिकारों, धनपतियों तथा उन उच्च मध्यमवर्गीय लोगों के लिये चिंता की बात होगी जिनके मुख हमेशा पश्चिम की तरफ ताकते हैं इस आशा के साथ हम उनकी राह पर चलकर हम विकसित राष्ट्र कहलायें। यह हम इसलिये कह रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के दोहरे रूप सामने आ रहे हैं। एक तो आधुनिक अर्थव्यवस्था है जो शुद्ध रूप से औद्योगिक आधार पर टिकी है दूसरी वह हो हमारी परंपरागत कृषि व्यवस्था है जिसके सहारे पूरा देश जिंदा है। सच बात तो यह है कि आज भी हम कृषि पर निर्भरता कम नहीं कर पाये तो औद्योगिक विकास का लाभ चंद पूंजीपतियों के इर्दगिर्द सिमट गया। हमने पश्चिमी देशों के दबाव में आर्थिक उदारीकरण किया पर उसी सीमा तक जिसमें केवल धनपतियों को ही लाभ हों। उस समय हमारे देश के रणनीतिकारों को पश्चिम में आने वाली भावी तबाही का आभास नहीं रहा होगा। आज अगर हमारे यहां भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध कोई बड़ा आंदोलन चलता है तो लोग उसमें शािमल हो जाते हैं। इसके बावजूद लगता नहीं है कि देश के आर्थिक रणनीतिकार इसे समझना चाह रहे हों।
        हमारे यहां औद्योगिक आधार पर लाभ श्रमिकों से अधिक पूंजीपतियों को है और अर्थशास्त्र के जो विद्यार्थी रहे हैं वह जानते हैं कि धन का असमान वितरण हमारी अर्थव्यवस्था की बहुत बड़ी समस्या हैं। कहने को हमारे देश र्के आािक नीतियां अर्थशास्त्रियों से राय लेकर बनाई जाती होंगी पर लगता नहीं है कि उन पर अमल हुआ होगा। संभव है कि अर्थशास्त्री भी इस तरह के होंगे जिनको अपनी राय देते समय ही इस तरह का प्रयास करते होंगे कि देश के अर्थप्रबंधकों को जो बात अच्छी लगे वही कही जाये। वरना यह संभव नहीं है कि जिस समस्या को पचास बरस से देखा जा रहा है वह कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। पहले तो यह माना गया कि औद्योगिक विकास के कारण भारत की रोजगार समस्या का हल हो जायेगा। यही कारण है कि कृषि विकास की बजाय उद्योगों की तरफ ध्यान दिया गया। इन प्रयासों के बावजूद स्थिति यह है कि औद्योगिक विकास का कोई लाभ देश को नहीं मिला सिवाय इसके कि चंद ऐसे लोगों को रोजगार मिला जो कृषि से ही आते रहे। हमारे यहां कुछ बुद्धिजीवी चीन को आर्थिक विकास प्रेरक मानने की बात कह रहे हैं पर जिस तरह पूरे विश्व की हालत है उसे देखकर नहीं लगता कि वहां कोई असंतोष नहीं है-यह अलग बात है कि तानाशाही होने के कारण उसके विश्व सूचना पटल पर आने की संभावना नहीं है।
          कभी कभी तो लगता है कि सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक तथा कलात्मक क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति है। वहां चंद परिवारों या समूहों का कब्जा है। शिखर पर विराजमान लोग अपनी पूरी शक्ति केवल अपना प्रभाव बनाये रखने पर खर्च कर रहे हैं। उनके सारे प्रयास नये लोगों या समूहों का राष्ट्रीय दृश्य पटल पर आने से रोकना है। उन्होंने अपनी आर्थिक शक्ति, बुद्धि तथा सपने पश्चिमी देशों के पास गिरवी रख दी है। आम आदमी के प्रति नफरत, द्वेष तथा चिढ़ के भाव हैं पर उनको व्यक्त करने वाले माध्यम भी तो इन्हीं प्रभावी लोगों के हाथ में है इसलिये उसका आभास नहीं होता। कुछ आंदोलन होते हैं पर उसमें सक्रिय लोग प्रायोजित लगते हैं और कहीं न कहीं वर्तमान शिखर पुरुषों से उनके संबंध जाहिर हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि जनअसंतोष को उबरने न देने के लिये शिखर पुरुष प्रायोजित लोगों को आगे कर देते हैं ताकि लोग यह समझें कि उनके हितों के लिये कोई जूझ रहा है। ऐसे अंादोलनों का परिणामविहीन रहना या फिर शिखरपुरुषों के अनुरूप फलदायी होना इस बात की पुष्टि करता है। हमारे देश के बुद्धिमानों के पास एक दूसरी सुविधा भी है कि वह भारत के लोगों के मन की भाषा, जाति, धर्म क्षेत्र तथा वर्ण संबंधी कमजोरियों की वजह देश की वास्तविक समस्याओं को भुलाने के लिये वह ऐसे संवेदनशीन मुद्दों पर सार्वजनिक चर्चा कर लेते हैं जिससे विवाद और बहसों की दिशा बदल जाती है।
          बहरहाल पश्चिमी देशों के बढ़ते तनाव के परिणाम क्या होंगे यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि कहीं न कहीं भारत के शिखर पुरुषों पर उनका प्रभाव बढ़ेगा। इसका कारण यह है कि इन सभी की आत्मायें विदेशों में ही बसती हैं और ऐसा लगता है कि वह अपनी देह लेकर यहां इसलिये जमे हैं क्योंकि इसके बिना बाहर उनका आधार बना नहीं रह सकता। यहां शोषक बनकर ही वह विदेशों में सेवक बने रह सकते हैं, इसी कारण ही अनेक जनवादी बुद्धिजीवी देश के आर्थिक रूप से गुलाम होने के आरोप लगाते हैं। उनसे असहमत होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि हम यह अब सब प्रत्यक्ष देख रहे हैं। मूल बात यह है कि भारत में जनअसंतोष बड़े पैमाने पर है पर यहां इसका उपयोग भी पेशेवर समाज सेवक कर रहे हैं। प्रत्यक्ष रूप से वह भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई तथा कालाबाजारी के विरुद्ध आंदोलन करते हैं पर उनका लक्ष्य लोकप्रियता प्राप्त कर फिर शिखर पुरुषों की प्रवाहित शोषण की धारा में शामिल होना होता है। जब यह बात देश समझ जायेगा तभी यह पता चलेगा कि यहां कोई बड़ा आंदोलन चल पाता है कि नहीं। एक बात तय है कि बड़े से बड़ा विशेषज्ञ भी फिलहाल भारत में किसी भारी बदलाव की आशा नहीं करता। हालांकि देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा सामाजिक वैमनस्य इस कदर खतरनाक सीमा तक पहुंच गया है जहां टूटे समाजों से देशभक्ति की आशा करना बेकार है और यह स्थिति परमाणु बम के गिराने अधिक खतरनाक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।

Oct 1, 2011

अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी और भारत की चिंता-हिन्दी लेख (afganisatan,america and india ,milatry action ofr peace-hindi lekh(

         अमेरिका अब अफगानिस्तान से जाने की तैयारी कर रहा है तो भारतीय रणनीतिकारों की सांसें फूल रही हैं। भारतीय प्रचार माध्यमों के सूचीबद्ध बुद्धिजीवियों के लिये यह संभव नही है इस विषय पर वह सार्थक बहस कर सकें। यही सूचीबद्ध बुद्धिजीवी न केवल चैनलों पर आते रहते हैं बल्कि समाचार पत्रों में भी उनके लेख वगैरह छपते हैं। इस बात पर तो बहस हो जायेगी कि अफगानिस्तान ने अमेरिका की सेना वापस जाना चाहिए कि नहीं पर इस पर शायद ही कोई अपनी बात ठोस ढंग से कह सके कि भारतीय रणनीतिकारों की सांस इससे फूल क्यों रही है?
       हम इस पर लिख रहे हैं तो हमारे पास जो जानकारी है वह इन्हीं प्रचार माध्यमों के समाचारों पर आधारित हैं यह अलग बात है कि वह उनको राजनीति, समाज, आर्थिक तथा पत्रकारिता के आधारों पर अलग श्रेणीबद्ध करते हैं पर उनके आपसी संबंध पर उनके सूचीबद्ध बुद्धिजीवी दृष्टिपात नहीं कर। किसी समय अफगानिस्तान पाना अमेरिका का लक्ष्य था और आज वहां बने रहना उसके लिये समस्या बन गया है। अगर हम राष्ट्रीय आधारों पर देखें तो यह समस्या अमेरिका की है कि उसकी सेना वहां रहे या जाये। हमें उसमें दिलचस्पी नहीं लेना चाहिए। जब हमारे रणनीतिकार इस बात से घबड़ाते हैं कि वहां से अमेरिकी सेना जाने के बाद भारत पर संकट आ सकता है तो यह बात माननी पड़ेगी कि वहां हमारे लिये भी समस्या है और हम उससे निपटने में सक्षम नहीं है। दूसरी बात यह है कि हम अगर अपने देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामरिक शक्ति के स्तोत्रों को देखें तो ऐसा नहीं लगता कि हमारे लिये कोई बड़ी समस्या है। सामाजिक और एतिहासिक पृष्ठभूमि का अध्ययन करें तो भी ऐसा नहीं लगता कि वहां की आम जनता हमारे से कोई नफरत करती है। तब सवाल उठता है कि आखिर समस्या क्या और कहां है?
         दरअसल हमारे देश ने चालीस वर्ष से कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ा। जब हम अपने अंदर बैठे राष्ट्र की संकल्पना को देखते हैं तो पाते हैं कि हर राष्ट्र को अपनी रक्षा के लिये युद्ध करना ही पड़ते हैं। हालांकि भारतीय परिस्थ्तिियों में युद्ध का मतलब भयावह ही होता है। 1971 में पाकिस्तान से युद्ध में विजय तो पाई पर आर्थिक रूप से यह देश वहां से टूटा तो फिर खड़ा नही हो सका। वहां से महंगाई का जो दौर चला तो फिर आज तक थमा नहीं है। विकास हुआ पर जरूरतों भी बढ़ी। कमाई बढ़ी पर रुपये का मूल्य गिरता गया। समाज में आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक शिखरों पर बैठे पुरुषों के लिये अब यही समस्या है कि वह अस्तित्व कैसे बनायें रखें। उनकी दिलचस्पी देश की आम जनता के दोहन में है। वह कमाते हैं पर गुणगान अमेरिका और ब्रिटेन का करते हैं। कभी कभी तो लगता है कि देश के शिखर पुरुषों की आत्मा ही अब पश्चिम में बसती है। ऐसे में युद्ध से होने वाली हानि में वह अपनी हानि देखने के साथ ही अपने अस्तित्व का संकट भी अनुभव करते हैं। यही कारण है कि उनको लगता है कि यह देश सुरक्षित रहे और युद्ध भी न करना पड़े इसलिये अमेरिका से वह यही अपेक्षा करते हैं कि वह अफगानिस्तान में अपनी सेना बनाये रखें।
        एक बात तय है कि अफगानिस्तान के आर्थिक संसाधनों का लाभ भारतीय धनपतियों को कहीं न कहीं मिलता है-भले ही वह वैध व्यापार से हो या अवैध व्यापार से। इसके अलावा अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में सक्रिय बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जब बात होती है तो भारतीय आर्थिक विश्लेषक इस बात पर प्रकाश नहीं डालते कि उनमें भारतीय धनपतियों का अंश कितना है? हम जानते हैं कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों में कहीं न कहीं भारतीय पैसा और श्रम लगा हुआ है। यह अलग बात है कि इनके कर्ताधर्ता प्रत्यक्ष रूप से अमेरिकन या ब्रिटिश पूंजीपति हों। स्पष्टतः वैश्विक उदारीकरण के चलते पूरे संसार के धनपति एक हो गये हैं। यह धनपति चाय की पत्ती से लेकर अंतरिक्ष तकनीकी बेचने तक का काम करते हैं। दूसरी बात यह है कि धनपतियों का कहीं न कहीं अपराधियों से सभी संबंध हो गया है और इसी कारण अवैध हथियारों की तस्करी और मादक द्रव्य का व्यापार भी बढ़ा है। इन्हीं धनपतियों के प्रभाव राज्यों पर स्पष्टतः दिखाई देते हैं। भारतीय धनपतियों का प्रभाव जिस तरह विश्व में बढ़ा है उससे लगता है कि अब अफगानिस्तान में भारतीय धनपतियों के लाभ की शायद अधिक संभावना है और अमेरिकी रणनीतिकार इसे समझ रहे हैं। हालांकि भारतीय धनपतियों की अमेरिकी रणनीतिकार अनदेखी नहीं कर सकते पर भविष्य की अधिक संभावनाओं के चलते वह कुछ भी कर सकते हैं। कहीं न कहीं भारतीय धनपति इस बात की अपेक्षा कर रहे हैं कि अमेरिका अफगानिस्तान में बना रहे ताकि उसके प्रबंधकों के सहारे वहां के संसाधनों का दोहन किया जा सके।
         जिस तरह हमारे देश में भ्रष्टाचार जोर पकड़ चुका है। समाज का आम आदमी टूट रहा है ऐसे में किसी भी युद्ध की संभावना किसी को भी डरा देती है। मुश्किल यह भी है कि जब हम एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं तो ऐसे युद्ध लड़ना भी पड़ेंगे। देश के शिखर पुरुषों को आम जनता से अधिक खतरे भी उठाने पड़ेंगे। इधर अब देख रहे है कि सभी प्रकार के शिखर पुरुषों के स्वामी आर्थिक शिखर पर बैठे धनपति हो गये है। अब यह अलग बात है कि अपने ही प्रचार माध्यमों की वजह से भारतीय धनपतियों के प्रति आम जनता का उनमें विश्वास नहीं रहा। इस पर जिस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा आतंकवाद को धन देने की बातें सामने आ रही हैं उससे देश का जनमानस अब इस बात को समझने लगा है कि व्यापारियों का काम केवल कमाना है देशभक्ति दिखाना नहीं। जरूरत पड़े तो वह देशभक्ति को पर्दे पर बेचकर वह पैसा भी कमा सकते हैं। इधर भारतीय रणनीतिकारों को भी सुविधायें भोगने की आदत हो गयी है। पड़ोस में इतने बड़े युद्ध हो गये पर उनको अपना दिमाग चलाने की जरूरत नहीं पड़ी। अगर अमेरिका की सेना अफगानिस्तान से चली गयी तो उनको दिमागी कसरत करनी होगी। आर्थिक लाभ से अधिक सामरिक स्थिति पर अधिक सोचना होगा। सबसे बड़ी बात यह कि इसके चलते भारत के पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान शिखर पुरुषों से दोस्ती निभाने के अवसर कम मिलेंगे। अभी हम देख रहे हैं कि हमारे रणनीतिकार इन दोनों देशों से आर्थिक हितों पर ही बात करते हैं। सामरिक महत्व की कोई चर्चा नहीं होती क्योंकि अमेरिकी सेना के वहां रहते हुए हम ‘बाह्य मामलों में हस्तक्षेप से बचने का बहाना’ बना लेते हैं क्योंकि वहां द्वंद्व अमेरिका की स्थिति को लेकर ही चल रहा है। । इस समय अफगानिस्तान के कथित जुझारु लोग अमेरिका से जूझ रहे हैं उसके जाते ही वह भारत की तरफ मुखातिब होंगें तब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के शिखर पुरुषों से आर्थिक लाभ वाला दोस्ताना खतरे में पड़ सकता है क्योंकि तब सैन्य और सामरिक महत्व के विवादास्पद मामले भी उठ खड़े होंगे। तय बात है कि वह आतंकवाद को लेकर ही होंगे।
       भारतीय रणनीतिकारों की यह चिंता उनकी कमजोरियों को दर्शाती है। वह यह भी दर्शाती है कि सामरिक रूप से शक्तिशाली होते हुए भी हम भारतीयों में वीरता और देश के लिये त्याग करने के संकल्प की कमी है। चालीस साल से शांति भोगते भोगते कहीं न कहीं कायरता का भाव आ गया है। आर्थिक लाभ ही हमारे लिये सर्वोपरि है। हालांकि पहली बात तो यह कि अमेरिका अभी तत्काल अफगानिस्तान से नहंी जाने वाला है इसलिये फिलहाल चिंतायें दूर की हैं। दूसरी बात यह भी है कि जिस तरह अंग्रेज भारत और पाकिस्तान में अपने चरणपुरुष छोड़कर गये वैसे वह अफगानिस्तान में नहीं कर सकता। एक बार वह वहां से निकला तो फिर वहां उसका प्रभाव समाप्त हो जायेगा ऐसे में भारत और पाकिस्तान के धनपतियों के लाभ प्रभावित होंगे। शायद यही कारण है कि भारतीय रणनीतिकार इतने चिंतित है पर जिस तरह भारतीय धनपति देश के प्रति लापरवाह हो गये हैं इस चिंता में आम जनमानस उनके साथ नहीं है।
---------------
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।