कुछ लोगों का आदत होती है कि वह हमेशा ही कुछ बोलना चाहते हैं। हम आपसी वार्तालाप में यह देखते हैं कि अनेक लोग एक तो फालतु बातें करते हैं या फिर असमय ऐसा विषय उठाते हैं जिस पर चर्चा करना व्यर्थ लगता है। आज के आधुनिक युग में अभिव्यक्ति के साधनों का दायरा बढ़ा है तो यह भी देखने में आ रहा है कि कोई भी किसी भी विषय पर कुछ भी बोल सकता है। कभी कभी तो कुछ लोगों के बोलने पर हंसी आ जाती है। हमेशा विज्ञान पढ़ने वाले अर्थशास्त्र पर बोलते हैं तो गणित पढ़ने वाले अध्यात्मिक विषय पर अपना ज्ञान बघारते हैं।
अगर किसी ने साधु का वेश घारण किया या समाजसेवक का चोला पहन लिया तो समझ लीजिये वह अपने आपको हर विषय में पारंगत मान लेता है। आम आदमी की बात छोड़िये समाचार पत्र पत्रिकाओं तथा टीवी चैनलों में काम करने वाले बुद्धिमान तक उनके दावे को स्वीकार कर उनकी बातों को महत्व देते हैं। यह अलग बात है कि यह बातें विवादास्पर होती हैं जिन पर चर्चा करने से विज्ञापन का समय आसानी से पास होता है।
आजकल वेश और पद एक तरह से महाविद्वान होने का प्रमाण पत्र बन गये हैं। सबसे ज्यादा हंसी अध्यात्मिक तथा सामाजिक विषयों पर बोलने वालों पर आती है। कई लोग तो ऐसे हैं कि जिन्होंने अध्यात्म का ज्ञान रटने के बाद उसे सुनाने के लिये मैदान में उतर पढ़ते हैं। कुछ तो शिष्यों का संग्रह कर समाज को सुधारने के लिये अभियान भी छेड़ देते हैं। उनका सारा प्रयास नारों के सहारे होता है। यही कारण है कि हमारे देश में कोई धार्मिक या सामाजिक अभियान कभी निर्णायक नहीं बन सका।
महाराज विदुर का कहना है कि
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अप्राप्तकालं वचं बृहस्पतिरपि ब्रुवन।
लभते बृदध्यवज्ञानामानं च भारत।।
हिन्दी में भावार्थ-असमय अगर स्वयं बृहस्पति भी बोलें तो उन्हें अपमान झेलना पड़ेगा और उनको अपनी बुद्धि का तिरस्कार होगा।
द्वेष्यो न साधुर्भवति न मेधावी न पण्डितः।
प्रिये शुभानि कार्याणि द्वेषये पापानि चैव ह।
हिन्दी में भावार्थ-जिससे मन में द्वेष हो जाता है वह साधु,
विद्वान और बुद्धिमान हो तो भी भारी दोषों से युक्त प्रतीत होता है। जो
प्रिय है उसमें ढेर सारे दोष होने पर भी नहीं दिखते पर जिसके शत्रु भाव है
उसके सारे काम पापमय दिखते हैं।
अनेक लोग शोक के अवसर पर हास्य का भाव पैदा करते हैं तो हास्य के भाव पर रुदन करते हैं। एक दूसरी भी प्रवृत्ति देखी जाती है कि अधिकतर लोग अपने भावनात्मक दुराग्रहों के साथ जीते हैं। जिससे स्वार्थ पूरा होता है वह चाहे दुष्ट भाव वाला क्यों न हो, उनके लिये देव है पर जिससे कोई स्वार्थ नहीं है वह उनके लिये महत्वहीन है। अगर कोई विद्वान भी किसी व्यक्ति के अहंकार पर बौद्धिक प्रहार करता या मानसिक आघात पहुंचाता है तो एक तरह वह शत्रु ही मान लिया जाता है। असली दवा कड़वी होती उसी तरह अहंकार से भरे मनुष्यों के लिये सत्य सुनना कठिन है। ऐसे में जिन लोगों ने अपने विद्वान होने का प्रमाण पत्र जोड़ लिया है उनसे सत्य पर बहस करना व्यर्थ है।
बहरहाल जिन लोगों को अपना जीवन संवारना है उन्हें अपने विवेक से काम लेना चाहिये। अपने अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन कर ज्ञान और विज्ञान का मस्तिष्क में संग्रह कर अपने जीवन में उस पर अमल करना सहज जीवन जीने का एक सहज उपाय है। टीवी चैनलों और समाचार पत्र पत्रिकाओं में अनेक ऐसे विद्वान भी प्रकट होते हैं जो ज्ञानी हैं पर यकीनन वह अधिक प्रचार नहीं पाते। वह निर्विवाद तक देते हैं जबकि आज के प्रचार माध्यम विवादास्पद विद्वानों को तरजीह देते हैं ताकि उनके निरर्थक बहसों के चलते उनके साथ बने रहें।
कहने का अभिप्राय यह है कि हमें स्वयं पर नियंत्रण करना चाहिये। उचित समय पर बोले और जिस विषय पर आधिकारिक ज्ञान हो उसी पर बोले। ऐसा न करने पर तिरस्कार और अपमान झेलना पड़ता है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
poet and writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com