Jan 30, 2010

। खिताब बौने लगने लगे हैं-हिन्दी व्यंग्य कविता (prize culture-hindi comic poem)

चिल्लाने वाले सिरफिरों को

उस्ताद के खिताब मिलने लगे हैं,

दूसरों के इशारों पर नाचने वाले पुतलों में

लोगों को अदाकारी के अहसास दिखने लगे हैं।

बेच खाया जिन्होंने मेहनतकशों का इनाम

दरियादिली के नकाब के वही पीछे छिपने लगे हैं।

औकात नहीं थी जिनकी जमाने के सामने आने की,

जो करते हमेशा कोशिश, अपने पाप सभी से छिपाने की,

खिताबों की बाजार में,  ग्राहक की तरह मिलने लगे हैं।

जिन्होंने पाया है सर्वशक्तिमान से सच का नूर,

अंधेरों को छिपाती रौशन महफिलों से रहते हैं दूर,

दुनियां के दर्द को भी अब हंसी में लिखने लगे हैं।

सच में किया जिन्होंने पसीने से दुनियां को रौशन

सारे खिताब उनके आगे अब बौने दिखने लगे हैं।

लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Jan 27, 2010

एक बूंद पानी भी नहीं सह पाते हैं-हिन्दी व्यंग्य कविताएं(ek boond pani-hindi vyangya kavitaen)

अपने गम और दूसरे की खुशी पर मुस्कराकर

हमने अपनी दरियादिली नहीं दिखाई।

चालाकियां समझ गये जमाने की

कहना नहीं था, इसलिये छिपाई।

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अपनी तकदीर से ज्यादा नहीं मिलेगा

यह पहले ही हमें पता था।

बीच में दलाल कमीशन मांगेंगे

या अमीर हक मारेंगे

इसका आभास न था।

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रात के समय शराब  में बह जाते हैं

दिन में भी वह प्यासे नहीं रहते

हर पल दूसरों के हक पी जाते हैं।

अपने लिये जुटा लेते हैं समंदर

दूसरों के हिस्से में

एक बूंद पानी भी हो

यह नहीं सह पाते हैं।

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Jan 24, 2010

केवल दस्तखत का काम किया-हिन्दी शायरियां (kewal dastkhat ka kam-hindi shayriyan)

वफा हम सभी से निभाते रहे

क्योंकि गद्दारी का नफा पता न था।

सोचते थे लोग तारीफ करेंगे हमारी

लिखेंगे अल्हड़ों में नाम, पता न था।

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राहगीरों को दी हमेशा सिर पर छांव

जब तक पेड़ उस सड़क पर खड़ा था।

लोहे के काफिलों के लिये कम पड़ा रास्ता

कट गया, अब पत्थर का होटल खड़ा था।

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जुल्म, भूख और बेरहमी कभी

इस जहां से खत्म नहीं हो सकती।

उनसे लड़ने के नारे सुनना अच्छा लगता है

गरीबी बुरी, पर महफिल में खूब फबती।

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हमारे शब्दों को उन्होंने अपना बनाया

बस, अपना नाम ही उनके साथ सजा लिया।

उनकी कलम में स्याही कम रही हमेशा

इसलिये उससे केवल दस्तखत का काम किया।

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Jan 21, 2010

कुछ कम कर लो-हिन्दी शायरी (dost dushman-hindi shayri)

रोटी बहुत हैं तुम्हारे पास

तो भी अपने पेट की भूख

कुछ कम लो।

फैलाते हो पानी सड़क पर

बहुत बुरा है

कुछ अपनी प्यास ही कम कर लो।

चादर से बाहर पांव फैलाओ

दूसरे को आसरा मिले

इसलिये घर की छत कुछ कम लो।

ढेर सारे कपड़े सजाकर

घर में रखने से लाभ नहीं

पहनावे का शौक कुछ कम कर लो।

बांटकर खाना सीखो

अपनी अमीरी का रौब दिखाकर

दोस्त नहीं बनाये जाते

दूसरों का दर्द दूर करना सीखो

अपने दुश्मन जमाने में कुछ कम कर लो

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Jan 14, 2010

दिल तो एक है-हिन्दी शायरी (dil to ek hai-hindi shayri)

प्यार मांगने की चीज होती तो

किसी से भी मांग लेते,

इज्जत छीनने की चीज होती तो

किसी से भी छीन लेते।

लोग नहीं सुनते अपने ही दिल की बात,

मारते हैं अपने ही जज़्बात को लात,

दिमाग को ही अपना मालिक समझते,

बड़े अक्लमंद दिखने को सभी हैं तैयार

पर लुटती होती कहीं अक्ल तो सभी लूट लेते।

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कुछ पल का साथ मांगा था

वह सीना तानकर सामने खड़े हो गये।

गोया अपनी सांसे उधार दे रहे हों

हमें अपनी जिंदगी को ढोने के लिये

जो ऊपर वाले ने बख्शी है,

फरिश्ता होने के ख्याल में

वह फूलकर कुप्पा हो गये।

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ताली दोनों हाथ से बजती है,

दिल की बात दिल से ही  जमती है,

हाथ तो दो है

चाहे जब बजा लेंगे,

पर दिल तो एक है क्या करेंगे?


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Jan 10, 2010

हाकी के खिलाड़ी जितना मांग रहे हैं उससे अधिक धन उनको दो-आलेख (indian hocky player and world cup-hindi article)

भारतीय हाकी अब रसातल में है। एक समय भारतीय हाकी का परचम पूरी दुनियां में फहराता रहा था और वह हमारी राष्ट्रीय पहचान थी। आज क्रिकेट में जरूर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड -बीसीसीआई-की टीम देश की प्रतिनिधि टीम कहलाती है पर वह हमारी राष्ट्रीय पहचान नहीं है। वैसे भी क्रिकेट अंग्रेजों की पहचान है उस पर भारत के नाम का मुल्लमा नहीं चढ़ सकता। इधर हमारे देश की हाकी टीम पहचान के लिये तरस रही है और उधर उसके योद्धा पैसे पाने के लिये संघर्ष करते नज़र आ रहे हैं। यह उन योद्धाओं को छोड़कर बाकी पूरे देश के लिये शर्म की बात है।

आज अखबार पढ़ते समय पता चला कि 28 फरवरी से दिल्ली में हाकी का विश्व कप शुरु हो रहा है। वह भी इसलिये पता चला क्योंकि उसमें भारत के सारे मैच रात को कराने का समाचार दिया गया था। यह तो मुख्य पृष्ठ पर हाकी के खिलाड़ियों और अधिकारियों के बीच धन को लेकर हुए समझौते के समाचार का शेष हिस्सा अखबार के खेल पृष्ठ पर ढूंढने गये तब पता लगा कि कोई हाकी विश्व कप हो रहा है। वैसे वह समाचार दूसरे पृष्ट पर था पर हाकी के विश्व कप के समाचार ने कुछ सोचने को बाध्य कर दिया।
भारत के सारे मैच रात्रि में होंगे। इसका मतलब है कि मैदान पर फ्लड लाईट के इंतजाम में ही बहुत बड़ी धनराशि खर्च हुई होगी। इतना ही नहीं विश्व कप हाकी प्रतियोगिता में करोड़ो रुपये खर्च होना प्रस्तावित होंगे। इस तरह के कार्यक्रमों पर ढेर सारा खर्चा आता है इसमें तो कोई संदेह नहीं है। ऐसे में हमारे खिलाड़ियों द्वारा पैसे या वेतन की मांग करना कोई गलत नहीं था। वैसे समझौते की बात सामने आयी है पर भारतीय कप्तान ने उसका विवरण नहीं दिया। इसका मतलब यह है कि कुछ मामलों में भारतीय खिलाड़ी अपनी मांगों से पीछे हटे होंगे-ऐसा अनुमान लगा सकते हैं।
हम यहां समझौते से अलग हटकर यह कहना चाहेंगे कि भारतीय हाकी खिलाड़ियों को उससे अधिक पैसा और सुविधाऐं देना चाहिये जितनी वह मांग कर रहे हैं। यह मजाक नहीं है! यह उनको तय नहीं करना कि उनकी आवश्यकतायें क्या है? यह देश के जिम्मेदार लोगों को -जो इसके प्रबंधन से जुड़े हैं-तय करना चाहिये कि उनको कितना धन और सुविधायें दी जायें कि उनका आत्मविश्वास बढ़े। सच तो यह है कि हमारे देश की प्रबंधकीय संस्थाओं के कथित पदाधिकारी न तो संबंधित खेलों की तकनीकी के बारे में जानते है न ही उनके पास कोई प्रबंधकीय कौशल होता है। वैसे हमारे यहां किसी पद की योग्यता देखकर लोग रखे भी कहां जाते हैं? योग्यता का आधार तो बस यही है कि आप उस पद पर किस तरह पहुंच पाते हैं, जिस पर बैठकर आपको काम करना है! कैसा करना है, न यह कोई बताने वाला है न देखने वाला! वहां पहुंचे लोगों के लिये खिलाड़ी केवल बेजुबान पशु की तरह हो जाता है-जिसे बोलना नहीं बल्कि केवल खेलना चाहिये। मुश्किल यह है कि ऐसे प्रबंधक पशुओं को भी तो पालना नहीं जानते जो उनको समझाया जाये कि लोग अपनी गाय, भैंस, बकरी तथा अन्य पशुओं को भी अपनी संतान की तरह प्यार करते हैं। इन पशुओं से धन कमाने से पहले उन पर व्यय करना पड़ता है। फिर ऐसे प्रबंधक भले ही पाश्चात्य शिक्षा से प्रेरित होते हैं पर वहां के प्रबंधकीय विद्या को नहीं जानते जिसमें धन से मनुष्य को प्रेरित कैसे किया जाये इसकी जानकारी दी जाती है।
हम तो उन भारतीय हाकी खिलाड़ियों की प्रशंसा करते हैं जो इतने सारे अभावों के साथ आगे बढ़ते हैं जो कि उनके दृढ़प्रतिज्ञ मनुष्यों की नस्ल को होने का ही प्रमाण है, पर यह खाली प्रशंसा उनका दिल भर नहीं सकती। सच बात तो यह है कि धन भले ही सब कुछ न हो पर किसी भी मनुष्य में आत्मविश्वास बढ़ाने का एक बहुत बढ़ा स्त्रोत है। अगर आप चाहते हैं कि बिना खर्च किये कोई भला काम हो तो आप आत्मप्रेरणा से वह करें पर दूसरे से यह अपेक्षा करना अपनी अज्ञानता का प्रमाण देना होगा। आप देशभक्ति और समाज कल्याण के लिये जमकर जुटे रहें पर जब दूसरे को जिम्मेदारी दें तो पैसा खर्च करें और वह भी काम से पहले।

भारतीय हाकी टीम में हद से हद 18 खिलाड़ी होंगे। उनका कैसे आत्मविश्वास बढ़े यह सोचना शेष पूरे देश का काम है। वह तो अपने लिये सामान्य मांगें रखेंगे-वेतन और कुछ छोटी मोटी सुविधाओं की। मगर देश के सामाजिक, आर्थिक तथा अन्य क्षेत्रों के प्रबंधकों को यह सोचना चाहिये कि किस तरह उनका आत्म विश्वास ऊंचाई पर पहुंचे। जरा देश की वैश्विक छवि पर नजर डालिये। प्रचार माध्यमों में कहा जा रहा है कि ‘भारत विश्व में आर्थिक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है’ और ‘यहां की प्रतिभाएं विश्व में नाम कर रही हैं।’ इसका सीधा आशय यही है कि यहां धन की कोई कमी नहीं है। यहां अरबों रुपये कमा चुके क्रिकेट खिलाड़ी और फिल्म अभिनेता हैं। ‘चक दे इंडिया’ फिल्म में अभिनय करने वाले एक अभिनेता ने भारतीय हाकी खिलाड़ियों की मांग का समर्थन किया है। याद रहे यह वह फिल्म है जिसमें कल्पित रूप से भारत की महिला हाकी टीम को विश्व विजेता बताया गया था। उसका गाना यदाकदा हम तब सुनते हैं जब कहीं भारत की क्रिकेट टीम जीत जाती है। इस फिल्म अभिनेता ने बाद में एक क्लब की टीम खरीद ली जो आजकल कहीं व्यवसायिक मैच खेलती है। मतलब यह कि हाकी के नाम पर उसकी फिल्म ने कमाया पर फल रहा है क्रिकेट। अब उसने शाब्दिक सहानुभूति हाकी टीम से जताई है। हम उससे यह आग्रह नहीं कर रहे कि आप कुछ रुपया खर्च कर भारतीय टीम को प्रेरित करें क्योंकि और भी बहुत सारे लोग हैं। फिर इस देश में अनेक बड़ी कंपनियां हैं जो खेलों को प्रायेाजित कर अपने विज्ञापन देती हैं। क्या वह हाकी खिलाड़ियों का हौंसला बढ़ाने आगे नहीं आ सकतीं।
जब हाकी विश्व कप भारत में हो रहा है तो भला अपने ही देश के खिलाड़ियों को आर्थिक रूप से कमजोर रखकर हम विश्व में अपनी आकर्षक छवि कहां रख पायेंगे।
खिलाड़ी एक मांगते हैं उनको चार रुपये दिलवाओ। मकान, गाड़ी और अन्य सुविधायें पहले से ही दिलवा दो तो क्या हर्ज है? ऐसा नहीं है कि वह तकनीकी दृष्टि से कमजोर हैं या केवल अभिनय करने वाले हैं। वह सचमुच खिलाड़ी हैं तभी तो टीम में चुने गये हैं। यहां हम गरीब या असहाय के लिये धन व्यय करने के लिये कह रहे बल्कि जिससे देश का नाम और लोगों का आत्मविश्वास बढ़े उसके लिये यह सुझाव दे रहे हैं। विश्व जीतने से पहले खिलाड़ियों को पैसे देने में शायद कुछ लोगों को आपत्ति लगे। शायद वह आशंका व्यक्त करें कि कहीं धन की खुमारी में खिलाड़ी बहक न जायें पर यह क्रिकेट नहीं हाकी है और इसमें फिटनेस के मानदंड कहीं ऊंचे होते हैं इसलिये पहले ही अधिक पैसा मिलने से खिलाड़ियों का आत्मविश्वास बढ़ेगा। शायद कुछ लोग यह कहें कि इससे विश्व कप तो नहीं जीता जा सकता। ठीक है, पर पैसा खर्च करने पर भी अनेक पुल ढह जाते हैं, मकान धराशायी हो जाता है। जनकल्याण के लिये निकला पैसा आम आदमी की जेब में पहुंचने से पहले ही मध्यस्थ लोगों के बैंक खाते में पहुंच जाते हैं। । उसकी हानि आंकलन करें तो कुछ करोड़ रुपये अगर हाकी खिलाड़ियों पर खर्च करने पर भी भारत का प्रदर्शन नहीं सुधरता तो क्या बुराई है? इसे भविष्य के हाकी खिलाड़ियों का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिये एक निवेश भी समझा जा सकता है। खासतौर से जब हम हाकी को राष्ट्रीय खेल कहते हैं तब यह जरूरी भी लगता है।
हाकी खिलाड़ी भला कैसे कहें कि उनका आत्मविश्वास अधिक पैसे से बढ़ेगा? लोग एकदम उन पर ब्लैकमेल करने का आरोप लगा देंगे। फिर कोई देश भक्ति का उपदेश देगा तो कोई अध्यात्मिक संदेश देते हुए कहेगा कि ‘धन ही सब कुछ नहीं होता।’
जनाब, हाकी प्रतियोगिता अंततः भौतिक जगत में अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिये आयोजित हो रही है। पैसे के दांव पैसे से ही ख्ेाले जाते हैं। आप अपने देश की प्रतिष्ठा विश्व में बढ़ाने के लिये आयोजित कर रहे हैं पर आपके खिलाड़ियों का दुःख उसे क्षति पहुंचा रहा है। हाकी की विश्व कप प्रतियोगिता एक प्रतिष्ठत प्रतियोगिता है, फिल्म और क्रिकेट के आकर्षण में खोये लोग शायद ही इस बात को समझ पायें। रैंगते रैंगते विश्व विजेता की तरफ बढ़ती भारतीय क्रिकेट टीम पहले ही झटके में टूट जाती है। कभी कभार कमजोर देशों से जीत कर एक दिन के लिये विश्व वरीयता में पहला स्थान मिलता है तो देश के सार प्रचार माध्यम फूल कर कुप्पा हो जाते हैं। ‘चक दे इंडिया’ फिल्म को देखकर ही विश्व विजेता होने का अहसास पाल लेते हैं। ‘स्लम डोग’ फिल्म में ही गरीब आदमी को करोड़पति बनते देख खुश हो जाते हैं। कभी किसी आम आदमी या खिलाड़ी को संघर्ष करने पर उसे पुरस्कृत करना सहज है पर वह प्रतियोगिता जीते इसके लिये पहले उसे पैसा दिया जाये, यह बात किसी के दिमाग में शायद ही आये।
प्रसंगवश आज अखबार में एक खबर पढ़ी जिसमें अमेरिका में एक सर्वे किया गया है जिसमें लोगों का मानना है कि ‘अगला बिल गेट्स भारत या चीन में पैदा होगा।’ यह मजाक लगा क्योंकि अमेरिकन इन देशों की हालत नहीं जानते। साम्यवादी चीन में तो यह संभव ही नहीं है और भारत में पैदा हो सकता है पर उसे आगे बढ़ायेगा कौन? क्या इस देश की ऐसे हालत हैं? बहरहाल इस विषय पर हमारी सहानुभूति ‘भारतीय हाकी टीम में खिलाड़ियों के साथ है। हमने हाकी और क्रिकेट दोनों ही खेल ख्ेाले हैं और जानते हैं कि हाकी जीवट वालों का खेल हैं जो अब हम नहीं खेल सकते पर क्रिकेट में चाहे जब खेल लो। भारतीय खिलाड़ियों के लिये यह कामना हम करेंगे कि वह इस प्रतियोगिता को जीतें।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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Jan 2, 2010

लगातार दर्द से संवेदनायें मर जाती हैं-व्यंग्य चिंतन (cold wave-hindi satire

टीवी चैनलों वाले भी क्या करें? उनको हमेशा ही सनसनीखेज की जरूरत है, वह न मिलें तो उसका एक ही उपाय है कि होता है कि हर खबर को सनसनीखेज खबर बनाया जाये। जब हर दस मिनट में ‘ब्रेकिंग न्यूज’ देना है तो फिर चाहे जो खबर पहली बार मिले उसे ही चला दो।
कोहरा कोई खास खबर नहीं है। कम से कम सर्दी में तो नहीं है। अगर सर्दी में मावठ की वर्षा न हो पड़े तो फिर फसलों के लिये परेशानी तो है ही आने वाली गर्मियों में जमीन का जलस्तर बहुत जल्दी कम हो जाने की आशंका हो जाती है।
कोहरे में रेलगाड़ियों के लिये क्या आदमी के लिये भी घर से निकलना परेशानी का कारण हो जाता है।
इधर घर में रजाई में बैठकर सर्दी से ठिठुर रहे हैं और उधर टीवी सुना रहा है कि ‘नई दिल्ली में हवाई जहाज की उड़ाने रद्द’, ‘उड़ाने रद्द होने से यात्री परेशान’, ‘नई दिल्ली रेल्वे स्टेशन पर अनेक गाड़ियां कोहरे के कारण लेट’ और वही पुराना राग ‘सही जानकारी न मिलने से यात्री परेशान’। लगातार ब्रेकिंग न्यूज चल रही है। यात्रा करने वालों के लिये अनेक कारण यात्रा के हो सकते हैं। अजी, इस मौसम में ही शादियां अधिक होती हैं तो गमियां भी! आदमी को जाना पड़ता है। फिर इधर नया साल आया। यह अपना परंपरागत भारतीय पर्व नहीं हैं। इस मौसम में कोई भी भारतीय पर्व नहीं पड़ता। शायद इसलिये अनेक विशेषज्ञ कहते हैं कि त्यौहारों का मौसम स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उसी समय होता है जब मौसम ठीकठाक हो और इसी कारण वह परंपरा भी बन जाते हैं। मगर अपने यहां खिचड़ी संस्कृति है सो लोग इसकी परवाह नहीं करते।
जिस दिन नया साल आ रहा था। सर्दी के मारे हम तो सो गये। रात को फटाके जलने की आवाज से हमारी निद्रा टूटी। बहुत देर तक हम सोच रहे थे कि ‘शायद कोई बारात आयी होगी।’ जब लगातार फटाखे जलने की आवाज आयी- साथ में हमारी नियमित स्मृति भी-तब याद आया कि नया वर्ष आया है।
ऐसे फटाखे शायद पूरे भारत में जल होंगे और शायद इससे पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ होगा शायद इसने इसलिये नहीं लिखा। दिवाली पर तो बहुत रोना रोते हैं लोग कि ‘बड़ा खराब त्यौहार है, जिस पर जलने वाले फटाखों से पर्यावरण प्रदूषित होता है।’
शायद यह अंग्रेजी त्यौहार है इस पर ऐसी बातें लिखना पुरातनपंथी व्यवहार का प्रमाण होगा। सर्दी ने नया साल वगैरह सब भुला दिया है पर इस मौके पर शादी और गमी के अलावा अन्य आवश्यक कार्य से यात्रा पर जाने वालों से अधिक संख्या उन लोगों की होगी जो नववर्ष मनाने के लिये कही सैरसपाटे करने जा रहे होंगे या लौटते होंगे। ऐसे में सर्दी में अपने कमरे के अंदर रजाई में बैठे एक सज्जन ने हमसे कहा-‘यार, लोग इतनी सर्दी में अपने घर से बाहर क्यों निकलते हैं?’
हमें अपने आप पर ही शर्मिंदगी महसूस होने लगी क्योंकि हम भी तो उनके यह अपने ही घर से निकल कर आये थे।’
हमने कहा-‘ब्रेकिंग न्यूज बनाने के लिये।’
वह सज्जन बोले-‘हां, यह बात कुछ जमी! तुम्हारा हमारे यहां आना ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं है। तुम्हारा काफी पीने का हक बनता है। इतने दिनों बाद तुम्हें हमारी याद आयी।’
हमने कहा-‘इससे बड़ी बात यह है कि हम सर्दी में घर से बाहर निकले। पता लगा कि तुम बीमार हो! दोस्त यारों ने हम पर दबाव डाला कि हम तुम्हें देखने आयें।’
वह सज्जन बोले-‘तब तो तुम्हें पांच दिन पहले आना था। अब तो हम ठीक हैं। इस तरह तो तुम्हारा यहां आना भी सार्थक न रहा।’
हमने काफी का कप उठाते हुए कहा-‘यार, तुमने काफी पिलाकर कुछ दर्द हल्का कर दिया। वैसे सर्दी में घर से निकलने का अफसोस तुम्हारी तबियत देखने के कारण नहीं था पर तुमने ऐसी बात कर दी कि लगने लगा कि हमने गलती की।’
वह सज्जन रजाई में बैठे ही उचकते हुए बोले-‘यानि, मेरी तबियत अच्छी देखकर तुम्हें खुशी नहीं हुई। अपने सर्दी में बाहर निकलने का दर्द तुमको अब इसी कारण हो रहा है।’
हमने कहा-‘नहीं यार, तुम्हारी बात से हमें ऐसा लगा कि सैर सपाटा करने निकले हैं।
यह एक सामान्य बातचीत थी। वाकई इस बार सर्दी अधिक पड़ रही है पर ऐसा हमेशा होता है। इसमें ब्रेकिंग न्यूज जैसा कुछ हो सकता है या इससे सनसनी फैल सकती है, ऐसा नहीं लगता। बरसात में बाढ़ आने की खबरें सुनते हुए बरसों हो गये। कहते हैं कि दर्द झेलते हुए एसा समय भी आता है जब आदमी संवेदनायें मर जाती हैं और कहीं वह दर्द चला जाये तो आदमी को अजीब सा लगता है। यह कोहरा तथा उससे विमानों की उड़ाने और रेल यातायात का बाधित होना अब कोई प्रतिक्रिया पैदा नहीं करता। मगर खबर देने वाले भी क्या करें? लोग घर से निकलते कम हैं तो उनके लिये खबरें भी कम हो जाती हैं। फिर इतना बड़ा देश है तो लोग मजबूरी में यात्रायें तो करेंगे और चाहे जो भी मौसम हो तो हवाई अड्डों और स्टेशनों पर भीड़ होगी ही। अगर वह दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता या अन्य बड़ा शहर हुआ तो फिर कहना ही क्या? तब तो खबरें लिखने वालों को बाहर निकलते ही खबर मिल जाती है। बाकी देश में कहां ढूंढते फिरें! ऐसे में सर्दी में अपने दिनों की याद को हम अकेले में ही याद कर उसे अपने ब्लाग/पत्रिका पर लिख सकते हैं।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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