वह खून की होली खेलकर
लाल क्रांति लाने का सपना दिखा रहे हैं,
भरे पेट उनके रोटी से
खेल रहे हैं
बेकसूरों की शरीर से निकली बोटी से,
हैवानियत भरी सिर से पांव तक उनके
वही गरीबों के मसीहा की तरह नाम लिखा रहे हैं।
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गोली का जवाब गोली ही हो सकती है
जानवरों से दोस्ती संभव है,
अकेले आशियाना बनाकर
जीना भी बुरा नहीं लगता
जहां पक्षी करते कलरव हैं,
पर हैवानों से समझौता कर
अपनी अस्मिता गंवाना है,
लड़ने के लिये उनको
फिर लाना कोई नया बहाना है,
कत्ल करने के लिये तत्पर हैं जो लोग,
उनको है खूनखराबे का रोग,
कत्ल हुए बिना वह नहीं मानेंगे,
जिंदा रहे तो फिर बंदूक तानेंगे,
सज्जन होते हैं ज़माने में
असरदार उन पर ही मीठी बोली हो सकती है।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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