प्रकृत्ति ने मनुष्य को
बुद्धि का इतना बड़ा खजाना दिया है कि उससे वह अन्य जीवों पर शासन करता है। हालांकि
अज्ञानी मनुष्य इसका उपयोग ढंग से नहीं करते या फिर दुरुपयोग करते हैं। मनुष्य अपनी इंद्रियों में से वाणी का सबसे अधिक
दुरुपयोग करता है। मनुष्य के मन और बुद्धि में विचारों का जो क्रम चलता है उसे वह
वाणी के माध्यम से बाहर व्यक्त करने के लिये आतुर रहता है। आजकल जब समाज में
रिश्तों के बीच दूरी बनने से लोगों के लिये समाज में आत्मीयता भाव सीमित मात्रा
में उपलब्ध है तथा आधुनिक सभ्यता ने
परिवार सीमित तथा सक्रियता संक्षिप्त कर दी है तब मनुष्य के लिये अभिव्यक्ति की
कमी एक मानसिक तनाव का बहुत बड़ा कारण बन जाती है।
परिवहन के साधन तीव्र हो गये हैं पर मन के विचारों की गति मंद हो गयी
है। लोग केवल भौतिक साधनों के बारे में
सोचते और बोलते हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान के प्रति उनकी रुचि अधिक नहीं है इससे
उनमें मानसिक अस्थिरता का भाव निर्मित होता है।
समाज में संवेदनहीनता बढ़ी है
जिससे लोग एक दूसरे की बात समझत नहीं जिससे आपसी विवाद बढते हैं। विषाक्त सामाजिक
वातावरण ने लोगों को एकाकी जीवन जीने के लिये बाध्य कर दिया है। यही कारण है कि अनेक लोग अपने लिये अभिव्यक्त
होने का अवसर ढूंढते हैं जब वह मिलता है तो बिना संदर्भ के ही बोलने भी लगते
हैं। मन के लिये अभिव्यक्त होने का सबसे
सहज साधन वाणी ही है पर अधिक बोलना भी अंततः उसी के लिये तकलीफदेह हो जाता है।
वाणी की वाचलता मनुष्य की छवि खराब ही करती है। कहा भी जाता है कि यही जीभ छाया
दिलाती है तो धूप में खड़े होने को भी बाध्य करती है।
भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिमिंतम्
छादनमज्ञतायाः।
विशेषतः सर्वविदा समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम्।।
सामान्य
हिन्दी में भावार्थ-परमात्मा
ने मनुष्य को मौन रहने का गुण भी प्रदान किया है इसके वह चाहे तो अनेक लाभ उठा
सकता है। जहां ज्ञानियों के बीच वार्तालाप हो रहा है तो वहां अपने अज्ञानी मौन
रहकर स्वय को विद्वान प्रमाणित कर सकता है।
हम जब बोलते हैं तो यह पता
नहीं लगता कि हमारी वाणी से निकले शब्द मूल्यवान है या अर्थहीन। इसका आभास तभी हो
सकता है जब हम मौन होकर दूसरों की बातों को सुने। लोग कितना अर्थहीन और कितना
लाभप्रद बोलते हैं इसकी अनुभूति होने के बाद आत्ममंथन करने पर ही हमारी वाणी में निखार आ सकता है। दूसरी बात
यह भी है कि हमारा ज्ञान कितना है इसका पता भी लग सकता है जब हम किसी दूसरे आदमी
की बात मौन होकर सुने। इसके विपरीत लोग
किसी विषय का थोड़ा ज्ञान होने पर भी ज्यादा बोलने लगते हैं। आज के प्रचार युग में
यह देखा जा सकता है कि साहित्य, कला,
धर्म और संस्कृति के विषय पर ऐसे पेशेवर
विद्वान जहां तहां दिखाई देते हैं जिनको अपने विषय का ज्ञान अधिक नहीं होता पर
प्रबंध कौशल तथा व्यक्तिगत प्रभाव के कारण उनको अभिव्यक्त होने का अवसर मिल जाता
है।
कहने का अभिप्राय है कि
आत्मप्रवंचना कर हास्य का पात्र बनने की बजाय मौन रहकर ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।
जहां चार लोग बैठे हों वह अगर उनके वार्तालाप का विषय अपनी समझ से बाहर हो तो मौन
ही रहना श्रेयस्कर है। आजकल वैसे भी लोगों की सहनशक्ति कम है और स्वयं को विद्वान
प्रमाणित करने के लिये आपस में लड़ भी पडते हैं। विवादों से बचने में मौन अत्यंत
सहायक होता है।
कवि एवं लेखक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप'
ग्वालियर, मध्य प्रदेश
कवि, लेखक और संपादक-दीपक "भारतदीप",ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak "BharatDeep",Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com