एक संत ने एक सपना देखा कि एक पुराने महल में पंद्रह फुट नीचे एक हजार टन सोना-जो एक एक स्वर्गीय राजा का है
जिसे अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था-दबा हुआ है। उसने अपनी बात जैसे तैसे भारतीय पुरातत्व विभाग
तक पहुंचायी। पुरातत्व विभाग ने अपनी
सांस्कृतिक खोज के तहत एक अभियान प्रारंभ किया।
पुरातत्वविद् मानते हैं कि उन्हें सोना नहीं मिलेगा। मिलेगा तो इतने बड़े
पैमाने पर नहीं होगा। अलबत्ता कोई प्राचीन
खोज करने का लक्ष्य पूरा हो सकता है, यही सोचकर पुरातत्व विभाग का एक दल वहां खुदाई कर रहा है।
यही एक सामान्य कहानी अपने समझ में आयी पर सोना शब्द ही ऐसा है कि अच्छे
खासे आदमी को बावला कर दे। सोने का खजाना ढूंढा जा रहा है, इस खबर ने प्रचार माध्यमों को अपने विज्ञापन प्रसारण
के बीच सनसनीखेज सामग्री प्रसारण का वह
अवसर प्रदान किया है जिसकी तलाश उनको रहती है। भारत में लोगों वेसे काम अधिक होने का बहाना
करते हैं पर ऐसा कोई आदमी नहीं है जो टीवी पर खबरें देखने में वक्त खराब करते
हुए इस खबर में दिलचस्पी न ले रहा हो।
व्यवसायिक निजी चैनलों ने भारतीय जनमानस में इस कदर अपनी पैठ बना ली है कि इसके
माध्यम से कोई भी विषय सहजता से भारत के आम आदमी के लिये ज्ञेय बनाया जा सकता
है। इस पर खजाना वह भी सोने का, अनेक लोगों ने दांतों तले उंगली दबा रखी है।
टीवी चैनलों ने लंबी चौड़ी बहसें चला रखी हैं।
सबसे बड़ी बात यह कि संत ने सपना देखा है तो तय बात है कि बात धर्म से जुड़नी
है और कुछ लोगों की आस्थायें इससे विचलित भी होनी है। सोना निकला तो संत की वाह वाह नहीं हुई तो,
यह बात अनेक धर्मभीरुओं को डरा रही है
कि इससे धर्म बदनाम होगा।
कहा जाता है कि संत त्यागी हैं। यकीनन होंगे। मुश्किल यह है कि वह स्वयं
कोई वार्तालाप नहीं करते और उनका शिष्य ही सभी के सामने दावे प्रस्तुत करने के साथ
ही विरोध का प्रतिकार भी कर रहा है। इस पर एक टीवी पर चल रही बहस में एक
अध्यात्मिक रुचि वाली संतवेशधारी महिला अत्यंत चिंतित दिखाई दीं। उन्हें लग रहा था
कि यह एक अध्यात्मिक विषय नहीं है और इससे देश के भक्तों पर धर्म को लेकर ढेर सारा
भ्रम पैदा होगा।
एक योग तथा ज्ञान साधक के रूप में कम से कम हमें तो इससे कोई खतरा नहीं
लगता। सच बात तो यह है कि अगर आप किसी को
निष्काम कर्म का उपदेश दें तो वह नहीं समझेगा पर आप अगर किसी को बिना या कम
परिश्रम से अधिक धन पाने का मार्ग बताओ तो वह गौर से सुनेगा। हमारे देश में अनेक लोग ऐसे हैं जिनके मन में
यह विचार बचपन में पैदा होता है कि धर्म के सहारे समाज में सम्मान पाया जाये। वह कुछ समय तक भारतीय ज्ञान ग्रंथों का पठन
पाठन कर अपनी यात्रा पर निकल पड़ते हैं। थोड़े समय में उनको पता लग जाता है कि इससे
बात बनेगी नहीं तब वह सांसरिक विषयों में भक्तों का मार्ग दर्शन करने लगते है। कुछ
चमत्कार वगैरह कर शिष्यों को संग्रह करना शुरु करते हैं तो फिर उनका यह क्रम थमता
नहीं। अध्यात्मिक ज्ञान तो उनके लिये भूली
भटकी बात हो जाती है। लोग भी उसी संत के
गुण गाते हैं जो सांसरिक विषयों में संकट पर उनकी सहायता करते हैं। यहां हम एक अध्यात्मिक चिंतक के रूप में बता
दें कि ऐसे संतों के प्रति हमारे मन में कोई दुर्भाव नहीं है। आखिर इस विश्व में
आर्त और अर्थाथी भाव के भक्तों को संभालने वाला भी तो कोई चाहिये न! जिज्ञासुओं को
कोई एक गुरु समझा नहीं सकता और ज्ञानियों के लिये श्रीमद्भागवत गीता से बड़ा कोई
गुरु होता नहीं। आर्ती और अर्थार्थी भक्तों की संख्या इस संसार में सर्वाधिक होती
है। केवल भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में धर्म के ठेकेदारों का यही लक्ष्य होते
है। केवल भारतीय धर्म हीं नहीं बल्कि विदेशों में पनपे धर्म भी इन ठेकेदारों के
चमत्कारों से समर्थन पाते हैं। जब अंधविश्वास की बात करें तो भारत ही नहीं पूरे
विश्व में ऐसी स्थिति है। जिन्हें यकीन न
हो वह हॉलीवुड की फिल्में देख लें। जिन्होंने भूतों और अंतरिक्ष प्राणियों पर ढेर
सारी फिल्में बनायी हैं। दुनियां के बर्बाद होने के अनेक संकट उसमें दिखाये जाते
हैं जिनसे नायक बचा लेता है। ऐसे संकट कभी प्रत्यक्ष में कभी आते दिखते नहीं।
हम संतों पर कोई आक्षेप नहीं करते पर सच बात यह है कि जब वह सांसरिक विषय
में लिप्त होते हैं तो उनका कुछ पाने का स्वार्थ न भी हो पर मुफ्त के प्रचार का
शिकार होने का आरोप तो उन पर लगता ही है। दूसरी बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान
साधक स्पष्टतः उनकी छवि को संदेह की नजरों से देखने लगते है। विदेशी लोग भारत के बारे में कह करते थे कि यहां हर डाल पर सोने की चिड़िया रहती
है। जब हम मार्ग में गेेंहूं के खेत
लहलहाते देखते हैं तो लगता है कि यहां खड़ी फसलें देखकर ही उन्होंने ऐसा कहा होगा। हो सकता है यह हमारा पूर्वाग्रह हो क्योंकि
हमें गेंहूं की रोटी ही ज्यादा पसंद है।
उससे भूख शांत होती है। दूसरी बात यह भी है कि सेोने से कोई अधिक लगाव नहीं
रहा। गेंहूं की रोटी लंबे समय तक पेट में
रहती है और दिल में संतोष होता है। संतोषी आदमी को सोना नहीं सुहाता। मुश्किल यह है कि सोना प्रत्यक्ष पेट नहीं भर
पाता।
कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने। भारत में सोने की कोई खदान हो इसकी
जानकारी हमें नहीं है। सोना दक्षिण
अफ्रीका में पैदा होता है। तय बात है कि
सदियों से यह विदेश से आयातित होता रहा है।
सोना यहां से दूर रहा है इसलिये भारत के लोग उसके दीवाने रहे हैं। जिस गेंहूं से पेट भरता है वह उनके लिये तुच्छ
है। एक हजार टन सोना कभी किसी राजा के पास
रहा हो इस पर यकीन करना भी कठिन है। हीरे जवाहरात की बात समझ में आती है क्योंकि
उनके उद्गम स्थल भारत में हैं। अनेक
प्राचीन ग्रंथों में स्वर्णमय हीरे जवाहरात जड़े मुकुटों तथा सिंहासन की बात आती है पर उनके सोने की परत चढ़ी रही
होती होगी या रंग ऐसा रहा होगा कि सोना लगे।
असली सोना यहां कभी इतना किसी व्यक्ति विशेष के पास रहा होगा यह यकीन करना
कठिन है।
भारत में लोगों के अंदर संग्रह की प्रवृत्ति जबरदस्त है। कुछ समझदार लोग कहते हैं कि अगर सोने का आभूषण
तीन बार बनवाने के लिये किसी एक आदमी के पास ले जायें तो समझ लो पूरा सोना ही उसका
हो गयां। इसके बावजूद लोग हैं कि मानते
नहीं। अनेक ढोंगी तांत्रिक तो केवल गढ़ा खजाना बताने के नाम पर धंधा कर रहे हैं।
इतना ही नहीं अनेक ठग भी सोना दुगंना करने के नाम पर पूरे गहने ही महिलाओं के हाथ
से छुड़ा लेते है। बहरहाल खुदाई पूरी होने
पर सोना मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य ही बतायेगा पर टीवी चैनलों में विज्ञापन का
समय समाचार तथा बहस के बीच खूब पास हो रहा है।
आखिर में हमारा हलकट सवाल-अरे, कोई हमें बतायेगा कि श्रीमद्भागवत गीता के बहुमूल्य ज्ञान के खजाने से
अधिक बड़ा खजाना कहां मिलेगा।
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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