आत्महत्या के कारण प्रतिकूल वातावरण से घबड़ाये भक्तगणों को अब ट्रम्प की तरह अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिये जो राष्ट्रपति चुनाव के पूर्व सर्वेक्षणों आगे चल रहे हैं। भक्तगण सीमित दायरे में रहते हैं इसलिये देश के हालतों में जब प्रचार प्रतिकूल होता है तो गुस्सा और दुःखी होते हैं पर उन्हें पता नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस समय वातावरण ऐसा ही है। ट्रम्प अगर जीतते हैं तो सबसे ज्यादा परेशानी सऊदी अरब को आनी है जो पाकिस्तान के लिये संकट की बात होगी। उधर पाकिस्तान का दूसरा सहयोगी तुर्की भी रूस से पंगा ले चुका है। यह पहला अवसर है कि रूस खुलकर अमेरिकी चुनाव में दखल देते हुए ट्रम्प को राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहता है क्योंकि वह अरेबिक विचारधारा के खुले विरोधी हैं-प्रसंगवश उन्हें हिन्दूजीवन शैली में सकारात्मक दिलचस्पी है-और ऐसे में सऊदीअरब तथा तुर्की अमेरिका के बिना ज्यादा आक्रामक नहीं रह पायेंगे। इधर इन दोनों का पसंदीदा आतंकवादी संगठन आईएस भी तबाही की तरफ बढ़ रहा है पर उसके बाद अपने पापों के जो नतीजे इन दोनों देशों को भोगने ही होंगे तब इनका कथित आतंकवादी वैचारिक सम्राज्य भी टूटेगा जो हमारे देश के लिये अब एक खतरा बन चुका है।
याद रहे ट्रंप हिन्दुओं के समर्थक हैें और जिस तरह उनका समर्थन अमेरिका में हिलेरी के मुकाबले बढ़ रहा है उस पर भारत के पंथनिरपेक्ष की चिंता बढ़ना स्वाभाविक है क्योंकि मानवाधिकारों के मामले में तब उसे आदर्श नहीं मान पायेंगे।
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भारत के समाचार चैनलों लाशों पर राजनीति के समाचार और फिर उन पर बहस के बीच विज्ञापनों का धंधा देखकर बोरियत हो रही है। अब यह साफ लगने लगा है कि समाचारों के व्यापार का आरोप नेता खुले में नहीं लगाते क्योंकि कहीं न कहीं सभी प्रचार प्रबंधकों के ग्राहक हैं। यही कारण है कि प्रचार प्रबंधक इस बात की परवाह नहीं करते कि जनता किस तरह के समाचार चाहती है बल्कि वह इसका प्रयास अधिक करते हैं कि अपने ग्राहकों के समाचार जनता को देखने के लिये बाध्य करें। सभी चैनल फ्री हो गये हैं और उन्हें बेतहाशा विज्ञापन मिल रहे हैं। विज्ञापनदाता भी राज्यप्रबंधकों का प्रचार चाहते हैं ताकि यह नहीं तो वह पद पर विराजे ताकि उनका काम चलता रहे। यह एक चक्र हैें जिसमें आम आदमी की स्थिति केवल वोट देने से अधिक नहीं है।
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