अपने अन्दर ही अपने पर
जब यकीन नहीं होता
तब किसी दूसरे पर
कोई कैसे भरोसा करेगा
जैसे मन में होगा खुद का चेहरा
वैसा ही दूसरे का भी लगेगा
तुम कितना चाहो
उधार की रौशनी से
तुम्हारा मन रोशन हो जाये
वह कभी संभव नहीं
क्योंकि जब तक तुम
खुद के नहीं बन सकते
तब क्या लगेगा गैर भी अपना
तुम्हें तो अपना भी गैर लगेगा
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समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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--- ज़माने पर सवाल पर सवालसभी उठाते, अपने बारे में कोई पूछे झूठे जवाब जुटाते। ‘दीपकबापू’ झांक रहे सभी दूसरे के घरों में, गैर के दर्द पर अपन...
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तुम तय करो पहले अपनी जिन्दगी में चाहते क्या हो फिर सोचो किस्से और कैसे चाहते क्या हो उजालों में ही जीना चाहते हो तो पहले चिराग जलाना सीख...
1 comment:
सच कहा है दोस्त
कविता अनुभूति
ही है पुख्ता समझ.
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