आज से नववर्ष विक्रम संवत् 2068 प्रारंभ हो गया है। चूंकि हमारा राजकीय कैलेंडर ईसवी सन् से चलता है इसलिये नयी पीढ़ी तथा बड़े शहरों पले बढ़े लोगों में बहुत कम लोगों यह याद रहता है कि भारतीय संस्कृति और और धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाला विक्रम संवत् देश के प्रत्येक समाज में परंपरागत ढंग मनाया जाता है। देश पर अंग्रेजों ने बहुत समय तक राज्य किया फिर उनका बाह्य रूप इतना गोरा था कि भारतीय समुदाय उस पर मोहित हो गया और शनैः शनैः उनकी संस्कृति, परिधान, खानपान तथा रहन सहन अपना लिया भले ही वह अपने देश के अनुकूल नहीं था। यह बाह्य हमारे समाज ने अपनाया पर गोरों की तरह खुले विचार और संस्कारों को स्वीकार नहीं किया। अब स्थिति यह है कि देश हर समाज और समुदाय दोनों संस्कृतियों के बीच अनंतकाल तक चलने वाले ऐसे द्वंद्व में जी रहा है जिससे उसकी मुक्ति का आसार नहीं है।
अंग्र्रेज चले गये पर उनके मानसपुत्रों की कमी नहीं है। सच तो यह है कि अंग्रेज वह कौम है जिसको बिना मांगे ही दत्तक पुत्र मिल जाते हैं जो भारतीय माता पिता स्वयं उनको सौंपते हैं। अंग्रेजी माध्यम वाले अनेक स्कूलों में भारतीय संस्कृति ही नहीं वरन् हिन्दी भाषा बोलने पर ही पाबंदी लग जाती है। ऐसे विद्यालयों में लोग अपने बच्चे भेजते हुए गौरवान्वित अनुभव करते हैं। फिर यही बच्चे आगे देश इंजीनियर, डाक्टर, समाज सेवक तथा अधिकारी बनते हैं। उस समय उनके माता पिता शुद्ध रूप से भारतीय हो जाते हैं और उसके विवाह के लिये अच्छे घर की बहू के साथ ही दहेज की रकम ढूंढना शुरु कर देते हैं। विवाह होने के बाद पाश्चात्य संस्कृति में रचे बचे बच्चे माता पिता से दूर हो जाते हैं फिर कुछ समय बाद उनका रोना भी शुरु हो जाता है कि ‘बच्चे हमें पूछ नहीं रहे। हमें बहु अच्छी नहीं मिली।’
यह समाज का अंतद्वंद्व है कि लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे गुलाम पर अमीर बने। भारत में यह संभव हुआ है क्योंकि यहां सरकारी नौकरियों की संख्या अधिक रही है। इधर निजीकरण के दौर में तो महंगे वेतन वाली नौकरियों का भी निर्माण हुआ है। अब नौकरी तो नौकरी है यानि गुलामी! अपना बच्चा दूसरे का गुलाम बना दिया पर आशा यह की जाती है कि वह माता पिता की जिम्मेदारी आज़ादी से निभाये। यह कैसे संभव है? नौकरी अंततः गुलामी है और अगर बच्चा नौकरी कर रहा है तो फिर उससे आज़ादी से सामाजिक कर्तव्य निर्वहन की आशा करना व्यर्थ है।
पिछले अनेक दिनों से देश में अंग्रेज साहबों के खेल क्रिकेट की विश्व प्रतियोगिता का शोर चलता रहा है। इस खेल का प्राचीन इतिहास बताता है कि अंग्रेज गोरे साहब बल्लेबाज और उनके गुलाम गेंदबाज होते थे। आज यह खेल हमारे समाज का हिस्सा बन गया है। पिछले दिनों भूतपूर्व कप्तान कपिल देव ने कहा था कि क्रिकेट में बल्लेबाज साहब और गेंदबाज मजदूर की तरह होता है। हम जब देश के नामी खिलाड़ियों की सूची देखते हैं तो बल्लेबाजों का नाम ही ऊपर आता है और गेंदबाज को वास्तव में मज़दूर के रूप में ही देखा जाता है। जो लोग अपने बच्चों को क्रिकेटर बनते देखना चाहते हैं वह उसके बल्लेबाजी के स्वरूप की कल्न्पना करते हैं न कि गेंदबाज की।
इधर क्रिकेट से माल बटोर रहे प्रचार माध्यमों को यह होश नहीं है कि विक्रम संवत् 2068 प्रारंभ हो गया है। विक्रम संवत् आधुनिक बाज़ार में होने वाले सौदा का पर्व नहीं है। ईसवी संवत् इसके लिये बहुत है। जब हम भारतीय संस्कृति या धर्मों की बात करते हैं तो दरअसल वह बाज़ार के लिये प्रयोक्ता नहीं जुटाते। विक्रम संवतः पर आधुनिक बाज़ार और उनके प्रचार माध्यम मॉल, टॉकीज, बार, तथा होटलों के लिये युवा पीढ़ी को प्रेरित नहीं कर सकते। उनके अंदर काम तथा व्यसन की भावनाओं को प्रज्जवलित नहीं कर सकते। क्योंकि भारतीय संस्कृति और धर्म मनुष्य को अंतर्मन में जाकर अपना ही आत्ममंथन करने के लिये प्रेंरित करते हैं जबकि विदेशी संस्कृति और धर्म मनुष्य को बाहर जाकर जीवन से जूझने के लिये प्रेरित करते हैं जिससे अंततः बाज़ार और धर्म के ठेकेदार उसे बंधक बना लेते हैं। विदेशी संस्कृति और धर्म में आज तक अध्यात्म का महत्व नहीं समझा गया। देह में मौजूद आत्मा तत्व को परखने का प्रयास ही नहीं किया गया। तत्वज्ञान तो उनमें हो ही नहीं सकता क्योंकि वह मनुष्य देह तथा परमात्मा के बीच स्थित उस आत्मा को स्वीकार ही नहीं करते जिसके साथ योग के माध्यम से संपर्क किया जाये तो यही आत्मा परमात्मा से संयोग कर मनुष्य देह को अत्यंत शक्तिशाली बना देता है। सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं।
इस शुभ अवसर पर समस्त पाठकों तथा ब्लॉग लेखक मित्रों को हार्दिक बधाई और शुभकामनायें।
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कवि, लेखक , संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
poet,editor,writer and auther-Deepak 'Bharatdee',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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