Jun 18, 2007

झूठ को नारों की बैसाखियों का सहारा

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शहर में आकर आग-आग चिल्लाते हैं
फिर शहर को ख़ाक कर चले जाते हैं
न्याय के लिए जंग करने का ऐलान करके
समाज को टुकड़ों में बँटा दिखाते हैं
अपने ही चश्में के अनोखे होने का दावा
एक झूठ को सौ बार बोलकर सच बताते हैं
नारे लगाकर लोगों के झुंड जुटाकर
गाँव और शहर में जुलूस सजाते हैं
बंद कमरों में करते ऊंची आवाज में बहस
लड़ते हुए जन-कल्याण के लिए बाहर आते हैं
उनकी संज्ञा से अपनी पहचान लेकर लोग
अपना सीना तानकर घुमते नज़र आते हैं
कहते है कि झूठ को कभी पाँव नहीं होते
पर नारों की बैसाखियों के सहारे उसे वह चलाते हैं
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एक झूठ सौ बार बोलो तो
सच लगने लगता है
छिपाने लगो तो
सच भी झूठ लगता है
पर हम अपने को कितना समझायेंगे
नारे लगाकर कब तक झूठ को
बैसाखियों के सहारे चलाएँगे
सच भी नहीं चलता पर
हमारे दिल में
कांटे की तरह चुभा रहता है
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2 comments:

अनुनाद सिंह said...

रचना बहुत अच्छी लगी।

ePandit said...

सुन्दर और यथार्थ!