निकले थे राहों पर दोस्त ढूँढने के लिए
हर कोई खडा था अपने हाथ में खंजर लिए
मन में आ गया खौफ पाँव चलते थे आगे
बार-बार आँखे चली जातीं पीछे देखने के लिए
पूरा सफर यूं ही कटा मिलीं न वफ़ा
लौटे अपने घर अपने दिल को खाली लिए
भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए
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समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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लड़ते रहो दोस्तो ख़ूब लड़ो किसी तरह अपनी रचनाएं हिट कराना है बेझिझक छोडो शब्दों के तीर गजलों के शेर अपने मन की किताब से निकल कर बाहर दौडाओ...
2 comments:
प्रभावपूर्ण कविता है. अन्तिम पंक्तियाँ बहुत ही पसंद आई:
'भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए'
भला सौदागरों के महफ़िल में बैठकर क्या करते
जो तैयार थे हर जजबात बेचने के लिए
जनाब आज का सच हे जो आप ने इन पंक्तियो मे लिखा हे,
ध्न्यवाद
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