अपने जिंदा इंसाने होने का
अहसास भी अब डराने लगा है,
ज़माने की सच्ची मोहब्बत हो गयी है
लकड़ी, लोहे, और प्लास्टिक के सामनों से
इसलिये किसी की हमदर्दी भी
झूठी होने का ख्याल सताने लगा है।
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ज़माने को अब ख्यालों से
बस में नहीं किया जाता है,
चंद अफसाने सुना दो
उकता चुके दिल को बहलाने के लिये
लोगों का झुंड चला आता है।
अक्ल की बात करो या नहीं
बस, दिल्लगी करना आना चाहिए,
भूखे के रोटी का इंतज़ाम
ऊपर वाला कर लेगा,
अपनी जिंदगी की ऐश के लिये
कोई भी ख्वाब बेचकर, तरक्की पाईये,
पहुंच गये जब मंजिल पर
दुश्मन भी सलाम ठोकने चला आता है।
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कवि, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है।
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