अपने रास्ते को नहीं जानते जब
दूसरे के पद चिन्हों पर चलते हैं
जब कोई अपना ख्याल नहीं बनाते
दूसरे के नारों पर कहानी गढ़ते हैं
जब अपने शब्द नहीं रच पाते
तब दूसरे के वाद पर
अपने प्रपंच रचते है
पुराने बिखर चुके विचार
नयेपन की हवा से दूर होते हैं
हम तरक्की की चाह में
बेकार अपने सिर ढोते हैं
कहवा घरों और चाय के गुमटियों पर
चुस्कियाँ लेते हुए अपनी गरीबी और बीमारी
पर बात करते हुए रोते हैं
पर इससे घर और देश नहीं चलते हैं
हाथ में सिगरेट लेकर रास्ते पर चलते हुए
टीवी के कैमरे के सामने अपने विचारों की
आग उगलते हुए
अपने को बहुत अच्छे लगते हैं
गरीबी और भुखमरी पर लिखते हैं
बडे-बडे ग्रंथ
शब्दों में मार्मिकता का बोध गढ़ते हैं
पर यह तुम्हारा गढा गया सोच
कभी गरीब और भूख से बेजार लोगों का
पेट नहीं भर सकता
जिनके लिए तुम सब रचते हो
वही लोग उसे नहीं पढ़ते हैं
सच तो यह है कि
गरीबी के लिए चाहिऐ धन
भूख के लिए रोटी
जिस आकाश की तराग देखते हो
दोनों वहाँ नहीं बनते हैं
इसलिए चलते जाओ रास्ता सामने है
खडे होकर बहस मत करो
रेत और पानी की धाराओं से
इस धरती पर रास्ते बिगड़ते और बनते हैं
समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
-
लड़ते रहो दोस्तो ख़ूब लड़ो किसी तरह अपनी रचनाएं हिट कराना है बेझिझक छोडो शब्दों के तीर गजलों के शेर अपने मन की किताब से निकल कर बाहर दौडाओ...
1 comment:
गरीबी और भुखमरी पर लिखते हैं
बडे-बडे ग्रंथ
शब्दों में मार्मिकता का बोध गढ़ते हैं
पर यह तुम्हारा गढा गया सोच
कभी गरीब और भूख से बेजार लोगों का
पेट नहीं भर सकता
जिनके लिए तुम सब रचते हो
वही लोग उसे नहीं पढ़ते हैं
--बहुत सही!!
Post a Comment