May 28, 2010

खूनखराबे का रोग-हिन्दी शायरी (khoonkharabe ka rog-hindi shayari)

वह खून की होली खेलकर
लाल क्रांति लाने का सपना दिखा रहे हैं,
भरे पेट उनके रोटी से
खेल रहे हैं
बेकसूरों की शरीर से निकली बोटी से,
हैवानियत भरी सिर से पांव तक उनके
वही गरीबों के मसीहा की तरह नाम लिखा रहे हैं।
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गोली का जवाब गोली ही हो सकती है
जानवरों से दोस्ती संभव है,
अकेले आशियाना बनाकर
जीना भी बुरा नहीं लगता
जहां पक्षी करते कलरव हैं,
पर हैवानों से समझौता कर
अपनी अस्मिता गंवाना है,
लड़ने के लिये उनको
फिर लाना कोई नया बहाना है,
कत्ल करने के लिये तत्पर हैं जो लोग,
उनको है खूनखराबे का रोग,
कत्ल हुए बिना वह नहीं मानेंगे,
जिंदा रहे तो फिर बंदूक तानेंगे,
सज्जन होते हैं ज़माने में
असरदार उन पर ही मीठी बोली हो सकती है।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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May 24, 2010

आवारा जिन्न-हिन्दी शायरी (awara jinna-hindi shayari

जीवन पथ पर धीमे धीमे
कदम बढ़ाना
यह राह कहीं सहज तो कहीं कठिन है,
रात्रि को चंद्रमा की इठलाती किरणों के तले
उतना ही मस्ताना जितना सह सको
क्योंकि आगे सूरज की किरणों से सजा
आने वाला दिन है।

अपने घर के रखवाले
खुद ही बनकर रहना,
किसी दूसरे को नहीं सौंपना
अपने सम्मान कागहना,
काली नीयत की आग
अच्छी नज़र को पिघला देती है
जैसे आग से पानी हो जाता हिम है।

चौराहे पर आकर चमकने की कोशिश
तुम्हें बाज़ार में बिकने वाली आवारा चीज़ बना देगी,

यह दौलत पाने के अनंत इच्छा
केवल जिंदगी ही  नहीं 

मौत को भी सोने के भाव गला देगी,
पैसा है यहां सभी का देवता
जबकि सर्वशक्तिमान ने बनाया उसे आवारा जिन्न है।
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May 16, 2010

वफा सस्ती कब थी-हिन्दी शायरी (vafaa sasti aur mahangi-hindi shayari)

वफा न कभी सस्ती थी
जो कहें अब महंगी हो गयी,
बाज़ार से हो गयी लापता बरसों से
खरीदने वालों की जो तंगी हो गयी।
दाम चुकाकर वफा खरीद सकते हैं,
पर उसके खालिस होने का नहीं दम भरते हैं,
जब जब कीमत का नकाब उतरा
तब असलियत नंगी हो गयी।
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कई अक्लमंद लगे हैं काम पर
दुनियां के आम इंसान जगाने के लिये,
इसलिये कोई दे रहा है खूनी तकरीर
कोई बांट रहा हथियार  लोगों में, लड़ने के लिये।
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May 10, 2010

समाज एक कारखाना-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (society is a factory-hindi satire poem)

समाज एक कारखाना और
परिवार एक उत्पादित है
उन बुद्धिजीवियों के लिये
जो सजाते हैं अपने ख्यालों में
बड़े करीने से,
ढूंढते हैं परिवारों में
टूटने बिखरने की कहानियां
वाद और नारे से आगे उनकी सोच नहीं जाती,
जिसे कई बार दोहराते
इनामों की थाली उनके घर सजकर आती,
जगा रहे हैं श्रम के लिए इंसाफ की रौशनी
ऐसे लोग
जिनका बदन नहीं नहाया कभी पसीने से।
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कभी ढूंढते हैं लड़खड़ाती प्रेम कहानी में
आजादी का सवाल,
दुनियां में सच की जंग के लिये
तब मचाते हैं  इंसानियत के आशिक की तरह बवाल।
कहीं  खूनखराबे में
इंसाफ की जंग के कायदे बतलाते
देश के पहरेदारों की शहादत से
अपना मुंह छिपाते
कलम के वीरों की तरह ठोकते ताल।
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May 6, 2010

जज़्बात सौदे की तरह बांटते-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (jazbat saude ki tarah bantte-hindi vyangya kavitaen)

इतिहास के पन्नों में
दर्ज खूनखराबे के हादसो में से
वह अपने ख्याल के मुताबिक
पढ़कर आते हैं।
बैठकर महफिलों में
फिर उन पर आंसु बहाते है,
खून का रंग एक जरूर मानते पर
ख्यालों न मिलते हों तो
कई इंसानों के खून भी
उनको पानी की तरह मानकर नज़र फेर जाते हैं।
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कुछ तारीखों को
हमेशा वह दोहराते,
कुछ को भूल जाते।
दर्द का व्यापार करने वाले
अपने जज़्बात सौदे की तरह बांटते
जहां न मिलें दाम,
न मिलता हो इनाम,
वहां से अपनी सोच सहित लापता हो जाते।
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May 1, 2010

ताजमहल और पसीना-मज़दूर दिवस पर कविता(tajmahal aur mazdoor-hindi shayari on mazdoor divas diwas or may day)

ताजमहल प्यार का प्रतीक है
या परिश्रम का
यह समझ में न आया।
शहंशाह ने लूटा गरीब का खज़ाना,
कहलाया वह नजराना,
मजदूरों ने अपना खून पसीना बहाकर
संगमरममर के पत्थर सजाये,
फिर अपने हाथ कटवाये,
कहीं कब्र में दफन था मुर्दा
जिसकी हड्डिया भी धूल हो गयी,
उठकार रख दी वह सभी
नये बने महल के कुछ पत्थरों के नीचे
उसे साम्राज्ञी कहने की इतिहास से भूल हो गयी,
पहले पसीना बहाकर
फिर खून के आंसु रोने वाले
मजदूरों का नाम कोई कागज़ दर्ज नहीं कर पाया।
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