उस्ताद के खिताब मिलने लगे हैं,
दूसरों के इशारों पर नाचने वाले पुतलों में
लोगों को अदाकारी के अहसास दिखने लगे हैं।
बेच खाया जिन्होंने मेहनतकशों का इनाम
दरियादिली के नकाब के वही पीछे छिपने लगे हैं।
औकात नहीं थी जिनकी जमाने के सामने आने की,
जो करते हमेशा कोशिश, अपने पाप सभी से छिपाने की,
खिताबों की बाजार में, ग्राहक की तरह मिलने लगे हैं।
जिन्होंने पाया है सर्वशक्तिमान से सच का नूर,
अंधेरों को छिपाती रौशन महफिलों से रहते हैं दूर,
दुनियां के दर्द को भी अब हंसी में लिखने लगे हैं।
सच में किया जिन्होंने पसीने से दुनियां को रौशन
सारे खिताब उनके आगे अब बौने दिखने लगे हैं।
लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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