Nov 4, 2007

पाकिस्तान में प्रतिबन्ध का दौर

पाकिस्तान में न्याय पालिका, प्रचार माध्यम, मानव अधिकार, और राजनितिक दलों पर जिस तरह मुशर्रफ ने जिस तरह प्रतिबन्ध लगाए हैं और पूरा विश्व इसे खामोशी से देख रहा है वह बहुत ताज्जुब की बात है। मुशर्रफ ने तो साफ तौर से न्याय पालिका और आतंकवाद को तराजू के एक ही पलडे में रखा है उस पर सबको आश्चर्य हुआ है। अगर आज भी यह पूछा जाए कि वह किस कानून के तहत वहाँ के राष्ट्रपति बने बैठे हैं तो उनके पास इसका जवाब नहीं होगा। शायद यह भूल गए हैं कि इसी न्याय पालिका ने इस मामले में उनकी मदद की थी।

पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता आसमान जहांगीर को भी घर में नजरबन्द कर दिया गया है, और अब यह देखना यह है कि विश्व भर के मानवाधिकार कार्यकर्ता उस पर किस तरह का रवैया अपनाते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि अभी तक किसी भी देश ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इसका मतलब यह है कि मुशर्रफ उन लोगों को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि वह अगर अपने देश में आतंकवाद को नहीं मिटा पाये हैं तो उसके लिए वह सब लोग जिम्मेदार हैं जिन पर वह अब प्रतिबन्ध लगा रहे हैं। दूर बैठे पश्चिमी राष्ट्रों के पास इसके अलावा कोई चारा नहीं है कि उन पर विश्वास करे। कहीं न कहीं अब भी उनके मन में भारत के सामने एक प्रबल चुनौती बनी रहे और पाकिस्तान के बने रहने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है।

अब सिर्फ़ एक ही सवाल रह गया है कि क्या आतंकवाद फैलाने वाले पूरी तरह से परास्त किए जा सकते हैं? एक तरह तो आतंकवादी मुशर्रफ और अमेरिका को अपना दुश्मन मानते हैं दूसरी तरफ़ उनके कामों से दोनों को ही लाभ पंहुचा रहे हैं। अगर वह लोग अपनी कारिस्तानी नही करते तो मुशर्रफ कभी का अपने पद से रुखसत हो गए होते पर आतंकवाद के चलते वह मुशर्रफ पश्चिमी राष्ट्रों के सबसे बडे मित्र बनते जा रहे हैं, और अमेरिका को वहाँ दखल देने का अवसर भी मिल रहा है। इस लिहाज से तो आतंक फैलाने वाले उन्हीं तत्वों को रास्ता बना रहे हैं जिनसे लड़ने का दावा वह करते हैं।

कभी-कभी तो लगता है कि आतंकवाद की लड़ाई कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि जितना धन और मानव श्रम इसके ख़िलाफ़ लड़ने में लग रहा है उतना ही उसे बनाए रखने में लग रहा है। इससे लड़ने और बनाए रखने में लोगों के आर्थिक फायदे हैं और लगता है यह एक तरह का व्यवसाय बन गया है और ख़त्म हो गया तो कई लोगों की दूकान बंद हो जायेगी। सात वर्ष तक आतंकवाद से लड़ने वाले मुशर्रफ एक बार फ़िर नए सिरे से तैयार हो रहे हैं उस पर उनके समर्थक जिस तरह अपनी सहमति की मोहर लगा रहे हैं वह दिलचस्प है और विश्व भर के राजनेतिक विशेषज्ञ अभी तक अपनी कोई राय कायम नहीं कर पाये। न बोतल बदली और न उसमें रखा द्रव्य फ़िर भी उसे जिस तरह नया कर पेश किया जा रहा है वह बहुत आश्चर्यजनक है। हो सकता है कि आने वाले समय में शायद ईरान के ख़िलाफ़ उसके इस्तेमाल की कोई योजना हो।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

दीपक जी,सच्चाई तो यही है जो आप ने कही-

"कभी-कभी तो लगता है कि आतंकवाद की लड़ाई कभी ख़त्म नहीं होगी क्योंकि जितना धन और मानव श्रम इसके ख़िलाफ़ लड़ने में लग रहा है उतना ही उसे बनाए रखने में लग रहा है। इससे लड़ने और बनाए रखने में लोगों के आर्थिक फायदे हैं और लगता है यह एक तरह का व्यवसाय बन गया है और ख़त्म हो गया तो कई लोगों की दूकान बंद हो जायेगी।"