शिखर पर चमकते हुए बहुत देखे सितारों जैसे नाम
पर अपना नाम जमीन पर गिरा पाया
भीड़ से बचने की कोशिश की तो
अपने नाम को ही पाँव में कांटे की तरह चुभा पाया
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं
खुशी और दुख के पल तो आते रहेंगे
कभी गर्मी की तपिश में जलेगा बदन
तो कभी बसंत की शीतलता का वरण करेंगे
सुख में तो साथी तो सब होते हैं
दुख में हंसता है ज़माना हमारा नाम लेकर
दर्द बांटे तो किसके साथ
सभी के अपने बडे नाम के साथ बंधे हैं हाथ
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं
अपने दर्द पीना जब सीख लिया है
दुख को पीना सीख लिया है
फिर क्यों हंसने का अवसर दूं
क्यों न भीड़ में एक दृष्टा बनकर
दुनिया के नजारों का मजा लूं
किसी का हमदर्द होने के लिए
क्या नाम का होना जरूरी है
किसी का दुख बांटकर
क्या मशहूर होना जरूरी है
सोचता हूँ कि इस भीड़ में गुम हो जाऊं
अब बेनाम हो जाऊं
समसामयिक लेख तथा अध्यात्म चर्चा के लिए नई पत्रिका -दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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1 comment:
सही है!!
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