अपने देश में चित्रकला या पैंटिंग के प्रशंसको
ंकी कमी नहीं है। खासतौर से रेखाचित्रों
के जानने के लिये जिस तरह की पारखी आखें चाहिये वह सभी की नहीं होती।
एक मशहूर चित्रकार का किस्सा कहीं पढ़ा
था। उसका चित्र या पैंटिंग की प्रदर्शनी
देखने एक सेठानीनुमा महिला सहेलियों के साथ गयी थी। उसने उस चित्रकार से उस चित्र
की कीमत पूछी जो वह केवल इसलिये खरीदना
चाहती थी ताकि वह अपने को कलापारखी सिद्ध कर सके। चित्रकार ने उससे पूछा कि ‘आपको पता है कि इस चित्र में क्या है?’
महिला ने जवाब दिया-‘नहीं, मैं
तो इसे केवल अपने साथ आई सहेलियो पर आर्थिक शक्ति का प्रभाव दिखाने के लिये खरीदना
चाहती हूं।’’
चित्रकार बिफर उठा। इतना कि उस महिला को उसने
प्रदर्शनी से बाहर निकालकर ही दम लिया और कहा कि ‘मैं अपना चित्र किसी गैर पारखी को नहीं बेच सकता।’’
यह घटना पुरानी है। जब हमने पढ़ी थी तो चित्रकार
और उस महिला के बीच विवाद में अपने आपको दोनों तरफ कहीं खड़ा अनुभव नहीं कर पाये।
हमने चित्रकार का वह चित्र भी उस समाचार पत्र में देखा था जिसमें इस घटना का
ब्यौरा था। वह चित्र हमारी समझ में तो नहीं आया। अगर हम वहां होते तो यकीनन चित्रकार से यही
पूछते कि यह चित्र क्या कह रहा है?
यकीनन वह चित्रकार हमारी हालत भी वही करता। यह
अलग बात है कि हमारी तर्कशक्ति और वाणी प्रहार का उसे सामना तो करना ही पड़ता। लेखन
के प्रारंभिक दौर में हमारा संपर्क जनवादी तथा प्रगतिशील विचाराधारा के लेखकों से
रहा है। उस समय तक हमारे समझ में उनके
समूहों का रूप नहीं आता था। कालांतर में अध्ययन के साथ यह बात सामने आयी कि यह
विचारधारा के लेखक अपने एतिहासिक इष्टों के स्वप्न संसार का बोझ ढोते हैं। आधुनिक
चित्रकला जगत में कई ऐसी प्रतिमायें हैं जिन्हें जो इस संसार के विषयों को सत्य
मानते हुए उसे अपनी कल्पनाशक्ति से बदलना
भी चाहते हैं। भारतीय अध्यात्म दर्शन उनके
लिये जड़ता का प्रमाण या बुर्जूआवादी है। इन स्वप्नजीवी लोगों के संसार पर अधिक बात
करना बेकार है पर एक बात महत्वपूर्ण है कि उनकी रचनायें पढ़ने में मजा आता है। इंटरनेट पर इनके लेख पढ़ने पर यह तो पता लगता है
कि अपनी विचाराधारा के प्रतिबद्धता निभाने में वह अन्य विचाराधारा के लेखकों से
आगे हैं वह भाषा सौंदर्य की जिस तरह
प्रस्तुति करते हैं वह प्रशंसनीय है। जिस
इंटरनेट पर लिखने के लिये किसी प्रकार के लेखन नियम की आवश्यकता अधिक नहीं है वहां
भी यह अपने पाठों में उसका पालन करते हैं।
किस्सा हमारी दिल्ली यात्रा का है। हम वहां
पारिवारिक काम से गये थे। वहां साकेत के
एक मॉल में जाना हुआ। उसमें स्टील के बर्तनों का एक पेड़ खड़ा किया गया था। हमें देखकर आश्चर्य हुआ। समझ में नहीं आया कि
यह है क्या? अगर बर्तनों की
दुकान मानी जाये तो यह प्रश्न था कि कोई विक्र्रेता वहां दिखाई नहीं दे रहा
था। अगर यह माना जाये कि यह सामान बिकने
के लिये यहां लाया गया है और फिर किसी दुकान में सजाया जायेगा यह भी नहीं लग रहा
था। सबसे महत्वपूर्ण यह कि वह हमारी आंखों को प्रिय लगने की बजाय चुभने वाला एक
ढेर लग रहा था। हमारे साथ चले लोग उसे
आश्चर्य चकित होकर तो देख रहे थे पर अधिक देर प्रभावित रहें हों यह नहीं लगा। यह
जल्दी समझ में आ गया कि यह वहां हाल की सजावट का हिस्सा है पर आकर्षक नहीं
लगा। देखा जाये तो सजावट पर पैसा खर्च
करना है इसलिये कुछ अनोखा किया जाये इसी मद्देनज़र यह रचना हुई होगी। फिर पैसा है
तो आदमी यह नहीं देखता कि वह कौनसी चीज खरीद रहा है। वह तो यह दिखाता है कि उसके
पास पैसा है जिससे कुछ अनोखा खरीद सकता है।
इस तरह स्टील के बर्तनों के ढेर पर हम अपने शहर की बाज़ारों में वहां देख
सकते हैं जहां बर्तनों का बाज़ार लगता है। सीधी बात कहें तो आखों के सामने कोई
अनोखापन नहीं आ रहा था।
आज एक जनवादी ब्लॉग पर एक पाठ पढ़ने पर पता चला
कि यह भी एक व्यवसायिक कला बन गयी है। एक
कलाकार का नाम उसमें आया जिसने इससे बहुत पैसा बनाया है। हमारा मानना है कि यकीनन वह पेड़ इसी कलाकार का
रहा होगा। हमसे गलती यह हुई कि हमने वह
पेड़ तो देखा पर उसके आसपास कहीं कुछ नहीं देखा। संभव है कि वहां उसका नाम लिखा
होता। बहरहाल कलाकार के नाम की बात करें तो ब्लॉग में बताया गया कि स्टील के इस
तरह की कलाकारी में धातुकर्म से जुड़े मजदूर लगते हैं, कलाकार केवल अपनी कल्पना के आधार पर चित्र का सृजन एक
इंजीनियंर कर तरह करता है। एक तरह से कहें
तो वह नाम का कलाकार है पर चूंकि उसका व्यवसाय इसी तरह का है इसलिये उसे यह उपाधि
मिलती है। वह पूर्वकाल में चित्रकार भी रहा है।
हम उस ब्लॉग लेखक के आभारी है जिसने यह
जानकारी दी दूसरी बात यह कि हम खैर मना रहे हैं कि वह लेखक या उसका प्रशंसक वहां
नहीं था वरना हमने साथियों के सामने उस कलाकृति का उपहास उड़ाया था। कम से कम हमें स्टील के बर्तनों की वह कलाकृति
प्रभावपूर्ण नहीं लगी थी और उस पर तमाम तरह की व्यंग्यात्मक टिप्पणियां अपने मुख
से निकली थीं। अगर जनवादी सुनते तो प्रसन्न होते क्योंकि पूंजीवाद की मूर्खतापूर्ण
रूप जिस तरह सामने आ रहे है उस पर टिप्पणियां सटीक बैठती थीं।
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.हिन्दी पत्रिका
५.दीपकबापू कहिन
६. ईपत्रिका
७.अमृत सन्देश पत्रिका
८.शब्द पत्रिका
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.हिन्दी पत्रिका
५.दीपकबापू कहिन
६. ईपत्रिका
७.अमृत सन्देश पत्रिका
८.शब्द पत्रिका
No comments:
Post a Comment