न पीडा से
न किसी चाहत से
न किसी शब्द से
वह बहता आता है
सहज भाव से
अपनी पीडाओं को भुला दो
अपनी चाहतों को छोड़ दो
अपनी वाणी को मौन दो
तब शाश्वत प्रेम
आत्मा में प्रकट हो जाता है
न दुःख का भय
न सुख की आशा
न बिछड़ने का मोह
न मिलने की ख़ुशी
न किसी इच्छा से उपजा प्रेम
आत्मा में उपज कर
सारे बदन में
स्फूर्ति लहराए जाता है
कितनी भी कोशिश कर लो
शाश्वत प्रेम कभी
बाहर दिखाया नहीं जाता है
शाश्वत प्रेम एक भाव है
जो इंसानों के साथ
पशु-पक्षियों और पडे-पौधों में भी
पाया जाता है
प्रेम करने वाले मिट जाते है
पर शाश्वत प्रेम का भाव
जीवन के साथ बहता जाता है
जो व्यक्त होता है
उसे समझो क्षणिक प्रेम
जो अव्यक्त है
शाश्वत प्रेम कहलाता है
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समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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2 comments:
किसी की पुजा, किसी की प्रार्थना बन जाती है
लगता है जैसे कोई अभाव ही नहीं है…शाश्वत प्रेम…
दिव्य है स्वरुप इसका…। बहुत अच्छी परिभाषा दी है…पूरी कविता ही प्रेम-पूर्ण हो गई…।
शाश्वत प्रेम एक भाव है
जो इंसानों के साथ
पशु-पक्षियों और पडे-पौधों में भी
पाया जाता है
प्रेम करने वाले मिट जाते है
पर शाश्वत प्रेम का भाव
जीवन के साथ बहता जाता है
---बहुत सुन्दरता से परिभाषित किया है. बधाई.
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