दुनियां भर के 82 देशों एक हजार के करीब शहरों में मंदी, महंगाई और बेरोजगारी के विरुद्ध प्रदर्शन होना आम भारतीय के लिये कोई बड़ी बात नहीं है पर देश के आर्थिक रणनीतिकारों, धनपतियों तथा उन उच्च मध्यमवर्गीय लोगों के लिये चिंता की बात होगी जिनके मुख हमेशा पश्चिम की तरफ ताकते हैं इस आशा के साथ हम उनकी राह पर चलकर हम विकसित राष्ट्र कहलायें। यह हम इसलिये कह रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था के दोहरे रूप सामने आ रहे हैं। एक तो आधुनिक अर्थव्यवस्था है जो शुद्ध रूप से औद्योगिक आधार पर टिकी है दूसरी वह हो हमारी परंपरागत कृषि व्यवस्था है जिसके सहारे पूरा देश जिंदा है। सच बात तो यह है कि आज भी हम कृषि पर निर्भरता कम नहीं कर पाये तो औद्योगिक विकास का लाभ चंद पूंजीपतियों के इर्दगिर्द सिमट गया। हमने पश्चिमी देशों के दबाव में आर्थिक उदारीकरण किया पर उसी सीमा तक जिसमें केवल धनपतियों को ही लाभ हों। उस समय हमारे देश के रणनीतिकारों को पश्चिम में आने वाली भावी तबाही का आभास नहीं रहा होगा। आज अगर हमारे यहां भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध कोई बड़ा आंदोलन चलता है तो लोग उसमें शािमल हो जाते हैं। इसके बावजूद लगता नहीं है कि देश के आर्थिक रणनीतिकार इसे समझना चाह रहे हों।
हमारे यहां औद्योगिक आधार पर लाभ श्रमिकों से अधिक पूंजीपतियों को है और अर्थशास्त्र के जो विद्यार्थी रहे हैं वह जानते हैं कि धन का असमान वितरण हमारी अर्थव्यवस्था की बहुत बड़ी समस्या हैं। कहने को हमारे देश र्के आािक नीतियां अर्थशास्त्रियों से राय लेकर बनाई जाती होंगी पर लगता नहीं है कि उन पर अमल हुआ होगा। संभव है कि अर्थशास्त्री भी इस तरह के होंगे जिनको अपनी राय देते समय ही इस तरह का प्रयास करते होंगे कि देश के अर्थप्रबंधकों को जो बात अच्छी लगे वही कही जाये। वरना यह संभव नहीं है कि जिस समस्या को पचास बरस से देखा जा रहा है वह कम होने की बजाय बढ़ती जा रही है। पहले तो यह माना गया कि औद्योगिक विकास के कारण भारत की रोजगार समस्या का हल हो जायेगा। यही कारण है कि कृषि विकास की बजाय उद्योगों की तरफ ध्यान दिया गया। इन प्रयासों के बावजूद स्थिति यह है कि औद्योगिक विकास का कोई लाभ देश को नहीं मिला सिवाय इसके कि चंद ऐसे लोगों को रोजगार मिला जो कृषि से ही आते रहे। हमारे यहां कुछ बुद्धिजीवी चीन को आर्थिक विकास प्रेरक मानने की बात कह रहे हैं पर जिस तरह पूरे विश्व की हालत है उसे देखकर नहीं लगता कि वहां कोई असंतोष नहीं है-यह अलग बात है कि तानाशाही होने के कारण उसके विश्व सूचना पटल पर आने की संभावना नहीं है।
कभी कभी तो लगता है कि सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक तथा कलात्मक क्षेत्रों में जड़ता की स्थिति है। वहां चंद परिवारों या समूहों का कब्जा है। शिखर पर विराजमान लोग अपनी पूरी शक्ति केवल अपना प्रभाव बनाये रखने पर खर्च कर रहे हैं। उनके सारे प्रयास नये लोगों या समूहों का राष्ट्रीय दृश्य पटल पर आने से रोकना है। उन्होंने अपनी आर्थिक शक्ति, बुद्धि तथा सपने पश्चिमी देशों के पास गिरवी रख दी है। आम आदमी के प्रति नफरत, द्वेष तथा चिढ़ के भाव हैं पर उनको व्यक्त करने वाले माध्यम भी तो इन्हीं प्रभावी लोगों के हाथ में है इसलिये उसका आभास नहीं होता। कुछ आंदोलन होते हैं पर उसमें सक्रिय लोग प्रायोजित लगते हैं और कहीं न कहीं वर्तमान शिखर पुरुषों से उनके संबंध जाहिर हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि जनअसंतोष को उबरने न देने के लिये शिखर पुरुष प्रायोजित लोगों को आगे कर देते हैं ताकि लोग यह समझें कि उनके हितों के लिये कोई जूझ रहा है। ऐसे अंादोलनों का परिणामविहीन रहना या फिर शिखरपुरुषों के अनुरूप फलदायी होना इस बात की पुष्टि करता है। हमारे देश के बुद्धिमानों के पास एक दूसरी सुविधा भी है कि वह भारत के लोगों के मन की भाषा, जाति, धर्म क्षेत्र तथा वर्ण संबंधी कमजोरियों की वजह देश की वास्तविक समस्याओं को भुलाने के लिये वह ऐसे संवेदनशीन मुद्दों पर सार्वजनिक चर्चा कर लेते हैं जिससे विवाद और बहसों की दिशा बदल जाती है।
बहरहाल पश्चिमी देशों के बढ़ते तनाव के परिणाम क्या होंगे यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि कहीं न कहीं भारत के शिखर पुरुषों पर उनका प्रभाव बढ़ेगा। इसका कारण यह है कि इन सभी की आत्मायें विदेशों में ही बसती हैं और ऐसा लगता है कि वह अपनी देह लेकर यहां इसलिये जमे हैं क्योंकि इसके बिना बाहर उनका आधार बना नहीं रह सकता। यहां शोषक बनकर ही वह विदेशों में सेवक बने रह सकते हैं, इसी कारण ही अनेक जनवादी बुद्धिजीवी देश के आर्थिक रूप से गुलाम होने के आरोप लगाते हैं। उनसे असहमत होने का प्रश्न ही नहीं है क्योंकि हम यह अब सब प्रत्यक्ष देख रहे हैं। मूल बात यह है कि भारत में जनअसंतोष बड़े पैमाने पर है पर यहां इसका उपयोग भी पेशेवर समाज सेवक कर रहे हैं। प्रत्यक्ष रूप से वह भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई तथा कालाबाजारी के विरुद्ध आंदोलन करते हैं पर उनका लक्ष्य लोकप्रियता प्राप्त कर फिर शिखर पुरुषों की प्रवाहित शोषण की धारा में शामिल होना होता है। जब यह बात देश समझ जायेगा तभी यह पता चलेगा कि यहां कोई बड़ा आंदोलन चल पाता है कि नहीं। एक बात तय है कि बड़े से बड़ा विशेषज्ञ भी फिलहाल भारत में किसी भारी बदलाव की आशा नहीं करता। हालांकि देश में बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार तथा सामाजिक वैमनस्य इस कदर खतरनाक सीमा तक पहुंच गया है जहां टूटे समाजों से देशभक्ति की आशा करना बेकार है और यह स्थिति परमाणु बम के गिराने अधिक खतरनाक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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