हमने तो चाही थी खुशी उनकी
पर वह हमें उदासी दे गए
कुछ नहीं माँगा था उनसे
सिवाय कुछ प्यार के पलों के
छोड़ दिया शहर प्रवासी हो गए
कितनी अजीब हैं दुनिया
अपनी बेबसी के साथ जीते लोग
दूसरे की लाचारी पर हँसते हैं
लड़ते हैं जमाने के लिए जो शूरवीर बनकर
जख्म उनके अकेले सहलाने के लिए बचते हैं
हमने उनके लिए बनाया रास्ता
ख़त्म कर दिया उन्होने हमसे वास्ता
हम तो लड़ते रहे हैं हारी हुई ऐसी लड़ाई
जिसमे जीत कभी हो नहीं सकती
शोर से दूर ही होती हमारी बस्ती
हारते जाते हैं
फिर भी लड़ते जाते हैं
रास्ते में कोई मिला
उसके साथ हो जाते हैं
शायद कोई दिल का हाल
सुनकर हमदर्द बन जाये
पर जो आयी उनकी मंजिल
हमें अकेला छोड़ जाते हैं
तन्हाई में बैठकर हँसते हैं
कभी अपने हाल पर रोते हैं
थकती लगती हैं जिन्दगी
रिश्ते अब उदासी से हो गए
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समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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लड़ते रहो दोस्तो ख़ूब लड़ो किसी तरह अपनी रचनाएं हिट कराना है बेझिझक छोडो शब्दों के तीर गजलों के शेर अपने मन की किताब से निकल कर बाहर दौडाओ...
3 comments:
दीपक जी,बहुत मार्मिक रचना है।
इतनी उदासी क्यों? अच्छी कविता है।
बहुत सुन्दर ।
घुघूती बासूती
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