जबलपुर के मेडिकल कॉलिज में छात्राओं के देह शोषण का प्रकरण सामने आना मध्यप्रदेश ही वरन् पूरे भारत देश के लिये शर्म की बात है। अगर हम समाचारों का अब तक का प्रवाह देखें तो लगता है कि ऐसा प्रकरण बहुत समय से चल रहा था। यह तो गनीमत है कि एक छात्रा ने अपनी वरिष्ठ छात्रा की पास होने के लिये अपनी देह कामपिपासुओं के आगे समर्पण करने की सलाह को अनदेखा कर सभी के सामने मामला उजागर कर दिया। इसका मतलब यह है कि ऐसी कई लाचार छात्रायें शायद समझौते के दौर से गुजर चुकी हैं। समाचारों की विवेचना करें तो ऐसी लड़कियों को ही इसका शिकार बनाया जाता था जिनके बारे में यह माना जाता था कि वह दृढ़ता नहीं दिखा पायेंगी या शक्तिशाली परिवार की रहती होंगी।
देश के नारीवादियों का यह रोना रहता है कि देश की महिलायें अपने ऊपर होने वाले घरेलू अत्याचारों से लड़ने के लिये आगे नहीं आती। वह पुरुष का अत्याचार धर्म, जाति और सामाजिक संस्कारों के नाम पर झेलती हैं। वह यह भी कहते हैं कि अपनी आर्थिक तथा सामाजिक सुरक्षा के लिये देश की नारियां व्यर्थ ही अपने घर के पुरुषों पर निर्भर रहती हैं। हम इस प्रकारण में देखें तो पायेंगे कि बाहर भी ऐसे भेड़िये कम नहंी हैं जो लड़कियों को आकर्षक भविष्य बनाने का आश्वासन देकर उनका दैहिक शोषण करना चाहते हैं। अधिकतर नारीवादी विचारक प्रगतिशील और जनवाद से जुड़े हैं। उनको भारतीय समाज के पारिवारिक तथा सामाजिक संस्कारों से आपत्ति हैं। दोनों का सारा जोर इस बात पर रहता है कि नारी के लिये सारे काम राज्य करे और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था किसी तरह ध्वस्त हो। जब कहीं कथित धार्मिक संस्थानों में सैक्स स्कैंडल या देह शोषण की बात आती है तो यही विचारक भारतीय समाज व्यवस्था के दोषों का बखान करते नहीं चूकते। जब शैक्षणिक, व्यापारिक, साहित्यक, कला तथा कथित समाज सेवी संस्थाओं में ऐसे प्रकरण उठते हैं तो उनकी जुबान तालू से चिपक जाती है। उनसे यह कहते नहीं बनता कि पश्चिमी विचाराधाराओं से ओतप्रोत लोग भी नारी की देह का शोषण करने से बाज नहंी आते।
इसमें कोई शक नहीं है कि हमारे देश में स्त्रियों की स्थिति बहुत खराब थी। कहने को भले ही कुछ लोग कहते हैं कि आज़ादी के बाद देश में स्थिति अच्छी हुई है पर ऐसा लगता नहीं है। उल्टे पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करते हुए जो नारियां आगे हो गयी हैं उनका घर के बाहर अधिक शोषण हो रहा है। कभी कभी तो लगता है कि पश्चिम आधारित व्यवस्था के समर्थक चाहते रहे हैं कि उनके शैक्षणिक, साहित्य, कला, तथा समाज सेवा के संस्थानों का आकर्षण बना रहे जिससे घर के बाहर आने वाली युवा नारियों का शोषण वह स्वयं या उनके शिष्य कर सकें। कम से कम इससे नारियों के घरेलू शोषण के आरोप से तो समाज मुक्त हो जायेगा और पश्चिम जैसा शोषण होने पर कोई विदेशी आपत्ति भी नहीं करेगा। भारत में विज्ञान के विकास की बात बहुत की जाती है पर उसका दुष्परिणाम लिंग परीक्षण के बाद कन्या भ्रुण हत्या के रूप में सामने आ रहा है मतलब हमारा विकास भी नारियों के लिये अकल्याणकारी प्रवृतियां समाज में लाया है।
जहां तक नारियों के शोषण की बात है तो कोई देश इससे मुक्त नहीं है। सदियों से यह चल रहा है। भारत के संदर्भ में प्रचार अधिक किया जाता है पर समस्या के मूल तत्व कोई नहीं देखता। मुख्य बात यह है कि यहां अनेक लोगों को विशिष्ट अधिकार दिये गये हैं। परीक्षा पास करना एक ऐसी शर्त है जिसमें परीक्षक भगवान बन जाता है। कहीं नौकरी देने वाला प्रबंधक महान बन जाता है। कहीं प्रोफेसर साहित्य सेवा के नाम पर छात्राओं को बरगलाता है। कहने का अभिप्राय यह है कि स्त्री के दैहिक शोषण के स्वरूप का विस्तार हुआ है, कम नहीं हुई। इसका कारण यह है कि मनुष्य की सोच समय के साथ नहीं बदली पाश्चात्य सभ्यता और विचार तो वैसे ही काम, क्रोध, लोभ, लालच और अहंकार को बढ़ाती है, कम कदापि नहीं करती। उल्टे कभी कभी तो लगता है कि विवाहेत्तर संबंध और विवाह पूर्व संबंधों को सहज मान लेने का संदेश भी उनमें शामिल है। मनुष्य के अंदर काम का विकार तो वैसे ही अधिक रहता है और खुलेपन और विकास की बात करते हुए वह अधिक बढ़ जाता है क्योंकि पश्चिमी व्यवस्था ऐसे अवसर अधिक प्रदान करती है। मनुष्य मन के अंदर काम के विकार का इलाज देशी व्यवस्था और दर्शन नहीं कर सका जिसके पास नियंत्रण की बहुत बड़ी शक्ति है तो पश्चिमी व्यवस्था और दर्शन से आशा कैसे की जाये-खासतौर से तब जब भारतीय अध्यात्मिक शक्ति को एकदम भुला दिया गया है। यह अलग बात है कि इसी भारतीय अध्यात्मिक शक्ति की वजह से ही कुछ नारियां हैं जो खुलेआम मोर्चा खोल देती हैं जैसे कि जबलपुर की उस छात्रा ने प्रकरण को उजागर करके किया। उसकी प्रशंसा की जानी चाहिये।
आखिरी बात यह है कि देश की शिक्षा व्यवस्था को परीक्षाओं से अलग व्यवहारिक अनुभव से जोड़ा जाना चाहिए। कक्षाओं को शिक्षा नहीं प्रशिक्षण के लिये चलायें। प्रमाणपत्रों देने की बजाय अनुभव को आधार बनाकर उनको नौकरी दी जानी चाहिए। सही काम न करने पर बाहर का रास्ता दिखायें। आखिर कोई इंजीनियरिंग, विज्ञान या अन्य तकनीकी किताबें पढ़ रहा है तो उसकी परीक्षा की क्या जरूरत? खुले में अनुभव की जांच करके छात्र को आगे जाने का अवसर दिया जा सकता है। नौकरी के लिये भी विभिन्न विभागों में पाठ्यक्रम के अनुसार ही नियुक्तियां होना चाहिए। यह क्या कि विज्ञान के छात्र से लेखा का काम ले रहे हैं। हां, परीक्षा को लेकर गुरु द्रोणाचार्य ने जो कौरवों और पांडवों की परीक्षा ली थी उसका हवाला न ही दें तो अच्छा! वह खुले में ली गयी थी न कि उसकी कापियां किसी परीक्षक के पास भेजी गयी थी। अगर छात्रों के लिये यह व्यवस्था लागू न करें तो कम से कम छात्राओं के लिये इस व्यवस्था को अपनायें।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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