विश्व का तीसरे नंबर का अमीर और अमेरिका का नागरिक अगर भारत में आकर यहां के धनपतियों को दानवीर होने का संदेश देता है तो यह बात भारत के अध्यात्मिक दर्शन का जिसके पास थोड़ा बहुत भी ज्ञान है उसके लिये मायने अधिक नहीं रखती मगर जिनके जीवन का आधार ही केवल अंग्रेजी भाषा, संस्कृति और विचार हैं और जो मानते हैं कि भारत विदेशियों के आने से पहले असभ्य नागरिकों का निवास था। इतना ही नहीं ऐसे लोग तो अपने पूर्वजों की आलोचना करने से नहीं झिझकते बल्कि अवसर मिले तो अपने जीते जागते बुजुर्गों को भी पुराने फैशन का मानने लगते हैं। उनके हृदय का स्वामी अमेरिका है तो दिमाग में वहां के नागरिकों की छवि विश्व के सबसे सभ्य लोगों की है। अमेरिकी विश्वसनीय, सभ्य और साथ निभाने वाले हैं। भारत में जिसके पास अमेरिका से कोई उपाधि नहीं है और न ही अंग्रेजी आती है वह अप्रतिभाशाली है। मूल बात यह है कि अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने देश के लोगों की बुद्धि हर ली है तो डालर, पौंड और मुद्रा पाने के मोह ने इतना डरपोक बना दिया है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को शिक्षा पद्धति में शामिल करना ही उनको सांप्रदायिकता की संगत करना लगता है। समाज, प्रचार, शिक्षा, पत्रकारिता, फिल्म और साहित्य के शिखरों पर स्थापित प्रतिष्ठित लोग अज्ञान के अंधेरे में इस कदर गुम हैं कि एक अमीर अमेरिकी नागरिक उनको जब दानवीर होने का उपदेश देता है तो उसकी प्रचार माध्यमों में ऐसे चर्चा होती है जैसे कोई नवीनतम विचार सामने आया हो।
कभी कभी भारत में कुछ लोग कहते हैं कि ‘अंग्रेज चले गये पर औलाद छोड़ गये।’ सच बात तो यह है कि यह उन अंग्रेजों के लिये नहीं कही जाती जो अपने शासकों के जाने के बाद भी यहां से नहीं गये। वह यहीं भारत में रह गये और अब उनके बच्चे यहीं के बाशिंदे हैं। यह वाक्य केवल उन लोगों के लिये कहा जाता है जो अंग्रेजी भाषा और संस्कृति और सभ्यता में रचबसकर यहीं रहते हुए अंग्रेजों की तरह सभ्य दिखना चाहते हैं। खाते हिन्दी का और बजाते अंग्रेजी का हैं। आजादी के शुरुआती दौर में शायद ही किसी ने इस बात की कल्पना की होगी कि किस तरह अंग्रेेजी भाषा और संस्कृति कैसे देश के समाज को खत्म कर रही है पर यह सामने आने लगा है। अब तो ऐसा लगता है कि शुद्ध हिन्दी बोली बोलने या लिखने वालों की संख्या भी बहुत कम रह गयी है। अखबार और पत्रिकओं में देवनागरी भाषा में अंग्रेजी शब्द लिखे मिलते हैं तो ऐसे लोग भी है जो कहते हैं कि रोमनलिपि में हिंदी को लिखा जाना चाहिए।
अमेरिकी अमीर का भारतीय अमीरों को दानवीर होने का संदेश देना इस बात का प्रमाण है कि उसे भारतीय अमीरों के स्वार्थी होने का आभास है। वह मानता है कि यहां के अमीर केवल जनता का शोषण करना ही व्यापार समझते हैं। दरअसल हमारे अध्यात्मिक दर्शन में धनियों को समाज का जिम्मा लेने के लिये कहा जाता है। उनको गरीबों पर दया तथा जरूरतमंदों पर दान करने के लिये कहा जाता है। श्रीमद्भागवत गीता में निष्प्रयोजन दया करने की बात कही है। अन्य धर्मग्रंथों में यह यह दान भी सुपात्र को देने के लिये कहा गया है। अगर हम देखें तो हमारे यहां दान पुण्य के कार्यक्रंम भी बहुत होते हैं। इसके बावजूद देश की गरीबी मिटती नहीं, शोषण है कि बढ़ता ही जा रहा है और टूट रही सामाजिक व्यवस्था विकास के छद्म चेहरे लगाकर सुंदर दिखने की कोशिश कर रही है।
भारत से बाहर भी अनेक संत लोग धर्म प्रचार के लिये जाते हैं कई लोगों ने तो अपने आश्रम भी अमेरिका और ब्रिटेन में बना लिये ताकि देश के लोग उनके विदेशी प्रभाव के कारण सम्मािनत करते रहे पर लगता नहीं कि वह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का परचम अमेरिका में फहरा पाये। अगर ऐसा करते तो एक अमेरिकन आकर ऐसी बात नहीं कहता। भारत में राष्ट्रीय स्तर के अमीरों की स्थिति यह है कि वह फिल्म, क्रिकेट और धर्म प्रचार के प्रसंगों में समाज सेवा के लिये रूप में अपना छवि बनाने के लिये टीवी के पर्दे पर अपना चेहरा दिखाते रहते हैं। उनको समाचार पत्रों में अपने प्रभाव की चर्चा बहुत अच्छी लगती है। प्रादेशिक और स्थानीय स्तर के अमीर कुछ स्वास्थ्य शिविर तथा तो कुछ भगवतकथा कराकर अपनी छवि लगाते हैं। वह स्वयं खर्च करते हैं कि चंदे की जुगाड़ करते हैं यह पता नहीं पर इतना तय है कि उनके प्रयोजन निरुद्देश्य नहीं होते। मतलब धर्म का काम होता है वह भी दिखाने के लिये।
समाज की स्थिति यह है कि यहां भगवान श्रीराम और कृष्ण को मानने वाले बहुत हैं पर उनके ज्ञान की समझ कितनों में है यह अलग से विचार का विषय है। इतना तय है कि अगर किसी भक्त की तपस्या से प्रभावित होकर भगवान राम या श्रीकृष्ण यहां साक्षात प्रकट भी हों तो वह उनसे कहेगा कि ‘भगवान, यहां तपस्या जरूर कर रहा हूं पर मेरा दिल अमेरिका में बसता है। अगर आप सच्चे हैं तो मुझे पहले अमेरिका पठाईये फिर आकर वहां दर्शन दीजिये तब तो आपका मानूंगा।’
कभी कभी तो लगता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने अगर अमेरिका में लीला की होती तो शायद उनको मानने वाले भारत में ज्यादा ही होते। कम से कम ऐसा न होता तो महाभारत का युद्ध ही अमेरिका में हुआ होता तो श्रीमद्भागवत गीता का तत्व ज्ञान वहीं प्रस्तुत किया जाता। यकीन मानिए तब उसकी चर्चा भारत में घर घर में होती। यह मजाक की बातें हैं पर सच यही है कि भारतीय समाज श्रीमद्भागवत् गीता से भागता है और इस पर उसे शर्मं भी नहीं आती। कम से कम धनपतियों में तो आत्म सम्मान जैसी कोई चीज नहीं है। उनमें यह भाव संभव नहीं है आत्मविश्वास केवल अपना दायित्व निर्वाह करने वालों में ही आता है और भारतीय धनपतियों ने समाज के प्रति अपने दायित्व से मुंह मोड़ लिया है और यही वजह है कि एक अमेरिकन अमीर उनको दानवीर होने का उपदेश दे रहा है। हमें उस अमेरिकन अमीर की सद्भावना देखकर प्रसन्नता होती है पर शर्म नहीं आती क्योकि हम अमीर नहीं है और जो यहां अमीर है उनके दिल में तो अमेरिका बसता है। संभव उस अमेरिका देवता का संदेश यहां के अमीर सुन लें और दया और दान का मार्ग चुने। हालांकि यह दूर की कौड़ी वाली बात लगती है।
------------------कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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