अपने शारीर के हर अंग को
उपयोग प्रतिदिन करते हुए
भी कौन उसका महत्व जान पाता है
जीता है जिस मन के साथ
जीवन भर उसे कौन समझ पाता है
ऑंखें देखने के लिए मिली
पर क्या देखता है उमर भर
केवल अपने दायरे में क़ैद
खुद को ही करते हुए
अपने परिश्रम से एकत्रित वस्तुएं
और उनके रक्षा के लिए कर देता है
बरबाद कर देता है अपनी कीमती दृष्टि
नहीं देख पाता पूरी सृष्टि
कभी मूक जीवों की आँखों को नहीं देखता
इसलिये उमर भर आदमी आंखों की
भाषा को नहीं पढ़ पाता है
नाक से लेता सांस
चीखता-चिल्लाता, डरता और क्रोध में
खर्च कर देता
कभी फूलों के पास जाकर उन्हें सूंघे
कभी पेड के नीचे बैठकर अपनी साँसें ले
पर उमर भर अपने ही घर की चाहरदीवारी में
घुसकर बैठ जाता और
कभी अपने नाक से ली गयी साँसों का
आदमी महत्व नहीं जान पाता है
अपने दोनों हाथों से बटोरता है वह दौलत जो
कभी उसके साथ नहीं जाती
लुटने के भय से हमेशा ताने रहता
कभी नहीं अपने हाथ से दूसरे के
कल्याण के लिए नहीं उठाता
अपने हाथों की अस्तित्व को
उमर भर आदमी नहीं जान पाता है
पूरी जिन्दगी अपनी टांगो पर इधर-उधर
दौड़ता फिरता है
जब तक नहीं थकता
तब तक नहीं करता विश्राम
अपनी टांगों की ताकत से हमेशा
आदमी अपने को अनजान पाता है
सब जगह ढूँढता ख़ुशी पर
अपने मन को हमेशा खाली पाता है
समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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3 comments:
बिल्कुल सही कह रहे हैं आप ।
घुघूती बासूती
सकारात्मक चिंतन. काम की प्रेरणा.
ज्ञानेंद्रियां हैं पांच, और
कर्मेंद्रियां भी हैं पांच मानव के पास.
किसी भी और सृष्टि के पास नहीं
इतनी इंद्रियां चराचर जगत में.
याद दिलाता है यह कि
जिम्मेदारी है बहुत अधिक मानव की
पाने इन्द्रियों पर विजय की,
एवं उपयोग उनका करने को
सार्थक अपने जन्म को करने को.
आह्वान है मेरा कि
नजर डाले एक बार अपने
जीवन पर
कि काबू किया है क्या
इंद्रियों को इस तरह कि,
हो जाये यह जीवन
सचमुच में सार्थक !
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info
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