Nov 5, 2007

रास्ते तो बनते हैं बिगड़ते हैं

अपने रास्ते को नहीं जानते जब
दूसरे के पद चिन्हों पर चलते हैं
जब कोई अपना ख्याल नहीं बनाते
दूसरे के नारों पर कहानी गढ़ते हैं
जब अपने शब्द नहीं रच पाते
तब दूसरे के वाद पर
अपने प्रपंच रचते है

पुराने बिखर चुके विचार
नयेपन की हवा से दूर होते हैं
हम तरक्की की चाह में
बेकार अपने सिर ढोते हैं
कहवा घरों और चाय के गुमटियों पर
चुस्कियाँ लेते हुए अपनी गरीबी और बीमारी
पर बात करते हुए रोते हैं
पर इससे घर और देश नहीं चलते हैं

हाथ में सिगरेट लेकर रास्ते पर चलते हुए
टीवी के कैमरे के सामने अपने विचारों की
आग उगलते हुए
अपने को बहुत अच्छे लगते हैं
गरीबी और भुखमरी पर लिखते हैं
बडे-बडे ग्रंथ
शब्दों में मार्मिकता का बोध गढ़ते हैं
पर यह तुम्हारा गढा गया सोच
कभी गरीब और भूख से बेजार लोगों का
पेट नहीं भर सकता
जिनके लिए तुम सब रचते हो
वही लोग उसे नहीं पढ़ते हैं

सच तो यह है कि
गरीबी के लिए चाहिऐ धन
भूख के लिए रोटी
जिस आकाश की तराग देखते हो
दोनों वहाँ नहीं बनते हैं
इसलिए चलते जाओ रास्ता सामने है
खडे होकर बहस मत करो
रेत और पानी की धाराओं से
इस धरती पर रास्ते बिगड़ते और बनते हैं

1 comment:

Udan Tashtari said...

गरीबी और भुखमरी पर लिखते हैं
बडे-बडे ग्रंथ
शब्दों में मार्मिकता का बोध गढ़ते हैं
पर यह तुम्हारा गढा गया सोच
कभी गरीब और भूख से बेजार लोगों का
पेट नहीं भर सकता
जिनके लिए तुम सब रचते हो
वही लोग उसे नहीं पढ़ते हैं


--बहुत सही!!