Oct 4, 2013

द्रव्यमय यज्ञ से ज्ञानमय यज्ञ श्रेष्ठ-हिन्दी चिंत्तन लेख(dravyamay se gyanmay yagya shreshth)



                        भक्ति भाव  के चार प्रकार हैं-आर्ती, अर्थार्थी, जिज्ञासा और ज्ञान। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान भक्ति को सर्वोत्तम माना गया है-इसका यह आशय कतई नहीं है कि बाकी तीन प्रकार की भक्ति को प्रतिबंधित किया गया है। इतना तय है कि कर्म के सिद्धांतों के अनुसार उसके परिणाम भी होते हैं। हम अध्यात्मिक रूप से शक्तिशाली हों तो सांसरिक विषयों पर अपने अनुरूप नियंत्रण कर सकते हैं।
                        हमारे देश में श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन सामान्य लोग कम ही करते हैं और इसी कारण कथित संत ही उनके मार्गदर्शक होते हैं। यह संत  पेशेवर होते हैं और उनका लक्ष्य भक्तों के मन में स्थित आर्त और अर्थ भाव को लक्ष्य करना होता है ताकि वह शिष्य संग्रह कर सकें।  जब आदमी परेशान होता  है तब वह भगवान की तरफ देखता है। तब अनेक कथित विद्वान उसे कर्मकांडों के नाम पर व्यय करने के लिये प्रेरित करते हैं।  तय बात है कि जब हताशा, तनाव और निराशा से आदमी भर जाता है तब वह उससे बचने के लिये यह आत्मसंतोष तो करना चाहता ही है कि वह भगवान की भी आराधना कर रहा है और जिनको वह धर्म का ज्ञाता समझता है उनकी बात मानने लगता है। तब कोई विद्वान अपनी तरफ से किसी कर्मकांड का सुझाव देता है तब आदमी उनसे कहता है किहम दूसरी जगह कहां जायें, आप ही करवा दें  उसके बाद उसकी आर्त भाव की भक्ति का दोहन प्रारंभ हो जाता है।  उसी तरह कुछ लोग जीवन में धन, संपत्ति और अन्य उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिये अतिरिक्त प्रयास करना चाहते हैं। उनको भी भगवान से मदद की चाहत होती है और वह इन कर्मकांडी विद्वानों की तरफ बढ़ जाता है।  वह उसे कर्मकांड करने पर अधिक लाभ दिलाने का वादा करते हैं। यह अर्थार्थी भाव की भक्ति है और इसका दोहन सहजता से किया जाता है।
                        हमारे देश में धर्म प्राचीन काल से ही एक तरह  का पेशा बन गया है। जिज्ञासु व्यक्ति भी भक्ति करता है पर हमारे देश के पेशेवर ज्ञानियों का इतना ज्ञानाभ्यास नहीं होता कि वह उसे संतुष्ट कर सकें इसलिये उसे वह आर्त या अर्थार्थी भाव से भक्ति करने के लिये प्रेरित करते है। जहां तक सच्चे ज्ञानी का प्रश्न है उसे यह पेशेवर कभी नहीं सुहाते।  यह अलग बात है कि इन पेशेवर धार्मिक ठेकेदारों ने समाज को इस तरह जकड़ रखा है कि लोग कर्मकांड न करने वाले ज्ञानी को ही नास्तिक मानते हैं।  अगर ज्ञानी कुछ लचीला हुआ तो वह दिखावे के लिये इन कर्मकांडों में शािमल हो जाता है और सख्त हुआ तो समाज उसे एक तरह से असामाजिक तत्व मानने लगता है।
                        संत कबीरदास जी ने कहा है कि दुःख में सुमिरन सब करै, सुख में करे न काये, जो सुख में ही सुमिरन करे तो दुःख काहे होय  यह भक्ति के ज्ञान रूप की सर्वोत्तम स्थिति है।  आज जब विश्व की आर्थिक दशा बदली है तो सामाजिक समभाव भी अत्यंत कमजोर हुआ है। लोग टूटे मन लिये फिर रहे हैं। रिश्ते नातों में अर्थ की प्रधानता हो गयी है।  वैसे ही हमारे यहां धर्म के नाम पर इतने पाखंड है कि उनमें पैसे के साथ ही समय भी खर्च होता है।  कुछ लोगों के लिये ऐसे कर्मकांड करना दुष्कर हो गया है पर सामाजिक दबाव के चलते  करते भी हैं।  हैरानी की बात यह है कि कोई भी संत उन्हें इन कर्मकांडों से मुक्त होकर स्वच्छंद जीवन विचरने का सुझाव नहीं देता।  कथित रूप से श्रीगीता का ज्ञान रखने का दावा करने वाले लो भी यह नहीं कहते कि द्रव्यमय इन कर्मकांडों से कोई लाभ नहीं है। विवाह, मृत्यु तथा श्राद्ध जैसे अवसरों पर पैसा खर्च करते हैं। जो लोग  श्राद्ध जैसे  कर्मकांडों को संपन्न कराते हैं उनके पास पितृपक्ष  के समय इतना भोजन आता है कि वह क्या उनके परिवार के लोग भी नहीं खा पाते।  इनका खाया किस तरह पितरों को पहुचंता है यह कोई नहीं बता सकता। इस देश के किसी भी पेशेवर संत में इतनी  हिम्मत नहीं है कि वह इन कर्मकांडों से दूर रहकर लोगों को ज्ञानमय यज्ञ में संलग्न रहने के लिये प्रेरित करे।
                        हिन्दू धर्म के नाम पर एकता दिखाने के लिये यह संत एक हो जाते हैं पर जो कर्मकंाड समाज को खोखला कर चुके हैं उन पर इनका ध्यान नहीं जाता या वह देना नहीं चाहते। एक बात बता दें कि ज्ञान यज्ञ भी एकांत में होता है।  हमने देखा है कि अनेक लोग सामूहिक रूप से ज्ञान यज्ञ आयोजित करते हैं जो कि श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार कतई नहीं कहा जा सकता। शुद्ध तथा समतल स्थान पर आसन बिछाकर प्राणायाम, ओम का जाप तथा  गायत्री मंत्र का जाप करने के बाद ध्यान लगाना ज्ञान यज्ञ का ऐसा प्रकार है जिसे करने पर मन और विचार में शुद्धि होती है। आदमी ज्ञान की बात सुनकर अपने अंदर उसे धारण करते हुए उसे जीवन में उतारता है। जिन लोगों को परिश्रम करने का अवसर कम मिलता है वह चालीस मिनट तक आसन या  प्रातः चालीस मिनट तक ही  घूमने के बाद इस यज्ञ को  कर सकते हैं।  मुख्य बात यह है कि पूर्ण स्वस्थ रहकर ही धर्म का निर्वाह हो सकता है। क्लेश, तनाव या निराशा से मुक्ति पाने के लिये द्रव्य यज्ञ करने से कोई लाभ नहीं होता वरन् तनाव बढ़ता है। सांसरिक विषय समय अनुसार स्वतः संचालित हैं उन्हें इंसान नियंत्रित करते दिखता है पर यह एक भ्रम हैं।  यह ज्ञान तभी हो सकता है जब हम ज्ञानमय यज्ञ करेंगे।

 कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'

ग्वालियर, मध्य प्रदेश

कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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