सामने कोई द्रश्य जब आता है
तब उसे तुम कितना देखा पाते हो
कितना समझ पाते हो
कभी शायद तुमने सोचा भी न होगा
क्योंकि अपने मन में पाले हो
कुछ ऐसे द्दश्यों को देखने की इच्छा
जिसमे तुम्हारे अपने ही लोग बसते हैं
तुम अनजाने, अनचाहे और अनगढ़ द्दश्यों को
अनदेखा कर निकल जाते हो
उनका मजा लेने से अनजान हो
अगर निकल पाते अपने मन से
अगर निकल पाते अपने मन से
तो देख पाते इस दुनियां के
उस व्यापक विस्तार को
उस व्यापक विस्तार को
अपने जीवन के उद्देश्य को
भ्रम से निकल कर पाते ज्ञान को
जीवन इतना छोटा नहीं जितना
हम समझे हैं
अपने ही जंजाल में उलझे हैं
जीना जिसे कहते हैं
उनसे तुम अनजान हो
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अपनी छत पर दाना चुगते पक्षी देख
मेरे मन को अह्लाद होता है
चिड़िया, तोते, कबूतर और गिलहरी
एक साथ दाना चुगते
और मैं उन्हें एकटक देखता
सुबह दरवाजे पर इन्तजार करता कुता
रोटी को जब चबाता है
मेरे मन में आनन्द आता है
कोई संवाद नहीं
कोई शिक़ायत नहीं
फिर जब दिनभर अपने
स्वार्थों की पूर्ती के लिए
जंग करता हूँ
तो लगता है मेरे लिए देखने लायक
ऐसे ही द्रश्य हैं
जिनसे कोई सरोकार नहीं है
पर देखने में अच्छे लगते हैं
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