Mar 29, 2014

हिन्दी में आशंका और आशा का उपयोग सावधानी से करना चाहिये-हिन्दी लेख(hindi mein ashanak aur aasha ka upyog sawdhani ka karna chahiey-hindi lekh



      जब हमारे देश में हिन्दी के अधिक से अधिक उपयोग की बात आती है तो अनेक लोग यह कहते हैं कि भाषा का संबंध रोटी से है। जब आदमी भूखा होता है तो वह किसी भी भाषा को सीखकर रोटी अर्जित करने का प्रयास करता है। वैसे देखा जाये तो हिन्दी भाषा के आधुनिक काल की विकास यात्रा प्रगतिशील लेखकों के सानिध्य में ही हुई है और वह यही मानते हैं कि सरकारी कामकाज मेें जब तक हिन्दी को सम्मान का दर्जा नहीं मिलेगा तब हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर वास्तविक रूप से विद्यमान नहीं हो सकती।
      हिन्दी के एक विद्वान थे श्रीसीताकिशोर खरे। उन्होंने बंटवारे के बाद सिंध और पंजाब से देश के अन्य हिस्सों में फैलकर व्यवसाय करने वाले लोगों का दिया था जिन्हेांने  स्थानीय भाषायें सीखकर रोजीरोटी कमाना प्रारंभ किया।  उनका यही कहना था कि जब हिन्दी को रोजगारोन्मुख बनाया जाये तो वह यकीनन प्रतिष्ठित हो सकती है।  इस लेखक ने उनका भाषण सुना था। यकीनन उन्होंने प्रभावपूर्ण ढंग से अपनी बात रखी थी।  बहरहाल हिन्दी के उत्थान पर लिखते हुए इस लेखक ने अनेक ऐसी चीजें देखीं जो मजेदार रही हैं। एक समय इस लेखक ने लिखा था कि कंप्यूटर पर हिन्दी  में लिखने की सुविधा मिलना चाहिये। मिल गयी।  टीवी पर हिन्दी शब्दों का उपयोग अधिक होना चाहिये।  यह भी होने लगा। हिन्दी के लिये निराशाजनक स्थिति अब उतनी नहंी जितनी दिखाई देती है।
      दरअसल अब हिन्दी ने स्वयं ही रोजीरोटी से अपना संबंध बना लिया है। ऐसा कि जिन लोगों को कभी हमने टीवी पर हिन्दी बोलते हुए नहीं देखा था वह बोलने लगते हैं। यह अलग बात है कि यह उनका व्यवसायिक प्रयास है।  अनेक क्रिकेट खिलाड़ी जानबूझकर हिन्दी समाचार चैनलों पर अंग्रेजी बोलते थे।  हिन्दी फिल्मों के अभिनेता भी पुरस्कार समारोह में अंग्रेजी बोलकर अपनी शान दिखाते थे।  अब सब बदल रहा है। यह अलग बात है कि हिन्दी को भारतीय आर्थिक प्रतिष्ठानों की बजाय विदेशी प्रतिष्ठिानों से सहयोग मिला है।
      आजकल क्रिकेट मैचों के  जीवंत प्रसारण का हिन्दी प्रसारण रोमांचित करता है। जिन चैनलों ने इस प्रसारण का हिन्दीकरण किया है वह सभी विदेशी पहचान वाले हैं।  इसमें ऐसे पुराने खिलाड़ी टीवी कमेंट्री करते हैं जिनको कभी हिन्दी शब्द बोलते हुए देखा नहीं था।  इनमें एक तो इतने महान खिलाड़ी रहे हैं जिनके नाम पर युग चलता है पर उन्होंने हिन्दी में कभी संवादा तब शायद ही बोला हो जब खेलते थे पर अब कमेंट्री में पैसा कमाने के लिये बोलने लगे हैं।  मजेदार बात यह है कि इन जीवंत प्रसारणों गैर हिन्दी क्षेत्र के खिलाड़ी अच्छी हिन्दी बोलते का प्रयास करते हुए जहां मिठास प्रदान करते हैं वही उत्तर भारतीय पुराने खिलाड़ी अनेक बार कचड़ा कर हास्य की स्थिति उत्पन्न करते हैं। इतना ही नहीं समाचार चैनलों पर भी कुछ उद्घोषक यही काम कर रहे हैं।
      सबसे मजेदार पुराने क्रिकेट खिलाड़ी  नवजोत सिद्धू हैं जो आजकल हिन्दी बोलने वालों में प्रसिद्ध हो गये हैं।  सच बात तो यह है कि हिन्दी में बोलते हुए  हास्य रस के भाव का सबसे ज्यादा लाभ उन्होंने ही उठाया है।  वह कमेंट्री के साथ ही कॉमेडी धारावाहिकों में भी अपनी मीठी हिन्दी से अपनी व्यवसायिक पारी खेल रहे हैं।  मूल रूप से पंजाब के होने के बावजूद जब वह हिन्दी में बोलते हैं तो अच्छा खासा हिन्दी भाषी साहित्यकार भी यह मानने लगेगा कि वह उनसे बेहतर जानकार हैं। मुहावरे और कहावतें को सुनाने में उनका कोई सानी नहीं है पर फिर भी कभी अतिउत्साह में वह हिन्दी के शब्दों को अजीब से उपयोग करते हैं।  टीवी उद्घोषक भी ऐसी गल्तियां करते हैं।  यह गल्तिया आशा आशंका, संभावना अनुमान, द्वार कगार और खतरा और उम्मीद शब्दों के चयन में ही ज्यादा हैं।
      अब कोई हार के कगार पर हो तो उसे आशा कहना अपने आप में हास्यास्पद है। अगर कहीं दुर्घटना हुई है तो वहां घायलों की संख्या में उम्मीद या संभावना शब्द जोड़ना अजीब ही होता है।  वहां अनुमान या आशंका शब्द उपयोग ही सहज भाव उत्पन्न करता।  उससे भी ज्यादा मजाक तब लगता है जब  कोई जीत के द्वार पर पहुंच रहा हो और आप उसे जीत की कगार की तरफ बढ़ता बतायें। नवजोत सिद्धू एक मस्तमौला आदमी हैं। हमारी उन तक पहुंच नहीं है पर लगता है कि उनके साथ वाले लोग भी ऐसे  ही है जिनको शायद इन शब्दों का उपयोग समझ में नहीं आता।  उनका शब्दों का यह उपयोग थोड़ा हमें परेशान करता है पर एक बात निश्चित है कि उन्होंने यकीनन उनकी जीभ पर सरस्वती विराजती है और जब बोलते हैं तो कोई उनका सामना आसानी से नहीं कर सकता।
      खेल चैनलों में खिलाड़ियों के नाम हिन्दी में होते हैं।  स्कोरबोर्ड हिन्दी में ही आता है।  इससे एक बात तो तय है कि भारत में हिन्दी का प्रचार बढ़ रहा है पर हिन्दी भाषा की शुद्धता को लेकर बरती जा रही असावधनी तथा उदासीनता स्वीकार्य नहीं है। न ही हिंग्लिश का उपयोग अधिक करना चाहिये।  एक प्रयास यह होना चाहिये कि क्रिकेट खिलाड़ियों से भी यह कहना चाहिये कि वह पुरस्कार लेते समय भी हिन्दी में ही बोलें। शुरु में  पाकिस्तानी खिलाड़ियों से उनकी बोली में बात हुई थी पर यह क्रम अधिक समय तक नहीं चला। यह प्रयास रमीज राजा ने किया था। उन्होंने मैच के बाद पुरस्कार लेने आये भारतीय खिलाड़ियों से भी हिन्दी में बात की थी।  एक बात तय रही कि हिन्दी से रोटी कमाने वाले संख्या की दृष्टि बढ़ते जा रहे हैं पर उनका लक्ष्य हिन्दी से भावनात्मक प्रतिबद्धता दिखाना नहीं है।  हमें उम्मीद है कि हिन्दी से कमाने वाले जब भाषा से अपनी हार्दिक प्रतिबद्धता दिखायेंगे तक उसका शुद्ध रूप भी सामने आयेगा।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Mar 25, 2014

अपनी खुशी-हिन्दी क्षणिका(apni khushi)



वह वफादारी की कसमें खाते रहे,
अपनी ईमानदारी के किस्से खुद गाते रहे,
गलतफहमी उनको बस इतनी रही कि
हम उनकी बात सच मान रहे हैं।
कहें दीपक धोखा देकर वह हो गये गायब
मना रहे हैं कामयाबी का जश्न
हमने भी कोई दिल पर जख्म नहीं लिया
यह सोचकर अपनी खुशी मान रहे हैं।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Mar 19, 2014

दुनियां का कोई है उसूल जाओ भूल-हिन्दी व्यंग्य कविता(dunyan ka usul jao bhool-hindi vyangya kavita)



आम इंसान जिंदा रहने के लिये मेहनत से जूझ रहा है,
जिसे मिला आराम का सामान वह मनोरंजक पहेलियां बूझ रहा है।
मुख से शब्दों की वर्षा करते हुए आसान है दिल बहलाना,
रोते अपने गम पर सभी नहीं आता दूसरे का दर्द सहलाना,
अपनी नीयत साफ नहीं पर पूरे ज़माने पर शक जताते,
अपनी गल्तियों पर जिम्मेदार खुद तोहमत गैरों पर लगाते,
बाज़ार से हसीन सपने खरीद लेते हैं सस्ते भाव में अमीर,
जज़्बातों के सौदे में कामयाब होते वही मार ले जो अपना जमीर,
कहें दीपक बापू दुनियां का कोई है उसूल यह बात जाओ भूल
दौलत के ढेर पर पहुंचा वही इंसान जो ज़माने का खून चूस रहा है।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Mar 13, 2014

लालच की ज़मीन पर उम्मीद का उगना-हिन्दी व्यंग्य कविता(lalacha ki zamin par ummeid ka ugana-hindi vyangya kavita)



जुबान उनकी धनुष की तरह टंकार करती पर नहीं छूटता कोई तीर,
हर वाक्य में दहाड़ते हैं पर फिर नहीं कह सकते उनको शब्दवीर।
आश्वासनों का ढेर सारा पुलिंदा उनके पास है चाहे लो जितने,
निभायी नहीं दोस्ती किसी से पर वफा के सुनाते किस्से कितने,
दूसरों के सपनों के जाल में फंसाकर अपने महल खड़े करते हैं,
सर्वशक्तिमान से अपने पाप छिपाने के लिये पुण्य भी बड़े करते हैं,
किसी को रोटी देने का वादा किसी का घर बसाने का उनका इरादा,
मजबूरों की भीड़ में कमजोर दिमाग के शिकार मिल ही जाते ज्यादा,
कहें दीपक बापू ताकत से ज्यादा पाने की ख्वाहिश करती बेबस,
 इसलिये लालच की ज़मीन पर उम्मीद उगाते मिलते  हर जगह पीर
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Mar 7, 2014

कह नहीं सकते-हिन्दी व्यंग्य कविता(kah nahin sakte-hindi vyangya kavita)



नाटक बनते  खबर  या खबर ही नाटक बनती कह नहीं सकते,
पर्दे के नायक दिल देकर बने या बिल लेकर कह नहीं सकते,
कहें दीपक बापू बाज़ार के सौदागरों की मुट्ठी में पूरा जहान है,
कोई दाम देकर  तो कोई दगा देकर खबरों में बना महान है,
पर्दे पर खेल चल रहा है या फिल्म अंदाज लगाना कठिन है,
 खबर जैसी लिखी पटकथा पर करते अभिनेता अभिनय
खिलाड़ी खेलते मगर पहले से तय जीत या हार का दिन है,
हर कोई पैमाना नाप रहा दूसरे की असलियत का
अपने ढोल की  पोल छिपाने में सभी माहिर हैं,
किसी ने मासूम तो किसी ने रोबदार मुखौटा लगाया
डरते हवा के झौंके से उनके कमजोर दिल सब जगह जाहिर है,
न दुनियां अब रंगीन रही न कुछ यहां अजीब लगता है
लोगों के अंदाज कितने सच कितने बनावटी है कह नहीं सकते।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Mar 1, 2014

अच्छा हुआ उस समय वहां चित्रकार या उसका प्रशंसक मौजूद नहीं था-हिन्दी व्यंग्य चिंत्तन लेख(achhca huaa us samaya vahan chitrakar ya uska prashansak maujud nahin thaa-hindi vyangya chinttan lekh)



           
            अपने देश में चित्रकला या पैंटिंग के प्रशंसको ंकी कमी नहीं है।  खासतौर से रेखाचित्रों के जानने के लिये जिस तरह की पारखी आखें चाहिये वह सभी की नहीं होती।
            एक मशहूर चित्रकार का किस्सा कहीं पढ़ा था।  उसका चित्र या पैंटिंग की प्रदर्शनी देखने एक सेठानीनुमा महिला सहेलियों के साथ गयी थी। उसने उस चित्रकार से उस चित्र की  कीमत पूछी जो वह केवल इसलिये खरीदना चाहती थी ताकि वह अपने को कलापारखी सिद्ध कर सके। चित्रकार ने उससे पूछा कि आपको पता है कि इस चित्र में क्या है?’
            महिला ने जवाब दिया-नहीं, मैं तो इसे केवल अपने साथ आई सहेलियो पर आर्थिक शक्ति का प्रभाव दिखाने के लिये खरीदना चाहती हूं।’’
            चित्रकार बिफर उठा। इतना कि उस महिला को उसने प्रदर्शनी से बाहर निकालकर ही दम लिया और कहा कि मैं अपना चित्र किसी गैर पारखी को नहीं बेच सकता।’’
            यह घटना पुरानी है। जब हमने पढ़ी थी तो चित्रकार और उस महिला के बीच विवाद में अपने आपको दोनों तरफ कहीं खड़ा अनुभव नहीं कर पाये। हमने चित्रकार का वह चित्र भी उस समाचार पत्र में देखा था जिसमें इस घटना का ब्यौरा था।  वह चित्र हमारी  समझ में तो नहीं आया।  अगर हम वहां होते तो यकीनन चित्रकार से यही पूछते कि यह चित्र क्या कह रहा है?
            यकीनन वह चित्रकार हमारी हालत भी वही करता। यह अलग बात है कि हमारी तर्कशक्ति और वाणी प्रहार का उसे सामना तो करना ही पड़ता। लेखन के प्रारंभिक दौर में हमारा संपर्क जनवादी तथा प्रगतिशील विचाराधारा के लेखकों से रहा है।  उस समय तक हमारे समझ में उनके समूहों का रूप नहीं आता था। कालांतर में अध्ययन के साथ यह बात सामने आयी कि यह विचारधारा के लेखक अपने एतिहासिक इष्टों के स्वप्न संसार का बोझ ढोते हैं। आधुनिक चित्रकला जगत में कई ऐसी प्रतिमायें हैं जिन्हें जो इस संसार के विषयों को सत्य मानते हुए  उसे अपनी कल्पनाशक्ति से बदलना भी चाहते हैं।  भारतीय अध्यात्म दर्शन उनके लिये जड़ता का प्रमाण या बुर्जूआवादी है। इन स्वप्नजीवी लोगों के संसार पर अधिक बात करना बेकार है पर एक बात महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनायें पढ़ने में मजा आता है।  इंटरनेट पर इनके लेख पढ़ने पर यह तो पता लगता है कि अपनी विचाराधारा के प्रतिबद्धता निभाने में वह अन्य विचाराधारा के लेखकों से आगे हैं  वह भाषा सौंदर्य की जिस तरह प्रस्तुति करते हैं वह प्रशंसनीय है।  जिस इंटरनेट पर लिखने के लिये किसी प्रकार के लेखन नियम की आवश्यकता अधिक नहीं है वहां भी यह अपने पाठों में उसका पालन करते हैं।
            किस्सा हमारी दिल्ली यात्रा का है। हम वहां पारिवारिक काम से गये थे।  वहां साकेत के एक मॉल में जाना हुआ। उसमें स्टील के बर्तनों का एक पेड़ खड़ा किया गया था।  हमें देखकर आश्चर्य हुआ। समझ में नहीं आया कि यह है क्या? अगर बर्तनों की दुकान मानी जाये तो यह प्रश्न था कि कोई विक्र्रेता वहां दिखाई नहीं दे रहा था।  अगर यह माना जाये कि यह सामान बिकने के लिये यहां लाया गया है और फिर किसी दुकान में सजाया जायेगा यह भी नहीं लग रहा था। सबसे महत्वपूर्ण यह कि वह हमारी आंखों को प्रिय लगने की बजाय चुभने वाला एक ढेर लग रहा था।  हमारे साथ चले लोग उसे आश्चर्य चकित होकर तो देख रहे थे पर अधिक देर प्रभावित रहें हों यह नहीं लगा। यह जल्दी समझ में आ गया कि यह वहां हाल की सजावट का हिस्सा है पर आकर्षक नहीं लगा।  देखा जाये तो सजावट पर पैसा खर्च करना है इसलिये कुछ अनोखा किया जाये इसी मद्देनज़र यह रचना हुई होगी। फिर पैसा है तो आदमी यह नहीं देखता कि वह कौनसी चीज खरीद रहा है। वह तो यह दिखाता है कि उसके पास पैसा है जिससे कुछ अनोखा खरीद सकता है।  इस तरह स्टील के बर्तनों के ढेर पर हम अपने शहर की बाज़ारों में वहां देख सकते हैं जहां बर्तनों का बाज़ार लगता है। सीधी बात कहें तो आखों के सामने कोई अनोखापन नहीं आ रहा था।
            आज एक जनवादी ब्लॉग पर एक पाठ पढ़ने पर पता चला कि यह भी एक व्यवसायिक कला बन गयी है।  एक कलाकार का नाम उसमें आया जिसने इससे बहुत पैसा बनाया है।  हमारा मानना है कि यकीनन वह पेड़ इसी कलाकार का रहा होगा।  हमसे गलती यह हुई कि हमने वह पेड़ तो देखा पर उसके आसपास कहीं कुछ नहीं देखा। संभव है कि वहां उसका नाम लिखा होता। बहरहाल कलाकार के नाम की बात करें तो ब्लॉग में बताया गया कि स्टील के इस तरह की कलाकारी में धातुकर्म से जुड़े मजदूर लगते हैं, कलाकार केवल अपनी कल्पना के आधार पर चित्र का सृजन एक इंजीनियंर कर तरह करता है।  एक तरह से कहें तो वह नाम का कलाकार है पर चूंकि उसका व्यवसाय इसी तरह का है इसलिये उसे यह उपाधि मिलती है। वह पूर्वकाल में चित्रकार भी रहा है।
            हम उस ब्लॉग लेखक के आभारी है जिसने यह जानकारी दी दूसरी बात यह कि हम खैर मना रहे हैं कि वह लेखक या उसका प्रशंसक वहां नहीं था वरना हमने साथियों के सामने उस कलाकृति का उपहास उड़ाया था।  कम से कम हमें स्टील के बर्तनों की वह कलाकृति प्रभावपूर्ण नहीं लगी थी और उस पर तमाम तरह की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां अपने मुख से निकली थीं। अगर जनवादी सुनते तो प्रसन्न होते क्योंकि पूंजीवाद की मूर्खतापूर्ण रूप जिस तरह सामने आ रहे है उस पर टिप्पणियां सटीक बैठती थीं।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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