दक्षिण भारत के लोगों से प्रबंध कौशल के साथ रणनीतियां सीखने की आवश्यकता है। दरअसल भारत में यह पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण का भेद करने की बात कुछ लोगों को अज़ीब लगे पर जब हम गुणों की बात करें तो यह बुरा नहीं है। दरअसल कुछ दिन पहले ही एक दक्षिण भारतीय मित्र से चर्चा हुई थी। आज अचानक एक दक्षिण भारतीय चैनल की विवादास्पद खबर देखकर वह याद आयी। यह आलेख पूरी तरह से उसी चर्चा पर आधारित है।
उस मित्र ने बताया कि दक्षिण भारत में जितने भी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा फिल्मी क्षेत्र के शिखर पुरुष हैं उनके पास अपने निजी टीवी चैनल और अखबार हैं। वह सभी उसके माध्यम से अपना प्रचार करते हैं। ऐसे में यह देखकर हैरानी है कि उत्तर, पश्चिम, मध्य तथा पूर्व क्षेत्र के शिखर पुरुषों के पास ऐसे रत्न क्यों नहीं है? प्रसंगवश एक मित्र ब्लाग लेखक का ब्लाग भी नज़र आया जिसमें अपनी विचाराधारा तथा उससे जुड़े संगठनों से अपना टीवी चैनल न शुरु करने पर उसने सवाल उठाया था। दरअसल आज के युग में जो विचाराधाराओं और संगठनों की आड़ में काम हो रहा है उसके अनुसार संबंधित लोगों के पास इतना धन तो होना चाहिए कि वह अपना निजी टीवी चैनल और अखबार निकाल सकें। आजकल तो धर्म और समाज सेवा भी पेशा हो गया है तब धन की कमी की बात तो मानी ही नहीं जा सकती। ऐसे में तब यह भी विचार आता है कि धर्म और समाज से जुड़े उत्तर और मध्य क्षेत्रीय संगठन तथा उनके शिखर पुरुष खुलकर अपना चैनल क्यों नहीं चलाते? ऐसा लगता है यह लोग नहीं चाहते कि तकनीकी, साहित्य तथा रचना की दृष्टि से समान जातीय, भाषाई या धार्मिक रूप से मध्यमवर्गीय सदस्यों को उभरने नहीं दिया जाये। सच तो यह है कि इनका काम इसके बिना चलने वाला भी नहीं है चाहे जितनी सिद्धांतों की दुहाई देते रहें। यह लोग भूल गये हैं कि मध्यम वर्ग ही अपने धार्मिक तथा सामाजिक संगठन तथा विचाराधारा का संवाहक है जो अब उनसे निराश हो गया है। अगर आप कोई सामूहिक आंदोलन या अभियान शुरु करना चाहते हैं तो न केवल आपके पास अपना एक चैनल होना चाहिए बल्कि इंटरनेट पर भी बकायदा समर्थन होना चाहिए। वरना तो यह माना जायेगा कि आपके प्रयास कभी सफल होने की संभावना नहीं है।
अब आते हैं हिन्दी ब्लागरों की बात पर! लोग झूठ कहते हैं कि हिन्दी ब्लाग कोई नहीं पढ़ता। सच तो यह है कि जिनको हिन्दी में बौद्धिक व्यवसाय करना है उनके लिये अब हिन्दी ब्लाग और वेबसाईट माईबाप हो गये हैं। वह कभी कभी तो पूरा पाठ और कभी विचार चुरा लेते हैं इस लेखक ने कभी यह दावा नहीं किया वह हिन्दी का बहुत बड़ा ब्लागर है पर इतना तय है कि बाज़ार और प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग कहीं न कहीं उसके ब्लाग पढ़ते हैं या उसकी कॉपी उनके पास पहुंचती है।
यह बात एक बिग बॉस के अपनी प्रेमिका की पिटाई के समाचार से पता चली जब एक टीवी चैनल उसमें फिक्सिंग का संदेह जाहिर कर रहा था। हर बात में फिक्ंिसग देखने पर इस ब्लाग लेखक ने ही शुरु किया था वरना टीवी चैनल कब इसका उल्लेख कर पाते थे। प्रसंगवश एक टीवी चैनल पर बाज़ार और उसके प्रभाव पर चर्चा हुई और ऐसा लग रहा था कि विषय चयन में इस ब्लाग लेखक का ही प्रभाव था क्योंकि उसका एक कर्मी यहां ब्लाग भी चलाता है और प्रसिद्ध है। श्रीगीता में समाजवाद पर उसकी टिप्पणी भी आयी थी इसका मतलब वह इस ब्लाग को पढ़ता है। सुना है आजकल वह तकलीफ में है और हमारी कामना है कि भगवान उसे उबारे।
इस दावे के प्रमाण में अपने पास कोई प्रमाण नहीं है। हां, तो बात आगे बढ़ायें।
हमने अपने मित्र से कहा कि ‘हिन्दी ब्लाग को मोहल्ले नुमा अखबार के रूप में काग़ज पर प्रकाशित किया जाये तो कैसा रहे?’
वह तत्काल बोला-‘‘यह हो सकता है क्योंकि हमारे दक्षिण भारत में ऐसे बहुत से अखबार हैं जो केवल मोहल्ला स्तर पर ही चलते हैं। वह अपनी कालोनियों और मुहल्लों के व्यवसायियों के विज्ञापन प्रकाशित भी करते हैं।’’
हमें शक हुआ कि कहीं ऐसे समाचार पत्र वहां की क्षेत्रीय भाषाओं के ब्लाग लेखक तो नहीं चला रहे या हो सकता है कि वह कोई वेबसाईट भी चलाते हों। बहरहाल इस बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।
अब आ जायें असली बात पर! हिन्दी ब्लाग लिखने वालों को अब दो तरह से सक्रिय रहकर काम करना चाहिए। वह परंपरागत प्रकाशन जगत से तो कोई आशा करे नहीं पर उनका इसके बिना काम भी नहीं चलने वाला। हमारे मित्र ने बताया कि मोहल्ला या क्षेत्रीय स्तर पर छपने वाले उन अखबारों को विज्ञापन भी मिलते हैं। ऐसे में जिन हिन्दी लेखकों के पास समय और कौशल है वह स्थानीय सीमित क्षेत्र के समाचारों को अपने ब्लाग पर डालें। पूरे पृष्ठ का खाका ब्लाग पर तैयार करें। जिसमें अपने विज्ञापन दाता को अंतर्जाल तथा काग़ज पर प्रकाश का लाभ देकर अपनी कमाई का साधन तथा समाज सेवा का माध्यम बनायें। ऐसे जो ब्लाग लेखक हैं वह एक बात का ध्यान रखें कि अगर किसी की रचना दूसरे से लें तो उसका परिचय दें वरना विज्ञापन दाता और पाठक उनको चोर समझेंगे। यह बात ध्यान रखें कि बिना लेखक के नाम का लेख पाठक को संदेह में डाल देते हैं और आजकल के अनेक नये अखबार इसी कारण पिट रहे हैं। हम तो इसी से ही संतुष्ट हैं कि बस नाम छपना चाहिए। एक ब्लाग लेखक ने हमारी रचनायें छापी। आपत्ति की तो कहने लगा कि मेरा तो ब्लाग ही तमाम रचनाओं का संकलन है। अरे, भई तो नाम क्यों नहीं दे रहे। तुम्हारा ब्लाग है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सारे ब्लाग तुुम्हारे बंधुआ हैं।
बड़े बड़े अखबार अपनी छवि खो रहे हैं। उनमें काम करने वालों को हिन्दी नहीं आती। हिन्दी पाठकों पर ही विश्वास नहीं है और देवनागरी में अंग्रेजी लिख रहे हैं। सबसे बड़ी बात यह कि लोग अभी तक शहर तक सिमटे थे अब मोहल्ले तक ही सिमट गये हैं। मोहल्ले से मतलब है कि पूरा क्षेत्र न कि एक बाज़ार या कालोनी। सीधी बात कहें कि बृहद अखबार का नहीं लघु अखबार का समय आ गया है। आजकल छोटी छोटी प्रिंटिंग मशीने आ गयी हैं। ऐसे में अपने क्षेत्र के व्यवसायियों के विज्ञापन सस्ती दर पर छापकर उनको भी प्रसन्न किया जा सकता है। एक बात ध्यान रखें कि अपना ब्लाग जारी रखें क्योंकि यह लंबी लड़ाई का मामला है। जब विज्ञापन दाता और समाचार देने वाले अपना नाम अंतर्जाल पर देखेंगे तो खुश होंगे। हम यह काम स्वयं नहीं करने जा रहे पर यह योजना इसलिये प्रस्तुत कर रहे हैं क्योंकि ख्याल आ गया। याद रहे प्रकाशन उद्योग की व्यापकता केवल छलावा है और प्रचार माध्यमों ने जिस तरह संपर्क के माध्यमों के व्यापक किया है उतना ही सोच का दायरा सीमित हुआ है। ऐसे में यह मोहल्ला तक सीमित प्रकाशन जगत पनप सकता है अगर नये लोग इस पर विचार करें।
बात अगर टीवी चैनलों की करें तो अब लगने लगा है कि आगे चलकर टीवी चैनल देश की राजनीतिक स्थिति को बहुत प्रभावित करेंगे। अब अगर प्रकाशन जगत को देखें तो वहां भी या तो ब्लाग की बात होती या टीवी चैनलों की! कालांतर में यही दोनों माध्यम अभिव्यक्ति के माध्यम बनेंगे और ऐसे में लघु अखबार ही अपना अस्तित्व बना सकते हैं।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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