Feb 22, 2014

बिना युद्ध लड़े विजेता की छवि-हिन्दी व्यंग्य कविता(bina yuddh lade vijeta ki chavi)




जिसे देखो वही ज़माने को कुछ न कुछ सिखा रहा है,
कोई गुरु कोई मुखिया की सूची में अपना नाम लिखा रहा है।
कोई शास्त्र पढ़ा नहीं पर ज्ञानी होने का दावा कर रहे हैं,
भलाई के वादे में धोखे का सभी छलावा भर रहे हैं,
न गुरु बनाया न शिष्य बने आवारा कहलाते फरिश्ते,
मतलब में गुजारते जिंदगी वही लोग दिखाते सेवा से रिश्ते,
सच्ची बात कहो तो बयान का मतलब बदल देते हैं,
नारे के शोर में वाद की असलियत मसल कर दम लेते है,
नहीं जिनके  पास कागज का धनुष और स्याही के तीरं,
वही प्रचार माध्यमों में छा गये हैं बनकर वीर,
कहें दीपक बापू सभी है शब्द युद्ध के पराक्रमी
बिना युद्ध लड़े हर कोई विजेता की छवि दिखा रहा है।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

Feb 15, 2014

विदुर नीति-काम निकलने के बाद कोई पूछता नहीं है(vidur neeti-kam nikalne ke baad koyee poochhta nahin hai)



      इस रंगीबिरंगी दुनियां का खेल निराला है।  सकाम रूप से लिप्त लोग अनेक बार यह सोचकर संताप भोगते हैं कि हमने दूसरों के लिये बहुत कुछ किया पर हमें सभी ने धोखा दिया। अपनी संतान को लेकर भी लोग अनेक प्रकार के ऐसे अनुभव करते हैं कि उन्होंने जिनके लिये जीवन जिया वही उनको छोड कर बाहर चले़ गये।  निष्काम भाव से काम करने वालों को कभी संताप नहीं होता। जिन लोगों ने भारतीय अध्यात्म दर्शन में मन बसा लिया है उनके लिये तो बस ही सिद्धांत होता है कि नेकी कर और दरिया में डाल।
      सुबह का समय धर्म के लिये आरक्षित है। इस दौरान जिसने तन और मन की कमाई कर ली उसे धन की चिंता नहीं सताती।  दोपहर के अर्थकाल के दौरान वह अपना मन सांसरिक कार्यों में उतना ही लगाता है जिससे देह का सात्विक  व्यवसाय से भरणपोष हो सके। वह  अपने सांसरिक दायित्वों का यह सोचकर निर्वहन करता है कि उनको किसी दूसरे पर छोड़ना न मुमकिन है न उचित।  ऐसे दायित्व पूरे हो जायें तो बहुत अच्छी बात है भले ही उसका कोई प्रत्यक्ष लाभ न हो पर मन को शांति तो मिलनी चाहिए।

विदुरनीति में कहा गया है कि
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षडिमें षटसु जीवन्ति सप्तमो नीपलभ्यते।
चौराः प्रमत्ते जीवन्ति व्यधितेषु चिकित्सकाः।।
प्रमादा कामयानेषु यजमानेषु याजकाः।
राजा विवदमानेषु नित्यं मूर्खेषु पण्डिताः।।
     हिन्दी में भावार्थ-कोई भी मनुष्य छह दूसरे प्रकार के मनुष्यों अपनी जीविका चलाता है, सातवें की उपलब्धि नहीं है। चोर असावधान, चिकित्सक रोगी, मतवाली स्त्रियां कामी, पुरोहित यजमान, राजा झगड़ालू तथा विद्वान मूर्खों से अपनी जीविका चलाता है।
षडेते ह्यमन्यन्ते नित्यं पूर्वोपकारिणम्।
आचार्य शिक्षिताः शिष्यः कृतदाराश्च मातरम्।।
नारीं विगतकायास्तु कृतार्थाश्चि प्रयोजकम्।
नांव निस्तीर्णकांतारा आतुराश्च चिकित्सकम्।।
     हिन्दी में भावार्थ-छह प्रकार के लोग अपने उपकारी का समय आने पर तिरस्कार करते हैं। शिक्षा समाप्त होने पर शिष्य गुरु, विवाहित पुत्र पालकों, कामवासना शांत होने पर पुरुष स्त्री, कार्य निकलने पर पूरुष सहायक, नदी पार करने पर सवार नाव तथा स्वस्थ होने पर रोगी चिकित्सक का तिरस्कार करते हैं।

      जिंदगी लंबी है और इसमें लोग मिलते और बिछड़ते हैं। कुछ लोग काम करवाने के लिये निकट आते हैं और उसके बाद पूछते भी नहीं।  किसी के साथ वर्षों तक साथ काम करते हुए मित्रता हो जाती है।  जब वह कहीं चला गया तो भूल जाता है। निष्कामी लोग जानते हैं कि इस जीवन में मनुष्य भले ही दैहिक रूप से वैसा ही रहे पर उसका भाव स्थान, अर्थ तथा समय के अनुसार बदलता रहता है। कहा जाता है कि जो चूल पर साथ ही वही दिल के पास है। अगर हम श्रीमद्भागवत गीता का संदेश समझें तो मनुष्य त्रिगुणमयी माया के वश में होकर ही सारे काम करता है।  ऐसे वह जिस सांसरिक विषय से जुड़ता है पूरी तरह से उसमें समर्पित हो जाता है।  यह संभव है कि इस दौरान ही किसी व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बने पर जब उस विषय से दूर हो जाये तो यकीनन हमें भी उससे दूर होना पड़ेगा। ऐसे में स्वयं को पीड़ा देने की बजाय हमें सच्चाई का ज्ञान करना चाहिए।
      जीवन में प्रतिदिन नये दृश्य घटित होते हैं किसी में हम नायक होते हैं किसी में दूसरा इसका श्रेय पाता है। हमें किसी की उन्नति देखकर स्वयं पीड़ित होने की बजाय अपने काम पर ध्यान रखना चाहिए।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
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Feb 8, 2014

भर्तृहरि नीति शतक-मौन रहने के लाभ उठाना सीखें(bhartrihari neeti shatak-maun rahane ke labh uthana seekhen)



      प्रकृत्ति ने मनुष्य को बुद्धि का इतना बड़ा खजाना दिया है कि उससे वह अन्य जीवों पर शासन करता है। हालांकि अज्ञानी मनुष्य इसका उपयोग ढंग से नहीं करते या फिर दुरुपयोग करते हैं।  मनुष्य अपनी इंद्रियों में से वाणी का सबसे अधिक दुरुपयोग करता है। मनुष्य के मन और बुद्धि में विचारों का जो क्रम चलता है उसे वह वाणी के माध्यम से बाहर व्यक्त करने के लिये आतुर रहता है। आजकल जब समाज में रिश्तों के बीच दूरी बनने से लोगों के लिये समाज में आत्मीयता भाव सीमित मात्रा में उपलब्ध है तथा  आधुनिक सभ्यता ने परिवार सीमित तथा सक्रियता संक्षिप्त कर दी है तब मनुष्य के लिये अभिव्यक्ति की कमी एक मानसिक तनाव का बहुत बड़ा कारण बन जाती है।  परिवहन के साधन तीव्र हो गये हैं पर मन के विचारों की गति मंद हो गयी है।  लोग केवल भौतिक साधनों के बारे में सोचते और बोलते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उनकी रुचि अधिक नहीं है इससे उनमें मानसिक अस्थिरता का भाव निर्मित होता है।
      समाज में संवेदनहीनता बढ़ी है जिससे लोग एक दूसरे की बात समझत नहीं जिससे आपसी विवाद बढते हैं। विषाक्त सामाजिक वातावरण ने लोगों को एकाकी जीवन जीने के लिये बाध्य कर दिया है।  यही कारण है कि अनेक लोग अपने लिये अभिव्यक्त होने का अवसर ढूंढते हैं जब वह मिलता है तो बिना संदर्भ के ही बोलने भी लगते हैं।  मन के लिये अभिव्यक्त होने का सबसे सहज साधन वाणी ही है पर अधिक बोलना भी अंततः उसी के लिये तकलीफदेह हो जाता है। वाणी की वाचलता मनुष्य की छवि खराब ही करती है। कहा भी जाता है कि यही जीभ छाया दिलाती है तो धूप में खड़े होने को भी बाध्य करती है।

भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिमिंतम् छादनमज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदा समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्।।
     सामान्य हिन्दी में भावार्थ-परमात्मा ने मनुष्य को मौन रहने का गुण भी प्रदान किया है इसके वह चाहे तो अनेक लाभ उठा सकता है। जहां ज्ञानियों के बीच वार्तालाप हो रहा है तो वहां अपने अज्ञानी मौन रहकर स्वय को विद्वान प्रमाणित कर सकता है।

      हम जब बोलते हैं तो यह पता नहीं लगता कि हमारी वाणी से निकले शब्द मूल्यवान है या अर्थहीन। इसका आभास तभी हो सकता है जब हम मौन होकर दूसरों की बातों को सुने। लोग कितना अर्थहीन और कितना लाभप्रद बोलते हैं इसकी अनुभूति होने के बाद आत्ममंथन करने पर  ही हमारी वाणी में निखार आ सकता है। दूसरी बात यह भी है कि हमारा ज्ञान कितना है इसका पता भी लग सकता है जब हम किसी दूसरे आदमी की बात मौन होकर सुने।  इसके विपरीत लोग किसी विषय का थोड़ा ज्ञान होने पर भी ज्यादा बोलने लगते हैं। आज के प्रचार युग में यह देखा जा सकता है कि साहित्य, कला, धर्म और संस्कृति के विषय पर ऐसे पेशेवर विद्वान जहां तहां दिखाई देते हैं जिनको अपने विषय का ज्ञान अधिक नहीं होता पर प्रबंध कौशल तथा व्यक्तिगत प्रभाव के कारण उनको अभिव्यक्त होने का अवसर मिल जाता है।
      कहने का अभिप्राय है कि आत्मप्रवंचना कर हास्य का पात्र बनने की बजाय मौन रहकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। जहां चार लोग बैठे हों वह अगर उनके वार्तालाप का विषय अपनी समझ से बाहर हो तो मौन ही रहना श्रेयस्कर है। आजकल वैसे भी लोगों की सहनशक्ति कम है और स्वयं को विद्वान प्रमाणित करने के लिये आपस में लड़ भी पडते हैं। विवादों से बचने में मौन अत्यंत सहायक होता है।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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Feb 1, 2014

अपना रक्तचाप न बढ़ाओ-हिन्दी व्यंग्य कविता ------------------



लोकतंत्र का खेल है उसके गुण गाते जाओ,
कुर्सी के खेल की धारा में बहस कर ं शब्द बहाते जाओ।
कहें दीपक दीपक बापू महंगाई कभी कम नहीं होती,
भ्रष्टाचार वह राक्षस है जिसकी आंख कभी नहीं सोती।
देश में हर कदम पर स्वर्ग बसाने का वादा मिलता है,
चालाक लोगों के मजे है भला इंसान सभी जगह पिलता है।
कोई विकास का नारा देता कोई ईमानदार बनकर आता है,
बदलाव के नारे बहुत सुनते पर समाज पीछे ही जाता है।
समाज सेवा में पेशेवरों ने बना लिया है अपना ठिकाना,
चंदे से  अपने घर चलाते मजबूरी उनकी दान करते दिखाना।
आखों से खबरे पढ़ो और देखो कानों से  सुनो फिर भूल जाओ,
दिमाग में ज्यादा देकर अपना रक्तचाप कभी न बढ़ाओ।
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 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
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