जितना भीड़ में आकर खौफ खाने लगे.
घर से निकलते हुए सोचा नहीं था कि
ज़माने भर के कायरों से मुलाकात होगी,
बिके थे लोग बाज़ार के सौदागरों के हाथ
दलाली लेकर ज़हर को अमृत बताने लगे..
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शहीदों के नाम पर लगाते हैं हर बरस मेले
नाम और नामा कमाने के वास्ते.
अपने हाथ से कभी किसी की
जिन्होंने कभी नहीं संवारी ज़िन्दगी
वाही बता रहे हैं लोगों को तरक्की के रास्ते..
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कवि,लेखक-संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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1 comment:
अनूठी......शायरी...
अब पहेलियों का नंबर भी है सर जी......
........
विलुप्त होती... नानी-दादी की बुझौअल, बुझौलिया, पहेलियाँ....बूझो तो जाने....
.........
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
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