Jan 17, 2008

निकले थे दोस्त ढूँढने-कविता

निकले थे राहों पर दोस्त ढूँढने के लिए
हर कोई खडा था अपने हाथ में खंजर लिए
मन में आ गया खौफ पाँव चलते थे आगे
बार-बार आँखे चली जातीं पीछे देखने के लिए

पूरा सफर यूं ही कटा मिलीं न वफ़ा
लौटे अपने घर अपने दिल को खाली लिए
भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए
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2 comments:

महावीर said...

प्रभावपूर्ण कविता है. अन्तिम पंक्तियाँ बहुत ही पसंद आई:
'भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए'

राज भाटिय़ा said...

भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए
जनाब आज का सच हे जो आप ने इन पंक्तियो मे लिखा हे,
ध्न्यवाद