क्योंकि गद्दारी का नफा पता न था।
सोचते थे लोग तारीफ करेंगे हमारी
लिखेंगे अल्हड़ों में नाम, पता न था।
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राहगीरों को दी हमेशा सिर पर छांव
जब तक पेड़ उस सड़क पर खड़ा था।
लोहे के काफिलों के लिये कम पड़ा रास्ता
कट गया, अब पत्थर का होटल खड़ा था।
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जुल्म, भूख और बेरहमी कभी
इस जहां से खत्म नहीं हो सकती।
उनसे लड़ने के नारे सुनना अच्छा लगता है
गरीबी बुरी, पर महफिल में खूब फबती।
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हमारे शब्दों को उन्होंने अपना बनाया
बस, अपना नाम ही उनके साथ सजा लिया।
उनकी कलम में स्याही कम रही हमेशा
इसलिये उससे केवल दस्तखत का काम किया।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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