मन की बात सभी कर लेते, किसी के कहे पर अपने कान हमेशा फेर लेते।
‘दीपकबापू’ रोना हंसना बेचने में बहुत माहिर, जज़्बात का बाज़ार घेर लेते।।
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विज्ञापन के बीच बहस में चीख मची है, शोर से दिमाग लूटो यही सीख बची है।
पेशेवर लेते भलाई का ठेका, ‘दीपकबापू’ भक्तों को राम नाम भीख ही पची है।।
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राजकाज की समझ नहीं फिर भी सम्मान चाहें, अपनी नाक दिखाते कांपती बाहें।
‘दीपकबापू’ सिंहासनों पर बैठे बरसों बेकार, मन नहीं भरा ढूंढे कुर्सी की नई राहे।।
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बांचा ज्ञान बेचकर भी धंधा होय, वक्ता हुए साहुकार श्रोता भी अश्रोता होय।
‘दीपकबापू’ रोतन की भीड़ लगी सब जगह, एकांत आनंद से हंसे ज्ञानी सोय।।
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अपना काम अपने मुख से सुनाये, किताबी ज्ञान बाज़ार में सुनाकर नाम भुनायें।
‘दीपकबापू’ रातभर जागें सुबह नींद करते, भीड़ में स्वास्थ्य के नुस्खे गुनगुनायें।।
दुधिया रौशनी में पत्थर चमकते लगें, सूरज के उगते अपने सत्य के साथ जगें।
‘दीपकबापू’ दिल बहलाने के लिये भागे फिरें, लौटें घर लोग फिर ऊबें तब भगें।।